Friday, September 29, 2023
Homeजनमतआज़ादी के बाद के भारत की तस्वीर देखनी है, तो कैफ़ी आज़मी...

आज़ादी के बाद के भारत की तस्वीर देखनी है, तो कैफ़ी आज़मी की शायरी से बेहतर कुछ नहीं

[author] [author_image timthumb=’on’]http://samkaleenjanmat.in/wp-content/uploads/2018/05/achyutanand-mishr.jpg[/author_image] [author_info]अच्युतानंद मिश्र [/author_info] [/author]

 

मैं ढूंढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता

नई जमीन नया आसमां नहीं मिलता 

 

जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ

यहाँ तो कोई मिरा हम-ज़बाँ नहीं मिलता

 

हर शायर अपनी शायरी के तस्सवुर में किसी हम-जबां की तलाश करता है .यह तलाश ही उसके भीतर एक खलिश पैदा करती है .इसी खलिश के सहारे वो ता-जिंदगी भटकता रहता है.

कैफ़ी आज़मी की शायरी हिंदुस्तान के प्रोग्रेसिव मूवमेंट की कारगर तलाश थी. जिसे हम गंगा-जमुनी तहज़ीब कहते हैं, उसकी सबसे रचनात्मक उठान हम कैफ़ी आज़मी की शायरी में पाते हैं. आज कैफ़ी आज़मी की पुण्यतिथि है. यह महज़ संयोग ही है कि आज ही के दिन ‘1857’ में बगावत का बिगुल बजा था. लेकिन अगर आपको बीसवीं सदी में में 1857 की क्रांति के व्यापक अर्थों को समझना है, आज़ादी के बाद के भारत की तस्वीर देखनी है, तो कैफ़ी आज़मी की शायरी से बेहतर कुछ नहीं.

कैफ़ी की शायरी में रुमान और प्रगतिशीलता दो आलग-अलग चीज़ें नहीं बल्कि एक ही चीज़ के दो नाम हैं. उनके गीत, उनकी नज्में और उनकी शायरी सब इस बात की तस्दीक करती हैं कि उन्होंने हिंदुस्तान के प्रगतशील आन्दोलन के दायरे को नया आयाम दिया, उसे नये मायने दिए.

ख़ार-ओ-ख़स तो उठें रास्ता तो चले

मैं अगर थक गया क़ाफ़िला तो चले

 

चाँद सूरज बुज़ुर्गों के नक़्श-ए-क़दम

ख़ैर बुझने दो उन को हवा तो चले

 

हाकिम-ए-शहर ये भी कोई शहर है

मस्जिदें बंद हैं मय-कदा तो चले

 

उस को मज़हब कहो या सियासत कहो

ख़ुद-कुशी का हुनर तुम सिखा तो चले

 

इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा

आप ईंटों की हुरमत बचा तो चले

 

बेलचे लाओ खोलो ज़मीं की तहें

मैं कहाँ दफ़्न हूँ कुछ पता तो चले

 

आज जब एक ऐसे दौर क्रूरता और घृणा की नई इबारत लिखी जा रही है, कैफ़ी आज़मी का न होना एक बड़ी दुश्वारी है. पर कैफ़ी आज़मी की शायरी और नज़्म हमारे पास है  जिसकी रौशनी में न सिर्फ ज़माने का चेहरा नज़र आता है बल्कि आने वाले कठिन दिनों के लिए हम हौंसला और उठ कर चल देने की ताब भी पाते हैं. एक शायर अपने अवाम के सांस के उठने गिरने में ही बचा रहता है. हवाओं में उसकी अनुगूँज बची रहती है. और उसके लफ्ज़, गर्म रातों में ठंडी हवा की उम्मीद बनकर साथ हो लेती है.

 

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है

आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आएगी

सब उठो, मैं भी उठूँ तुम भी उठो, तुम भी उठो

कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी

 

ये ज़मीं तब भी निगल लेने पे आमादा थी

पाँव जब टूटती शाख़ों से उतारे हम ने

उन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर

उन दिनों की जो गुफाओं में गुज़ारे हम ने

 

हाथ ढलते गए साँचे में तो थकते कैसे

नक़्श के बाद नए नक़्श निखारे हम ने

की ये दीवार बुलंद, और बुलंद, और बुलंद

बाम ओ दर और, ज़रा और सँवारे हम ने

 

आँधियाँ तोड़ लिया करती थीं शम्ओं की लवें

जड़ दिए इस लिए बिजली के सितारे हम ने

बन गया क़स्र तो पहरे पे कोई बैठ गया

सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिए

 

अपनी नस नस में लिए मेहनत-ए-पैहम की थकन

बंद आँखों में उसी क़स्र की तस्वीर लिए

दिन पिघलता है उसी तरह सरों पर अब तक

रात आँखों में खटकती है सियह तीर लिए

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है

आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आएगी

सब उठो, मैं भी उठूँ तुम भी उठो, तुम भी उठो

कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी

 

( कवि अच्युतानंद मिश्र दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं और कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित हैं )

RELATED ARTICLES
- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments