समकालीन जनमत
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कोरोना वायरस और नवउदारवादी अर्थव्यवस्था का संकट

शशिकांत त्रिपाठी


 

“ दुनिया ख़त्म होने के बारे में सोच सकते है, लेकिन पूंजीवाद के ख़त्म होने के बारे में नहीं ”

ग्राम्सी ने फ़ासीवादी दौर के बारे में लिखा था कि, “मैं तर्क से निराशावादी हूँ और इच्छाशक्ति से आशावादी ” लेकिन आज के दौर को देख कर हम तर्क और आशा दोनो से निराशा में डूबे हुए हैं क्योंकि जैसी खबरें लॉकडाउन के समय आ रही है वह बहुत ही भयावह हैं और इसका विरोध महज़ सोशल मीडिया और कुछ प्रगतिशील पत्र पत्रिकाओं तक सीमित रह गया है।

तीन सप्ताह के लॉकडाउन (अब पाँच) की घोषणा होने के बाद, जो खबरें आने लगीं कि हज़ारों की संख्या में मज़दूर शहरों से की गाँवों की तरफ़ पलायन कर रहे हैं। लॉकडाउन लागू होने की घोषणा महज़ चार घंटे पहले प्रधानमंत्री के द्वारा अपने ‘ब्लॉकबस्टर’ अन्दाज़ में अनॉउंस किया गया और बिना स्थिति का पूर्व मूल्यांकन किए इसको कड़ाई से लागू करने का आदेश दे दिया गया।

मानवीय मूल्यों को दरकिनार कर इसको लागू किया जाने लगा। यातायात सुविधाओं के अभाव में, लोग सैंकड़ों क़िलोमीटर पैदल अपने घर जाने लगे क्यूँकि शहरों में रहने के लिए, खाने के लिए, कमरे का किराया देने के लिए ना ही उनके पास पैसे थे ना ही सरकार की तरफ़ से कोई ऐसी व्यवस्था की गयी थी। चुपचाप लोग अपने पैतृक गाँव की तरफ़ लौट रहे थे और जैसे-जैसे लोगों का बचत ख़त्म हो रहा है यह लौटने की प्रकिया अभी तक बदस्तूर जारी है।

कई खबरें सैंकड़ों किलोमीटर चलते रहने के कारण मौत हो जाने की भी आ रही है, और कुछ भूख से भी मौत की खबरें आ रही है। और न जाने कितनी भूख से मौत की खबरों को दबा दिया जा रहा है। इन भयावह खबरों को देख कर संवेदनशील लोग अपने घरों में दुःख व्यक्त रहे है, और एक बड़ा मध्यवर्ग अपने घरों में बैठ कर सरकार के सुर में सुर मिला रहा है तथा साम्प्रदायिक खबरों के कारण मुसलमानों को कोरोना वायरस का कारण मान रहा है। एक तरफ़ सरकार कुछ ‘लोकप्रिय’ नीतियों के तहत उन पर ‘तरस’ खा रही है जैसे 500 रुपए को जनधन खाते में भेजना, शहरी इलाक़ों में थोड़े से लोगों तक खाने के पैकेट की आपूर्ति।

लॉकडाउन के चलते अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है, पूँजीपति अपने लाभ के बारे में और पूँजी संचयन को लेकर ज़रूर चिंतित हैं लेकिन उन्हें लगातार सरकार की तरफ़ से भरोसा दिया जा रहा है और सरकार कई तरह से उन्हें मदद भी कर रही है जैसे करों में छूट, कर भरने की समय सीमा में बदलाव इत्यादि। पूँजीपति तबके के द्वारा बेलआउट पैकेज की भी माँग की जा रही है जिसपर सरकार के द्वारा विचार भी किया जा रहा है।

लेकिन इसकी बड़ी क़ीमत कौन चुका रहा है ? क्या एक बहुत बड़े मजदूर वर्ग को भूख से मरने के लिए छोड़ नहीं दिया गया है जो पहले से ही भूख और ग़रीबी की हालत में जीवन व्यतीत कर रहा था। आँकड़ों के हिसाब से, 90 प्रतिशत से ज़्यादा मज़दूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। आज मजदूरों का बहुत बड़ा हिस्सा ‘Gig Economy’ में काम करता है जैसे डिलीवरीबॉय, ओला-ऊबर ड्राइवर इत्यादि। इस क्षेत्र में किसी तरह की कोई भी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित नहीं  है। लॉकडाउन के बाद एक झटके में उन्हें नौकरी से निकाल कर फेंक दिया गया।

भारत में अगर ग़रीबी और स्वास्थ्य से सम्बंधित कुछ आँकड़ों पर बात करें तो NSS(2011-12) के सर्वेक्षण के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में 68 प्रतिशत लोग 2200 से कम कैलोरी उपभोग कर पाते है और शहरी लोगों का 65 प्रतिशत तबका 2100 कैलोरी से कम उपभोग कर रहा है। कई स्वास्थ्य सम्बंधित सर्वे में ये कहा गया है कि कम आहार के चलते 50 प्रतिशत से ज़्यादा महिलाएं और बच्चें एनीमिया के शिकार हैं।

लैन्सेट (2016) के सर्वे में कुल मृत्यु में लगभग 28 प्रतिशत लोग कार्डीओवैस्क्यलर सम्बंधित रोग से मृत्यु होती है जो कम पोषण वाले आहार के चलते होता है। उदारीकरण के बाद, प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता में कमी आयी है, 1991 में यह उपलब्धता 186.2 थी जो 2016 में घट कर 177.9 किलोग्राम हो गयी, वही दूसरी तरफ़ खाद्य भंडारण में तेज़ी से वृद्धि आयी है, जो 2019 में 550 मिट्रिक टन तक पहुँच गया है। लेकिन अभी तक सरकार की तरफ़ से खाद्यान भंडार को ज़रूरतमंदो के लिए खोला नहीं गया है जबकि कई अर्थशास्त्री बार-बार खाद्यान वितरण पर ज़ोर दे रहे है। और यह भी कह रहे रहे है कि पीडीएस इस समस्या से निपटने के लिए पर्याप्त नहीं है इसलिए यह वितरण सबके लिए सुनिश्चहित किया जाना चाहिए।

सरकार अपने ‘लोकप्रिय’ (Populist) राजनीतिक कार्यक्रमों के द्वारा जनता को लगातार उलझा रही है और पूरा सरकारी महकमा, मीडिया और वोकल मध्यवर्ग जन विरोधी अवैज्ञानिक कार्यक्रमों को लागू करवाने में सहयोग कर रहा है। स्वास्थ्य, और रोज़ी-रोटी से जुड़े सारे सवाल को दरकिनार कर दिया गया है। अस्पतालों की स्थिति, दवाओं, वेंटिलेटर की उपलब्धता जैसे ज़रूरी सवालों को ग़ैर ज़रूरी बता दिया गया।

टीवी चैनल दिन रात कोरोना से सम्बंधित खबर तो दिखा रहे है लेकिन सरकार की विफलताओं की खबर पूरी तरह से ग़ायब है। लॉकडाउन की आड़ में सरकार, धीरे धीरे सारे नागरिक अधिकारों को ख़त्म कर रही है, जो तानाशाही की तरफ़ संकेत करता है।

जब पूरी दुनिया में कोविड-19 पैंडेमिक एक संकट के रूप में सामने खड़ा है, तब कोई भी राजनीतिक विरोध सामने नहीं आ पा रहा है क्योंकि इसका सबसे बड़ा कारण मज़दूर पॉलिटिक्स की ग़ैर मौजूदगी है। और आज तो मज़दूरों के ‘ज़िंदा’ रहने का सवाल सामने आ खड़ा है। लोगों के भूख और असहायता की परिस्थिति को ‘discipling’ के तौर पर प्रयोग किया जा रहा है। सभी तरह के विरोध पर प्रतिबंध लगा दिया गया है जो कोशिश भी कर रहा है उस पर दमन भी तेज़ी से किया जा है। बहुत बड़ी आबादी को भूख से मृत्यु या कोरोना के संक्रमण के बीच छोड़ दिया गया है, जो आने वाले दिनों में बहुत बड़े मानवीय संकट की तरफ़ इशारा करता है।

कांट ने अपने मशहूर ‘व्हाट इज़ एन्लाइटन्मन्ट’ वाले लेख में लिखा था की ‘दुनिया के शासक यह कहते है की आप जिसके बारे में चाहते है उसके बारे में खूब बहस करें लेकिन क़ानून का पालन ज़रूर करें।’ और आज यह सब 21 शताब्दी में भी देखने को मिल रहा है।

नवउदारवादी अर्थव्यवस्था जब आज वैचारिक संकट में है तब इसकी सबसे बड़ी क़ीमत मज़दूरों से ली जा रही है। ये क़ीमत उनके मौत तक जाती है जो आज हम सबके सामने एक चुनौती बन कर खड़ी है। अगर तत्काल प्रभाव से मज़दूरों के लिए कोई राहत पैकेज नहीं लाया गया तो यह राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था बहुत बड़ी आबादी को मौत के मुंह में झोंक देगी।

 

( शशिकान्त त्रिपाठी साउथ एशियन स्टडीज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं )

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