( वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक नवीन जोशी के प्रकाशित-अप्रकाशित संस्मरणों की शृंखला ये चिराग जल रहे हैं की चौदहवीं क़िस्त में प्रस्तुत है अनूठे हिंदी कवि और पत्रकार वीरेन डंगवाल की आत्मीय याद . गौरतलब है कि आगामी 5 अगस्त को वीरेन जी का 73 वां जन्मदिन भी है . उनकी याद को समर्पित यह संस्मरण .
इस लेख के साथ ही कुछ समय के लिए यह शृंखला स्थगित की जा रही है जिसे नवीन जी ने शीघ्र ही फिर से आरम्भ करने का वायदा किया है . सं. )
गरुड़ बटी छुटि मोटरा, रुकि मोटरा कोशि
अघिला सीटा चान-चकोरा, पछिला सीटा जोशि
हमारी गाड़ी कोसी पहुंची ही थी कि मेरे मुंह से बचपन में बहुश्रुत ‘चांचरी’ (लोक गीत) के ये बोल अपने-आप ही निकल पड़े थे- गरुड़ से मोटर चली और रुकी जाकर कोसी. आगे की सीट पर है चांद-चकोर और पीछे बैठे हैं जोशी.
वीरेनदा, सिद्धेश्वर सिंह और अशोक तीनों चौंके थे. मैंने कहना जारी रखा कि पहाड़ के इन गांवों-कस्बों के उन्मुक्त जीवन में कभी-कभार किन्हीं दो दिलों में प्रेम उपजता होगा. कभी साथ-साथ जंगल में गाय-बकरी चराते हुए, कभी खेतों में सामूहिक रोपाई-गुड़ाई करते हुए, कभी कुछ समय तक एक ही मोटर में कुछ दूर तक आते-जाते हुए. कुछ प्रेम-प्रसंग चर्चित हो जाते होंगे तो लोक-कवि उनके गीत रच कर मेलों में गाते होंगे. झोड़ा-चांचरी बनकर फिर ये गीत दूर-दूर तक लोगों की जुबान पर चढ़ जाते होंगे. यह गीत भी इस इलाके की किसी सुंदरी का पीछा करते किसी जोशी पर रचा गया होगा. और, देखिए कि इस मामले में लोक-कवि कितना समझदार है. वह कन्या का नाम नहीं ले रहा, ‘चांद-चकोर’ कह कर उसका बखान तो कर रहा है लेकिन उसकी पहचान छुपा ले रहा है. जोशी तो कोई भी हो सकने वाला हुआ!
‘ये जोशी जरूर कोई मास्टर रहा होगा,’ वीरेनदा ने कहा- ‘रोज सुबह स्कूल के लिए बस पकड़ता होगा और ठीक चांद-चकोर के पीछे वाली सीट पर जा बैठता होगा.’
‘तब तो चांद-चकोर भी मास्टरनी ही होगी. वर्ना वह रोज-रोज कहां जाती होगी एक ही बस में.’ अशोक ने जोड़ा था.
मैंने कहा- ‘लोक-कवि के लिए तो प्रेमिका के पीछे चलते प्रेमी का एक दिन का किस्सा ही काफी है. कौतिक (मेला) देखने गयी हो या किसी रिश्तेदारी में, पीछा करते जोशी की निगाह बहुत हुई लोक-कवि के लिए.’
‘और वीरेनदा, मुहब्बत के जो किस्से बहुत आम हो जाते होंगे, उनमें लोक-कवि नाम लेने में संकोच भी न करता होगा.’ मुझे चर्चा में आनंद आने लगा था- ‘जैसे इसी बौरारौ घाटी की कोई जैंता रही होगी जिसका द्वाराहाट के दीवान से चक्कर बहुत चर्चित हो गया होगा. तब लोक कवि ने झोड़ा रच दिया. वह उस साल उत्तरायणी के मेले में गाया जाकर पूरे कुमाऊं में चर्चित हो गया – “देवानी लौंडा द्वारहाट कौ, त्वीलै धारो बोला/ जैतुली बौरारौ की जैंता त्वीलै धारो बोला.”
‘लेकिन प्यारे नवीन, ये बताओ कि तुमने यहां मास्टरी कब की!’ वीरेनदा ने मेरे गाल पर एक थपकी देकर लोक-कविता की व्याख्या में एकाएक ही ठहाके भर दिये . कौसानी पहुंचने तक हम चारों इस पर खूब हंसते रहे थे.
‘कबाड़खाना’ के रचना-समृद्ध कबाड़ी, अब ‘काफलट्री डॉट कोम’ के प्रणेता, किस्सागो और हमारे मस्तमौला युवा कवि, अनुवादक अशोक पाण्डे को यह किस्सा बहुत प्रिय है. अपने ब्लॉग के अलावा भी वे इसका एकाधिक बार जिक्र कर चुके हैं. वीरेनदा ने इस किस्से में अपनी सदाबहार खिलंदड़ी का छौंक लगाकर यादगार बना दिया था.
महादेवी वर्मा सृजन-पीठ ने उस साल कौसानी में सुमित्रा नन्दन पंत और शैलेश मटियानी की स्मृति में उत्तराखण्ड के साहित्यकारों का दो दिवसीय जमावड़ा किया था. आमंत्रित रचनाकारों में स्वाभाविक रूप से वीरेनदा का भी नाम था. मैंने लखनऊ से रवाना होने से पहले उसे फोन किया तो वही खनकदार जवाब- ‘हां-हां, नवीन प्यारे, आ जाओ. साथ चलेंगे. बड़ा मजा रहेगा.’ हम उसके ऐसे वादों या आश्वासनों पर भरोसा करना कबके छोड़ चुके थे. अक्सर ही वह ऐन मौके पर कोई बहाना बना कर टाल जाता था. हल्दवानी पहुंचा तो अशोक ने बताया कि वीरेनदा का सुबह बरेली से चलने का कार्यक्रम है. हल्दवानी पहुंच जाए तब समझो कि वह सचमुच कौसानी चल रहा है.
दूसरी सुबह वीरेनदा हल्द्वानी में साक्षात उपस्थित था, अपनी जिंदादिली और दोस्ताना शैतानियों के साथ. कवि सिद्धेश्वर सिंह भी साथ थे. थोड़ी देर में हम एक गाड़ी से कौसानी की तरफ चल दिये. वह यात्रा यादगार रही.
कौसानी में उत्तराखण्डी मूल के बहुत सारे रचनाकार जुटे थे. औपचारिक बातचीत जो होनी थी, सो हुई लेकिन जो अनौपचारिक बैठकें, गप-शप, घुमक्कड़ी और रातों के हंगामे हुए वह ज्यादा कीमती और स्मरणीय रहा. वीरेनदा की मांग हर महफिल में होती. हर पीढ़ी को वह बराबर पक्का यार और इसीलिए हर महफिल में जरूरी उपस्थिति लगता था. उसकी कोशिश भी रहती कि वह सबके साथ हो. देर रात जब सबके कोटे का पेय-पदार्थ खत्म हो गया तो वीरेनदा ही था जो आयोजक बटरोही के बंद कमरे में अतृप्त साथियों को लेकर धावा बोल सकता था. हिसाब-किताब और कल की तैयारियों में अत्यंत व्यस्त दिख रहे बटरोही जी की टाल-मटोल उसके सामने कहां चलने वाली थी. उन्हें अपनी अटैची खोलनी ही पड़ी.
( फ़ोटो : रोहित उमराव )
वीरेन दा से मुलाकात जाने कितनी पुरानी है. याद नहीं कि हमारी पहली मुलाकात कब-कहां हुई. शायद नैनीताल, या लखनऊ या मुलाकात से भी पहले फोन पर बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. इतना जरूर याद है कि शुरू-शुरू में जब भी फोन पर बात होती, वह यह याद दिलाना नहीं भूलता था कि “नवीन, मैं तो यार, दुसांध (कुमाऊं-गढ़वाल की सीमा) का ठैरा” और एक-दो संवाद कुमाऊंनी में बोल देता. हालांकि इसका कोई मतलब नहीं था लेकिन शायद करीबी जताने का यह उसका तरीका हो. बाद में इसकी जरूरत नहीं रह गयी थी.
1985 में हमने ‘नैनीताल समाचार’ के प्रवासी अंक का लखनऊ से सम्पादन किया तो अंतिम पेज के लिए वीरेनदा की कविता ‘राम सिंह’ चुनी थी. उसे बता भी दिया था लेकिन आखिरी समय पर मंगलेश जी ने मोदनाथ प्रश्रित की कविता ‘बहादुर’ लेने की सलाह दी, जो हमें और भी उपयुक्त लगी. वीरेनदा को बताया तो उसने ‘बहादुर’ कविता की बहुत तारीफ की और हमारे चयन पर खुश ही हुआ. ‘प्रवासी अंक’ पर उसकी बहुत उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया भी मिली थी.
जब वह ‘अमर उजाला’ का सम्पादक होकर कानपुर आया तो उसका लखनऊ आना काफी होने लगा. तब दयाशंकर राय और मैं एक ही मकान में ऊपर-नीचे रहते थे. लखनऊ आने पर वह वह दया के यहां पहुंचता और बालकनी से आवाज लगाता- ‘नवीन!’ कानपुर से वह एक मारुती वैन से आता था और जिसके यहां भी जाता, जितनी देर बैठता, अपने ड्राइवर की बराबर फिक्र करता रहता. बीच में उठकर खुद अपने ‘सारथी’ का हाल पूछ आता. ड्राइवर उसके प्यारे दोस्त हो जाते.
उन्हीं दिनों का एक किस्सा बड़ा मजेदार है. शेखर जोशी जी के छोटे बेटे संजय की शादी थी. शादी दिन में हो रही थी. इंदिरा नगर के एक पार्क में कई रचनाकार जुटे थे. कानपुर से मारुति वैन लेकर वीरेनदा भी आया था. जिस वक्त मैं वहां पहुंचा, देखा कि वीरेनदा और श्रीलाल शुक्ल वैन से उतर रहे हैं. मैंने नमस्कार किया तो दोनों खूब चहकते-महकते मिले. वीरेनदा ने गले लगाकर बता भी दिया कि ‘प्यारे, बीयर का एक दौर तो हम निपटा आये’. श्रीलाल जी ने कहा- ‘अभी एक ही दौर हुआ है.’’
थोड़ी देर वहां मित्रों से गप-शप मारने के बाद श्रीलाल जी बोले- ‘वीरेन, बीयर बाहर निकलने के लिए मचल रही है.’ यह कह कर वे गाड़ी की तरफ बढ़ गये. वीरेन दा ने अपने परिचित विलम्बित लहजे में ‘नवीन’ कहा और धीरे-धीरे अपनी गाड़ी की तरफ चले. यह इशारा था कि मैं चुपचाप पीछे-पीछे आ जाऊं. गाड़ी में हमारे बैठते ही श्रीलाल जी ने ड्राइवर से कहा- ‘भाई, वहीं ले चलो जहां पहले गये थे. हमें ठीक उसी ठौर पेशाब करनी है.’
‘आप ठीक वही जगह ढूंढ लेंगे?’ वीरेनदा ने छौंक लगायी.
‘ वहां अब तक हमारी बीयर महक रही होगी, वीरेन’ श्रीलाल जी ने ठहाका लगाया.
रास्ते में खरीदी गयीं बोतलों से बीयर गटकते हुए हम गोमती नगर की तरफ बढ़े. एक बड़ी इमारत की दीवार के पास ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी. दोनों उतरे और श्रीलाल जी सचमुच ठीक वह जगह तलाशने लगे जहां पहले वे निवृत्त हो चुके थे. ठहर कर जैसे ही धोती समेटने को होते कि वीरेनदा बोल उठता-‘मेरे ख्याल से थोड़ा और दाहिने थे आप’. श्रीलाल जी थोड़ा दाहिने खिसक कर पूछते- ‘यहीं पर, न?’ ऐसा दो-तीन बार हुआ, तब जाकर दोनों इतमीनान से निपटे. उसके बाद लगे ठहाके.
‘ऐसा परमानंद जीवन में होते रहना चाहिए,’ गाड़ी में बैठते हुए श्रीलाल जी ने सुभाषित की तरह उच्चारित किया. उस शाम तक बीयर पीने और निवृत्त होने का यह क्रम दो-तीन बार और भी चला.
सन 2009-10 में वीरेनदा से मेरी खूब संगत हुई. ‘हिंदुस्तान’ का बरेली संस्करण शुरू करने के दौरान मेरा अक्सर वहां जाना होता और हर यात्रा में दो-चार दिन तो रुकना होता ही था. कभी उसका फोन आ जाता- ‘प्यारे, कब आ रहे हो?’ कभी मैं फोन करता- ‘वीरेनदा, आ गया हूँ.’ रात साढ़े आठ-नौ बजे वह मोटर साइकिल धड़धड़ाता होटल के बाहर खड़ा हो जाता. गले मिलने और गाल पर थपकी देने के बाद तीन बीयर खरीदी जातीं, वह वाली जिसे खोलने के लिए ओपनर की जरूरत नहीं पड़ती, ऐसा उसका आग्रह रहता. हम कैण्ट की सुनसान सड़क के किनारे लगी किसी बेंच पर बैठ जाते. सर्दियां होती तो लैम्प पोस्ट की फीकी रोशनी में दूधिया-मटमैली धुंध तैरती रहती या आती गर्मियों में ऊपर से पेड़ों के पत्ते गिरते होते.
अन्य कवियों के लिए भले यह अद्भुत कवितामय वातावरण हो और वे तत्काल अपनी कविता या किसी और की याद आ गयी कविता सुनाने लगें लेकिन वीरेनदा तो जैसे किसी और ही माटी का बना था. वह मौसम की इस रूमानियत को बेरहमी से तोड़ देता और वहां उसका खिलंदड़ापन, लाड़ अथवा गुस्से में निकली गालियां या हिलती गरदन के साथ आंखों की शरारतें गूंजने लगते. हमारी बातचीत अखबारों, पत्रकारों-सम्पादकों, खबरों पर होती या नैनीताल-अल्मोड़ा जैसे शहरों के बारे में.
सम्भवत: 2008 में जब वरुण गांधी ने पीलीभीत में मुसलमानों के खिलाफ आपत्तिजनक भाषण किया (वे वहां से भाजपा के टिकट पर 2009 का लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे) और ‘अमर उजाला’ ने गदगद भाव से उसकी व्यापक कवरेज की तो वह बहुत दुखी हुआ था. वह ‘अमर उजाला’ का सलाहकार था, उसके बरेली दफ्तर में शाम को कुछ देर नियमित बैठता था . शशि शेखर उन दिनों ग्रुप के प्रधान सम्पादक थे जिनकी कार्य-शैली को वह पहले से पसंद नहीं करता था. ऊपर से, एक ऐसे व्यक्ति को सम्पादकीय-प्रभारी बना कर बरेली में बैठा दिया गया था जो वीरेनदा की बात नहीं सुन रहा था. वरुण गांधी प्रकरण में उसके विरोध की बिल्कुल अनसुनी कर दी गयी.
‘अमर उजाला’ के मालिक माहेश्वरी बंधु वीरेनदा का बहुत सम्मान करते थे. अतुल और राजुल माहेश्वरी को उसने बरेली कॉलेज में पढ़ाया था. दोनों ही उसे गुरु का दर्जा देते थे. उन दिनों प्रधान सम्पादक के साथ उनकी नीतिगत सहमतियों के कारण ही अखबार पर भगवा रंग कुछ ज्यादा ही चढ़ाया जा रहा होगा. ‘अमर उजाला’ के लिए वह दौर क्षेत्रीय से राष्ट्रीय अखबार बनने की ज़द्दोज़हद का था. उसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की व्यवस्था की जा चुकी थी और ऐसे परिवर्तन किये जा रहे थे जो उसका आत्मीय-पारिवारिक ढांचा तोड़ कर उसे ‘कॉर्पोरेट’ और ‘प्रोफेशनल’ बना रहे थे. इस प्रक्रिया में पुराने लोगों को किनारे किया जा रहा था. पीलीभीत उप-संस्करण बरेली संस्करण का हिस्सा था और वीरेनदा को गवारा नहीं हुआ कि उसके रहते अखबार साम्प्रदायिक मुहिम का हिस्सा बने. तब उसने ‘अमर उजाला’ की सम्पादकी छोड़ने में देर नहीं लगायी.
उन दिनों की मुलाकातों में हमारी बातचीत अखबारों के बदतर होते हालात, बढ़ती साम्प्रदायिकता, सत्ता के आगे सम्पादकों-पत्रकारों के समर्पण तथा राजनीति एवं पत्रकारिता की साठ-गांठ, आदि मुद्दों पर होती. ‘अमर उजाला’ में हो रहे कुछ बदलाव उसे चिंतित भी करते और यह लाचारी भी महसूस होती कि वह कुछ कर नहीं सकता. तभी 2009 के अंत में बरेली संस्करण शुरू होने से कुछ पहले ‘हिंदुस्तान’ में अचानक बड़ा सम्पादकीय बदलाव हो गया. अचानक तो वह बदलाव नहीं ही हुआ होगा. बहरहाल, हिंदुस्तान के प्रधान सम्पादक की कुर्सी पर मृणाल पाण्डे की जगह शशि शेखर आ विराजे. यह हमारे लिए बड़ा अचम्भा ही नहीं, सदमे जैसा था. वह सिर्फ सम्पादकीय-नेतृत्त्व-परिवर्तन नहीं था, बल्कि ‘हिंदुस्तान’ अखबार की रीति-नीति और दशा-दिशा में भी बड़े फेरबदल का संकेत था. उसके बाद वीरेनदा मेरे लिए चिंतित रहने लगा. वह मुझे नये निजाम और उनके तौर-तरीकों से सावधान करते रहता.
शशि शेखर के ‘हिंदुस्तान’ चले जाने के बाद राजुल माहेश्वरी (अतुल माहेश्वरी का निधन हो गया था) ने आग्रह करके उसे फिर ‘अमर उजाला’ से जोड़ लिया. पहले सलाहकार- सम्पादक और फिर निदेशक मण्डल में शामिल कर लिया. उस दिन मैं उसे ‘अमर उजाला का डायरेक्टर’ बनने की बधाई देने की गलती कर बैठा. छूटते ही उसने मुझे फोन पर झाड़ दिया था- ‘प्यारे, ये डायरेक्टर-वायरेक्टर क्या होता है?’
‘अमर उजाला’ के मालिक-परिवार से इतनी नजदीकी का उसने कभी लाभ नहीं उठाया. पत्रकारिता और उसके सरोकारों में अपनी गहन रुचि के कारण ही वह अखबार से जुड़ा रहा और यथा सम्भव उसमें योगदान करता रहा. एकाधिक बार ऐसा भी हुआ कि कुछ बहुत जरूरतमंद पत्रकारों की नियुक्ति के लिए उसने मुझसे कहा. तब उत्तर प्रदेश में ‘हिंदुस्तान’ का विस्तार हो रहा था और नये-नये संस्करण निकल रहे थे. हमें अच्छे युवा पत्रकारों की जरूरत रहती थी. मैं खुद भी उससे नये और अच्छे पत्रकारों के बारे में दरयाफ्त करता रहता था. चाहता तो वह अतुल या राजुल से कह कर किसी को भी‘अमर उजाला’ के किसी संस्करण में रखवा सकता था. उसकी बात टाली नहीं जाती. उसने कई पत्रकारों को नौकरी दिलवाई भी. दरअसल, वह रिक्त पद होने या स्थितियों के मद्देनजर ही कोई प्रस्ताव करता था. कई बार ऐसा भी होता कि कुछ चतुर युवा पत्रकार अपने सामने ही उससे मुझे फोन करवा देते. उस समय वह उनकी सिफारिश कर देता मगर बाद में यह कहना नहीं भूलता कि यार नवीन, तुम अपने हिसाब से देख लेना, हां!
बरेली से नैनीताल बहुत दूर नहीं है और नैनीताल से उसे बहुत प्रेम था. ‘स्याही ताल’ कविता संग्रह उसने ‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पहल और शहर नैनीताल को कृतज्ञता के साथ’ समर्पित किया है. अक्सर कहता- ‘अगली बार आना तो तुम्हारी गाड़ी से नैनीताल चलेंगे’ लेकिन उसी के कारण जाना टलता रहता. आना-जाना टालने के लिए वह दोस्तों में ही नहीं आयोजकों के बीच भी कुख्यात था. अनेक बार मुख्य या विशिष्ट अतिथि की हैसियत से जबरन बुलाने वाले आयोजकों को वह कहता रहता कि रास्ते में हूँ या बस, पहुंच ही रहा हूँ लेकिन उस समय वह घर में या कहीं निश्चिंत बैठा रहता और फोन रखते हुए कह देता- ‘चूतिए स्साले!’ बाद में कई तरह के बहाने बहुत गम्भीरता से बना देता.
एक शाम उसने मोटर साइकिल में लगे झोले से बीयर की बोतलों के साथ अपना नया आया कविता संग्रह ‘स्याही ताल’ निकाल कर मुझे दिया था, मेरी जेब से कलम निकाल कर यह लिखते हुए- ‘सरल और सहयात्री नवीन को सस्नेह, सड़क पर.’ जब मैंने संग्रह पलटना शुरू किया तो उसने निर्ममता से किताब छीन कर बेंच पर रख दी थी- ‘प्यारे, होटल जाकर देख लेना.’ उसके सामने उसकी कविताओं पर बात कर पाना सम्भव नहीं था, न कभी वह आग्रह पर कविता सुनाता, खुद सुनाना तो बहुत दूर की बात रही. अन्य कवियों की तरह वह अपनी कविताओं को लेकर मोहग्रस्त कभी नहीं दिखा. कई बार तो वह दोस्त कवियों के अनौपचारिक कविता वाचन में भरभण्ड कर देता था. दोस्तों की महफिलों में भरभण्ड मचाने में उसे बहुत आनंद आता.
एक बार नैनीताल में पत्रकारिता पर एक कार्यक्रम के बाद शाम मैंने मंगलेश जी से केशव अनुरागी और ढोल सागर पर उनके काम की चर्चा की. अनुरागी जी ने ढोल शास्त्र का गहरा अध्ययन किया था और उस पर अत्यंत महत्वपूर्ण काम उनके आलस और भटकाव के कारण अधूरा पड़ा था. हम उसे पूरा कराने के लिए अनुरागी जी के पीछे पड़े रहते थे. इसी पर बात हो रही थी कि अनुरागी जी के एक गीत से मंगलेश जी को गाने का सुर चढ़ गया. शाम गहरा गयी थी. मंगलेश जी मूड में थे और गाने लगे- ‘दैंणा होया भूमी का भुम्याला….’ तभी वीरेनदा आ गया और उसने ‘भूमी’ का ऐसा ‘भूम्याला’ मचाया कि सब लोट-पोट हो गये. मंगलेश जी गम्भीरता से कहें- ‘अरे यार, वीरेन सुनो तो’ और फिर गाने लगें. एक लाइन पूरी नहीं गा पाते कि वीरेनदा खुद गाने की पैरोडी-सी बना कर गाने लगता. देर रात तक यही चलता रहा. मंगलेश जी गाने पर आमादा और वीरेनदा हर बार और ज़्यादा विघ्न डालने पर उतारू. सुरूर उतर गया लेकिन मंगलेश जी को सुरों की महफिल वीरेनदा ने नहीं जमाने दी.
उसकी कविताएं पढ़ते हुए आप यह कतई नहीं कह सकते कि वह लापरवाह या अगम्भीर कवि है. अपने कविता कर्म में वह बहुत संजीदा, सावधान और समर्पित था. जैसा उसका अंदाज़ था जीने का, खिलंदड़, मस्त, फक्कड़ और दोस्ताना, वैसा ही निराला है उसका कविता कहने का अंदाज़. मस्त मौला जीवन जीते हुए वह जिस तरह बेहद जिम्मेदार और जागरूक इनसान था, उसी तरह बहुत सतर्क और अपने समय की विडम्बना, क्रूरता, सत्य, सौंदर्य और मुहब्बतों को पकड़ता हुआ कवि.
उसकी कविताएं अपने ही अंदाज़ में खनकती, बोलती और उद्वेलित करती हैं. उन्हें पढ़ते हुए कभी निराला याद आते है, कभी त्रिलोचन और बाबा नागार्जुन. बहुत सहज ढंग से दिल से निकली और हमसे बतियाती कविताएं. रद्दी बेचने वाले कबाड़ी की आवाज में पुकारती हुई या घर को लौटते फौजी राम सिंह को सम्बोधित करती हुई और कभी तो सीधे-सीधे पत्रकारों को धिक्कारती हुई. उसकी ‘पत्रकार महोदय’ कविता मुझे अक्सर याद आती है–
‘इतने मरे‘/ यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर/ छापी भी जाती थी सबसे चाव से/ जितना खू़न सोखता था/ उतना ही भारी होता था अख़बार/ अब सम्पादक/ चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी/ लिहाज़ा अपरिहार्य था/ ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय/ एक हाथ अपनी दोशाले से छुपाता/ झबरीली गर्दन के बाल दूसरा/ रक्त भरी चिलमची में सधी हुई छप-छप/ जीवन किंतु बाहर था/ मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली/ चीख़ के बाहर था जीवन/ वेगवान नदी सा हहराता/ काटता तटबंध/ तटबंध जो अगर चट्टान था/ तब भी रेत ही था/ अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार.’
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से निकल कर वीरेनदा बरेली कॉलेज में हिंदी पढ़ाने लगा था. बाद में वह पीएचडी करने के लिए फिर इलाहाबाद रहा. वह उसकी रचनात्मक आवारागर्दी का बेहतरीन दौर साबित हुआ. साहित्य और पत्रकारिता में दोस्तियां और डूब कर काम करना. इसी दौरान उसे पत्रकारिता का चस्का लगा. नॉर्दर्न इण्डिया पत्रिका का हिंदी अखबार ‘अमृत प्रभात’ उन्ही दिनों इलाहाबाद से शुरू हुआ था. मंगलेश डबराल उसका रविवारीय परिशिष्ट सम्पादित करते थे. पत्रिका के दफ्तर में अड्डेबाजी होती. तभी वीरेनदा ने ‘अमृत प्रभात’ में एक सप्ताहिक कॉलम लिखना शुरू किया- ‘घूमता आइना’. शहर पर एक नयी नजर से लिखी गयीं टिप्पणियां खूब पसंद की गयीं. मंगलेश डबराल ने वीरेनदा पर लिखे संस्मरण में याद किया है कि “एक बार वीरेन ने प्रेमचंद के बेटे अमृत राय के घर की नफासत और सजावट का जिक्र करते हुए लिखा कि प्रेमचंद अगर होते तो उन्हें वहां प्रवेश करते हुए घबराहट होती. अमृत राय इस टिप्पणी से नाखुश हुए थे.” इससे वीरेनदा के भीतर के पत्रकार की दृष्टि का पता चल जाता है.
1980 में ‘अमृत प्रभात’ का प्रकाशन लखनऊ से भी शुरू हुआ तो उसने कुछ समय शौकिया राजनैतिक रिपोर्टिंग भी की. इंदिरा गांधी के रायबरेली दौरे की उसकी रिपोर्टिंग की हम युवा पत्रकारों में खूब चर्चा हुई थी. उन दिनों मैं लखनऊ के ‘स्वतंत्र भारत’ में सम्पादकीय डेस्क पर काम कर रहा था. पत्रकारिता के ये प्रयोग तथा बाद में अमर उजाला के बरेली और कानपुर संस्करणों में सम्पादक रहते उसने जिस तरह की पत्रकारिता को प्रश्रय दिया, जिस तरह नए पत्रकारों को मांजा, वह उसकी कविताओं में मौजूद चिंता और सरोकारों का ही विस्तार था. बहुत अच्छा शिक्षक और पत्रकार होने के बावजूद वीरेनदा अपने अन्तर की गहराइयों से कवि ही था. उसकी पत्रकारिता में कविता के मूल्य बोलते थे, शिक्षण में भी और जीने का अन्दाज़ तो कवितामय था ही. दरअसल, वह उसके जीवन मूल्य थे और उन्हें वह अपने बेलौस अंदाज़ में जीता रहा. कैंसर के तीन-चार हमलों के बावजूद उसने जीवट बनाए रखा, शान से अपने खिलंदड़पन में जीता रहा, बिल्कुल अशक्त हो जाने तक वह कविता कहता और जीवंत बना रहा.
बड़ों के लिए वह वीरेन था तो छोटों का वीरेनदा और सबको बराबर सुलभ. विश्वविद्यालय के उसके छात्र हों या अखबारों में काम करने वाले जूनियर, सब उसके दोस्त थे. सबसे वह खूब घुल-मिल कर मिलता, पढ़ाई और काम से ज़्यादा घर-परिवार की खबर लेता. रिक्शा वाला हो या गाड़ी का ड्राइवर, सब उसके बहुत अज़ीज़ बन जाते और उसकी कविताओं से झांकते. कानपुर और लखनऊ के चारबाग स्टेशन और इलाहाबाद पर लिखी उसकी कविताएं उसकी अप्रतिम नज़र की गवाह हैं. उबला आलू और जलेबी भी उसकी कविता का विषय बन जाते थे, खुद की बीमारी और डॉक्टर भी.
उसकी ‘कवि’ शीर्षक कविता की आखिरी पंक्ति है –‘एक कवि और कर ही क्या सकता है/ सही बने रहने की कोशिश के सिवा.’
वीरेनदा का पूरा जीवन और लेखन सही बने रहने और सही समाज बनाने की ईमानदार कोशिश ही तो रहा.
(इस लेख में प्रयुक्त कवर फ़ोटो अपल की है .)