समकालीन जनमत
कविता

सुजाता गुप्ता की कविताएँ समाज की कुरूप सच्चाइयों से उपजी अकुलाहट हैं।

सौम्या सुमन


कवि केदारनाथ सिंह ने कहा है कि कविता के पास अपना विचार होना चाहिए और जीवन जगत के बारे में उसका विचार जितना ही गहरा और पुख़्ता होगा , उसकी रचना उतनी ही मजबूत होगी इसमें मुझे कोई संशय नहीं।

इन दिनों आधुनिक हिंदी कविता में प्रकृति, प्रेम , पर्यावरण, ईश्वर , स्त्री- हिंसा, यौनिकता जैसे विषयों पर कविताओं की बहुतायत देखी जा रही है। आज के इस बदलते, हिंसक, स्वार्थपरक और तमाम आपदाओं से जूझते दौर में अगर एक अकेली आवाज़ अपने दायरे से बाहर निकल कर आवाम के दिलों में जगह बना ले , याद रखी जाए , दोहराई जाय तो यह उस आवाज़ की उपलब्धि है , मज़बूती है।

पिछले कुछ वर्षों से अपनी सशक्त कविताओं के माध्यम से चर्चा में आई सुजाता गुप्ता एक ऐसी ही कवयित्री हैं जिनकी कविताएँ ना सिर्फ स्त्रियों के त्रासद अंधेरे पक्ष की बात करती हैं बल्कि इनकी विरल संवेदना के भीतर प्रकृति , पर्यावरण और समूची पृथ्वी के प्रति एक हूक और बेचैनी भी दिखायी पड़ती है । यह किसी भी रचना का बेहद महत्वपूर्ण और मज़बूत पक्ष है कि वह किस तरह अपने विचारों के माध्यम से जनमानस को प्रभावित करता है और सही-ग़लत, सच-झूठ, समाज की विडंबनाओं को देखने, समझने की दृष्टि भी देता है ।

इस बार जो बच पाओ तो
बचा लेना हरी घास को
कि वह फ़िर
ठूंठ न बन पाए!

ये कोरोना काल के दौरान लिखी गई कविता है जिसमें एक फ़िक्र के साथ समूची मानव प्रजाति के बचे रहने के लिए एक चेतावनी भरा संदेश है । हम जानते हैं कि हमने पृथ्वी का ऐसा दोहन किया है कि अब हम विनाश के कगार पर हैं । पृथ्वी और पर्यावरण को बचाये बिना हम बच नही सकते । कवयित्री ने बार-बार यह संकेत दिया है कि सारी आपदाओं और प्रतिकूल परिस्थितियों के ज़िम्मेदार अंततः हम ही हैं । अतः समय रहते हमारा चेतना ज़रूरी है :

इस बार जो बच पाओ तो
चुका देना हर कर्ज़ धरा का
कि तुम्हें इंसान समझकर
उसने न जाने
कितनी ही नायाब नेमतें
तुमपर बिन मांगे ही
न्योछावर कर डाली थीं

ग़ौरतलब है कि सुजाता की कविताओं में स्त्री जीवन के कहे-अनकहे दर्द, संघर्ष , घुटन, छ्ले जाने के अवसाद और अपमानित होने की पीड़ाओं का व्यापक ब्योरा है।
वरिष्ठ कवयित्री *कात्यायनी* अपनी एक कविता में कहती हैं :

बेवकूफ जाहिल औरत !
कैसे कोई करेगा तेरा भला?
अमृता शेरगिल का तूने
नाम तक नहीं सुना
बमुश्किल तमाम बस इतना ही
जान सकी हो कि
इंदिरा गांधी इस मुल्क की रानी थीं
(फिर भी तो तुम्हारे भीतर कोई प्रेरणा का संचार नहीं होता )
रह गई तू निपट गँवार की गँवार।

पुरुष वर्चस्व वाले समाज के घोर दंभी, अशिष्ट और उद्दंड सोच की यह लाउड अभिव्यक्ति सुजाता की कविताओं में भी अंतर्निहित है और जो पीढ़ियों से धीमे-धीमे दर्द की तरह बहती चली जा रही है।

बेटियों को जीवन के
सबसे गहन और सबसे गूढ़ सबक माँओं ने
उनकी चुटिया बनाते वक्त ही दिए

ऐसी क्या नसीहत है ! ऐसी क्या विपदा आने वाली है कि बिटिया के बाल बनाते वक्त आशंकित माँओं के हाथ अचानक कसते चले जाते हैं ! ब्याह के बाद दूसरे घर जाना है इसलिए उन्हीं के अनुरूप पहनना-ओढ़ना ,धीरे बोलना सबसे कहे अनुसार ही चलने की सीख देना किस भय और आशंका के वशीभूत होकर दुहराती हैं माएं ? बेटी की किसी चूक पर पूरे खानदान को ना कोसा जाय, बेटी गँवार, ज़ाहिल जैसी उपमाओं से ना नवाज़ी जाय, सबको ख़ुश रखे…. ज़ाहिर है यह सब पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही सीखें हैं जो बेटियों को हस्तांतरित होती गयीं हैं।

कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें :

देखने दो उसे मैच ,तुम रसोई में जाओ!
उसकी बात काट रही?
जुबान पर जरा लगाम लगाओ! उसे तो यहीं रहना है
तुम ढंग तरीकों में ढल जाओ
वे माएँ जरूर किसी बेबस माँ की बेटियाँ रही होंगी
बस तुम वैसी मत बनना!

सुजाता की कविताएं स्त्री की निर्धारित सीमा रेखाओं को, दोयम दर्जे के दोहरे मापदंड की मार झेलती बेबसियों को रेखांकित करती हैं और इस तरह प्रतिरोध की ऊंचाई पर पहुंच कर ये कविताएँ सर्वकालिक सत्य का ठोस बयान हो गई हैं।

मुझे कवि, कथाकार  प्रियदर्शन की यह बात बहुत मुफ़ीद लगती है कि .. एक असाधारण या अद्वितीय कविता में सूत भर का फ़र्क होता है । यही सूत भर का फ़र्क सुजाता गुप्ता की कविताओं को असाधारण बना रहा है।उनकी कविताओं ने सोशल मीडिया पर पाठकों का ख़ूब प्यार पाया है। बड़े पैमाने पर साझा की गयी उनकी कविताएँ इस बात की तस्दीक़ करती हैं।

एकांत भाव से रचने वाली कवयित्री की ये कविताएँ वर्तमान और अतीत पर एक साथ दृष्टिपात करती हमें बेचैन करती हैं :

रेल बन दिनभर दौड़ती माँ
पौ फटने से पहले उठ जाती है छिपकर आँख से नमक बहा गृहस्थी के चूल्हे में
नित नए गम जलाती है

माँ के माध्यम से इन्होंने स्त्री-जीवन की विवशताओं का मार्मिक सच उजागर किया है। सुजाता गुप्ता की कविताएँ कोई भावुक प्रलाप नहीं बल्कि समाज की कुरूप सच्चाइयों की अकुलाहट हैं।

इनका लेखन स्त्री चेतना को केवल भावनात्मक कसौटी पर ही नहीं बल्कि बौद्धिकता के मापदंड पर भी परखता है । किताबों के मोहल्ले में रहने वाली लड़कियों के चौदह फेरे की अहिल्या, पिंजर की पुरो, कर्मभूमि की सुखदा और तमाम सुधाओं, तिलोत्माओं, विधोत्माओं से देर रात तक स्ट्रांग कॉफी के साथ गपशप करना , नई और जागरूक स्त्री के जीवन में आ रहे बदलावों की तरफ़ बहुत सुंदर संकेत है।

वर्जीनिया वुल्फ़ ने कहा है कि “स्त्री का लेखन स्त्री का लेखन होता है, स्त्रीवादी होने से बच नहीं सकता। “

इन अर्थों में सुजाता गुप्ता की ये कविताएँ स्त्री को व्यवस्था की ग़ुलामी से मुक्त करके उसे एक आत्मनिर्णायक, स्वतंत्र और दृढ़ व्यक्तित्व के साथ स्थापित करने का सुंदर और सार्थक प्रयास है।

 

सुजाता गुप्ता की कविताएँ

1. इस बार जो बच पाओ तो ! 
(कोरोनाकाल के दौरान लिखी )
इस बार जो बच पाओ तो
बचा लेना हरी शाख को,
कि वह फिर
ठूंठ न बन पाए!
इस बार जो बच पाओ तो
कान धर कर सुन लेना,
जब पंछी,
चहचहाते हुए लेने आएं,
अपने हिस्से का
दाना-पानी !
इस बार जो बच पाओ तो
दे देना मछलियों को ,
सागर का किनारा ,
कि कही वे तड़पकर
कांच के घर में
ही न मर जाएं!
इस बार जो बच पाओ तो,
पतंग को छोड़ देना
खुले आसमान में,
कि गल्ती से कहीं
मांझे से ही न
बंधी रह जाए!
इस बार जो बच पाओ तो
हर हाल में जिंदा रखना
दिलों में इंसानियत,
कि हैवान भी,
तुमपर नज़र डाले तो
शर्मिंदा न हो पाए!
इस बार जो बच पाओ तो
तितली को पकड़ने की
कोशिश हरगिज़ न करना,
कि कहीं हाथ पर लगे
पंखों के रंग फिर,
छूट ही न पाएं !
इस बार जो बच पाओ तो
हर जीव को उसके हिस्से की
ज़मीन सौंप देना,
कि अपने हिस्से की मिट्टी में
सो सको तुम भी
एक दिन चैन से!
इस बार जो बच पाओ तो
चुका देना हर कर्ज धरा का,
कि तुम्हें इंसान समझकर
उसने न जाने
कितनी ही नायाब नेमतें
तुमपर बिन मांगे ही
न्यौछावर कर डाली थीं!
बस,
इस बार जो बच पाओ तो……………
2. ठगी
जो पढ़ना जानती थी,
वे प्रेमपत्रों से ठगी गई,
जो नहीं जानती थी
वे एक जोड़ी झुमकों से.
चटोरपन की मारी
एक प्लेट चाऊमिन से,
तेरे हाथों में स्वाद है! ‘
सुनकर ठगी गई वे सारी
जो पढ़कर भी पकड़ नहीं पाई
इतिहास का सबसे बड़ा झूठ.
प्रेम में केवल ईश्वर को साक्षी मानने वाली
एक चुराई अलसाई दोपहरी में मिले
एक चुटकी सिंदूर से ठगी गई.
ठगी की मारी ये सारी की सारी
तबतक खिली रही जबतक
प्रेम का वृक्ष ठूंठ हो उनकी देह के साथ नहीं जला.
3. सबक
बेटियों को जीवन के
सबसे गहन और सबसे गूढ़ सबक
माँओं ने उनकी चुटिया बनाते वक्त ही दिए !
चुटिया बनाते बनाते माँ के हाथों की
उनके बालों पर पकड़
तब और कस जाती जब वे
दूसरे के घर जाना है
उस घर जाकर क्या करना,
कैसे रहना, क्या न पहरना
लोक-लाज, शरम-हया ,
चरितर, इज्जत, महीने के दिन
समझाती बुझाती !
उनकी उँगलियों की यही पकड़
तब एकदम ढीली पड़
हमारे बालों को सहलाने लगती
जब सावन में वे
अपनी अम्मा के घर जाने की बात करती,
बचपन से उनके पिता उनकी
कैसे कैसे जिद पूरी करा करते,
सावन के झूले और नीम की निंबोली की बात करती,
बचपन वाली सहेली संग खेली होली की बात करती
बागीचे की अलसाई दोपहरी की बात करती !
अम्मा से अपनी चुटिया बनवाते
उनकी उँगलियों की उस पकड़ के
कसाव और ढिलाव को
उनकी सी ही उम्र पर अब आकर समझा,
कि वह स्त्रियों के जीवन पर
दुनिया की पकड़ और ढील मापने का
सबसे विश्वसनीय पैमाना था!
4. पँख
जिन माँओं ने
बेटियों को सीख दी कि,
ठहाका भाई का है,
तुम मुस्कुराओ !
दूध वो पी लेगा,
तुम चाय ले जाओ!
उसे जाने दो बाहर,
तुम घर ठहर जाओ!
अभी उसे और सोने दो,
तुम उठ जाओ!
देखने दो उसे मैच,
तुम रसोई में जाओ
उसके लहज़े में ही रौब है,
तुम ज़रा धीमे बतियाओ !
उसकी बात काट रही?
जुबान पर ज़रा लगाम लगाओ !
उसे तो यहीं रहना,
तुम ढंग-तरीकों में ढल जाओ,
वे माएँ ज़रूर किसी
बेबस माँ की
बेटियां रही होंगी !
बस, तुम वैसी मत बनना !
हो सके तो,
अपनी बेटी के लिए,
पंख बुनना !
*कलम जो देखती है वही लिखती है !
और लोग कहते हैं , जमाना बदल गया है !
5.कोपभवन
कैकई की तरह नहीं था
वैभव और ऐश्वर्य उनका
जो होता उनके पास अपना एक अदद
बेहद निजी ‘कोपभवन !’
उनकी रामायणों में
लिखी हुई थी महाभारतें,
कोप उनके हिस्से सदा से ही
कैकई से कई गुना ज्यादा आया !
तो कहाँ भोगती ?
सो उन्होंने हार न मानी
और जुगाड़ कर
अपने ही घर में बनाए अस्थाई कोप भवन!
कभी रसोई के कोने में प्याज काटते,
कभी बे जरूरत का ढेर सा साग छाजते,
बीनी बिनाई दाल बीनते,
बिन तेल मामजस्ते दनादन मिरच कूटते,
आधी रात अचानक उठ
अलमारियों के कोने खुरचते,
कभी मुंह अँधेरे उठकर
साफ चद्दरें ,दरियां आँगन की पटिया पर रख
थपकी के हत्थे पर जोर आजमाते,
और कभी साफ फर्श पर बैठ उसे
बारंबार झाड़ पोंछाते,
तो कभी हाथ में मंदिर की घंटी ले
भगवान के कान झन्नाते!
हर जगह बनाया उन्होंने
अपना अस्थाई कोपभवन
और जाने अंजाने ही संवार दिया
घर का हर एक कोना!
वैसे जब वे प्रेम और ममता बरसाती रही,
तब भी तो उन्हें सहेज संवार कर रखने को
कहाँ बने उनके लिए कभी कोई ‘कृपा भवन !’
6.मछली
घर के भीतर
काँच के घर में तैरती मछली
एकटक मुझे देखा करती है,
मैं एकटक उसको देखा करती हूं,
वो हैरान मैं बिन पानी कैसे रहती हूं ,
मैं हैरान वो उम्रभर पानी कैसे सहती है !
वो खुली आँख से सोती है,
मैं बंद आँख भी जगती हूं,
मरकर उसकी खुली आँख ,
मेरी नींदों में सोती है !
मैं उसके भीतर रोती हूं,
वो मेरे भीतर सोती है!
हम सबके मन के
काँच के भीतर
एक सुंदर मछली होती है!
7. फुर्सत
फुर्सत में बैठी स्त्रियां
कभी बाल नहीं बनाती
न ही गजरे लगाती हैं,
वे टाँकती हैं कसे हुए रिश्तों से
टूटकर छितरे बटन
तोलती हैं अपने भीतर पसरी घुटन
झाड़ती हैं मुट्ठी से मायके की यादें
चखती हैं चुटकीभर भूले बिसरे वादे
डिफ्रास्ट करती हैं चिल्ड पड़ी
अनचाही रिश्तेदारियां
एयरटाईट कर सहेजती हैं
नई-नवेली जिम्मेदारियां
मन के कसमसाते कोनों में
छिड़कती हैं इग्नोर ब्रांड
इनसेक्टीसाईट
अपनी आलोचनाओं को करती हैं
प्रार्थनाओं में जस्टीफाईड.
स्त्रियां फुर्सत में ही
सबसे अधिक व्यस्त होती हैं.
दुनियादारी निभाने की तभी तो
पूरी तरह अभ्यस्त होती हैं !
8. भूल
तुम मुझे कुछ
ऐसे ही भूल जाना
जैसे घर में माँ
भूल जाती है रखकर
कोई बेहद जरूरी चीज़
सबसे सुरक्षित स्थान पर…
तुम मुझे वैसे ही भूल जाना
जैसे सूरज के आते ही
दिन भूल जाता है
आसमान में चाँद की उपस्थिति….
मुझे भूलो तो कुछ यूं भूलना
जैसे अंतिम वक्त
साथ छोड़कर जाते
रूह भूल जाती है
उम्रभर पहना अपना लिबास…..
तुम हूबहू  वैसे ही भूल जाना मुझे
जैसे गृहकार्य न करने पर
पहली कक्षा का बच्चा
घर भूल आता है कापी…..
भूलना हो तो ऐसे भूलना
कि फिर याद करने की
कभी भूलकर भी भूल न हो…
9. नमक
आज
एक भी रोटी फूली नहीं थी
दाल कच्ची और नमक कम था
बात यह बड़ी थी
माँ फिर भी चुपचाप खड़ी थी
किसी ने नहीं देखा
उनकी आँख का मौसम नम था
मां को शायद कोई गम था.
गम और मां का नाता पुराना है.
रोटी न फूले तो गम,
कोई गम हो तो नमक कम.
रेल बन दिनभर दौड़ती माँ
पौ फटने से पहले उठ जाती है
छिपकर आँख से नमक बहा
गृहस्थी के चूल्हे में
नित नए गम जलाती हैं.
10. किताबों का मुहल्ला
किताबों के मुहल्ले में
रहने वाली लड़कियां
दीवानी होती हैं
आक्सीडाईज्ड झुमकों
और बंधेज के रंगदार सूती दुपट्टों की.
इनके बंजारा मन भटकते हैं
अपने उस कारवां को तलाशते
जिससे बिछड़ी इनकी रूहें
बेचैनी से टोहती है
हर अजनबी दिल से आती
अपनेपन की सरसराहट.
हरियाले बागीेेचे बीच खड़ी
ये नहीं सराहती गुलाब,चमेली,
गेंदे और चंपई फूल के रंग, बनावट
तलाशती हैं झाड़ियाँ ,सूखी ठूंठ
कि जिन्हें काँट छांट रंग कर
आबाद कर सकें
घर के सूने वीरान कोने .
झील किनारे खड़ी ये नहीं मुग्धाती
अपने अक्स को निहार नीले आईने में
इनकी तैरती निगाहें तलाशती हैं
झील की छिछली तलहटी से
झांकते रंगीन पत्थर
कि पहना सकें ताज अपने
गमले वाले कैक्टस की मुरझाई मिट्टी को.
ये मेला देखने जाती हैं कि
चख सकें अमरख, कटारे और फालसे,
पढ़ सकें उस अखबारी पुड़िया का मजमून
जिसे खोल कर चटकारा था
उन्होंने खट्टा मीठा चूरन.
किताबों के मुहल्ले में इनकी सगी वाली
शिवानी, अमृता,  महादेवी, महाश्वेता
रखती हैं हिसाब किताब इनकी दिनचर्या का,
जरा देर होने पर लगाती हैं फटकार.
किताबों के मुहल्ले में
रहने वालियों का बंजारापन
श्रृंगार के नाम पर इन्हें केवल
गहरा काजल लगाने की अनुमति देता है.
कि सपने तो गाढ़े ही फबते हैं इनपर.
किताबों के मुहल्ले में बसने वाले
किरदारों से नैन मटक्का करती
ये बनना चाहती हैं
चौदह फेरे की अहिल्या
श्मशान चंपा की चंपा
कर्मभूमि की सुखदा
गोदान की धनिया
चाक की सारंग
पिंजर की पुरो
मेघदूत की यक्षिणि
और दुनियाभर की सारी
परिणिताओं, निर्मलाओं,  सुधाओं , भाग्यवतियों
तिलोत्माओं, अनामिकाओं, शकुंतलाओं
चंद्रप्रभाओं, अनन्याओं और
विद्योत्माओं से गपशप करती
देर रात पीती है अदरक वाली स्ट्रांग  चाय
और कुरेदती है बातों में बातों में
उनसे प्रेम और दुनियादारी के
वे सारे जादुई गूढ़ रहस्य
जो अब तक कहीं भी दर्ज होने से बचे रह गए.
किताबों के मुहल्लों में पसरी शांति के बीच
ये लड़कियां कोरे सफों पर लगाती हैं हिसाब
हर माह के बचे खर्च से नई किताबों की
खरीदी कर उनके किरदारों को
अपने मन आँगन में न्यौत
हर नई शाम साथ बैठ
भेलपूड़ी खाते ठट्ठा करने का.
किताबों के मुहल्ले में रहने वाली
लड़कियों का मन
बातों के मुहल्लों में जरा नहीं लगता.
11. अनुपस्थिति
पिता की अनुपस्थिति में
माँ सो नहीं पाती,
माँ की अनुपस्थिति में
पिता अख़बार नहीं देखते
न ही पीते चाय !
पिता की अनुपस्थिति में
माँ की आँखे दहलीज पर
पसरी रहती,
माँ की अनुपस्थिति में
पिता बेचैनी ओढ़े
चहलकदमी करते बाहर !
पिता की अनुपस्थिति में
माँ की भोर न जगती
माँ की अनुपस्थिति में
पिता की साँसें डूबी रहती!
दोनों की अनुपस्थिति में
घर लगने लगता वीरान
और रह जाता केवल
बिन छत का मकान .
12. पेड़ का दुख
एक पेड़ के भी कई दुख होते हैं!
दुख कि भोर में दाना लेने गई चिरैया
साँझ के आखिरी पहर भी न लौटी
कि घोंसले में बच्चे भूख से मुंह फाड़े बैठे
चींची करते हलक सुखा रहे!
दुख कि माँ के बीतने की खबर सुन
रेल की बाट देखता मुसाफिर
उसकी छाँव में दो घड़ी सुस्ताने क्या बैठा
कि अपने गाँव जाती रेल का
टाईम भूल सोता रह गया!
दुख कि रात के अँधड़ में
उससे बिछड़े  सारे बच्चे-पत्ते
सुबह जमादार ने बड़ी बेरहमी से सकेर
कचरे संग ढेरी बना आग के हवाले कर डाले!
दुख कि पिछले बरस कलम बनी
उसकी सबसे मजबूत  टहनी
ऐश्वर्य में डूबी आज लिख नहीं पाती
बाकि साथिन टहनियों का दुख !
दुख कि परके साल आस-उम्मीद रख
मन्नतों रंगी, तने को बाँधी मौलियाँ खोलने
कोई तो आ जाता कि सूखते तने का कलेजा
हरा हो जाता और जड़ों को साँस आ पाती!
पेड़ को भी पेड़ होकर भोगे
अपने दुखों की फेहरिस्त बनाने
एक दिन खुद को ही कलम करना पड़ता है!
13. बसंत
कुछ लड़कियों के जीवन में
बसंत नहीं आया,
सीधे ब्याह आया.
उनके जीवन में सब कुछ
झटपट फटफट होता ,
पिता ठहरा आते लड़का,
वे हड़बड़ा जाती जब
माँ जबरन ठूंस देती
उनके मुंह में  ‘हाँ ‘ का ‘बासंती लड्डू .’
भाई जाता अगले दिन,
और तिलक दे आता .
‘बाबा ऐसो वर ढूंढो’
‘तारों में सज के’ और
‘बाबुल की दुआ लेती जा’
कुल मिलाकर दो तीन गाने गवते,
तारों की छाँव में बु्क्का फाड़
झट रुलाईयाँ फूटती
और खट बिदाई होती.
न जाने कब भिंडी की सब्जी में
पानी डाल पकाती वे खट् से
अचार मुरब्बे बनाती मिलती.
इन सब बेचारियों का ‘गुड्डो’ से
‘अम्मा’ तक का सफर
चुटकियों में पूरा हो जाता.
वे सब की सब
‘हाँ’ के बासंती लड्डुओं से हुई
अपनी बदहजमी भुला
अपनी बिटियाओं को
खिलाने से रोक तक न पाती.
बसंत मौसम में ही नहीं
भाग्य में भी आना चाहिए…
14. लाकडाऊन
पिछले वर्ष लाकडाऊन के दौरान लिखी वायरल हुई कविता …
तुमने पहली बार किया है,
मैंने तो सदा से ही
लाकडाऊन जीया है!
मुझे रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता,
कौन सा होटल बंद,
कौन सा बाज़ार खुला है!
मेरे लिए जो लक्ष्मण रेखा
खींचते आए हो सदियों से,
तुमने शायद पहली दफा
इसे  महसूस किया है!

कवयित्री सुजाता गुप्ता
जन्म तिथि 20.09.1972
शैक्षणिक योग्यता बीए, बीएड
तकनीकी शिक्षा डिप्लोमा इन कंप्यूटर प्रोग्रामिंग एंड पीसी ऐप्लीकेशंस.
निवास -बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश
लगभग 20 वर्षों तक अध्यापन करने के साथ कई प्राईमरी स्तर की किताबें लिखी तथा स्कूल में कल्चरल और एकेडेमिक कॉर्डिनेटर के तौर पर कार्यरत रहीं.
बीते दो सालों से स्वतंत्र लेखन एवं अनुवाद करती हैं।इनकी एक ब्लॉगिंग साइट भी है तथा अन्य न्यूज पोर्टल्स के लिए भी लिखती हैं.
दो साझा काव्य संकलन हैं ‘मेरे दस्तखत एवं साहित्यनामा . एक काव्य संकलन ‘आगार’ प्रतीक्षारत है. वेबसाईट का लिंक है – www.streerang.co.in
फेसबुक पेज लिंक है – https://m.facebook.com/profile.php?id=322121571761081&ref=content_filter

सम्पर्क: 9870855014

टिप्पणीकार कवयित्री सौम्या सुमन ने पटना विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर ‘श्रम एवं समाज कल्याण’, की शिक्षा ग्रहण की, कविता, कहानियाँ, संस्मरण, गायन, फ़ोटोग्राफ़ी में विशेष रुचि। कुछ संस्थाओं से जुड़ कर झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों के बीच शिक्षा प्रसार।
कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
2016 में दो साझा कविता -संग्रह, 2019 में प्रथम कविता-संग्रह ‘नदी चुप है’ प्रकाशित, सद्य प्रकाशित साझा कहानी संग्रह ‘सपनों का सफ़र’ में एक कहानी प्रकाशित। निज व्यवसाय/बतौर डिज़ाइनर कार्यरत, स्थायी निवास:पटना(बिहार)
मेल : sumansinha212@gmail.com
संपर्क: 7631798050)

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