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जनमत

‘दलित आंदोलन ने कला को धर्म के शिकंजे से आज़ाद किया’

‘ दलित आंदोलन :  साहित्य और कलाएं ’ विषय पर विचार गोष्ठी

‘चित्रकला और धर्म’, ‘मूर्तिकला में स्त्री और दलित ‘, ‘चित्रकला में दलित आंदोलन’, ‘साहित्य और दलित आंदोलन’ तथा  ‘फिल्म और दलित मुद्दे’ पर हुआ व्याख्यान

नई दिल्ली. रविदास सभागार में 24 नवंबर को दलित लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, जनवादी लेखक संघ और न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव ने साझा कार्यक्रम के तहत ‘दलित आंदोलनः साहित्य और कलाएं’ विषय पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया।

चित्रकार-साहित्यकार अशोक भौमिक ने ‘चित्रकला और धर्म’ पर बीज वक्तव्य दिया जबकि मुख्य वक्ता के तौर पर लतिका कट्ट ने ‘मूर्तिकला में स्त्री और दलित’, सावि सावरकर ने ‘चित्रकला में दलित आंदोलन’, भंवर मेघवंशी ने ‘साहित्य और दलित आंदोलन’ तथा सुधीर सागर ने ‘फिल्म और दलित मुद्दे’ पर अपनी बात रखी.

कार्यक्रम की अध्यक्षता हीरालाल राजस्थानी और  संचालन प्रसिद्ध साहित्यकार बजरंग बिहारी तिवारी ने किया. कार्यक्रम की शुरुआत साहित्यिक बुकमार्क्स रिलीज कर किया गया.

बातचीत शुरू करते हुए संचालक बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि फुले अंबेडकर की वैचारिकी दलित आंदोलन का केंद्र है.

 

1956 में जब अंबेडकर साहेब की अगुवाई में एक बड़ा मॉस कनवर्जन हुआ तो लोगों ने अपने घरों से मूर्तियों और तस्वीरों को बाहर निकाल फेंका. तमाम भजन कीर्तन और सांस्कृतिक कार्यक्रम से संबंध तोड़ लिया गया. इससे एक निर्वात बना. इस निर्वात ने सांस्कृतिक विकल्प की ज़रूरत महसूस कराई. अंबेडकर जलसे ने इस निर्वात को भरा. अंबेडकरी गीत और बुद्ध वंदना लिखे गए. 1956 के बाद 20 साल तक उस अभाव को महसूस करते हुए गुजरा. फिर 1976 में दलित पैंथर के उदय के साथ कवि आए जो एक्टिविस्ट भी थे. साहित्य के अलावा चित्रकला, मूर्तिकला, गीत, संगीत में भी इसका प्रभाव दिखा. नए पर्व आए, नई जुटान हुई. 14 अप्रैल को बड़ी जुटान हुई। हालांकि इसे हिंदुत्ववाद में फिर से समाहित कर लेने के लिए इसका डिस्टार्शन भी चल रहा है।”

हिंदू धर्म के विस्तार में चित्रकला का दुरुपयोग

कार्यक्रम का बीज वक्तव्य देते हुए अशोक भौमिक ने कहा-“ हमारे यहाँ कई कई आचार, व्यवहार, भाषा, धर्म और प्रांत हैं और इस विविधता का प्रभाव चित्रकला पर पड़ा है लेकिन धर्म ने चित्रकला का इस्तेमाल करके इसकी विविधता और प्रभाव को नष्ट कर दिया. धर्म के लिए एक प्रांत से दूसरे प्रांत में जाना संभव नहीं था तो उसने चित्रकला का इस्तेमाल किया और चित्रकला के जरिए वो एक प्रांत से दूसरे प्रांत तक पहुँचा. राजसत्ता और धर्मसत्ता ने चित्रकला का इस्तेमाल किया. भाषा की बाध्यता के कारण सरस्वती श्लोक उत्तर प्रांत से बंगाल तक नहीं जा सकता. सरस्वती को श्लोक के जरिए निरक्षर नहीं जान सकता।

निरक्षरों तक धर्म को चित्रकला ने पहुँचाया और इन इमेज के जरिए धर्म को जनमानस में पहले रूढ़ किया गया, फिर उसमें आस्था का विश्वास पैदा करके उसे इतिहास बना दिया गया. 1754 ईसा पूर्व चित्र के जरिये दिखाया गया कि सूर्य देवता राजा हम्मूरवी को कोर्ट ट्रांसफर कर रहा है. इसका अर्थ है कि भगवान राजा को एक संहिता प्रदान कर रहा. इसी के आधार पर समाज व्यवस्था संचालित होगी और इसका इसी तरह विकास होता है.

एक पेंटिंग ईस्ट इंडिया कंपनी के रेवेन्यू डिपार्टमेंट के कान्प्रेंस हॉल में रखी हुई है. इस पेंटिंग में दिखाया गया कि हम लोग अशिक्षित और अयोग्य हैं, इसलिए अपनी संपत्ति ब्रिटानिया को सौंप रहे हैं. चित्रों के जरिए कितना फ्रॉड किया जा सकता है इसका दिग्दर्शन है ये पेंटिग. बहुत बड़े कला समीक्षक ज़न हर्जर ने इस पेंटिंग के लिए ‘द लूट्स जस्टीफाइड’ शब्द का इस्तेमाल किया है.

चित्र ने उसका अर्थ बदल दिया है. इसका अर्थ ये हुआ कि चित्र में वो ताकत है जो इतिहास को भी बदल सकता है, इतिहास को अपने ढंग से पेश कर सकता है. हम जानते हैं अकबरनामा में अकबर भाले से गैंडे का शिकार कर रहे हैं तो इतिहास लिखने वाला भी शिक्षित है और चित्र बनाने वाला भी लेकिन जो इतिहास लिखा गया उसे भारत में पढ़ने वाले कम हैं पर जिसकी भाषा नहीं होती है उसे सब समझते हैं. इसलिए इस प्रभवाशाली माध्यम का इस्तेमाल धर्म ने भरपूर किया.

भारतीय चित्रकला दरअसल हिंदू चित्रकला थी

अशोक भैमिक ने अपने वक्तव्य को आगे बढ़ाते हुए कहा- “गीता प्रेस ने इसी तरह से तमाम चित्रों के जरिए धर्म को लोगों के मानस में बिठाया. इमेज और मूर्तियों के जरिए जो कहानियां गढ़ी जाती हैं, अलग अलग प्रांतों और समाजों में उसका अलग अलग इंटरप्रिटेशन किया जाता है. धर्म के जो देवता हमने बनाए हैं, ये धर्म ने जितना बनाया है उससे ज़्यादा मनुष्य ने बनाया है.

उत्तरप्रदेश के आस-पास के क्षेत्रों के शिव की जो इमेज हैं, उसमें लगता है कि वो इसी प्रदेश के कोई व्यक्ति हैं, लेकिन 1890 में पश्चिम बंगाल में वेस्ट कलर ब्लिफोग्राफ के जो प्रेस खुले उसकी पेंटिंग देखकर लगता है कि जैसे शिव, ईसा मसीह के नजदीक के दोस्त हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी स्कूलिंग योरोपियन शैली में हुई थी.

जो अवधारणाएं मनुष्य के दिमाग में बैठा दी जाती हैं वो चित्रों को देखकर उसमें उसकी शिनाख्त कर लेते हैं. हमारी चित्रकला की समझ यही थी कि हम उनमें देवताओं को चिन्हित करते रहे, उन्हें पहचानते रहे. हम चित्रकला में कुछ नया गढ़ने के पक्ष में कभी नहीं रहे.

उन्होंने कहा कि राजा रवि वर्मा के बनाए शिव, काशी का पंडा लगते हैं. 1890 में जब प्रिंटिंग मशीन राजा रवि वर्मा ने लगवाया और उनके बनाए देवताओं की पेंटिंग कलर प्रिंट होकर लोगों तक पहुँची तो पहले जहाँ लोग सामूहिक रूप से मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना करते थे, उसकी जगह पर हर घर में मंदिर स्थापित होने लगे.

आज फ्लैट में अलग से छोटा सा मंदिर भी बनाया जाता है। इसमें भी एक अद्भुत बात ये हुई कि इन्होंने जो मंदिर अपने घर में बनाया उसमें भी अवधारणा उस मंदिर की ही थी. यहां आरती भी होती थी, प्रसाद भी बँटता था, पूजा भी होती थी. ये सब घर में भी होने लगा. इस तरह हम देखते हैं कि हिंदू धर्म के प्रचार में 1890 के बाद मंदिरों की संख्या में गुणात्मक रूप से बढ़ोत्तरी हुई। यानी जितने चित्र बने उतने मंदिर बने, उतने घरों में मंदिर बने।

राजा रवि वर्मा ने जिन चित्रों को बनाया उन्हें पूरे देश में फैलकार कई नए देवी देवताओं से परिचित कराया। पुराणों की कहानियां चित्रों के जरिए लोगों तक पहुंचती हैं और उन्हें बिगाड़ती भी हैं। इन चित्रों में स्त्री को नीचा दिखाने के लिए उन्हें टारगेट किया गया।  कहानी लिखने वाला पुरुष है, चित्र बनाने वाला पुरुष है।

दरअसल चित्रकला का इतिहास आधी आबादी का इतिहास है। आधी आबादी की रुचि का इतिहास है। खजुराहों की मूर्तियों को किसी महिला द्वारा तराशना संभव नहीं है। जिन्होंने तराशा है उन्होंने अपनी कुंठाओं, अपनी फैंटेसी को उसमें दिखाया है. राजा बर्धमान ने महाभारत के चित्रों को ख़ुद बनवाकर छपवाया था, उत्कट के प्रिंट में. इस चित्र में महाप्रस्थान का दृश्य है जिसमें पांचों भाई जा रहे हैं. साथ में कुत्ता है और द्रोपदी वहीं गिरी हुई है. इसके नीचे जो व्याख्या दी हुई है वो ये कि इस यात्रा में सबसे पहले द्रोपदी गिरती हैं. तब भीम धर्मराज से पूछते हैं कि ये क्यों गिरी तो धर्मराज बताते हैं कि इसने पांचों से शादी तो कर ली पर प्यार केवल एक से किया, इसलिए ये पहले मरी. ये हमारे धर्म की व्याख्या है. स्त्री किससे शादी करेगी और किससे प्रेम करेगी यह धर्म डिसाइड करेगा और ऐसा कर बैठे तो सबसे पहले आप मरेंगे। चित्रों के जरिये सती प्रथा को ग्लोरीफाई करने का कम किया गया. ”

चित्रकला ने गाय का धार्मिक नैरेटिव रचा

अशोक भौमिक ने आगे बताया कि – “1890 में आजमगढ़ के मऊनाथ भंजन में एक छोटा से गांव में उस समय हुए सम्मेलन में कहा गया था कि गाय की हत्या मुसलमान कर रहे हैं. गाय का दूध प्रसाद के रूप में आपस में बाँट दिया और उसके बाद दंगा हुआ।

उसके बाद ही राजा रवि वर्मा के प्रेस ने एक चित्र जारी किया जिसमें दिखाया गया था कि गाय के अंदर 64 देवी-देवताओं का वास है. उसके बाद ये नैरेटिव तैयार किया गया कि एक हिंदू प्रसाद के रूप में सबको दूध बाँट रहा है, एक पारसी है, एक क्रिश्चन है और एक मुसलमान है. यहाँ इशारा इस बात का है कि ये तीनों गोभक्षक हैं और उनको वो दूध पिला रहा है.

गाय को देवता बनाने के पीछे ये आइडेंटीफाई कर रहे हैं कि उनका मूल उद्देश्य क्या है। इस तरह से धर्म ने चित्रकला का उपयोग किया। धर्म को आप किसके खिलाफ़ इस्तेमाल करना चाहते हैं, किसको लिंच करना चाहते हैं, चित्रकला ने इसमें एक बड़ी भूमिका निभाई।

उसी समय बंगाल का प्रेस लीफियोग्राफी कांसादीप पारा, जोकि प्रेस आर्ट प्रेस के नाम पर जाना जाता था, उन्होंने एक कदम और आगे बढ़कर गाय का एक चित्र जारी किया। लेकिन उसमें वो नैरेटिव नहीं था। इसमें यशोदा और कृष्ण थे, गाय को लक्ष्मी के रूप में रखा गया। इसके फॉर्म और एनाटामी में यरोपियन शैली ज़्यादा थी क्योंकि बंगाल उस समय उपनिवेश की राजधानी थी तो उसका भी असर था। इसमें एक वनदेवी भी थी।

वनदेवी बंगाल के आदिवासी लोगों की देवी मानी जाती हैं, वो भी उस पेंटिंग में इनवाल्व किया गया। सामने यमराज भी खड़े थे कि गर आप नहीं मानते तो यम तो हैं ही आपके लिए। आज इसका किस तरह से इस्तेमाल हो रहा है ये किसी से छिपा नहीं हैं।

1900 से 1930 का पीरियड जो था उसमें बंगाल चित्रकला का उदय होने के साथ चित्रकला में देवताओं का विकास हो रहा था। नंदलोल बोस, एकेंद्रनाथ मजूमदार, असितकुमार हलदार, वेंकेटप्पा प्रमुख थे। इनके चित्रों के साथ चित्र के साथ मूल्य बदल रहा था। नंदलाल बोस का सती महात्म्य चित्र। उन्होंने सतीत्व को महान कार्य बताया। सिस्टर निवेदिता ने कहा था कि भारतीय नारी का सबसे बड़ा आभूषण है सती होना।

रवीन्द्रनाथ टेगौर की भारत पेंटिंग को सिस्टर निवेदिता ने कहा था कि मेरे पास संसाधन होते तो मैं इस चित्र को हर किसान तक पहुंचाती। जबकि भारत माता के रूप में एक हिंदू देवी को चित्रित किया गया था। जिसके चार हाथ है- एक में विद्या, एक में अध्यात्म, एक में शस्त्र था। इस तरह कह सकते हैं कि इस समय की भारतीय चित्रकला दरअसल हिंदू चित्रकला थी।

हिंदू चित्रकला की परंपरा को तोड़ने वाला 1931-41 का दशक

1931 से 1941 के बीच का पीरियड महत्वपूर्ण था. इसमें अमृता शेरगिल और रबीन्द्रनाथ टैगोर अपने चित्रकला के साथ आते हैं. इस दशक में दो महत्वपूर्ण बातें होती हैं. पहली बार भारतीय चित्रकला में आम आदमी दिखा. इससे पहले की चित्रकला को देवी-देवता और राजा-रानी ने छेक रखा था.

ये दशक भारतीय चित्रकला के इतिहास में महत्वपूर्ण माना जाएगा क्योंकि इसने हजारों वर्षों से चली आ रही परंपरा से चित्रकला को मुक्त करवाया. इस दशक ने नई ज़मीन बनाई जिसमें आम आदमी अपनी बात अपने ढंग से कह सकता है. इन दशक के चित्रों को देखते समय हम इनका नाम और संदर्भ नहीं जानते. पहले के दशकों के चित्रों में हम नायक नायिका की शिनाख्त कर लेते थे क्योंकि हम उनकी कहानियों को जानते थे, ये चित्रकला की परिभाषा नहीं हो सकती.

चित्रकला की परिभाषा ये होगी कि जहाँ से कहानी शुरु होती है इन चित्रों को हम अपने अनुभव, अपनी स्मृतियों से समझते हैं. इस दशक में चित्रकला की जो जमीन बनती है वह आनेवाले दशकों की चित्रकला के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है। यहां से आम आदमी ने भारतीय चित्रकला में अपना आशियाना बनाना शुरु किया.

प्रगतिशील काल की चित्रकला में आम आदमी का आशियाना

प्रगतिशील काल के समय में भारतीय चित्रकला यानी 1942 के बाद की चित्रकला में नई परंपरा शुरु होती है। 1942-43 में जब अकाल पड़ा तब चित्रकारों ने अपनी नई और अभूतपूर्व भूमिका तलाशी और रंगों को त्यागकर काले-सफेद में रँगो को बनाना शुरु किया।

जैनुदीन आवेदन, गीतप्रभा, साक्यायन, कमरूल हसन के चित्र महत्वपूर्ण थे लेकिन संविधान पर जो नंदलाल बोस ने चित्रकला बनाई वो भी देवी देवता के चित्र बनाए. उसमें आम आदमी कहीं नहीं है जबकि हमारा संविधान वी द पीपल से शुरु होता है. उसी समय कमरूल हसन महिलाओं की मुक्ति के चित्र बनाते हैं। बांबे के चित्रकार के. के. हेब्बार साहेब और एफ. एन. शूजा, के एच अरा भिखारी पर चित्र बनाते हैं.

बाद में जनानंदोलन के चित्र चित्रकारों ने बनाए। ये चित्र बाहर से नहीं अंदर से आए। चित्त  प्रसाद के चित्र में स्ट्राइक का पोस्टर बनाते लोगों में महिला और उसकी गोद का बच्चा भी है। बिना स्त्री के कोई बदलाव नहीं हो सकता, चित्रकला इसे दर्ज करती है. मजदूर और महिलाएं चित्रकला का हिस्सा बनने लगते हैं. पहली बार भारतीय चित्रकला में महिलाओं को उनके सम्मान और बराबरी के साथ जगह दी गई। रामकिंकर बैज अपनी चित्रकला में श्रम और महिलाओं को दिखाते हैं।”

मूर्तिकला में स्त्री और दलित: लतिका कट्ट

मूर्तिकार लतिका कट्ट ने मूर्तिकला में स्त्री और दलित विषय पर व्याख्यान देते हुए प्रोजेक्टर पर अपनी कलाकृतियों से सबको रूबरू करवाया. उन्होंने बताया कि उनकी इच्छा लड़कियों के स्कूल में पढ़ने की थी लेकिन उनके पिता ने उन्हें कोएजुकेशन स्कूल में डालते हुए समझाया कि- इस दुनिया में आधी आबादी लड़कों की है और रहना उन्हीं के बीच है, फिर उनसे बचने का कोई तुक ही नहीं. जितना जल्दी आप लड़कों को समझ लोगी उतना ठीक होगा.

उन्होंने कहा कि जब वह बीएचयू में पढ़ने गई तो उनके टीचर ने कहा कि लड़कियाँ स्कल्पचर नहीं कर सकती और मुझे जबर्दस्ती पेंटिंग के लिए भेज दिया जबकि मेरा मन स्कल्पचर करने का था. फिर मेरी एक साथी मुझे लेकर रात 11 बजे वीसी से मिलने गई. वीसी ने मेरे फॉर्म पर हस्ताक्षर किया और मैं स्कल्पचर में चली गई. उन लोगों ने जितना मुझे सप्रेस किया मैं उतना काम करती चली गई. मुझे मुश्किल काम करने में बहुत मजा आता इसलिए मैं मुश्किल काम सबसे पहले करती थी. मैंने जिसका भी स्कल्पचर बनाया, मेरी कोशिश रहती कि  उस व्यक्ति की पर्सनाल्टी उभरकर उस स्कल्पचर में आनी चाहिए. मैं जीवन और मृत्यु के कांसेप्ट को समझने के लिए मणिकर्णिका घाट जाकर लाशों को देखती थी, उनका जलना देखती थी. मैं अपने छात्रों से कहती चाहे जो करो लेकिन टेक्निक सारी सीखनी चाहिए.

लतिका कट्ट ने आगे कहा कि – स्कल्पचर में भी एक मोशन और मूवमेंट होना चाहिए. मैं अपने हर स्कल्पचर में मूवमेंट को पकड़ने के लिए हवा करा इस्तेमाल करती हूँ. फेस और बॉडी की उम्र एक होनी चाहिए.
लतिका ने चिपको आंदोलन, सती प्रथा, ग्रोथ, डिटिअरिअरेशन्, स्नो स्केप, टर्माइट ईटेन, इनसाइड बॉडी, फॉलेन ट्री आदि पर महत्वपूर्ण कामों को पीपीटी के जरिए प्रोजेक्टर पर प्रदर्शित किया. इसके अलावा उन्होंने नेहरू ,इंदिरा और राजीव गांधी जैसे कई देशी -विदेशी विशिष्ट व्यक्तियों से लेकर बनारस के मल्लाह तक पर बनाए स्कल्पचर्स को प्रोजेक्टर पर प्रदर्शित किया.

चित्रकला में दलित आंदोलन : सवि सावरकर

चित्रकार सावि सावरकर ने ‘चित्रकला में दलित आंदोलन’ पर अपने विचार रखते हुए अपनी चित्रकलाओं का प्रोजेक्टर पर प्रदर्शन किया. साहित्यकार बजरंग बिहारी तिवारी ने उनका परिचय कराते हुए उन्हें ‘क्रोध औऱ वेदना का चित्रकार’ बताया।

सावि सावरकर ने बताया- “मेरे चित्र मेरे अनुभव और जीवन से आए हैं. इसे मैंने किसी संस्थान से नहीं सीखा. मैं जो जीता हूँ वही मेरी कला में है. मैं नॉन ब्राह्मणवादी, नॉन वैदिक धारा से आता हूँ. उन्होंने बताया कि सुरेन ससाई ने इंडिया में आकर देवदासियों की मुक्ति के लिए काम करना शुरु किया तो सरकार ने उनका वीजा-पासपोर्ट कैंसिल करके उन्हें वापिस उनके देश भेज दिया. नारायण गुरु ने आंध्र प्रदेश और केरला में देवदासियों के बच्चों को लिए स्कूल दिया और उन सभी बच्चों को पिता के नाम के लिए अपना नाम दिया. सावि सावरकर ने बताया कि सिविल वॉर लोगों के दिमाग में शुरु हो चुका है. उन्होंने बताया कि कैसे 500 दलितों ने 28 हजार सैनिकों को मार डाला. उन्होंने कहा कि गर रमाबाई न होती तो बाबा साहेब बाबा साहेब नहीं होते. बाबा साहेब ने जो मॉस कनवर्सन किया वो बहुत बड़ी क्रांति थी. बाबा साहेब पैथेटिक नहीं मरे, इनलाइटिंग में मरे. इसके साथ ही सावि सावरकर ने अछूतों की स्थिति, मनु, देवदासियों, मनुवादी वर्ण व्यवस्था, आजादी आदी पर बनाए अपने निजी चित्रों का प्रोजेक्टर पर प्रदर्शन किया.

फिल्म और दलित मुद्दे : सुधीर सागर

नाटककार, धारावाहिक पटकथा लेखक सुधीर सागर ने ‘फिल्म और दलित मुद्दे’ विषय पर बोलते हुए कहा – “ हर कला में प्रस्तुतिकरण का एक तरीका होता है. कैमरा बोलता है. फिल्में कैमरे की होती हैं निर्माता और निर्देशक की नहीं.

सेंसर बोर्ड के पास रजिस्टर्ड 62 फिल्में हैं जो दलित मुद्दों पर हैं. बिना रजिस्टर्ड तो बहुत सी हैं. हमें अब विचार इस बात पर करना है कि दलित मुद्दे पर बनी फिल्में फेल क्यों हुईं. फिल्म इंडस्ट्री में दो हजार फिल्में हर साल बनती हैं लेकिन इनमें से 1800 फिल्में स्क्रीन तक पहुँचती ही नहीं. फिल्मों के बनाने के तीन स्तर होते हैं -प्री प्रोडक्शन, प्रोडक्शन और पोस्ट प्रोडक्शन. फिल्म इंडस्ट्री में आज 50 प्रोडक्शन हाउस हैं.

इनकी ही फिल्में सिनेमा हॉल तक पहुँचती हैं. गैरदलितों के लिए सिनेमा हॉल है ही नहीं. इसलिए दलित प्रोड्यूसर के लिए फिल्में बनाना मुश्किल काम है. राजा हरिश्चन्द्र पहली बोलती फिल्म थी. इसमें एक दलित चरित्र था. उस तरह से देखें तो जितना हिंदी फिल्म का इतिहास है वही दलित मुद्दों का इतिहास है. लेकिन सिर्फ़ दलित मुद्दा उठाना भर ज़रूरी नहीं, उनको आइडेंटिफाई करना ज़रूरी है. बैंडिट क्वीन का डायरेक्शन दलित दृष्टिकोण नहीं हैं.

वो एक सामंतवादी दृष्टिकोण से बनी फिल्म है जिसमें एक स्त्री के बलात्कार को बार-बार दिखाया जाता है जबकि सिर्फ़ दरवाजा खुलने बंद होने से भी इसे दिखाया जा सकता था। फिल्म में फूलन का किरदार निभाने वाली सीमा विश्वास को नंगा दिखाने के बजाय सिर्फ हवा में कपड़े को उड़ते हुए भी दिखाया जा सकता था.

कहें तो बैंडिट क्वीन में घटना का सवर्ण मानसिकता से सिंबोलिक विजुअलाइजेशन किया गया है। कह सकते हैं कि बॉलीवुड दलितों के प्रति न्यायसंगत नहीं है। बॉलीवुड के अंदर भी दलित उत्पीड़न है लेकिन उसे कोई उठाना नहीं चाहता। मैंने अपनी किताब में इसका जिक्र किया तो मेरे किताब के विमोचन पर कोई नहीं आया।

यूँ तो कई फिल्में दलित मुद्दों पर है जैसे कि 1936 में आई अछूत कन्या, 1959 में आई सुजाता, अंकुर , सद्गति, चमेली की शादी आदि। दलित दृष्टिकोण से बनी पहली फिल्म ‘आरक्षण’ है जिसमें सारी बातों को दलित दृष्टिकोण से किया गया है. 1980 में सार्थक सिनेमा के नाम पर दलित मुद्दों ने प्रवेश किया. लेकिन हमें देखना होगा कि सार्थक सिनेमा का दलित मुद्दों से संबंध क्या है ?

‘शूद्र द राइजिंग’ में दलित दृष्टिकोण नहीं था. ‘आरक्षण’ फिल्म दलित दृष्टिकोण के हिसाब से पहली दलित फिल्म है क्योंकि इसके निर्देशक का दृष्टिकोण दलित था। अभी इस साल आई ‘आर्टिकल 15’ का निर्देशन भी दलित दृष्टिकोण से किया गया है. आज मेनस्ट्रीम फिल्मों का फोकस दलित मुद्दों पर हो गया है.

बॉक्स ऑफिस कलेक्शन के नज़र से भी देखें तो ‘ शूद्र द राइजिंग ‘ 5 करोड़ के बजट से बनी लेकिन कमाई 1 करोड़ 14 लाख ही कर सकी जबकि ‘ आरक्षण ‘ का बजट 14-16 करोड़ था औऱ इस फिल्म ने 41 करोड़ की कमाई की.  इसका दो कारण हैं.  पहला ये कि फिल्म को एक ऐसी कहानी चाहिए जो फिल्म को बाँधे. आज हमारे दलित समाज में बहुत कम फिल्मकार हैं जो फिल्म बनाने के लिए क्वालीफाइड हैं.

फिल्म बनाने के लिए फिल्म मेकिंग सीखकर आना चाहिए. दूसरी बात है फेस वैल्यू. आरक्षण में सभी नामी और स्थापित हीरो हीरोइन थे जबकि ‘ शूद्र द राइजिंग ‘ में सारे कलाकार नए थे. फिल्मों को चलाने के लिए एक फैसवैल्यू की भी ज़रूरत होती है. हमारे दलित समाज में आज कोई आर्थिक रूप से इतना सक्षम नहीं है. इसके चलते उनकी फिल्में प्रमोशन और विज्ञापन से वंचित रह जाती हैं क्योंकि मीडिया पर हमारी पकड़ नहीं है.

नेटवर्किंग नहीं है. तो हमें दूसरे विकल्पों पर सोचना चाहिए. संजीव की फिल्म ‘ शूद्र दा राइजिंग ‘ पब्लिसिटी से भी वंचित रह गई. दलित मुद्दों पर बनी ऐसी कई फिल्में हैं जिसके नाम लोगों ने नहीं सुने होंगे. टाइम्स न्यूज के एक फिल्म करेंसपांडेट ने मुझसे अपनी पसंद की कुछ फिल्मों का नाम बताने को कहा- मैंने  ‘ब्लैक फेस’ का नाम लिया. इस पर उसकी टिप्पणी थी कि ये भी कोई फिल्म का नाम है.  मैंने कहा मल मूत्र ढोता भारत तो वो और सकपकाए फिर मैंने कहा डार्क डेथ तो उन्होंने पूछा- सर आपके सब कुछ डार्क ही क्यों है.

दलित मुद्दों की फिल्में गर दलितों तक नहीं पहुँच रहीं तो वो फेल हैं. हमें इसके लिए डिजिटिल प्लेटफॉर्म पर जाना चाहिए. जब तक दलित समाज को सोच नहीं बदलती कि हमें दलित फिल्में देखनी हैं तब तक कुछ नहीं होगा. हमें दलितों के डिजिटल फ्लेटफार्म को सबस्क्रइब करना होगा ताकि उसका व्यूवरशिप बढ़े. व्यूवरशिप बढ़ेगी तो कुछ रेवेन्यू जेनेरेट होगा. दलित फिल्में गर फिल्मों के फार्मेट पर बनेंगी तभी चलेगीं. साहित्य में हमारी बात नहीं रखी गई तो हम दलित साहित्य, अंबेडकरी साहित्य ले आये लेकिन अब बॉलीवुड- टॉलीवुड की तर्ज पर बहुजनवुड आ गया है. ”

आखिरी वक्ता के तौर पर साहित्यकार पत्रकार भँवर मेघवंशी ने ‘ दलित आंदोलन और साहित्य ‘ विषय पर अपनी बात रखी. उन्होंनें कहा कि बाबा साहब का लेखन ही दलित आंदोलन की सबसे बड़ी प्रेरणा है। दलित साहित्य वही कहलायेगा जिसमे दलित मुद्दे और चेतना आयी हो।

अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में हीरालाल राजस्थानी ने कहा कि समाज को बेहतर बनाने के लिए किसी एक जाति या समुदाय की ठेकेदारी नहीं है बल्कि सबको मिलकर साथ काम करना होगा। तभी हम समतामूलक समाज की परिकल्पना कर सकते हैं।

 

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