समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

कथाकार शिवमूर्ति के गांव में जुटे साहित्यकार, देश-गांव पर बातचीत, पुस्तकालय का उद्घाटन 


शिवमूर्ति हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार हैं। इनकी विशेषता है कि इन्होंने अपने कथा साहित्य में लोकतत्वों और लोकरंजन का अच्छा-खासा समावेश किया है। आज  जब समकालीन कथा साहित्य नगरीय-महानगरीय होता जा रहा है, शहरी मध्यवर्गीय जीवन के इर्द-गिर्द ज्यादातर कथा साहित्य रचा-बुना जा रहा है, ऐसे समय में शिवमूर्ति गांव, गांव के लोग, खेती-किसानी, उसके संकट, आपसी रिश्ते, दुख-दर्द, गांव की दुनिया, उसके द्वन्द्व, स्त्री समाज, किसान-जीवन, विकास कथा आदि को अपने कथा साहित्य का विषय बनाते हैं। इस मायने में वे प्रेमचंद व रेणु की परम्परा के कथाकार हैं।

यह शिवमूर्ति का सामाजिक सरोकार है कि वे न तो भौतिक रूप से और न  मानसिक रूप से अपने गांव-समाज से कभी मुक्त हुए। गांव उनके रक्त में प्रवाहित है, धमनियों में धडकता है। उनकी कोशिश रहती है कि उनके साहित्यकार मित्र भी गांव से जुड़े। उसे देखें, समझे आौर वहां बदल रहे यथार्थ का अनुभव करे। इसी प्रयास के तहत रचनाकारों को वे अपने गांव बुलात रहे हैं। इसी क्रम में उनके  निमंत्रण पर 22 से  24 फरवरी को पश्चिम बंगाल, उत्तराखण्ड व दिल्ली, गुड़गांव के अलावा उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद, लखनऊ, फैजाबाद, कानपुर, बनारस, मुजफ्फरनगर, बरेली, चित्रकूट आदि जिलों से करीब दो दर्जन साहित्यकार जुटे। इसमें वयोवृद्ध कथाकार अमरीक सिंह दीप शामिल थे तो वहीं शिवमूर्ति के रचना संसार पर नैनीताल में शोध कर रहे युवा लेखक चन्द्रमा प्रसाद थे।
हम साहित्यकार कई गांवों में गए। गलियों में घूमे। सरकारी योजनाएं कितना और किस रूप में लागू हुई हैं, इसे देखा व अवलोकन किया। खेतों का भ्रमण किया। मेड़ों और पगडण्डियों पर चले। हम उन समस्याओं से भी रू ब रू हुए जो किसान जीवन को  प्रभावित कर रहे हैं जैसे – कैसे किसानी से जीवन यापन कर पाना दूभर होता जा रहा है, गोभी बोना तो फायदेमंद हो गया है पर धन व गेहूं बोना घाटे का सौदा हो गया है, छुट्टा माल मवेशियों से खेती को नुकसान हो रहा है आदि-इत्यादि। जैसे व्यक्ति और समाज का इतिहास होेता है वैसे ही क्षेत्र विशेष का भी। शिवमूर्ति और उनकी पत्नी सरिता देवी इस विषय के पन्ने खोलती रही। हमारी जिज्ञासा बढ़ाती भी रही और शांत भी करती रही। हमें लगता कि उनके मुख से गांव की कथा सुन रहे हैं। वैसे  शिवमूर्ति किस्सागोई और कहन के खास अन्दाज के लिए जाने भी जाते है।
हमारी मुलाकात उनके किसान मित्रों से, उनके कथा-पात्रों से हुई। कई तो बाहर से देखने में साधारण थे पर जीवन अनुभव और ज्ञान से भरे थे। ऐसे ही हैं नन्दलाल। उनके पास इतनी कहानी थी कि रात खत्म हो जाय पर कहानी न खत्म होने वाली। उनकी बहुत सी बातें जुमले की तरह थी। एक बात तो मुहावरे की तरह बैठ गयी। उनका कहना था कि दुनिया आंख से देखती है, पर भारत कान से देखता है। यह भारतीय समझ पर गहरी टिप्पणी थी।
शिवमूर्ति के कथा-पात्र कल्पना के सहारे गढ़े हुए नहीं हैं बल्कि वे उनके आस-पास के जीवन के हैं, सजीव हैं। उनसे मिलना नयी अनुभूति से भरा था। मिलकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि कथाकार अपने पात्रों के  जीवन में कैसे पैठता है, उसका पुर्नसृजन करता है और वह उनसे भावनात्मक रिश्ता बनाता है। चूंकि यह यात्रा अनौपचारिक थी इसलिए इसमें आत्मीयता व सहजता थी। शिवमूर्ति जी ने अपने गांव कुरंग में एक दुनिया बसा रखी है जो देखने में छोटी है पर अन्र्तवस्तु में बड़ी दुनिया है। इसे महसूस किया जा सकता है। वहां मनुष्य ही नहीं है बल्कि उनकी गायें, बछड़े और कुत्ते आदि भी शामिल है। तीन पांव के कुत्ते की चर्चा करना आवश्यक है जो सबका दुलारा और स्नेह का पात्र है। उसका नाम है ‘टेम्पो’। शिवमूर्ति जी की इस दुनिया में लम्बे आसमान छूते गाछ, पेड़, पौधे, तालाब, बखार आदि शामिल हैं।
हम यहां इस क्षेत्र विशेष मे बह रही एक नई सांस्कृतिक बयार की अवश्य चर्चा करना चाहेंगे। यह है पुस्तक संस्कृति की बयार। शिवमूर्ति की प्रेरणा और इस क्षेत्र की एक शिक्षिका के प्रयास से एक नई संस्कृति करवट ले रही है। यह शिक्षिका हैं युवा लेखिका ममता सिंह। उन्होंने दो साल पहले 8 जनवरी 2018 को अपने गांव अग्रेसर, अमेठी जिसकी दूरी कुरंग से  बमुश्किल पांच किलोमीटर होगी एक पुस्तकालय खोला। यह धारा के विरुद्ध तैरने से कम नहीं था। हमारे देश में पुस्तकालयों की स्थापना उन्नीसवीं सदी में हुई थी। धीरे-धीरे इसने आन्दोलन का रूप लिया। तमाम पुस्तकालय बने। वे ज्ञान के केन्द्र के रूप् में विकसित हुए। पर आज शिक्षण संस्थानों से लेकर ज्ञान के हमारे केन्द्र संकट में हैं। ऐसे में अग्रेसर जैसे ग्रामीण क्षेत्र में पुस्तकालय की स्थापना आशा के दीप हैं। सबसे बड़ी बात यह पुस्तकालय दलित समाज से आने वाली प्रथम शिक्षिका सावित्रीबाई फुले के नाम से खोली गयी।
अग्रेसर, अमेठी में स्थापित सावित्रीबाई पुस्तकालय ने जो अलख जगाई है, उसका असर यह हुआ कि 22 फरवरी को अग्रेसर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर दुर्गापुर बााजार, सुल्तानपुर में एक दूसरे पुस्तकालय की शुरुआत हुई। इसका भी नाम सावित्री बाई फुले के नाम पर रखा गया। उदघाटन बाहर से आये लेखक समुदाय की उपस्थिति में सरिता देवी ने किया। कार्यक्रम का संचालन दिल्ली से आये कवि व लेखक सईद अयूब के द्वारा किया गया। इस मौके पर शिवमूर्ति, अमरीक सिंह दीप, डाॅ विवेक मिश्र, डाॅ डी एम मिश्र, रविशंकर सिंह,  आशाराम जागरथ, कौशल किशोर, कैलाश मिश्र आदि ने अपने विचार व्यक्त किये। वक्ताओं ने सवित्री बाई फुले के शिक्षा, विशेषतौर नारी शिक्षा के क्षेत्र में किये कार्यों और उनके संघर्ष को याद करते हुए कहा कि किताब की दुनिया हमें नई दुनिया से परिचित कराती है। यह हमारे जीवन में खिडकी खोलती है। आयोजन में बड़ी संख्या में छात्र शामिल थे।
दूसरे दिन 23 फरवरी को दुर्गापुर से विपरीत दिशा में अमेठी जिले के छीड़ा गांव में सावित्री बाई फुले के नाम पर एक अन्य पुस्तकालय का उदघाटन हुआ। यह लोकनायक जयप्रकाश नारायण सेवा संस्थान के स्थापना दिवस के मौके पर युवा शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता मंजीत यादव की पहल पर किया गया। एक हजार फलदार वृक्षों के पौधों का निशुल्क वितरण भी किया गया। उदघाटन समारोह में ‘मेरा गांव मेरा देश’ विषय पर एक विचार विमर्श का कार्यक्रम भी आयोजित था। शुरुआत कथाकार शिवमूर्ति ने की तथा अमरीक सिंह दीप, रामप्रकाश कुशवाहा, आशाराम जागरथ, ममता सिंह, विवेक मिश्र, रामजी यादव, रविशंकर सिंह, कृष्ण कुमार श्रीवास्तव,, कौशल किशोर आदि ने अपने विचार प्रकट किये।
तीन दिवसीय इस आयोजन का नाम ‘साहित्यिक भंडारा’ रखा गया था। इसमें नाश्ता एक गांव में तो भोजन दूसरे गांव में। यह हमारी सामूहिकता की लोक संस्कृति का उदाहरण था। इस दौरान एक सत्र ऐसा भी रखा गया था जिसमें सभी ने अपनी साहित्य-यात्रा की चर्चा की। बृजेश यादव ने बिरहा और लोकगीतों से समां बांधा। तीसरे दिन भारती पब्लिक स्कूल, बालमपुर के तत्वाधान में साहित्य पुरोधा संगम का आयोजन था। इसके संयोजक आलिम जाह सुल्तानपुरी थे।
इस तरह कथाकार शिवमूर्ति की पहल पर यह सुल्तानपुर के गांवों में आयोजित सांस्कृतिक संगमन था। इसमें सामूहिकता की जो भावना देखने को मिली वह हमारी लोक संस्कृति का अनूठा उदाहरण है। हम सब ने जिस आात्मीय माहौल में तीन दिन गुजारा वह अदभुत और अवर्णनीय है। सुल्तानपुर के अलावा यहां पहुंचने वालों में लखनऊ से भगवान स्वरूप कटियार, तरुण निशान्त, अरुण सिंह व संतोष कुमार वर्मा इलाहाबाद से हरेन्द्र प्रसाद, मोती प्रसाद मौर्य व कमल किशोर कमल, दिल्ली से सत्येन्द्र श्रीवास्तव, पंकज मिश्र, अश्विनी खण्डेलवाल, पवन तिवारी, रामनरेश पाल आजमगढ से हेमन्त कुमार तथा मो अकरम आदि प्रमुख थे।

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