समकालीन जनमत
ये चिराग जल रहे हैं

अशोकजी : पराड़कर-युगीन पत्रकारिता का अंतिम अध्याय

( आज से हम वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक नवीन जोशी के प्रकाशित-अप्रकाशित संस्मरणों की एक श्रृंखला प्रारंभ कर रहे हैं. नवीन जी ने इस श्रृंखला का नाम रखा है- ‘ये चिराग जल रहे हैं’. वास्तव में ये रोशन चिराग उन विभिन्न व्यक्तियों की आत्मीय और गहन स्मृतियों के हैं जिनकी संगति ने नवीन जी के व्यक्तित्व को गढ़ने में बड़ी भूमिका निभाई अथवा जिनके जीवन को बहुत करीब से देखते-महसूस करते हुए उनके भीतर सम्वेदनाएं घनीभूत होती रहीं. इसीलिए महानगरों तथा क्रमश: ‘कॉरपोरेट’ होते मीडिया में लम्बा समय गुजारने के बाद भी उनके भीतर सम्वेदना-सघन जीव सांसें लेता रहा. कुछ संस्मरण जहां पत्रकारिता जगत के कतिपय प्रख्यात व्यक्तित्वों के हैं, जिनके बहाने हमें मिशन से मीडिया बनती पत्रकारिता का चेहरा करीब से देखने का अवसर मिलेगा. अत्यंत साधारण पारिवारिक और ग्रामीण जनों के स्मृति आलेख भी इस श्रृंखला में पढ़ने को मिलेंगे जो हमारे समाज की विभिन्न सतहों का सच सामने लाते हैं तो इस कठिन और निरंतर अमानवीय होते समय में सहज और ईमानदार मनुष्य बने रहने की संघर्ष-कथा भी कहते हैं. आशा है ‘जनमत’ के पाठकों को ये संस्मरण पसंद आएंगे. – सम्पादक.)

वह 16 फरवरी, 1996 का दिन था. 20, विधान सभा मार्ग पर ‘स्वतंत्र भारत’ का दफ्तर खाली किया जा रहा था. एल एम थापर ग्रुप ने ‘द पायनियर लिमिटेड’ का यह हिंदी अखबार किसी अनाम ‘एग्रो फिनान्स एण्ड इंवेस्टमेण्ट कम्पनी’ को बेच दिया था, हम हिंदी पत्रकारों की सेवाओं समेत. एग्रो ग्रुप ने जॉपलिंग रोड पर नया प्रेस और कार्यालय खोला था. उस दिन सुबह अचानक आदेश हुआ कि आज रात से ‘स्वतंत्र भारत’ जॉपलिंग रोड में छपेगा और पायनियर लिमिटेड वाला दफ्तर तुरन्त खाली करना होगा.

जरूरी सामान समेटा जा रहा था. हड़बड़ी और बेतरतीबी से सामान गाड़ियों में लदवाया जा रहा था. हम सम्पादकीय विभाग का जरूरी सामान छांट रहे थे. अफरा तफरी मची थी. अचानक किसी पुराने रैक में ठुंसी फाइलें, शब्दकोश, रजिस्टर, वगैरह लुढ़क कर फर्श पर छितरा गये. कई छोटी-छोटी पर्चियां रजिस्टरों के पन्नों से निकल कर उड़ने लगीं. पुराने पीले नेपा कागज के टुकड़ों में चीटीं की चाल जैसी लाल-नीली लिखावट चमक उठी. हम सब कुछ छोड़ कर वे रजिस्टर और पर्चियां बटोरने लगे. कुछ प्रमोद जोशी ने, कुछ मैंने और मनोज तिवारी ने जितनी जल्दी था, उन्हें बटोरा और अपनी-अपनी स्कूटर की डिक्की में सम्भाल लिया.

यह अखबारी दुनिया की वह जमीन थी जिसमें हमने ससंकोच पांव धरा था. पत्रकारिता की वह अंगुली थी जिसे हमने डरते-डरते लेकिन कसकर पकड़ा था. वह एक सम्मानित परम्परा का हमारा हिस्सा था, हमारी विरासत. वह हमारे दिल-ओ-दिमाग में था लेकिन कागज के उन टुकुड़ों में इतिहास के रूप में साक्षात था. उसे हम कैसे कबाड़ में जाने दे सकते थे.

वह अशोकजी  हैं, आज भी हमारे साथ मौजूद, अपने हाथ से लिखे उन पुर्जों के रूप में, जिनमें डांट-फटकार है, सम्पादकीय निर्देश हैं, सही शब्द और वर्त्तनी हैं, भाषा-शैली है, विदेशी शब्दों-नामों के सही उच्चारण और मायने हैं. और तो और, हमारी लिखी या अनूदित-सम्पादित खबरों का बहुत ध्यान से किया गया सम्पादन है, दुरस्त की गयी गलतियां हैं और हाशिये पर लिखा हमारा नाम है ताकि वह हम तक पहुंचे और हम सीखें.
अशोकजी  मेरे पहले सम्पादक थे. वे मिल गये तो मैं पत्रकार बन गया, पत्रकारिता से प्यार कर सका और इसमें टिक गया.

अगस्त, 1977 में दो दिन के लिए नैनीताल से लखनऊ आये शेखर दा (आज के हिमालयविद और ‘पहाड़’ के सम्पादक प्रो शेखर पाठक) के हाथ में एक नयी किताब थी- “भारतीय जेलों में पांच साल.” लेखिका- मेरी टाइलर, वह अंग्रेज युवती जो नक्सल आंदोलन के दौरान अपने बंगाली मित्र अमलेंदु के साथ कलकत्ता आयी थी. पुलिस ने उन्हें बंगाल के एक गांव से नक्सलवादी बताकर गिरफ्तार करके जेल में ठूंस दिया था.

मेरी टाइलर को बंगाल की विभिन्न जेलों में पांच साल बिताने पड़े. इमरजेंसी के दौरान ब्रिटिश सरकार की पहल पर जेल से रिहा की गयी. लंदन लौट कर मेरी ने यह किताब लिखी जो भारतीय जेलों के अमानवीय हालात का जीवंत दस्तावेज है. वास्तव में, कैदियों के हालात के बहाने यह तत्कालीन भारतीय समाज और उसे नियंत्रित करने वाले तंत्र की हृदय-विदारक तस्वीर है. उस दौर में यह किताब बहुत चर्चित हुई थी. अंग्रेजी से आनन्द स्वरूप वर्मा के हिंदी अनुवाद में किताब तभी आयी ही थी. मैंने शेखरदा से यह किताब मांग कर रात भर में पढ़ डाली. वह बहुत विचारोत्तेजक किताब थी और मैंने उसके कई उद्धरण भी डायरी में नोट किये.

अगली रात मैंने मेरी टाइलर और इस किताब पर एक लेख लिखा. सुबह विश्वविद्यालय जाते समय वह लेख मैं ‘स्वतंत्र भारत’ के कार्यालय में समाचार सम्पादक चंद्रोदय दीक्षित की मेज पर रख गया. साल-डेढ़ साल पहले ‘स्वतंत्र भारत’ कहानी प्रतियोगिता में मेरी कहानी पुरस्कृत हो चुकी थी. इसी कारण चंद्रोदय जी से थोड़ा परिचय था.

दोपहर बाद विश्वविद्यालय से लौटते हुए मैं फिर ‘स्वतंत्र भारत’ के कार्यालय गया. मेरी टाइलर पर अपने लेख के बारे में बड़ी उत्सुकता थी. चंद्रोदय जी अपनी कुर्सी पर नहीं थे. साथ लगे सम्पादक के कक्ष से जोर-जोर से बोलने की आवाज आ रही थी जिसमें मेरी टाइलर का नाम भी सुनायी दे रहा था. समझ गया कि भीतर मेरे ही लेख पर चर्चा हो रही है. थोड़ी देर में चंद्रोदय जी बाहर निकले तो मैंने हाथ जोड़े. उन्होंने फौरन मेरी बांह पकड़ी और लगभग घसीटते हुए सम्पादक के कमरे में ले गये- ‘यही है नवीन जोशी.’

सफेद कुर्ते, सफेद टोपी और चश्मे में छोटे कद का एक व्यक्ति अपनी कुर्सी में धंसा हुआ था. वह अशोक जी थे, जिनके माथे पर बल और तनाव था, जो हमने बाद में जाना कि सदा बना रहता है. उनके सामने पड़ते ही हम सहम जाते थे. उस समय तो उनसे पहला सामना हो रहा था.

-‘मेरी टाइलर की किताब कहां पढ़ी, किसने बताया ? ’ उन्होंने पूछ तो मैंने अटकते-अटकते बता दिया.

-‘तुम्हारा लेख छापेंगे. क्या करते हो ? ’ उन्होंने पूछताछ की और एकाएक बोले थे-‘ हमारे साथ काम करोगे ? ’ उनके सवाल ने मुझे चौंकाया ही नहीं भारी असमंजस में भी डाल दिया था.

-‘जी, अभी परीक्षा देनी है.’

-‘ठीक है.’ उन्होंने कहा. साथ ही मेज पर रखी ‘द पायनियर’ (स्वतंत्र भारत का सहयोगी अंग्रेजी दैनिक) की इतवारी मैगजीन की प्रति मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा- ‘ जनार्दन ठाकुर का लेख अनुवाद कर लाइए, कल-परसों में.’

मैं दीक्षित जी के साथ चुपचाप बाहर आ गया. घर आकर एकांत में धीरे-धीरे ही अहसास हुआ होगा कि कुछ अच्छी बात हुई है.

चर्चित पत्रकार जनार्दन ठाकुर ने इंदिरा गांधी और इमरजेंसी के दिनों पर एक किताब लिखी थी- “ऑल द प्राइम मिनिस्टर्स मेन.” पुस्तकाकार प्रकाशन से पहले वह ‘द पायनियर’ में धारावाहिक छपना शुरू हुई थी. उसी की पहली किस्त अशोकजी  ने मुझे अनुवाद करने को दी थी. मैंने बहुत मेहनत से सारी क्षमता झौंक कर वह अनुवाद किया और दूसरी ही दोपहर अशोकजी  के कमरे के बाहर खड़ा हो गया.

अशोकजी  को अनुवाद पसंद आया. बाकी हिस्से अनुवाद को मिले और अगले रविवार से वह साप्ताहिक परिशिष्ट में धारावाहिक छपने लगा.

-‘परीक्षा देने की बाद तुम हमारे साथ काम करोगे.’ अगली मुलाकात में अशोकजी  ने फैसला सुना दिया और डेढ़ सौ रु महीने पगार बता दी. खुद ले जाकर मैनेजिंग एडिटर के पी अग्रवाल से भी मिला दिया.

पत्रकार क्या होता है, यह मैं जानता न था लेकिन बिल्कुल अचानक पत्रकार बन गया था. सबसे बड़ी खुशी डेढ़ सौ रु महीने की थी, जो अभी हाथ में नहीं आये थे लेकिन जिसने पंख उगा दिये थे.

मैंने जैसे-तैसे परीक्षा निपटाई और सितम्बर, 1977 के पहले या दूसरे सप्ताह से ‘स्वतंत्र भारत’ की डेस्क पर नियमित काम करने लगा. पत्रकारिता के रोमांच में ऐसा रमा कि एम ए भी पूरा नहीं किया.

उत्तर  प्रदेश  के  तत्कालीन मुख्यमंत्री  हेमवती  नंदन बहुगुणा के साथ  अशोकजी  . संभावित  काल  : 1975

 

 ‘स्वतंत्र भारत’ में अशोकजी की यह दूसरी पारी थी और 1977-78 में वे नयी टीम तैयार कर रहे थे. 15 अगस्त, 1947 को लखनऊ से ‘स्वतंत्र भारत’ का प्रकाशन उन्हीं के सम्पादन में शुरू हुआ था. 1953 में वे इसे छोड़कर केंद्र सरकार के सूचना विभाग में दिल्ली चले गये. प्रकाशन विभाग में उप निदेशक होते हुए 1971 में फिर ‘स्वतंत्र भारत’ लौट आये.

1977 में नॉदर्न इण्डिया पत्रिका ने इलाहाबाद से ‘अमृत प्रभात’ अखबार निकालने का फैसला किया. ‘स्वतंत्र भारत’ तब हिन्दी के अच्छे पत्रकारों की नर्सरी-जैसा था ही. सत्यनारायण जायसवाल के नेतृत्व में सात-आठ पत्रकारों की टीम ‘अमृत प्रभात’ के लिए चुन ली गयी थी. उस टीम के जाते-जाते अशोक जी नयी टीम बना रहे थे. मेरी नियुक्ति इसी का हिस्सा थी.

युवा शचींद्र त्रिपाठी, प्रमोद जोशी और विजयवीर सहाय करीब तीन साल से वहां काम कर रहे थे. मेरे आगे पीछे विनोद घिल्डियाल, ताहिर अब्बास, मनोज तिवारी, रवींद्र जायसवाल, दीपक पाण्डे, आदि अशोकजी की नजरों से गुजर कर आये. बीच-बीच में और भी युवा साथी आते रहे. अशोकजी की पैनी नजर हम युवाओं पर रहती.
अशोकजी का लिखित निर्देश था कि नये लड़के जो भी खबर बनाएं, लिखें या सम्पादित करें, उसकी मूल प्रति उनके देखने के लिए रख दी जाए. हर कॉपी (आज भी खबरों को इसी नाम से जाना जाता है) पर बनाने वाले का नाम लिखा हो. जब भी समय मिलता, बल्कि वे इसके लिए निश्चित ही समय निकालते कि हमारी कॉपी देखें, उसे अपने हाथ से संशोधित-सम्पादित करें, उस पर अपनी टिप्पणी दर्ज करें और हमारे पास वापस भेज दें. हमसे अपेक्षा होती थी कि हम अशोकजी से वापस आयी अपनी खबरों को ध्यान से देखें और सीखें.

यह सिलसिला चलता रहता था. उनकी कोशिश होती थी कि वे हमें अपने कक्ष में बुला कर, सामने बैठा कर हमारी कॉपी जांचते. तब होती थी असली कक्षा. वे शब्दों, उनके प्रयोग, मुहावरों, अंग्रेजी और हिंदी की प्रकृति के अंतर, आदि की व्याख्या करते. समझाते कि खबर किस बारे में है, उसमें समाचार क्या है, उसे किस तरह लिखा जाए ताकि समाचार सटीक सम्प्रेषित हो. भाषा अपनी हो, सरल हो, बोलचाल के शब्द हों लेकिन इस प्रयास में समाचार का मूल आशय जरा भी इधर-उधर न हो और न कोई तथ्य छूटे  .

यह आसान न था. वर्षों बाद समझ सका कि जो सबसे आसान है, उसे कहना-लिखना सबसे कठिन है. जटिल और उलझाऊ लिखना सबसे आसान है. तब तो हमें लगता था कि एक शब्द को काट कर उसी तरह का दूसरा शब्द लिखने से क्या फर्क पड़ गया. वाक्य की संरचना बदल कर क्या नयी बात कर दी.

आज जब शब्द, भाषा, व्याकरण, उच्चारण सब गड्ड-मड्ड हो गये हैं, यह समझा पाना मुश्किल है कि तब पत्रकारिता में इनको कितना महत्त्वपूर्ण माना जाता था. भाषा ही पत्रकारिता यानी अभिव्यक्ति का औजार है. औजार ही सही और सटीक नहीं होगा तो अभिव्यक्ति कैसे सही होगी. बात शुद्धता ही की नहीं, सटीकता की भी है जो किसी भी भाषा की पत्रकारिता का प्राण है.

उस समय की स्थितियां आज से बहुत ही भिन्न थीं. समाचार-स्रोतों के नाम पर सिर्फ एजेंसियां थीं और आकाशवाणी के समाचार बुलेटिन. अंग्रेजी में पीटीआई और यूएनआई की विश्वसनीयता थी. हिंदी में ‘हिंदुस्थान समाचार’ और ‘समाचार भारती’ नाम की एजेंसियां संसाधन-गरीब ही नहीं, सूचना एवं ज्ञान-दरिद्र भी थीं. उनके भरोसे अखबार निकाला ही नहीं जा सकता था. (आपातकाल में सरकार ने सेंसर करने की अपनी सुविधा के लिए चारों को मिलाकर ‘समाचार’ नाम से एक एजेंसी बना दी थी, जो आपातकाल हटने के बाद फिर स्वतंत्र हो गयी थीं). मुख्य उप-सम्पादक या डेस्क प्रभारी एजेंसियों के टेलीप्रिण्टर से निरंतर आते समाचारों (‘तार’ कहा जाता था इन्हें) को छांटता और अपने अखबार में प्रकाशन योग्य तारों का बण्डल उप-सम्पादकों को देता रहता.

एक खबर बनाने के लिए हमारे पास तीन एजेंसियों के तार होते. ‘स्वतंत्र भारत’ में अंग्रेजी की दोनों और हिंदी में ‘हिंदुस्थान समाचार’ की सेवा थी. अंग्रेजी तारों के बिना काम न चलता. तार पढ़ना, खबर को समझना और फिर अलग कागज पर अपने शब्दों में खबर लिखनी होती. कुछ काबिल मुख्य उप-सम्पादक खबर का संदर्भ और सार समझा देते. बाकी तारों का ढेर पकड़ा कर कहते- सिंगल (एक कॉलम), डी सी (दो कॉलम) या टीसी (तीन कॉलम) बना दो.

हम सब हिंदी माध्यम से पढ़े थे. पारिवारिक पृष्ठभूमि में भी अंग्रेजी कहीं नहीं थी. पीटीआई-यूएनआई के तार हैरान करते. खबर विदेशी या आर्थिक हो तो कई बार आकाश-देखनी हो जाती. डेस्क पर अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश रखे रहते, जिनके लिए आपस में खींचातान मचती. अनेक बार शब्दकोश में दिये अर्थ खबर के संदर्भ से मेल न खाते. देश-दुनिया के बारे में अध्ययन ही मददगार होता. इसलिए अखबार-पत्रिकाएं पढ़ना और रेडियो पर समाचार सुनना जरूरी लगता.

इतनी मेहनत के बाद जो खबर हम बना पाते, अक्सर संशय रहता कि सही बनी है या नहीं. जल्दी भी करनी पड़ती थी, वर्ना टोके जाते थे. और उम्र क्या थी! सन 1977 में मैं 21 साल का था. बाकी भी आस-पास. जिंदगी के तमाम आकर्षण अखबार के दफ्तर के बाहर थे. किसी से सिनेमा में मिलने का वादा है. कोई गेट पर चाय की दुकान में कबसे इंतजार कर रहा है. किताबों की दुकान में जाना है, रवींद्रालय में नाटक देखना है, आर्ट्स कॉलेज में एक प्रदर्शनी लगी है, पता-नहीं क्या-क्या.

अब सोचिए, इन हालात में बनायी गयी खबर अशोकजी मुझे अपने सामने बैठा कर जांच रहे हैं. उनसे हमारी सिट्टी-पिट्टी वैसे ही गुम रहती थी. सुबह उनकी फिएट कार नीचे पोर्च में रुकती तो ऊपरी मंजिल पर सम्पादकीय विभाग में बैठे वरिष्ठ साथियों में भी सन्नाटा छा जाता. वे घर से अपना अखबार लाल कलम से रंग कर लाते थे. हर पेज पर ढेरों संशोधन, सुझाव, टिप्पणियां. सीढ़ियों से चढ़कर सीधे सम्पादकीय डेस्क पर आते और क्लास शुरू हो जाती.

मैं सहमा-सा उनके सामने बैठा रहता. उनकी लाल कलम मेरी बनायी खबर पर चलती रहती. शब्द बदले जाते, वाक्य तराशे जाते और बीच-बीच में तीखी नजरें मेरे चेहरे पर भी गड़ जातीं कि ध्यान दे रहा हूं या नहीं. संशोधन करते जाते और बताते जाते- “ ‘मिक्स्ड रिएक्शन’ के लिए ‘मिश्रित प्रतिक्रिया’ लिखने से अर्थ स्पष्ट नहीं होता. मतभेद या भिन्न-मत या समर्थन और विरोध ज्यादा समझ में आएगा. तो, ‘मिस्र-इसरायल समझौते पर मिश्रित प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि ‘मिस्र-इसरायल समझौते का समर्थन और विरोध’… ठीक ? ”

बोलने में तीखापन होता मगर समझाने का तरीका मीठा. शिष्य समझ रहा हो और सुधार दिखने लगा हो तो स्वर में प्यार की छुपी लहर भी पहचानी जाती. शाबाशी नहीं मिलती थी लेकिन अक्सर बुलाया जाने लगे और लिखने-पढ़ने का काम मिलने लगे तो मतलब होता कि अशोकजी हमसे खुश हैं. इससे हमारा विश्वास बढ़ा. पत्रकारिता में, लिखने-पढ़ने में, भाषा पर ध्यान देने में आनंद आने लगा.

अशोकजी  का संपादन.  22 सितम्बर 1977 के स्वतंत्र  भारत  के  लखनऊ संस्करण  के लिए बनाई गई एक ख़बर

 

मई 2017 की एक दोपहर जब मैं यह लिखने बैठा हूं तो 21 सितम्बर 1977 को यानी चालीस वर्ष पहले बनायी मेरी एक खबर की जीर्ण-शीर्ण कॉपी मेरे सामने खुली है, जिस पर अशोक जी कलम की लाल स्याही अब भी चमक रही है. समाचार एजेंसियों के तार पढ़ने के बाद मैंने खबर लिखी थी-

“ मद्रास, 21 सितम्बर (स)- प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई ने आज यहां गरीब और पिछड़े लोगों की उन्नति के लिए जनता सरकार और अन्नाद्रमुक सरकार के समान सोच पर खुशी व्यक्त की. प्रधानमंत्री श्री देसाई पुलिस कर्मचारियों के लिए बनाई गई आवास कॉलोनी के उद्घाटन समारोह में बोल रहे थे.

“उन्होंने कहा कि यद्यपि केंद्र तथा तमिलनाडु में भिन्न-भिन्न पार्टीयों की सरकारें हैं, लेकिन समान नीतियां होने के कारण आम आदमी की समस्याओं को दूर करने में किसी तरह की दिक्कत पैदा नहीं होगी. दोनों पार्टीयां गांधी जी के सिद्धांतों में आस्था रखती हैं.

“ प्रधानमंत्री ने कहा कि जनता के लिए पुलिस भय का कारण नहीं होनी चाहिए. पुलिस वालों को चाहिए कि वे जनता का विश्वास प्राप्त करें. उन्होंने आगे कहा कि जब तक समाज पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हो जाता, तब तक असामाजिक तत्वों के प्रति कड़ा रुख अपनाना पड़ेगा.

“ इस समारोह की अध्यक्षता मुख्यमंत्री एम जी रामचंद्रन कर रहे थे.”

मेरी कॉपी के उन्हीं छोटे पर्चों पर यहां-वहां काट-छांट और जोड़ से अशोक जी ने जो खबर मेरे सामने तैयार की थी, वह ऐसी बनी-

“मद्रास, 21 सितम्बर (स)- प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई ने आज यहां इस पर खुशी जाहिर की कि गरीब और पिछड़े लोगों की उन्नति के लिए जनता सरकार और अन्नाद्रमुक सरकार की एक सी सोच है. प्रधानमंत्री श्री देसाई पुलिस के लिए बनायी गई अन्नामलाई नगर की 60 लाख रु की बस्ती का उद्घाटन कर रहे थे. समारोह के अध्यक्ष तमिलनाडु के मुख्यमंत्री श्री जी रामचंद्रन थे.

“ उन्होंने कहा कि यद्यपि केंद्र तथा तमिलनाडु में भिन्न पार्टियों की सरकारें हैं, लेकिन जन साधारण की भलाई में दोनों सहमत हैं. दोनों की गांधी जी के सिद्धांतों में आस्था है.

“ प्रधानमंत्री ने कहा कि पुलिस को अपराधों की जांच में मारपीट न करनी चाहिए. उन्हें शांति प्रिय नागरिकों की रक्षा करनी चाहिए और समाज विरोधियों पर अंकुश रखना चाहिए. यदि समाज के शत्रुओं की बढ़ती होगी, जैसी पहले हो रही थी, तो हमें बरबादी का सामना करना होगा.”

इसी कॉपी के साथ उसी दिन ‘रॉयटर’ (पीटीआई) से अनूदित खबर की भी मेरी कॉपी संलग्न है-

“ वाशिंगटन-21 सितम्बर (रायटर)- सैक्रीन के प्रयोग पर कम से कम 18 महीनों के लिए प्रतिबंध लगाये जाने के प्रस्ताव को स्थगित करने के लिए वाणिज्य समिति के प्रतिनिधियों के सदन ने एक बिल पारित करके सीनेट (फुल हाउस) को भेज दिया है.

“ पिछले सप्ताह सीनेट ने ऐसा ही एक बिल आठ के मुकाबले 87 मतों से पारित कर दिया था. डाइबेटिक्स, डाइटर्स तथा डाइट फूड इण्डस्ट्री की ओर से इसका विरोध किया गया. उनका कहना था कि चीनी का दूसरा कोई स्वीकृत पर्याय नहीं है. इन विरोधों के कारण सदन का प्रतिबंध स्थगित करना पड़ा.

“ दोनों बिलों में मुख्य अंतर यह है कि सीनेट द्वारा पारित बिल के अनुसार सैक्रीन युक्त पदार्थों में एक चेतावनी लगी होनी चाहिए, जबकि समिति के अनुसार यह चेतावनी वस्तुओं की बजाय उन दुकानों पर लगी होनी चाहिए, जहां सैक्रीन वस्तुएं बेची जाती हों.”

उसी कागज पर अशोक जी के चुस्त सम्पादन-संशोधन के बाद यही खबर यूं पढ़ी जा रही है- “ वाशिंगटन-21 सितम्बर (रायटर)- सैक्रीन के प्रयोग पर कम से कम 18 महीनों के लिए प्रस्तावित प्रतिबंध स्थगित करने के विधेयक को प्रतिनिधि सभा की वाणिज्य समिति ने पास करके सीनेट को भेज दिया है.

“ पिछले सप्ताह सीनेट ने ऐसा ही बिल आठ के मुकाबले 87 मतों से पास किया था. मधुमेह के रोगियों, वजन घटाने वालों तथा पथ्य उद्योग की ओर से इसका विरोध किया गया. उनका कहना था कि सैक्रीन के अलावा चीनी का दूसरा कोई पर्याय नहीं है. इस विरोध के कारण प्रतिबंध स्थगित करना पड़ा.

“ सीनेट द्वारा स्वीकृत बिल के अनुसार सैक्रीन युक्त पदार्थों में, उससे हानि की चेतावनी लगी होनी चाहिए, जबकि समिति के अनुसार यह चेतावनी वस्तुओं के बजाय उन दुकानों पर लगी होनी चाहिए, जहां सैक्रीन की वस्तुएं बेची जाती हों.”

कहने की जरूरत नहीं कि अशोकजी के सम्पादन में दोनों खबरें न केवल स्पष्ट हो गयी हैं, बल्कि सरल और बोलचाल के शब्दों ने भाषा को भी अनूदित की बजाय मौलिक बना दिया है. मुझसे छूट गये मूल खबर के कुछ तथ्य उन्होंने जोड़ दिये हैं. कई बार जब हम जल्दबाजी में होते तो समझ में न आने वाली बातें छोड़ देते या गोल-मोल लिख देते. अशोकजी की पैनी नजर सबसे पहले वहीं जाती और लाल कलम उसी जगह टिकती.

अशोकजी  का संपादन.  22 सितम्बर 1977 के स्वतंत्र  भारत  के  लखनऊ संस्करण  के लिए बनाई गई एक ख़बर

 

1977 से जो नयी टीम वे जोड़ रहे थे, उसमें से लगभग हर एक युवा को वे यथासम्भव ऐसे ही मांज रहे थे. कभी कोई लेख अनुवाद करने को पकड़ा देते, कभी कुछ लिख लाने को कहते, कभी डेस्क ड्यूटी के बावजूद रिपोर्टिंग के लिए रवाना कर देते.

सन 1996 में ‘स्वतंत्र भारत’ के एग्रो कम्पनी के हाथों बिक जाने के बाद विधान सभा मार्ग वाला दफ्तर खाली करने के दिन अशोक जी के हाथों की लिखी जो पर्चियां मैंने बटोर कर सम्भाल ली थीं, उनमें से कुछ का यहां उल्लेख स्पष्ट कर देगा कि अपने अखबार की भाषा और तथ्यों पर उनकी कितनी पैनी दृष्टि रहती थी, कि वे किस ढंग से सम्पादकीय विभाग को निर्देशित करते रहते थे. इन पर्चों में किसी में तारीख और वर्ष पड़े हैं, किसी में नहीं. हर नोट में अपने हस्ताक्षर करना और ज्यादातर में सबसे नोट करने को लिखना नहीं भूले हैं-

“कंबोडिया को ‘कांबुज’ लिखें. शुरू में ब्रैकेट में (कंबोडिया) भी लिख दें. अंग्रेजी में स्पेलिंग ‘कांबुजिए’ आयी है, जो वास्तव में ‘कांबुज’ है”

“जल स्तर बढ़ने के बजाय कृपया केवल, जल बढ़ने, बाढ़ आई. Flood के लिए बाढ़, बहिया. रवि राय, सिद्धार्थ शंकर राय, सत्यजित राय लिखें. Ray के लिए ‘रे’ नहीं ‘राय’ लिखें. विवाह समाचार में चि., आयु. आदि विशेषण न लगाएं. सब लोग देखें व नोट करें.”

20 फरवरी 1976 का यह नोट एक वरिष्ठ सम्पादकीय साथी के नाम से है- “19 फरवरी के ‘स्वतंत्र भारत’ में ‘आई एन एस उदयगिरि’ शीर्षक समाचार आपका किया हुआ है. इसमें आपने ‘आई एन एस उदयगिरि’ को मालवाही पोत लिखा है. सम्भवत: यह फ्रिगेट शब्द का अनुवाद है. फ्रिगेट मालवाही नहीं, जंगी जहाज होता है. बाद के पैराग्राफ में इसका जो विवरण है, उससे भी आपको यह समझ में आ जाना चाहिए था कि यह जंगी जहाज है. आपके जैसे पुराने सहकारी सम्पादक से अंग्रेजी की ऐसी भद्दी भूल की अपेक्षा नहीं की जाती, खास कर ऐसे शब्द की जो प्रतिदिन के प्रयोग का हो.”

बिना तारीख के एक नोट में निर्देश है- “केसरी दाल नहीं, खेसारी लिखें. काला बाजार के बजाय पहले से चोर बाजार प्रचलित है, अब चोर बाजार ही लिखें. माह नहीं, मास.”

11 जनवरी 1978 को ‘सम्पादकीय’ को सम्बोधित नोट- “आज शाह आयोग की रिपोर्ट में यह पंक्ति गई है कि इसकी कारवाई फौजदारी नहीं बल्कि दीवानी मुकदमे के समान है. यह गलत है. होना चाहिए फौजदारी और दीवानी के समान नहीं है. डाक में सही गया है. यद्यपि यह हिंदुस्थान समाचार की रिपोर्ट है, किंतु इसका सावधानी से एडिट होना चाहिए. यदि अंग्रेजी तार और डाक की अपनी खबर देख ली गई होती तो यह गम्भीर भूल न होती.”

13 जनवरी 1978 का नोट- “ पूरे पेज का बैनर शीर्षक केवल अति महत्त्व के समाचारों के लिए सुरक्षित रखना चाहिए. आज के अंक में प्र मं की प्रेस कांफ्रेंस पर उक्त बैनर उचित न था.”

इसी तारीख का एक और पर्चा है- “कई बार अनावश्यक रूप से ‘नेता’ शब्द का प्रयोग होता है, जैसे जनता पार्टी के नेता, अमुक छात्र नेता. नेता के बजाय यदि पदाधिकारी हो तो पद का अन्यथा केवल छात्र या पार्टी का उल्लेख होना चाहिए.”

17 नवम्बर 1976 का निर्देश-“कलकत्ता में नागरी प्रचारिणी सभा के समारोह और हिंदी साहित्य सम्मेलन की खबरें कृपया मुझे दिखा कर दी जाएं. रत्नाकर पाण्डे और सुधाकर पाण्डे के प्रोपेगैण्डा से हमें होशियार रहना चाहिए.”

20 अप्रैल को (सन दर्ज नहीं) में –“अपने पत्र में ‘जालिया नटवरलाल’ शीर्षक कई बार देखने में आया. शीर्षक या समाचार में जालिया, खूनी, या चोर जैसे शब्द नहीं देने चाहिए. सजा न होने तक ये मुजरिम या अभियुक्त हैं. कृपया ध्यान रखें.”

22 अक्टूबर, 1976 को- “हुआ कुओ फेंग के संक्षिप्त में फेंग नहीं, ‘हुआ’ लिखना चाहिए. चीनी नाम का

प्रथम ही लिखा जाता है- यथा, माओ, चाओ.”

“पार्थिव शरीर की अंत्येष्टि नहीं” शीर्षक रेखांकित नोट भी शायद उसी 22 अक्टूबर का है- “केवल अंत्येष्टि काफी है, पार्थिव शरीर की ही अंत्येष्टि होती है, सूक्ष्म की नहीं.”

आठ जून, 1976- “आज सबेरे गवर्नरों की नियुक्ति की खबर नहीं है. तार पर रात 11 बजे का समय पड़ा है. ऐसी खबर, खासकर छोटी, 11 बजे के बाद भी ली जानी चाहिए. कानपुर में शम्भू बंगाली के गोली से मारे जाने की खबर प्रथम पेज पर जानी चाहिए. पृ 8 पर भी यह डबल कालम पहली खबर होनी चाहिए थी.”

17 अगस्त 1978 का टाइप किया हुआ हस्ताक्षरित नोट- “राज्य सभा में हिंदी थोपने के प्रयास की तीखी आलोचना. पृ 2 पर हेडिंग. इस प्रकार के शीर्षक ठीक नहीं. इससे ध्वनि निकलती है कि हम यह मानते हैं कि हिंदी थोपी जा रही है. होना चाहिए- हिंदी थोपने का आरोप, या हिंदी का विरोध. वाक्य का गठन भी ठीक नहीं, ‘राज्य सभा में’, ‘प्रयास की ’ के बाद आना चाहिए. वर्ना लगता है कि राज्य सभा में हिंदी थोपी जा रही है.”

एक सम्पादक की पत्रकारिता, खबरों के चयन, प्रस्तुतीकरण, अपनी और दूसरी भाषा की समझ, सही वर्त्तनी, शब्द-प्रयोग और देश-दुनिया के प्रति सजगता, सामाजिक सतर्कता एवं चिंता का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है. यह समझ, चिंता और सतर्कता आज कहां हैं ? वे क्यों गायब हो गयीं ?

सन 1865 में एक अंग्रेज व्यापारी जॉर्ज एलन ने इलाहाबाद से अंग्रेजी अखबार ‘द पायनियर’ शुरू किया था. प्रसिद्ध लेखक रुडयार्ड किप्लिंग ने अपनी युवावस्था में इसमें काम किया. बाद में ब्रिटिश प्रधानमंत्री बने विंस्टन चर्चिल कभी इसके युद्ध सम्वाददाता रहे थे. जुलाई, 1933 में ‘ द पायनियर ’ भारतीय उद्यमियों के एक सिण्डिकेट के हाथों बिक गया और लखनऊ से छपने लगा. इसके संचालक मण्डल में मौरावां के कुंवर गुरुनारायण, लाला हरीराम सेठ, कोटरा के राजा विश्वेश्वर दयाल, कोयल के राजा युवराजदत्त सिंह, प्रयागपुर के राजा वीरेंद्रविक्रम सिंह जैसे हिंदी प्रेमी शामिल थे. इन हिंदी प्रेमियों ने ‘द पायनियर’ के साथ आजादी की पहली सुबह से एक हिंदी अखबार शुरू करने की ठानी. ऐसे अखबार का नाम ‘स्वतंत्र भारत’ से सुंदर एवं सटीक और क्या हो सकता था.

यह नाम रखने में एक दिक्कत थी कि सम्पादकाचार्य अम्बिका प्रसाद बाजपेयी कलकत्ता से ‘स्वतंत्र’ नाम से अखबार निकालते थे. संयोग से उन दिनों वह बंद था. बाजपेयी जी ने अनुमति दे दी. सम्पादक की तलाश अशोकजी के नाम पर पूरी हुई, जो तब वाराणसी में बाबू विष्णुराव पराड़कर और कमलापति त्रिपाठी के साथ ‘संसार’ पत्र में काम कर रहे थे. ‘संसार’ पहले दैनिक और साप्ताहिक था. अशोकजी इनके साथ ही प्रकाशित होने वाले अर्द्ध-साप्ताहिक ‘ग्राम संसार’ के सम्पादक भी थे. पराड़कर जी काशी के बलदेव प्रसाद गुप्त के प्रसिद्ध अखबार ‘आज’ के सम्पादक हुआ करते थे. 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में आज बंद हो गया तो गुप्त जी ने 1943 में ‘संसार’ शुरू कराया था. गुप्त जी से अशोकजी की रिश्तेदारी थी और वही उन्हें ‘संसार’ में लाये थे. 1944 में कुछ समय के लिए अशोकजी दैनिक ‘अधिकार’ का सम्पादन करने लखनऊ भी आये थे.

बनारस के एक सम्पन्न अग्रवाल परिवार में जन्मे अशोकनाथ गांधी जी के प्रभाव में आकर स्कूली दिनों ही से सिर्फ अशोक और बाद में अशोकजी बन गये थे. काशी हिंदू विश्वविद्यालय से बी ए और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इतिहास में एम ए करने के बाद वे पीएचडी करके अध्यापन को पेशा बनाना चाहते थे. उन्होंने हरिश्चंद्र हाईस्कूल, काशी में पढ़ाने के साथ शोध कार्य भी शुरू कर दिया था लेकिन भविष्य उनके लिए दूसरी ही भूमिका तैयार कर रहा था.

काशी के कुछ मित्रों ने, जिनमें बेधड़क बनारसी जैसे हास्य कवि भी थे, ‘तरंग’ नाम से हास्य-पत्रिका निकालने की ठानी और अशोकजी को भी उसके सम्पादन में शामिल कर लिया. फिर तो पीएचडी और अध्यापकी धरी रह गयी. अध्यापकी छोड़ने का एक कारण उनकी गले की बीमारी भी थी, जिसके इलाज में डॉक्टरों ने कम बोलने वाला पेशा अपनाने की सलाह दी थी. शैक्षिक जगत के नुकसान का तो पता नहीं, लेकिन हिंदी पत्रकारिता को एक समर्पित सेवक एवं प्रवर्तक अवश्य मिला.

अशोकजी ने स्वयं लिखा है कि “‘पायनियर’ के पहले भारतीय सम्पादक सुरेंद्रनाथ घोष थे. ‘स्वतंत्र भारत’ के सम्पादक के लिए मेरा नाम उन्होंने ही कुंवर गुरुनारायण के सामने रखा था और प्रत्येक कदम पर उनका स्नेहपूर्ण पथ-प्रदर्शन ‘स्वतंत्र भारत’ को मिला. ‘पायनियर’ में सम्पादकीय स्वतंत्रता और निष्पक्षता की जो उदात्त परम्परा थी, वह ‘स्वतंत्र भारत को दान में मिली.’’

पंद्रह अगस्त, 1947 को देश की स्वतंत्रता की पहली प्रात: वेला में ‘स्वतंत्र भारत’ का पहला अंक निकालना कितना रोमांचक और हर्षोल्लास का अवसर रहा होगा. और भी रोमांचित हो जाता हूं यह सोच कर कि सम्पादक अशोक जी तब 31 वर्ष के रहे होंगे. अगस्त 1977 में जब पहली बार उनके सामने खड़ा था तो मैं 21 वर्ष का था और 61 साल के अशोक जी को देख रहा था. हिंदी पत्रकारिता के 30 साल के ऊबड़-खाबड़ सफर ने उनसे खूब वसूली कर ली थी.

कैसी रही होगी अशोकजी की पहली सम्पादकीय टीम ! हमें बताया गया कि कुल छह लोग थे और शायद कोई भी अनुभवी न था. उनमें से दो धुरंधरों से बाद में मिलने का सौभाग्य मिला- उपेंद्र बाजपेयी और अखिलेश मिश्र. उपेंद्र जी अम्बिका प्रसाद बाजपेयी के सुपुत्र थे जो ‘स्वतंत्र भारत’ के बाद दिल्ली जाकर ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में बरसों-बरस राजनीतिक सम्वाददाता और विश्लेषक रहे.

श्रमजीवी पत्रकार यूनियन में सक्रिय और ‘मीडिया सेण्टर’ के संथापकों में रहे. स्वतंत्रता संग्राम में उन्हें जेल भी हुई थी. अखिलेश मिश्र प्रखर विचारक, अपनी भाषा-बोली-मुहावरे के योद्धा, जनता के खांटी पत्रकार और सम्पादकीय सरोकारों के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे. वे कुछ अखबारों के सम्पादक भी बने लेकिन पत्रकारिता के मूल्यों के लिए तनिक भी समझौता करने की बजाय इस्तीफा देते रहे. उन्होंने प्रचुर मात्रा में सार्थक लेखन किया. उन्हें जानने के लिए उनकी एक ही किताब ‘मिशन से मीडिया’ (सम्पादन-वन्दना मिश्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली) काफी होगी.

एक और हस्ती से मिलने और थोड़ा जानने का मौका मिला- एस एन निगम, जो मुंशी जी के नाम से बेहतर जाने जाते रहे. ठीक मालूम नहीं कि मुंशी जी ‘स्वतंत्र भारत’ की शुरुआती टीम में थे या बाद में शामिल हुए. 1977-78 में जब हम उनसे मिले तब वे महानगर के अपने घर में ‘थियोसॉफिकल सोसायटी’ चलाते थे जिसका विशाल पुस्तकालय हमें आकर्षित और आतंकित भी करता था.

वे ‘स्वतंत्र भारत’ के समाचार सम्पादक थे जब ‘दैनिक जागरण’ ने अपना अंग्रेजी दैनिक ‘डेली नेशन’ शुरू करने के लिए उन्हें सम्पादक के रूप में कानपुर बुलाया. जागरण के सम्पादकीय साथियों ने जब उन्हें वहां के हालात बताये तो वे मालिकों से यह कह कर लखनऊ लौट आये कि पहले पत्रकारों की स्थितियां ठीक करिए. देश-सेवा में बाधा न हो इसलिए सन्तान नहीं पैदा करने की शपथ ली और निभायी. स्वतंत्रता सेनानी को मिलने वाली पेंशन लेने से इनकार कर दिया था. उनकी पत्नी एलआईसी का काम करके खर्च निकालती थीं.

एक बार किसी शुभेच्छु, नगर महापालिका कर्मचारी ने उनका गृह-कर कम कर दिया तो लड़ने चले गये थे. मेडिकल कॉलेज में जब उनकी मृत्यु हुई तो मैंने उनकी वृद्ध पत्नी को मुंशी जी के नेत्रदान के संकल्प को पूरा कराने के लिए दौड़ते-गिड़गिड़ाते देखा था.

हमने इन विद्वान पत्रकारों और दुर्लभ गुणी मनुष्यों को उनकी वृद्धावस्था में देखा यद्यपि उनकी प्रखरता शायद ही मद्धिम पड़ी हो. वे खूब पढ़ने-लिखने वाले, देश-दुनिया के हालत से वाकिफ, अपनी सांस्कृतिक जड़ों से सिंचित, सामाजिक-राजनैतिक हालात से चिंतित, निडर एवं स्पष्ट वक्ता और अपने जीवन-मूल्यों से प्रतिबद्ध पत्रकार थे.

एक बार मुंजी जी के घर की छत पर बैठे हुए मैंने कपूरथला चौराहे की दिशा बिल्कुल गलत इंगित कर दी थी. मुंशी जी ने सही किया तो मैं कह बैठा- ‘मुझे दिशा-भ्रम हो गया.’ उन्होंने फौरन टोका था- ‘आपको दिशा-ज्ञान है ? भ्रम उसे हो सकता है जिसे ज्ञान हो.’

एक दिन किसी अखबार के बैनर शीर्षक में किसी लम्बी यात्रा के लिए ‘महायात्रा’ शब्द देख कर अखिलेश जी नये पत्रकारों की अज्ञानता पर बहुत देर तक आवेश में बोलते रहे थे- “इन्हें पता ही नहीं कि ‘महा ’ उपसर्ग का अर्थ क्या होता है. महायात्रा माने अंतिम यात्रा, शव यात्रा.’ 2017 के बहुत सारे हिंदी पत्रकारों को ‘उपसर्ग’ भी मालूम न होगा कि क्या होता है.

तो, ऐसे पत्रकारों की टीम का नेतृत्व किया था अशोकजी ने. क्या माहौल रहता होगा, कैसे विचार-विमर्श और तर्क-वितर्क होते होंगे. सम्पादकीय लिखते हुए, शीर्षक बनाते समय तकरार भी हो जाती होगी. 15 अगस्त, 1947 के पहले अंक का सम्पादकीय क्या हो, इस पर प्रबंधन की राय बनी कि ‘द पायनियर’ के लिए अंग्रेजी में लिखा गया सम्पादकीय हिंदी में अनुवाद करके दे दिया जाए. अशोकजी इससे सहमत नहीं हुए. उन्होंने ‘स्वतंत्र भारत’ के लिए अपना अलग सम्पादकीय लिखा-

“ मुंह में हंसी और हृदय में रुदन लेकर हम आज स्वतंत्रता का स्वागत कर रहे हैं. सदियों से अवरुद्ध स्वाधीनता-मंदिर के द्वार खुले भी तो इष्ट देवता की मूर्ति खण्डित पड़ी है. हमें मंदिर खुलने का आनंद है, पर मूर्ति खण्डित होने का शोक भी कम नहीं है….. हम चाहते हैं आनंद में मत्त होना, उल्लास में डूब जाना और उमंगों में बहना, पर लाहौर की ज्वालाएं, और कलकत्ते-अमृतसर के आर्त्तनाद हमें ऐसा करने नहीं देते…”

छोटे आकार के, पांच कॉलम वाले छह पृष्ठों के ‘स्वतंत्र भारत’ के पहले पन्ने पर तिरंगा थामे प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू की फोटो थी, राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में हुई संविधान सभा की बैठक की खबर थी और संयुक्त प्रांत (तब का उत्तर प्रदेश) की पहली गवर्नर सरोजिनी नायडू के शपथ ग्रहण की तस्वीर भी प्रकाशित हुई थी.

अशोकजी ने ‘स्वतंत्र भारत’ को समाचार पत्र के अलावा लखनऊ का साहित्यिक-सांस्कृतिक अड्डा भी बनाया और बहुत सारे लेखकों, विद्वानों, कलाकारों को उससे जोड़ा. उस समय लखनऊ में इस अड्डे की जरूरत भी थी.

दुलारे लाल भार्गव जी की ख्यातिनाम पत्रिका ‘सुधा’ बंद हो चुकी थी और ‘माधुरी’ (1922-50) का स्वर्णिम समय बीत चुका था. यशपाल का ‘विप्लव’ (नवम्बर 1938- अप्रैल, 1949) भी सरकारी कोप के व्यवधान झेलता अपने अंतिम वर्षों की ओर बढ़ रहा था. कम्युनिस्ट पार्टी का दैनिक‘अधिकार’ बंद था. ‘स्वतंत्र भारत’ जल्दी ही स्थापित-सम्मानित पत्र बन गया. एक महीने ही में विक्री का आंकड़ा पांच हजार के पार हो गया था.

सन 1953 में अशोकजी केंद्र सरकार के सूचना विभाग में सूचना अधिकारी बन कर चले गये तो अपने योग्य सहयोगी योगेंद्रपति त्रिपाठी को ‘स्वतंत्र भारत’ का सम्पादक बना गये, जिनसे उनकी भेंट 1944 में दैनिक ‘अधिकार’ में हो चुकी थी और जिन्हें वे ‘स्वतंत्र भारत’ में ले आये थे. हमारे वरिष्ठ साथी त्रिपाठी जी का नाम बहुत श्रद्धा और सम्मान से लेते थे. कहते कि उन्होंने अखबार को अशोकजी से भी बेहतर ढंग से चलाया और विकसित किया. 1971 में त्रिपाठी जी की मृत्यु हो गयी. तब मालिकों के आग्रह पर अशोकजी 1971 के अंत में पुन: ‘स्वतंत्र भारत’ के सम्पादक होकर लखनऊ आ गये. त्रिपाठी जी के बड़े पुत्र शचींद्र त्रिपाठी ‘स्वतंत्र भारत’ में हमारे वरिष्ठ थे जो बाद में नवभारत टाइम्स, बम्बई चले गये और उसके स्थानीय सम्पादक होकर रिटायर हुए.

25 जून, 1975 की रात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने बढ़ते राजनैतिक विरोध को कुचलने और अपनी सत्ता बचाने के लिए देश में आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया था. विरोधी नेता गिरफ्तार कर जेल में डाले गये और अखबारों पर सेंसर लगा दिया गया. अखबारों में कौन-सी खबरें नहीं छपेंगी या किस तरह छपेंगी, यह देखने के लिए सूचना विभाग और पत्र सूचना कार्यालय विभाग के अधिकारियों को सेंसर-अधिकारी के रूप में तैनात किया गया था.

‘ स्वतंत्र भारत’ के सम्पादकीय-निर्देश रजिस्टर के जो कुछ पेज मेरे पास सुरक्षित हैं, उनमें से कुछ सेंसर-अधिकारियों के निर्देश भी हैं. सेंसर अधिकारी नियमित फोन करके सम्पादक, समाचार सम्पादक या समकक्ष वरिष्ठ पत्रकार को कुछ निर्देश लिखवाते थे, जो जाहिर है उन्हें दिल्ली से मिलते होंगे. फोन सुनने वाला इन निर्देशों को सेंसर-अधिकारी के हवाले से लिख कर सभी के ध्यानार्थ रजिस्टर में नत्थी कर देता. इन पर अमल करना अनिवार्य था अन्यथा गिरफ्तारी से लेकर प्रेस-बंदी तक हो सकती थी. इनमें से कुछ आदेशों पर नजर डालने से पता चलेगा कि इमरजेंसी में अखबारों पर किस तरह का अंकुश था. समाचार और विचार चापने की उनकी आजादी छीन ली गयी थी.

“सेंसर अधिकारी, एम आर अवस्थी का फोन, नौ अक्टूबर 1976 को-

1-भारत और अन्य किसी देश के बीच शस्त्रास्त्र अथवा रक्षा समझौते की सूचना तथा उस पर कोई टिप्पणी प्रकाशित न की जाए.

2-बस्ती जिले में बीडीओ तथा एडीओ की हत्या का समाचार न छापा जाए.”

20 जुलाई 1976 को अशोक जी के हस्तलेख और हस्ताक्षर से जारी नोट- “नसबंदी में मृत्यु या अन्य धांधली की खबरें न दी जाएं. प्राप्त होने पर इन्हें समाचार सम्पादक श्री दीक्षित या मुझे दिया जाए.”

बिना तारीख का एक हस्तलिखित नोट- “गुजरात हाईकोर्ट के जजों के तबादले सम्बंधी बहस का कोई समाचार बिना सेंसर कराए नहीं जा सकता.”

10 दिसम्बर 1976 को समाचार सम्पादक के हस्ताक्षर से जारी सेंसर-आदेश- “14 दिसम्बर को संजय गांधी का जन्म-दिवस है. इस संदर्भ में किसी भी कांग्रेसी नेता का संदेश नहीं छपेगा. सूचना विभाग से टेलीफोन पर सूचना मिली.”

17 दिसम्बर 1976 को समाचार सम्पादक के नाम से जारी अंग्रेजी में टाइप, सूचना विभाग से आया सेंसर-आदेश- “ रंगभेद विरोधी दक्षिण अफ्रीकी-भारतीय परिषद के चेयरमैन श्री ए एन मुल्ला का कोई भाषण या वक्तव्य आपके क्षेत्र के किसी भी अखबार में नहीं जाने दिया जाए.”

11 जुलाई, 1976 का टाइप किया हुआ अहस्ताक्षरित नोट- “सूचना विभाग में सेंसर के श्री वाजपेई ने फोन किया था कि सेंसर आदेशानुसार परिवार नियोजन, शिक्षा शुल्क में वृद्धि तथा सिंचाई दरों में वृद्धि के विरुद्ध किसी प्रकार का समाचार न छापा जाए. इसके अतिरिक्त, छात्र-आंदोलन की खबरें भी नहीं छपेंगी.”

28 दिसम्बर (सन दर्ज नहीं) को समाचार सम्पादक के हस्ताक्षर से जारी अंग्रेजी में टाइप किया हुआ “सेंसर-निर्देश- कांग्रेस, यूथ कांग्रेस और अखिल भारतीय कांग्रेस के भीतर अथवा आपस में विवाद और गुटबाजी के बारे में कोई भी खबर, रिपोर्ट और टिप्पणी कतई नहीं (किल्ड) दी जाए. यह विशेष रूप से केरल, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा कांग्रेस की खबरों पर लागू होगा.”

25 अक्टूबर (सन दर्ज नहीं) का अंग्रेजी में हस्तलिखित नोट- “सेंसर ऑफिस से श्री पाठक का निर्देश- यह फैसला हुआ है कि 29 अक्टूबर से होने वाले चौथे एशियाई बैडमिण्टन टूर्नामेण्ट में चीन की बैडमिण्टन टीम की भागीदारी भारतीय अखबारों में बहुत दबा दी जाए.”

ज्यादातर अखबारों की तरह ‘स्वतंत्र भारत’ ने भी आपातकाल या प्रेस-सेंसरशिप का किसी भी रूप में विरोध करने की बजाय चुपचाप उसका पालन किया. हमारे वरिष्ठ साथी बताते थे कि 25 जून की 1975 की रात आपातकाल लागू होने के बाद जब अगले दिन सेंसर और जिला प्रशासन के अधिकारियों ने प्रेस आकर निर्देश जारी करने शुरू किये और जांच-पड़ताल करने लगे तो अशोक जी को सूचना दी गयी. वे फौरन दफ्तर आये और तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा को फोन करके इस पर विरोध जताया था. उसके बाद बहुगुणा जी उनसे मिलने भी आये थे.

आपातकाल हटने के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस (इ) की बहुत बुरी पराजय हुई. मोरारजी देसाई के नेतृत्त्व में केंन्द्र की सरकार के सभी मंत्रियों को जयप्रकाश नारायण ने राजघाट पर ईमानदारी और शुचिता की शपथ दिलाई. इसे दूसरी आजादी कहा गया. देश भर में बदलाव और उत्साह का माहौल था. लेकिन बहुत जल्दी जनता पार्टी में झगड़े शुरू हो गये.

एक दिन अचानक हमें पता चला कि स्वतंत्र भारत सम्पादकीय में दो नियुक्तियां हो गयी हैं. गुपचुप बताया गया कि आरएसएस के लोग हैं. अन्य अखबारों में भी ऐसे पत्रकारों की भर्ती की खबरें आने लगीं. लालकृष्ण आडवाणी केंद्र में सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे ही. संघ की सदस्यता और सक्रियता जनता पार्टी में बड़े झगड़े का करण भी बनी. खैर.

दफ्तर और बाहर भी हम युवकों की टीम एक साथ मिल-बैठ कर खाती-पीती थी. ताहिरअब्बास को हमारे साथ खाते-पीते देख कर नये आये एक ‘संघी’ पत्रकार ने हमें किनारे ले जाकर कहा- “आप लोग ब्राह्मण होकर मलेच्छ के साथ कैसे खा लेते हैं.” सयाने थे, इसलिए हमने उन्हें मारा तो नहीं लेकिन इतना परेशान किया कि वे दो-तीन महीने में ही भाग खड़े हुए.

आजादी के बाद के वर्षों में कभी ‘द पायनियर लिमिटेड ’ का स्वामित्व कानपुर के मशहूर स्वदेशी कॉटन मिल्स के मालिक सेठ मंगतू राम जयपुरिया के हाथ में चला गया था. 1977 में भी ‘स्वतंत्र भारत’ में अशोकजी ने काबिल लोगों की टीम जुटा रखी थी. धीर-गम्भीर सत्यनारायण जायसवाल को ‘अमृत प्रभात’ जाने से पहले चंद रोज ही देख पाया. जायसवाल जी के साथ ‘अमृत प्रभात’ जाने वालों में के बी माथुर, रमेश जोशी, श्रीधर द्विवेद्वी, आर डी खरे, सुरेश सिंह, वगैरह थे. ‘अमृत प्रभात’ पहले इलाहाबाद से और बाद में लखनऊ से भी प्रकाशित हुआ. हिंदी पत्रकारिता में वह भी कुछ नयापन लेकर आया.

मुझे याद है कि ‘अमृत प्रभात’ जाने वाले कुछ वरिष्ठ पत्रकार ‘स्वतंत्र भारत’ की तत्कालीन स्थितियों से खिन्न दिखायी देते थे जबकि हमें वे दिन अपनी पत्रकारिता के स्वर्ण-काल के रूप में याद हैं. जाहिर है कि हालात बदल रहे थे. उन्होंने और भी बेहतर स्थितियां देखी होंगी. हम सुनते थे उन दिनों के बारे में जब पत्रकारों के लिए हाजिरी-रजिस्टर नहीं होता था, जब प्रबन्धन के किसी अधिकारी का सम्पादकीय विभाग का रुख करना बड़ी घटना माना जाता था और सम्पादकीय साथियों को वेतन लेने के लिए भी ‘मैनेजमेण्ट साइड’ जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी. हर पत्रकार के वेतन का लिफाफा पहली तारीख को समाचार-डेस्क पर आ जाता था.

हमारे समय में भी कुछ साल तक पहली तारीख को खजांची और उनका सहायक कैश-बॉक्स लेकर वेतन बांटने सम्पादकीय विभाग में आया करते थे. सम्पादक और उनकी टीम किसी मंदिर के गर्भ-गृह की तरह पवित्र मानी जाती थी. लेखकों का बड़ा सम्म्मान होता था. ‘स्वतंत्र भारत’ के रचनाकारों का पारिश्रमिक कम होता था लेकिन हर मास मनी-ऑर्डर से भेजा जाता या फिर प्रूफ रीडर अग्निहोत्री जी सूची और रकम कुर्ते की लम्बी जेब में लिए घूमते थे. लेखक के कहीं भी दिख जाने पर वे उसे पारिश्रमिक थमाते और हस्ताक्षर लेकर नमस्कार करते थे. उन्हें यह अतिरिक्त दायित्व अशोक जी ने दे रखा था, जिसे निभाने में अग्निहोत्री जी ने कभी कोताही नहीं की.

‘स्वतंत्र भारत’ में सीखने-पढ़ने-लिखने का हमें अच्छा माहौल मिला. हमारी टीम के समाचार सम्पादक वयोवृद्ध चंद्रोदय दीक्षित जी थे, स्वतंत्रता सेनानी और एम एन रॉय के अनुगामी. वह गाम्भीर्य, धैर्य, अनुशासन के प्रतीक और स्नेह-पुंज थे. वैचारिक चर्चा उनकी अशोकजी से ही होती थी और उन्हीं की तरह हमें सिखाने को हमेशा तैयार. उप समाचार सम्पादक शम्भूनाथ कपूर को हमने अपने वरिष्ठ पत्रकार के रूप में नहीं, संरक्षक ही के रूप में पाया. डांटना, पुचकारना, समय पर घर भेजना, किसी बीमार सहयोगी की मदद को दौड़ाना. खेल उनका प्रिय विषय था और जमन लाल शर्मा से पक्की यारी थी. दीक्षित जी और कपूर साहब शाम को नियमित रूप से कॉफी हाउस जाकर बैठते.

अपने दो मुख्य उप-सम्पादकों से अलग-अलग कारणों से हमारा विशेष लगाव था. सियारामशरण त्रिपाठी देश-दुनिया के अच्छे जानकार, खबर बनाने को देने से पहले उसका सार समझा देने वाले, नयी पीढ़ी से मुहब्बत करने वाले थे. कभी खैनी की चुटकी, यदा-कदा जिन का घूंट और चाय-कॉफी पीने के लिए दस का नोट भी वही देते. आईएफडब्ल्यूजे में विक्रम राव के मुकाबिल वही खड़े होते और पराजित होते. नशे की बढ़ती लत ने बाद में उन्हें कमजोर और बरबाद किया.

युवा और तेज-तर्रार वीरेंद्र सिंह यद्यपि वाम-विरोधी थे लेकिन बहुत पढ़ाकू होने के कारण हमारे हीरो भी थे. वे सोवियत खेमे के विरुद्ध अमेरिकी किस्से सुनाते हुए दफ्तर के बाहर घुमाने भी ले जाते लेकिन उनके साथ अपनी चाय के पैसे खुद देने पड़ते. अमेरिकी ‘काउ-बॉय’ अंदाज में रहने वाले वीरेंद्र सिंह अशोकजी समेत पुरानी पीढ़ी की खिल्ली उड़ाते. बाद में वे ‘स्वतंत्र भारत’ के सम्पादक बने, अमेरिकी सरकार के अतिथि बन कर वहां दौरे पर गये और उसकी प्रशस्ति में ‘अमेरिका-अमेरिका’ नाम से किताब लिखी. फिर नवभारत टाइम्स ने उन्हें लखनऊ संस्करण निकालने के लिए नियुक्त किया लेकिन वह योजना अमल में ही नहीं आयी. तब दिल्ली में फ्री-लांसिंग करते हुए एक दिन हृदयाघात से उनका निधन हो गया.

वाम-समर्थक गुरुदेव नारायण हमें शायरी और संगीत के अपने शौक से प्रभावित करते. अश्विनी कुमार द्विवेद्वी संगीत कार्यक्रमों एवं आकाशवाणी की साप्ताहिक समीक्षा लिखने के लिए आते थे. वे हमसे खूब बातें करते. सांस्कृतिक रिपोर्टिंग का कुछ सलीका हमने उनसे सीखा.

राजनीति, साहित्य-संस्कृति, सामाजिक एवं अन्य विविध क्षेत्रों में सक्रिय नामी लोग ‘स्वतंत्र भारत’ के कार्यालय आते रहते. कमलापति त्रिपाठी, चंद्रभानु गुप्त, हेमवती नंदन बहुगुणा, क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त, पी डी टण्डन, कॉमरेड रुश्तम सैटिन, रमेश सिंहा, प्रताप भैया, अमृत लाल नागर, भगवती चरण वर्मा, ठाकुर प्रसाद सिंह, शिवानी, कृष्ण नारायण कक्कड़, प्रबोध मजूमदार, गिरिधर गोपल, मुद्राराक्षस, गोपाल उपाध्याय, बीर राजा, रमई काका, अर्जुनदास केसरी, यमुनादत्त वैष्णव ‘अशोक’, परिपूर्णानंद पैन्यूली, सुंदरलाल बहुगुणा, और भी बहुत सारे लोग, शहर के और बाहर से लखनऊ आने वाले भी. के पी सक्सेना, उर्मिल थपलियाल, योगेश प्रवीन तब युवा लेखक थे. रचनाकारों की कई पीढ़ियां ‘स्वतंत्र भारत’ के ‘बाल संघ’ और ‘तरुण संघ’ से पली-बढ़ीं.

हमारी युवा टीम के अघोषित लीडर प्रमोद जोशी थे, जो हमसे करीब तीन साल पहले से ‘स्वतंत्र भारत’ में काम कर रहे थे. हजरतगंज के ‘जॉन हिंग’ में प्रवेश करना हो, मद्रास मेस का दोसा खाना हो या आर्ट्स कॉलेज में आर एस बिष्ट, अवतार सिंह पंवार, जयकृष्ण, पी सी लिटिल और योगी जी की संगत करनी हो या चेतना बुक डिपो में दिलीप विश्वास से किताबों के बारे में पूछना हो, अगुवाई प्रमोद जी की होती. सीपीआई के कॉमरेड दुर्गा मिश्र प्रमोद जी के नाम ‘न्यू एज’ लेकर आते तो सीपीएम के कॉमरेड जाहिद अली ‘पीपल्स डेमोक्रेसी’ तथा ‘सोशल सांइटिस्ट’ दे जाते. यह हमारी साझा सम्पति बन जाता. बहुत सारी चीजें समझ में नहीं आतीं थी लेकिन पन्ने उलटते-पुलटते और अधकचरी बहस करते. देर रात अखबार का नगर संस्करण छोड़ने के बाद ‘पायनियर’ के गेट पर सुबह तक चाय पीते रहते या कभी सम्पादकीय विभाग की लम्बी मेज पर अखबारों का तकिया बनाकर सो जाते. यह सब हमारी पत्रकारिता का परिवेश था, हमारा स्कूल था.

अशोकजी हम नये लड़कों को कुछ न कुछ लिखने या अनुवाद करने को देते रहते. कभी रिपोर्टिंग के लिए भी भेज देते. फरवरी 1978 में एक दिन उन्होंने मुझसे अखबार के लिए लखनऊ शहर पर केंन्द्रित साप्ताहिक कॉलम शुरू करने को कह दिया. कॉलम का नाम ‘परिक्रमा’ रखा और मेरा नामकरण ‘नारद’ कर दिया. कुछ समय पहले तक ‘स्वतंत्र भारत’ में ‘शहर का अंदेशा’ नामक कॉलम प्रकाशित होता था, जिसके लेखक ‘काजी’ थे. किसी करण उसे बंद करना पड़ा था. ‘परिक्रमा’ उसी की जगह शुरू हुआ. मेरे लिए यह बहुत अच्छा अवसर था मगर आसान नहीं था. ऊपर से अशोक जी का आदेश था कि इस कॉलम को वे खुद सम्पादित करेंगे. हर हफ्ते कॉलम लिख कर उनके सामने हाजिर होना पड़ता था. वे बाहर होते तो समाचार सम्पादक चंद्रोदय जी जांचते.

अक्टूबर 1978 में दिल का दौरा पड़ने के बाद जब अशोक जी दो महीने बिस्तर पर थे तब भी मुझे हर सप्ताह ‘परिक्रमा’ लिख कर राजभवन कॉलोनी वाले घर में उनके सामने मौजूद रहना पड़ता था. यह रगड़ाई खूब काम आयी. इस कॉलम में चुटकियां भी खूब ली आती थीं. एक बार मैंने मुद्राराक्षस पर कटाक्ष कर दिया था जब उन्होंने सूचना विभाग के सौजन्य से जनता पार्टी सरकार की उपल्ब्धियों पर एक नाटक का मंचन किया था. नाराज मुद्रा जी ने मेरे खिलाफ अशोक जी को चिट्ठी लिखी और खुद उसे देने आये थे. अशोक जी ने मुझसे सारी बात पूछी और समझाया कि चुटकी लो तो लेकिन व्यक्तिगत आक्षेप न हो. ‘परिक्रमा’ स्तम्भ लोकप्रिय हुआ और 1983 में ‘स्वतंत्र भारत’ छोड़ने तक करीब पांच साल मैं इसे लिखता रहा.

1977 में प्रदेश सरकार ने ‘हिंदी समिति’ और ‘हिंदी ग्रंथ अकादमी’ को मिला कर हिंदी संस्थान की स्थापना की थी. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी उसके कार्यकारी अध्यक्ष और ठाकुर प्रसाद सिंह निदेशक थे. संस्थान में ‘पत्रकारिता प्रकोष्ठ’ बनवाने में अशोक जी की बड़ी भूमिका थी. उन्होंने ही इस प्रकोष्ठ से पराड़कर जी के अग्रलेखों का संकलन प्रकाशित करवाया, जिसके ‘दो शब्द’ में अशोकजी ने लिखा है- “अंग्रेजी के मुहावरों के समतुल्य हिंदी मुहावरों का प्रयोग पराड़कर जी की दूसरी विशेषता थी. मुझे याद है कि सन 1944 में महात्मा गांधी के जेल से छूटने के बाद उनसे बात करने के प्रस्ताव पर वाइसराय ने अपमानजनक शर्तें लगायीं थीं. तब माननीय श्री श्रीनिवास शास्त्री ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा कि क्या वाइसराय चाहते हैं कि गांधी जी उनके सामने ‘सैक क्लाथ ऐण्ड ऐसेज’ में जाएं. इस मुहावरे का अनुवाद अनेक अखबारों ने ‘टाट लपेट कर और राख पोत कर जाएं’ किया. किंतु पराड़कर जी ने लिखा ‘क्या गांधी जी दांतों में तृण दबा कर’ वाइसराय के सामने जाएं.”

भाषा के मामले में अशोक जी स्वयं इसी परम्परा के अनुगामी थे. शब्दानुवाद की बजाय हिंदी में रूपान्तरण या भावानुवाद के पक्षधर थे.उनका आग्रह होता था कि अंग्रेजी या दूसरी भाषा से शब्दश: अनुवाद नहीं होना चाहिए, बल्कि अर्थ के मर्म और तात्पर्य को ध्यान में रख कर भावानुवाद अथवा रूपान्तरण होना चाहिए.

हजारी प्रसाद जी जब हिंदी संस्थान का कार्यकारी अध्यक्ष पद छोड़ कर चले गये तो अशोकजी को कार्यवाहक उपाध्यक्ष बनाया गया. तब वे रोजाना कुछ समय हिंदी संस्थान में बैठते थे और अपने कक्ष में ही छोटी गोष्ठियां कराया करते थे. इनमें बोलने के लिए उन्होंने मुझे भी प्रेरित किया. मैं बहुत संकोची था और कुछ कहने की इच्छा के बावजूद कतराता था. उन्होंने झिझक तोड़ने में मेरी मदद की.

उन्हीं दिनों अमृतलाल नागर का उपन्यास “नाच्यौ बहुत गोपाल’ प्रकाशित हुआ था. ‘स्वतंत्र भारत’ के लिए आई समीक्षार्थ प्रति अशोकजी ने मुझे पकड़ा दी थी. नागर जी के उपन्यास की समीक्षा करने की मेरी क्या क्षमता थी, मगर मैंने बहुत ध्यान से उसे पढ़ा. उपन्यास की ब्राह्मणी नायिका एक मेहतर से ब्याह करके उसकी झोपड़-पट्टी में रहने लगती है, लेकिन वहां भी अपने ठाकुर जी के विग्रह की स्थापना कर पूजा-पाठ करती है. मुझे लगा कि ब्राह्मणी के संस्कार तो वैसे के वैसे रह गये, उसने दलित के जीवन को अपनाया ही कहां. फिर इसे दलित-चेतना का उपन्यास कैसे कहें.

मैंने ससंकोच अशोकजी से चर्चा की. उन्होंने सुझाया कि नागर जी से ही मिल कर यह सवाल पूछो. दूसरी सुबह मैं जा पहुंचा चौक. यूं, नागर जी बहुत सरल और उदार हृदय थे लेकिन पता नहीं क्यों मेरे इस सवाल पर नाराज हो गये- ‘अभी तुम बच्चे हो.’ मैं घबराया-सा लौट आया. अशोक जी को बताया तो उन्होंने कहा था, कोई बात नहीं, तुम लिखो. अब याद नहीं कि मैंने समीक्षा में अपना वह निष्कर्ष लिखा था या नहीं. वैसे, मेरी राय आज भी बदली नहीं है. ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ की तुलना में तब गोपाल उपाध्याय का उपन्यास ‘एक टुकड़ा इतिहास’ दलित चेतना के दृष्टिकोण से बहुत सशक्त उपन्यास था. हिंदी में तब इस नारे के तहत लेखन शुरू नहीं हुआ था.

अशोकजी ही नहीं, नये पत्रकारों-रचनाकारों को प्रोत्साहित करने में उस दौर के वरिष्ठ लेखक पर्याप्त रुचि लेते थे. काफी हाउस के एक कोने से, दीवार पर लगी इस चेतावनी के बावजूद कि ‘लाउडेस्ट व्हिस्पर इस बेटर दैन अ लो शाउट’, बहसों का शोर और ठहाके बाहर बरामदे में भी हमें कुछ पाठ पढ़ा देते थे. ठाकुर प्रसाद सिंह के नेतृत्त्व में सूचना विभाग, सूचना केन्द्र, हिंदी संस्थान और शहर के कई मुहल्लों में कवि-गोष्ठियां हुआ करती थीं जिनमें नये रचनाकारों को सुना और प्रोत्साहित किया जाता था.

एक बार मैंने अपनी एक कविता में ‘घड़े के तलवे से’ लिख दिया था. कविता सुना चुकने के बाद नरेश सक्सेना जी ने पास आकर कहा था कि ‘घड़े के तले से ’ होना चाहिए, तलवा तो जूते-चप्पल का होगा. इस तरह सिखाने-समझाने का माहौल था.

एक बार नरेश जी ‘स्वतंत्र भारत’ में ‘तुगलक’ नाटक की रिपोर्ट पढ़कर लेखक न. जो. को ढूंढते हुए भी दफ्तर आये थे. मैं तब इसी संक्षिप्त नाम से समीक्षा लिखता था. वह उनसे पहली मुलाकात थी और उनका पहला ही वाक्य था कि तुम जरूर विज्ञान के विद्यार्थी होगे. तब उन्होंने ‘ छायानट’ पत्रिका के लिए मुझसे मनोशारीरिक रंगमंच पर लेख भी लिखवाया था. कुछ लिखे की तारीफ करना और लिखते रहने को प्रेरित करने का उनका सिलसिला आज तक जारी है. बीर राजा, प्रबोध मजूमदार, राजेश शर्मा, गोपाल उपाध्याय, श्रीलाल शुक्ल, जैसे रचनाकार नये लेखकों-पत्रकारों को पढ़ते और खूब प्रोत्साहित करते थे. कभी यशपाल जी से मिलने जाते तो वे कहते थे कि चाहे कागज पर गोले बनाते रहो लेकिन रोजाना कम से कम दो घंटे बैठ कर नियमित लिखने का अभ्यास करो.

कानपुर के, और देश के भी श्रमिक-आंदोलन के लिए छह दिसम्बर 1977 काला दिन साबित हुआ. जयपुरिया परिवार में वर्चस्व की लड़ाई ने स्वदेशी कॉटन मिल्स की हड़ताल को भयानक हिंसा में बदल दिया. एक हजार से ज्यादा हड़ताली मजदूरों पर गोलियां चलीं, कई मारे गये, आगजनी और तोड़-फोड़ के बाद मिलें बंद हो गयीं.

स्वामित्व की इस जंग का असर लखनऊ के ‘द पायनियर लिमिटेड’ पर भी पड़ा. सम्पादकीय स्वतंत्रता पर प्रबंधकीय अंकुश की शुरुआत हो गयी. कॉटन मिल्स के एक मैनेजर लखनऊ बैठने लगे. इमारत के प्रबंधकीय हिस्से से मैनेजिंग एडिटर सम्पादकीय हिस्से में आ गये. पायनियर के पहले भारतीय सम्पादक और समूह के सम्मानीय संरक्षक व सलाहकार, बुजुर्ग एस एन घोष को एक छोटे कक्ष में स्थानान्तरित करके उनके विशाल कक्ष में मैंनेजिंग एडिटर की दमदार आवाज गूंजने लगी. थोड़ी-थोड़ी देर में ‘चपरासीssss’ की उनकी कर्कश चीख हमारे कानों को चीरती थी.

अशोकजी और मैनेजिंग एडीटर डॉ के पी अग्रवाल के अगल-बगल के कक्ष एक नन्ही खिड़की से जोड़ दिये गये थे. इस खिड़की से सलाह-मशविरे होते रहते होंगे. एक सुबह डॉ अग्रवाल सीधे सम्पादकीय विभाग में आ पहुंचे. जिला डेस्क के प्रभारी वीरविक्रम बहादुर मिश्र से उन्होंने कहा- ‘गोण्डा से शिकायत आ रही है कि वहां की खबरें कम छप रही हैं, क्या बात है? ध्यान दीजिए.’

जोर से बोलने वाले डॉ अग्रवाल की आवाज अपने कक्ष में बैठे अशोक जी ने सुन ली. उस दिन दोनों कक्षों के बीच की खिड़की शायद नहीं खुली. अशोक जी के कमरे से एक कागज सेवक के हाथों बगल के कक्ष में पहुंचा. थोड़ी देर में वही कागज सेवक के ही हाथों डॉ अग्रवाल के कमरे से अशोक जी के कमरे में वापस आया. कुछ समय बाद अशोक जी के निर्देश से वह कागज सम्पादकीय निर्देशों के रजिस्टर में नत्थी हो गया.

अशोकजी ने लिखा था- ‘प्रिय डॉ. अग्रवाल, आपको सम्पादकीय विभाग के किसी सदस्य से कोई भी बात मेरे ही माध्यम से कहनी चाहिए.’

डॉ. अग्रवाल ने विनम्र शब्दों में अपने हाथ से लिखा था- “प्रिय अशोकजी, आपका मान रहे, आगे ऐसा ही होगा.’

हमने अशोकजी पर गर्व किया और मान लिया कि अब कोई हस्तक्षेप नहीं होगा. वह हमारी भूल थी. वक्त करवट ले चुका था.

अक्टूबर, 1978 में इण्डियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स का राष्ट्रीय सम्मेलन चित्रकूट में हुआ था. अशोक जी अतिथि के रूप में उसमें शामिल होने गये थे. वहां उन्हें दिल का दौरा पड़ा. तत्कालीन पेट्रोलियम एवं रसायन मंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा भी सम्मेलन में मौजूद थे. उनके हेलीकॉप्टर से अशोक जी को लखनऊ लाया गया. जब वे हृदयाघात से उबरते हुए घर पर आराम कर रहे थे तभी उन्हें बताया गया कि वे अब ‘स्वतंत्र भारत’ के सम्पादक का दायित्व उठाने की स्थिति में नहीं रह गये हैं. उन्हें हटाने का रास्ता शायद कब से ढूंढा जा रहा था लेकिन उन्हें एकदम से हटा देना भी आसान नहीं था. ऊपर जो भी घटित हुआ होगा, अशोकजी को ‘स्वतंत्र भारत’ का ‘परामर्शदाता’ बना दिया गया और उनके सम्पादन में ‘स्वतंत्र भारत सुमन’ साप्ताहिक निकालने का भी फैसला किया गया. अशोक जी ने ‘सुमन’ निकालने में भी अपने सम्पादकीय कौशल, अनुभव और सम्पर्कों का बढ़िया इस्तेमाल किया.

रवींद्रालय में ‘सुमन’ का लोकार्पण कार्यक्रम था. अंत में अशोकजी ने मंच से घोषणा की कि ‘सुमन’ का प्रवेशांक हॉल के बाहर ‘श्री इंदु अग्रवाल’ से प्राप्त किया जा सकता है. इंदु अग्रवाल कार्यालय सहायक थीं. सुनने वाले सभी चौंके थे और हमने सोचा था इंदु के लिए अशोक जी के मुंह से ‘श्री’ गलती से निकल गया होगा. बाद में हमने पूछा तो उन्होंने बताया कि ‘कुमारी’ और ‘श्रीमती’ अंग्रेजी के ‘मिस’ और मिसेज’ के लिए प्रचलित हो गया है लेकिन हिंदी में महिला-पुरुष दोनों के लिए ‘श्री’ उपयुक्त है. ‘कुमारी’ या ‘श्रीमती’ न लिखना हो तो ‘श्री’ और भी उपयुक्त है. तब तक ‘सुश्री’ का चलन शायद नहीं हुआ था.

साप्ताहिक पत्रिका ‘स्वतंत्र भारत सुमन’ अप्रैल, 1979 में शुरू हुई और पसंद की जाने लगी थी. चंद्रभानु गुप्त की आत्म-कथा ‘मेरा सफर रुका नहीं, झुका नहीं’ से लेकर उस समय के नामी लेखकों की रचनाएं उसमें छपने लगीं. ‘सुमन’ साप्ताहिक चल निकला लेकिन अशोक जी का दोतरफा घायल दिल ज्यादा मेहनत और तनाव बर्दास्त नहीं कर सका. 18 अगस्त, 1979 को 63 साल की अवस्था में उनका देहांत हो गया.

अशोकजी का स्नेह-सानिध्य हमें दो साल ही मिल पाया. ये दो साल बहुत महत्वपूर्ण और मजबूत नींव डालने वाले साबित हुए. उनका शिष्य होना कितना मानी रखता है, यह हमें मई 1978 में दैनिक हिंदी ट्रिब्यून के इण्टरव्यू में पता चला. चण्डीगढ़ से हिंदी ट्रिब्यून के प्रकाशन का विज्ञापन देख कर मैंने और मनोज तिवारी ने आवेदन भेज दिया. वहां से इण्टरव्यू का बुलावा आ गया. हमने जाने से पहले अशोकजी को बताना ठीक समझा. उन्होंने कहा कि खर्चा दे रहे हैं तो चण्डीगढ़ घूम आओ. इंटरव्यू बोर्ड में प्रेम भाटिया, मदन गोपाल जैसे वरिष्ठ सम्पादक थे. उन्होंने हमारे बारे में कम अशोकजी के बारे में ज्यादा बातचीत की और हमें पूरे वेतनमान पर (जो करीब साढ़े छह सौ रु था) उप-सम्पादक बनाने को राजी हो गये. ‘स्वतंत्र भारत’ में प्रशिक्षु के तौर पर हमें तब चार-सौ रु मिलते थे. अशोकजी की बात मान कर हम एक दिन चण्डीगढ़ घूम कर वापस लौट आये.

अशोकजी के बारे में बहुत सी बातें हमने उनके निधन के बाद जानीं. जैसे, यह कि वे अच्छे लेखक और अनुवादक, बल्कि श्रेष्ठ ‘रूपान्तरकार’ थे, कि हास्य-व्यंग्य उनका प्रिय विषय था और ‘हजामत का मैच’ नाम से उनका व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित हुआ था, कि बच्चों के लिए उन्होंने कुछ कहानियां लिखी थीं और बाणभट की ‘कादम्बरी’ समेत संस्कृत से भी कुछ अनुवाद किये, कि ‘रणभेरी’ नाम से उनकी कविताओं का कविता संग्रह छपा था, कि उन्होंने ‘हू इज कैलीडासा’ समेत कई एकांकी लिखे, कि सत्रह साल भारत सरकार की सेवा में रहते उन्होंने दूसरे नामों से ‘जनसत्ता’ समेत कई पत्रों में बहुत कुछ लिखा (1953-55 के दौरान वेंकटेश नारायण तिवारी के सम्पादन में ‘जनसत्ता’ प्रकाशित हुआ था. प्रभाष जोशी के सम्पादन में ‘जनसत्ता 1984 में दोबारा निकला), कि उन्होंने रजनी कोठारी की चर्चित पुस्तक ‘पॉलिटिक्स इन इण्डिया’ का हिंदी रूपांतरण (भारत में राजनीति) किया था, (कोठारी की ‘भारत में राजनीति’ पढ़ते हुए कहीं भी यह नहीं लगता कि यह हिन्दी की मौलिक पुस्तक नहीं है), कि हिंदी टेलीप्रिण्टर का की-बोर्ड बनाने में उनकी सहायता ली गयी थी, कि आकाशवाणी से हिंदी में क्रिकेट का आंखों का हाल सुनाने वाले सबसे पहले कमेण्टेटर वे ही थे, कि ‘चौका’ और ‘छक्का’ उनके दिये हुए नाम हैं, कि केंद्र सरकार के सूचना विभाग में रहते हुए उन्होंने हिंदी अखबारों की अंग्रेजी विज्ञप्तियों पर निर्भरता खत्म की थी, कि प्रकाशन विभाग में उप-निदेशक बनने के बाद उन्होंने ‘आजकल’ एवं ‘बाल-भारती’ पत्रिकाओं को स्तरीय बनाया था, आदि-आदि.

उनका ज्यादातर काम आज तक बिखरा पड़ा है. कुछ चीजों के दस्तावेज ही उपलब्ध नहीं हैं. मसलन, यही ठीक-ठीक पता नहीं कि उन्होंने हिंदी में पहली बार किस क्रिकेट मैच का आंखों देखा हाल आकाशवाणी से सुनाया था. अंग्रेजी कमेण्टेटर विजी (महाराज विजयनगरम) के साथ हिंदी में सुनाया अवश्य था, यह उन्होंने ‘स्वतंत्र भारत’ की रजत जयंती के अवसर पर लिखे लेख में खुद बताया है –“आकाशवाणी से क्रिकेट का आंखों देखा हाल सुनाने का सुझाव सबसे पहले ‘स्वतंत्र भारत’ ने दिया और इन पंक्तियों के लेखक ने रेडियो पर पहली बार हिंदी में क्रिकेट के खेल का हाल सुना कर नई परम्परा की शुरुआत की.”

एक अनुमान है कि वह 23 से 26 अक्टूबर, 1952 में भारत-पाकिस्तान के बीच लखनऊ में खेला गया टेस्ट मैच रहा होगा. उधर, अशोकजी के पुत्र अरविंद को ऐसा स्मरण है कि पिताजी एमसीसी (मेलबोर्न क्रिकेट क्लब, इंग्लैण्ड की क्रिकेट टीम पहले इसी नाम से जानी जाती थी) के साथ हुए मैच का हिंदी में आंखों देखा हाल सुनाने का जिक्र करते थे. उनके द्वारा हिंदी में रूपांतरित कुछ अन्य पुस्तकों की पुष्टि होना भी बाकी है. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की शोध- वृत्ति के तहत अशोक जी पर हुआ अध्ययन भी सुनी-सुनाई बातों और अपुष्ट जानकारियों तक सीमित रह गया.

हास्य-व्यंग्य के प्रति अशोकजी की सुरुचि ‘स्वतंत्र भारत’ के अत्यंत लोकप्रिय दैनिक स्तम्भ ‘कांव-कांव’ से भी पता चलती थी. शुरू में इसका नाम ‘काकभुशुण्डि उवाच’ था और अशोक जी स्वयं इसे लिखते थे. बाद में इसका नाम ‘कांव-कांव’ रखा गया और सम्पादकीय टीम के बलदेव प्रसद मिश्र, योगींद्रपति त्रिपाठी, अखिलेश मिश्र समेत बेधड़क बनारसी जैसे हास्य लेखक भी इसमें योगदान करने लगे. खबरों के शीर्षकों, नेताओं के बयानों और दैनिक घटनाओं पर छोटी किंतु चुटीली गद्य-पद्य टिप्पणियों वाला यह स्तम्भ अखबार की पहचान बना, नई पीढ़ियां इससे जुड़ती गयीं और शायद ही यह स्तम्भ कभी बंद हुआ हो.

2002 में जब मैं ‘हिंदुस्तान’ का स्थानीय सम्पादक बनकर पटना गया तो जनरल मैनेजर वाई सी अग्रवाल के आग्रह पर, जो 1975 में लखनऊ के पायनियर प्रेस में रह चुके थे, ‘कांव-कांव’ वहां भी शुरू किया, जिसे बिहार में बहुत पसंद किया गया. बाद में इसी तरह का दैनिक स्तम्भ लखनऊ के ‘हिंदुस्तान’ में ‘लखनलाल के तीर’ नाम से चलाया.

अशोकजी पत्रकारों की आर्थिक और कार्य-स्थितियों के लिए भी चिंतित रहने वाले सम्पादकों में थे. 1948 में यूपी ‘वर्किंग जर्नलिस्ट्स यूनियन’ की स्थापना में उनका भी योगदान था. उन्होंने इसके पहले सम्मेलन में सक्रियता से भाग लिया और उसका संविधान बनाने में मदद की थी. श्रमजीवी पत्रकारों के संगठनों के सम्मेलनों मे वे अंत तक शिरकत करते रहे थे. एक सम्मेलन में ‘विश्वमित्र’ के सम्पादक फूलचंद्र अग्रवाल ने पत्रकारों को श्रमजीवी कहने पर आपत्ति की तो अशोक जी ने उस पर व्यंगात्मक टिप्पणी तक लिखी थी.

हमारे दौर के अशोकजी का ‘स्वतंत्र भारत’ यानी 1977-79 का अखबार अपनी राजनैतिक रिपोर्टिंग में शासन-प्रशासन का निर्मम आलोचक नहीं लगता था. ‘स्वतंत्र भारत’ के शुरु-शुरु के अंक पलटते हुए उसकी खबरें तीखी लगती थीं. सन 1947 के किसी अंक का पहले पेज का एक शीर्षक अभी तक याद है- ‘त्यागी नेताओं को नवाबी ठाठ का शौक’. खबर यह थी कि देश की नयी सरकार के मंत्री अपने बंगलों के लिए विदेशी कालीन और फर्नीचर मंगा रहे हैं. खबर आक्रामक अंदाज़ में लिखी गयी थी. अखबार के यह तेवर अशोकजी के दूसरे कार्यकाल में नहीं रह गये थे.

1977 में हम युवा ‘स्वतंत्र भारत’ की राजनैतिक रिपोर्टिंग से बहुधा असंतुष्ट रहते थे, जो हमें अक्सर सत्ता-मुखी लगती थी. एकमात्र विशेष सम्वाददाता शिवसिंह ‘सरोज’ की खबरें अति सामान्य और कभी मुख्यमंत्री की प्रशंसा में होतीं थी. हलकी-फुलकी आलोचना यदा-कदा ही छपती थी. दूसरे सम्वाददाता भी उन्हीं की लकीर पर चलते थे. तब भी, स्थितियां आज की तरह समर्पण या सौदे वाली कतई नहीं थी. सम्पादकों-पत्रकारों की ठसक कायम थी. अपने सम्पादकीयों में अशोकजी बहुत कटु आलोचक हो जाते थे.

अशोकजी स्वतंत्रता पूर्व की उस पीढ़ी के सम्पादक थे जिनका अपने समय के राजनैतिक नेताओं से घनिष्ठ सम्पर्क, बल्कि दोस्ताना रहा था. यह दोस्तियां अखबार में लगभग नहीं निभाई जाती थीं, यह भी कहा जाता था. लेकिन सन 1947 से 1977 आते-आते बहुत कुछ बदल गया था. सम्पादक-नेताओं के रिश्ते ही नहीं बदले, अखबार मालिकों के अपने स्वार्थ भी हावी हो रहे थे. यह संतुलन अशोकजी ने निश्चय ही साध रखा होगा यद्यपि सता-प्रतिष्ठान से अपने लिए सीधे कोई लाभ उन्होंने नहीं लिया. तब भी प्रबंधन उनका विकल्प तलाशने लगा था तो जाहिर है कि सम्पादक से प्रबंधन की अपेक्षाएं पत्रकारिता से इतर भी होने लगी थीं.

1947 से 1979 का समय हिंदी पत्रकारिता के मिशन से व्यावसायिक बनने का दौर था. पत्रकारिता, अखबार घराने और उनके मूल्य सब क्रमश: बदल रहे थे. पत्रकारिता कुछ नये औजार और कौशल पा रही थी तो कुछ मूल्य छूट रहे थे. पत्रकारिता की भाषा के रूप में हिंदी विकसित हो रही थी तो विकृत भी बन रही थी. इस क्रम में नयी-पुरानी पीढ़ी के टकराव भी हो रहे थे.

समाज भी इस दौरान बहुत बदला. मध्य-वर्ग और बाजार क्रमश: बढ़ा. शिक्षा ने अन्तरराष्ट्रीय दरवाजे ज्यादा खोले तो भारतीय शहरों में यूरोप और पश्चिमी दुनिया का प्रभाव बढ़ा. गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ा. अखबारों का आकार और प्रसार भी. बदलते भारत के इस दौर की पत्रकारिता में अखबार शहरी मध्य-वर्ग के ज्यादा करीब होते गये. अखबारों ने उद्योग का रूप लेकर मुनाफे की राह पकड़ी. इस प्रयास में समाज के पिछड़े वर्गों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, किसानों और गांवों को हिंदी के अखबार भी भूलते गये या हाशिये पर रखे रहे. (स्वतंत्र भारत में 1979 तक प्रति सप्ताह छपने वाली ‘गांव की चिट्ठी’ धीरे-धीरे गायब हो गयी). उन दिनों रघुवीर सहाय के सम्पादन में टाइम्स ऑफ इण्डिया समूह का ‘दिनमान’ जरूर हमें महिलाओं एवं दलित-वंचित वर्गों को देखने की नयी दृष्टि दे रहा था. ज्यादातर हिंदी अखबारों का इनके प्रति नजरिया दकियानूसी बना रहा.

उस दौर के लगभग सभी अखबारों एवं सम्पादकों ही की तरह अशोकजी के पास भी उच्च जातीय हिंदू पत्रकारों की टीम थी. मगर किसी हिंदी अखबार में महिला पत्रकार को भर्ती करने का श्रेय अशोकजी को जाता है. जब 1975 में ‘द पायनियर’ की पहली (और सम्भवत: प्रदेश की भी) महिला रिपोर्टर बनी मेहरू जाफर एक साल की छुट्टी में यूरोप गयीं और 1977 में वापस लौटने पर ‘द पायनियर’ ने उन्हें वापस लेने से इंकार कर दिया तो अशोक जी ने मेहरू को ‘स्वतंत्र भारत’ का सम्वाददाता बना लिया. अपनी टाइपिस्ट इंदु अग्रवाल को भी वे लिखने-पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे. बकौल मेहरू जाफर- ‘अशोकजी एक मुसलमान युवती को अपनी रिपोर्टर बनाकर बहुत खुश हुए थे और सीधे विधान सभा की रिपोर्टिंग करने की बड़ी जिम्मेदारी मुझे सौंप दी थी.’ 1977 में उन्होंने ताहिर अब्बास को भी नये पत्रकारों की अपनी टीम में शामिल किया था और उनसे उर्दू प्रेस समेत मुस्लिम मामलों पर लिखवाया करते थे. यह तथ्य भी नोट किया जाना है कि तब हिंदी में दलित एवं महिला पत्रकार ढूंढने से भी नहीं मिलते थे.

आपातकाल के बाद, 1977 से हिंदी पत्रकारिता का पूरा परिदृश्य बहुत तेजी से बदला. इमरजेंसी ने मध्य वर्ग की राजनैतिक चेतना को झकझोरा था जिससे पत्र-पत्रिकाओं की पाठक संख्या में भारी वृद्धि होने लगी. कई नये अखबार और पत्रिकाएं प्रकाशित हुए. लखनऊ में जहां, 1977 तक सिर्फ ‘स्वतंत्र भारत’ और ‘नवजीवन’ दैनिक प्रकाशित होते थे (आरआरएस से सम्बद्ध एक सांध्यकालीन‘तरुण भारत’ भी था) वहीं 1980 आते-आते ‘दैनिक जागरण’ और अमृत प्रभात’ ने भी अपने प्रेस जमा लिये. उसके दो-तीन वर्ष बाद ‘नव भारत टाइम्स’ और ‘राष्ट्रीय सहारा’ भी आ गये. पत्रकार और पत्रकारिता, दोनों की स्थितियों में बड़े बदलाव दिखने लगे थे.

अशोकजी के साथ पराड़कर युगीन पत्रकारिता के अवशेष भी खत्म हुए थे. नया दौर हर स्तर पर बड़े उलट-फेर करने की मुकम्मल तैयारी के साथ आ रहा था.

(सभी तस्वीरें  अशोकजी के बेटे अरविन्द अग्रवाल  के संग्रह से प्राप्त, यह संस्मरण तद्भव के 36 वें अंक में नवम्बर 2017 को पहले प्रकाशित हो चुका है )

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