समकालीन जनमत
चित्र -सपना सिंह
जनमत

ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता के तार आपस में काफ़ी जुड़े हैं

( अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर बनारस में ऐपवा द्वारा आयोजित कार्यक्रम में संपृक्ता चटर्जी ने कैफ़ी आज़मी की नज़्म ‘उठ मेरी जान!…’ का पाठ किया । यहाँ प्रस्तुत है कैफ़ी की इस  बेहद मकबूल नज़्म का एक हिस्सा, संपृक्ता की टिप्पणी के साथ)

मजाज़ लिखतें हैं, ‘तेरे माथे पर ये आँचल तो बहुत खूब है लेकिन ; तू इस आँचल का इक परचम बना लेती तो अच्छा था।’

आज हम सब यहां परचम ही लहराने आए हैं। ये परचम है जश्न का। 8 मार्च सिर्फ कैलेंडर की एक तारीख नहीं   है; यह दिन है औरत होने के जश्न का, अपने वजूद का, अपनी खुदी के जश्न का। जो लड़ाई औरतों ने जम्हूरियत में अपनी हिस्सेदारी मांगने से शुरू की थी; समान नागरिकता की मांग से होते हुए, आज हर क्षेत्र में फ़ैल गयी है। This day is a celebration of womanhood.
पर जब हम नारीत्व की बात करते हैं तो ज़ेहन में यही खयाल आता है कि नारीत्व क्या है? औरत कौन है? क्या है? सिग्मण्ड फ्रायड का एक मशहूर कथन है, ‘Anatomy is destiny’- जिस्म ही औरत का मुस्तकबिल है। तो क्या औरत सिर्फ जिस्म है? क्या नारीत्व का अस्तित्व सिर्फ मातृत्व है? क्या एक औरत का जीवन सिर्फ एक माँ होने पर ही सफल है?
हम Feminist Movements की बातें करतें हैं और साथ ही बातें करतें हैं इससे जुड़े हुए तमाम सिद्धांतों और उन्हें कहने वालों की। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता के तार आपस में काफ़ी जुड़े हैं। हम bodily integrity के नाम पर एक upper caste, upper middle class, urban महिला के साथ हुए दुष्कर्म का तो प्रतिवाद करतें हैं पर दलित और आदिवासी महिलाओं के रोज़- ब- रोज़ हो रहे उत्पीड़न के वक़्त तो हमारी कलम मौन हो जाती है। कैंडल मार्च के लिए लायी गई मोमबत्तियां तब तो नहीं जलतीं। नारीत्व एक upper class, upper caste, academic jargon नहीं है। यह वह हक़ीक़त है जो धर्म , जाति और वर्ग से परे है.

कैफ़ी आज़मी की नज़्म ‘उठ मेरी जान!…’ का पाठ करती संपृक्ता चटर्जी

आजकल तो सोशल मीडिया का ज़माना है। और अभी का चलन यही है कि सारे बड़े गहनों के ब्रांड, कपड़ों और प्रसाधन सामग्री के बड़े ब्रान्ड्स महिला दिवस के नाम पर बड़ी भारी मात्रा में छूट दे रहे हैं; मानो अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस नारीत्व के सम्मान और संघर्ष का दिन न हो कर बाज़ारवाद की पराकाष्ठा हो, जिसमें औरत ही उत्पाद और औरत ही उपभोक्ता है। मेरा बस एक ही सवाल है, क्या पुरुष के अनुमोदन की सुदंरता को प्राप्त करने से बेहतर महिला दिवस का का सच्चा उत्सव यह नहीं होगा कि हम एक बच्ची या एक औरत को उनके अधिकारों से अवगत कराएं; उनके हक की आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाएं ताकि वह कभी अनदेखी, अनसुनी न रहें.
कहने को तो इस देश में नारी की शक्ति के रूप में उपासना की जाती है, पर आज उसी देश में निर्भया की निर्मम हत्या हुई और उसी देश में विभिन्न प्रदेशों में छोटी बच्चियों से लेकर वयस्क महिलाएं भी सुरक्षित नहीं हैं. निर्भया कांड के बाद भी यदि हम वर्तमान समय मे देखें तो महिलाओं के प्रति न सिर्फ दस्तावेज़ी अन्याय में वृद्धि हुई है, बल्कि उनके प्रति सोच का नज़रिया मानो दिनों- दिन निम्नगामी और संकुचित होता जा रहा है. और यह सब आज उस राजनैतिक विचारधारा के शासन के अंतर्गत हो रहा है जो कि, ” यत्रः नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता” की भारतीय संस्कृति के अपने को एकमात्र ध्वजावाहक कहते हैं.

ऐसे में तो कैफ़ी साहब की यह नज़्म बरबस ही याद आती है-

तू कि बे- जान खिलौनों से बहल जाती है
तपती साँसों की हरारत से पिघल जाती है
पांव जिस राह में रखती है फ़िसल जाती है
बन के सीमाब हर एक ज़र्फ़ में ढल जाती है
ज़ीस्त के आहनी सांचे में भी ढ़लना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे।

जिंदगी ज़ेहाद में है, सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने- खिलने में है नकहत, खम-ए-गेसू में नहीं
ज़िन्दगी एक और है, जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे।

गोशे गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिए
कहर है तेरी हर एक नर्म अदा तेरे लिए
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए
रुत बदल डाल अगर फूलना- फलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे।

कद्र अब तक तेरी ताऱीख ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं, बस अश्क़-फ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है एक चीज़, जवानी ही नहीं
अपनी ताऱीख का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे।

तोड़ कर रस्म के बुत, बंद-ए-कदामत से निकल
जोफ़-ए-इशरत से निकल, वहम-ए-नज़ाकत से निकल
नफ़स के खींचे हुए हल्का-ए-अज़मत से निकल
कैद बन जाए मोहब्बत तो मोहब्बत से निकल
राह के ख़ार ही नहीं, गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे।

शुक्रिया।

 

[author] [author_image timthumb=’on’][/author_image] [author_info]संपृक्ता चटर्जी दिल्ली विश्वविद्यालय तथा टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से पढ़ाई कर चुकी हैं. फिलहाल बनारस में हैं, अपनी पढ़ाई जारी रखने के सिलसिले में[/author_info] [/author]

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