समकालीन जनमत
दुनियाशख्सियतस्मृति

मार्क्स ने खुद के दर्शन को निर्मम और सतत आलोचना के रूप में विकसित किया : दीपंकर भट्टाचार्य

इलाहाबाद में ” मार्क्स और हमारा समय ” विषय पर भाकपा माले महासचिव का  वक्तव्य

इलाहाबाद . कार्ल मार्क्स की 200वीं जयंती (5 मई) के अवसर पर समकालीन जनमत ने इलाहाबाद में आज वर्धा सेंटर पर भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य के वक्तव्य का आयोजन किया।

इस मौके पर कामरेड दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा कि मार्क्सवाद को एक अंतरराष्ट्रीय दर्शन कहा जाता है और उसमें राष्ट्रीयता को नहीं मानने के रूप में देखा जाता है जबकि मार्क्स ने सर्वहारा वर्ग, मजदूर-किसान को राष्ट्रीय रंगमंच पर लोकतंत्र की लड़ाई जीतते हुए शासक वर्ग बनने की बात कही। इस प्रक्रिया में किसी भी देश में समाजवादी लोकतंत्र अगर स्थापित होता है तो वह पूंजीवादी लोकतंत्र से व्यापक, गहरा और बेहतर होगा। अगर कोई भी समाजवादी लोकतंत्र ऐसा नहीं करेगा तो वह प्रतीक होगा या उसकी सीमा होगी।

उन्होंने कहा कि आज भारत में कहा जाता है कि मार्क्स विदेशी हैं, उनकी यहां प्रासंगिकता नहीं, जबकि इसी समय विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों को यह बात कहने वाले ही सबसे अधिक तरजीह दे रहे। दीपंकर भट्टाचार्य ने इस धारणा को भी गलत बताया कि मार्क्स ने भारत को नहीं जाना समझा. उन्होंने कहा कि मार्क्स ने कहा कि भारत के लोग अंग्रेजों द्वारा रेलवे लाइन में लगाई जा रही पूंजी का लाभ तभी ले सकते हैं जब या तो वे अपने ऊपर से गुलामी की जंजीर उतार फेंके या स्वयं इंग्लैंड में सर्वहारा की क्रांति संपन्न हो जाए।

कार्यक्रम को संबोधित करते जसम के पूर्व महासचिव प्रो. प्रणय कृष्ण

 

 

 

 

 

 

 

 

यह बात उन्होंने 1853 में कही और स्वराज की पहली अवधारणा एक तरह से देखा जाए तो सबसे पहले भारत के संदर्भ में मार्क्स ने ही प्रस्तावित की और 1857 के संघर्ष को उन्होंने प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष कहा ही।

दीपंकर भट्टाचार्य ने अपने वक्तव्य में इस बात को खारिज किया की मार्क्स सोवियत पतन और चीन के पूंजीवादी विकास की तरफ बढ़ने के बाद अप्रासंगिक हो गए हैं। दीपंकर ने कहा कि इन सबके बाद भी मार्क्स प्रासंगिक हैं क्योंकि मार्क्स ने अपना दर्शन पूंजीवाद की आलोचना के रूप में विकसित किया न कि किसी देश में समाजवाद किस रूप में मौजूद है, इसकी आलोचना में। मार्क्स ने मार्क्सवाद या खुद के दर्शन को निर्मम और सतत आलोचना के रूप में विकसित किया। यह समाजवादी राज्य के निर्माण के साथ रुक नहीं जाता। सोवियत पतन या चीन के बदलने से मार्क्स के ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ा। आज जब फासिज्म और तानाशाही पर टिके राज्य एक विचार शून्यता में और मजबूत हो रहे हैं तो ऐसे राज्य या तानाशाही के खिलाफ एक विचार की जरूरत है और इस रूप में मार्क्स के विचार से बेहतर विचार नहीं दिखता।

भारत के संदर्भ में उन्होंने कहा कि फासीवादी ताकतों, धार्मिक पाखंड और धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल करने वालों के खिलाफ एक व्यापक एकता की जरूरत है उसमें विचार अलग हो सकते हैं लेकिन हमे साझा तत्व तलाश कर चलना होगा। इसी संदर्भ में उन्होंने कहा कि मार्क्स के दबे हुए लोग और अंबेडकर के बहिष्कृत लोग एक ही हैं। इसी तरह मार्क्स ने भारत में जिसे जड़ समाज कहा, अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद-मनुवाद कहा, एक ही है। उन्होंने कहा कि बुद्ध, अंबेडकर और मार्क्स अगर पूरक लगते हैं तो ऐसा मानने वालों को ही यह काम करना है, नई लड़ाई को चलाना है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रोफेसर राजेंद्र कुमार ने कहा कि मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण जब तक खत्म नहीं होगा, मार्क्स के विचार प्रासंगिक बने रहेंगे। मार्क्स मुकम्मल बदलाव की जरूरत हैं ।

कार्यक्रम का संचालन जन संस्कृति मंच के पूर्व महासचिव प्रणय कृष्ण ने किया तथा उपस्थित लोगों के प्रति आभार समकालीन जनमत के सम्पादक के. के. पाण्डेय ने किया ।

 

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion