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शासक वर्ग को जेएनयू दुश्मन क्यों लगता है ?

बीते सात-आठ वर्षों में हम सभी ने जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी यानि जेएनयू का नाम हर तरह के अच्छी-बुरी ख़बरों में लगातार सुना है. हममें से काफी लोगों को यह ज्ञात होगा की जेएनयू एक सरकारी संस्थान  है, यानि सरकार द्वारा चलाया जाने वाला एक संस्थान. क्योंकि आज के वक़्त का समाज इन्टरनेट की सेवाओं का प्रयोग बखूबी कर रहा है तो मैं यह भी कहूंगी कि आप बेशक इसकी वेबसाइट खोलकर इसका ‘ परिदृष्टि ’ वाला हिस्सा भी पढ लें. साफ़ शब्दों में आप वहां लिखा पाएंगे कि  “ जेएनयू परिसर भारतीय राष्ट्र का एक लघु रूप है. इसमें देश के कोने-कोने और समाज के प्रत्येक समूह और स्तर से छात्र-छात्राएं आते हैं. “

ऐसा सुनिश्चित करने के लिए वार्षिक प्रवेश परीक्षा देश के विभिन्न भागों के केंद्रों पर ( विदेश में काठमांडू, नेपाल) एक साथ आयोजित की जाती है. इस संस्थान में वंचित समुदायों एवं सांस्कृतिक समूहों के छात्र-छात्राओं को आकर्षित करने पर विशेष जोर दिया जाता है.

जेएनयू में प्रवेश लेने 15 प्रतिशत छात्र-छात्राएं विदेशी हैं. यहाँ पर 30-35 देशों के छात्र-छात्राएं पढ़ रहे हैं. फिर वह संस्था जो की इस देश का, एक लघु रूप प्रस्तुत करती है, आज इसी देश की सरकार के लिए गले में फंसी हड्डी के समान क्यों हो गयी है ? आम तौर पर सरकारें अपनी संस्थाओं के बचाव के लिए आगे आती दिखाई देती हैं पर जेएनयू के मामले में हम ऐसा होता नहीं देखते. आखिर क्यों ?

जेएनयू भारत में ही चलने वाली एक यूनिवर्सिटी है, बाकी और कई यूनिवर्सिटीज की तरह.  इसमें पढने और पढ़ाने वाले भी इसी देश के नागरिक हैं. फिर इसे लगातार किसी दुश्मन तरह क्यँ प्रदर्शित किया जा रहा है? इसी देश के नागरिक अगर एक दूसरे को दुश्मनी के नज़रिये से देखने लगें तो यह स्थिति तो किसी भी तरह से किसी भी देश  के लिए अच्छी तो नही समझी जाएगी. पर आखिर ऐसा है क्यों ?

मै पिछले आठ वर्षों से यहाँ की छात्रा हूँ और जितना मैंने इसे इन आठ सालों में देखा है और जाना है, उन्हीं के अनुभवों और यादों के माध्यम से आज आपको बता रही हूँ कि जेएनयू एक ऐसी संस्था है जो मूलतः अपने शोध कार्यों या जिसे हम अंग्रेजी में रिसर्च वर्क्स कहते हैं, के लिए दुनिया भर में जानी जाती रही है. यहाँ विज्ञान, वाणिज्य और कला सभी क्षेत्रों में शोध कार्य किये जाते हैं.

शोध माने होता क्या है ? यहाँ पर यह समझना बेहद जरूरी है. शोध करने का मतलब यह है कि हम किसी भी चीज या किसी घटना के हर पक्ष, हर पहलू को पहले देखते हैं,समझते हैं, फिर उस पर आधारित कुछ प्रश्नों की एक फेहरिस्त  जैसा बनाकर देखते हैं कि हमारे किन प्रश्नों का कैसा जवाब हमें मिल पाया है और इसी तरह से हम एक घटना या एक चीज़ या एक व्यक्ति के अस्तित्व से जुड़े हर पहलू को खोजकर उस पर एक स्टडी तैयार करते हैं. यह रहा बहुत ही साधारण शब्दों में शोध का मतलब.

हालांकि जब आप कभी इसके बारे में पढना शुरू करेंगे तब आप समझ पायेंगे कि यह कितना कठिन और उलझा हुआ काम है. पर साथ ही साथ आप यह भी समझेंगे कि यह हमारे लिए,  इस समाज के लिए कितना जरूरी भी है. रिसर्च हमें हमारे आने वाले कल को बेहतर समझने में भी सहायता करती है और यही कार्य जेएनयू इतने वर्षों से करता चला आ रहा है. आप ही बताइए की इसमें आपको क्या कुछ गलत लगता है ?

जब हम शोध करते हैं, तो जैसा कि मैंने अभी कहा कि हम किसी घटना के हर पहलू को समझने की कोशिश करते हैं.  जैसे मैं आपको उदाहरण देकर समझाती हूँ. मान लीजिये किसी दिन हमारी कक्षा में कश्मीर और कश्मीर के मुद्दों पर बात छिड़ गयी और क्योंकि कक्षा का हर एक छात्र देश हर कोने से है जिसमें मुमकिन है कि कोई छात्र कश्मीर का भी हो, हम सभी की बातें सुनते हैं और समझते हैं और फिर उसका कोई निवारण सोचने का प्रयास करते हैं . क्या इसमें आपको कुछ गलत लगता है ?

देश में हर रोज कोई न कोई नई नीति आती है, वह कैसे अच्छी है या नुकसानदेह हो सकती है, हम इस पर विचार करते हैं, उसके बारे में लिखते हैं, पढ़ते हैं. क्या आपको इसमें कुछ गलत लगता है ? अगर कोई नीति या सरकार का कोई फैसला देश के किसी भी वर्ग के लिए बुरा साबित हो सकता है तो हम बेशक उसका विरोध करते हैं और उस वर्ग की आवाज बनते हैं. यह हम सिर्फ इस देश के लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया में इंसानियत को बचाए रखने के उद्देश्य से करते हैं. क्या इसमें कुछ गलत है ?

क्या एक शिक्षण और शोध संस्था को ऐसा नहीं होना चाहिए ? क्या हर किसी की आवाज को सुना जाना एक लोकतंत्र की मूल मांग नहीं है ? फिर भारत तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में से एक है. दुनिया में हमारा रुतबा ही ‘ अनेकता में एकता ’ जैसे मूल्य से बनता है. ऐसे में क्या जरूरी नहीं कि इस एकता को खंडित होने से बचाने के लिए हम हर एक वर्ग को उसकी बात कहने का और साथ ही साथ खुद उसकी बात सुनने का धैर्य रखें.

अगर हमें सच में लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित देश से प्रेम है तो हमें तो जेएनयू जैसी और संस्थाओं की स्थापना के बारे में विचार करना चाहिए. अगर हम इसे नहीं बचाएंगें तो इसमें हानि भी हमारी ही है. अगर हम आवाज उठाने वालों का अस्तित्व ही खत्म कर देंगे तो सिवाय गलत होते देखने और सिर झुकाकर उसक पालन कर लेने के अलावा हमारे पास और होगा ही क्या करने को ?

लोकतंत्र में विपक्ष को जरूरी क्यूं बताया गया है, क्या इस पर आपने कभी विचार किया है ? अगर आलोचना करने वाला कोई होगा ही नहीं तो पता कैसे चलेगा कि सरकारें जो फैसले ले रहीं, वे कितनी जनता के हित में और कितनी सरकार में बैठे लोगों के हित में हैं ?

जेएनयू हर वक्त में सरकारों के लिए एक बड़े आलोचक का काम करती आई है. हम सरकारों से उसके फैसलों के बारे में सही सवाल करते रहे हैं. देश में मंदी है. यह एक सत्य है. इस सत्य को बोलने में अगर आपको आपकी सरकार पकड़कर जेल में डालने लगे तो क्या वह आपके लिए सही होगा ?

अगर कोई कश्मीरी यह कहता है कि सरकार के किसी फैसले से उसके यहां की स्थिति ठीक नहीं है तो क्या जरूरी नहीं कि उसकी बात सुनी जाए ?

मैं चाहूंगी कि आप भी इस पर विचार करें. जो आपको दुश्मन लग रहे, वे आप ही के बीच के लोग हैं, ठीक आप जैसे दिखने वाले. आपके ही जैसे जिन्दगी बसर करने वाले. आज उन पर हमला हो रहा तो आप चुप हैं, कल आप पर होगा तो शायद आपके लिए आवाज उठाने वाला कोई न हो.  कोई देश भाईचारे, प्रेम और सद्भावना जैसे मूल्यों से बनता और चलता है. आप अपने आस-पास और अपने अन्दर झांककर देखिए क्या ये मूल्य आपको मिल पाते हैं ?

मैने जेएनयू को सालों-साल इन मूल्यों से चलते और इन मूल्यों के लिए लड़ते देखा है. हर वक्त में इन मूल्यों पर हमला हुआ है क्योंकि ये मूल्य समाज को ताकतवर बनाते हैं, संगठित रहकर अपनी जरूरतों के लिए लड़ने की शक्ति देते हैं. यही कारण है कि शासक वर्ग इन्हें खत्म करने का का हर प्रयास करता है. इसमें उसका फायदा है किन्तु हमारा तो ‘नुकसान’ है. अब यह फैसला हमारे और आपके हाथ में है कि हम किसका साथ देते हैं और किसका नहीं.

( लेखिका जेएनयू के सेंटर ऑफ जर्मन स्टडीज में रिसर्च स्कॉलर हैं )

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