समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

राजनीतिक कैदियों की मोदी की सूची के बढ़ते जाने पर चुप्पी के लिये भारतीयों को पछताना पड़ेगा

( वरिष्ठ पत्रकार शिवम विज का यह लेख  ‘ द प्रिंट ’  में 29 जुलाई को प्रकाशित हुआ है। समकालीन जनमत के पाठकों के लिए इसका हिन्दी अनुवाद दिनेश अस्थाना ने उपलब्ध कराया है ) 

एक पुरानी कहावत है– आक्रमण ही सर्वाेत्तम सुरक्षा है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की सरकार इस कहावत का बखूबी इस्तेमाल कर रही है।

2018 में महाराष्ट्र के भीमा कोरेगाँव में दलितों के ऊपर एक हिंसक हमला हुआ था। उसके बाद सामूहिक प्रदर्शन हुये जिनमें से कुछ हिंसक भी हो गये थे। हालात राजनीतिक रूप से बेकाबू हो गये थे, विशेष तौर पर इस वज़ह से कि हिन्दुत्व बलों से जुड़े लोगों पर हिंसा भड़काने के आरोप लगाये गये थे। इनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुराने कार्यकर्ता सम्भाजी भिड़े का भी नाम था जिसकी प्रशंसा स्वयं प्रधानमंत्री मोदी कर चुके थे। दूसरा नाम पुणे के पुराने भाजपा पार्षद मिलिन्द एकबोटे का था। उस समय महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार थी।

हिन्दुत्व की इन ताकतों का पीछा करना राजनीतिक रूप से कठिन होता और न करने का मतलब था रक्षात्मक हो जाना। तो रक्षात्मक रुख क्यों अख्तियार करें जबकि हमलावर भी हुआ जा सकता है ? जब भी उहापोह की स्थिति हो तो सारा ठीकरा ‘‘ माओवादियों’ ’ पर फोड़ दो। भीमा कोरेगाँव हिंसा को भड़काने के लिये भारत भर के उग्र-वामपंथियों को दोषी ठहराया गया है। एक कैदी 79 साल के बूढ़े कवि वरवर राव हैं जिन्हें जेल में ही कोविड संक्रमण हो जाने के बावजूद जमानत नहीं दी जा रही है। अभियोजन ही उत्पीड़न बन गया है और इसका कोई अन्त नहीं है।

किसी को भी माओवादियों का ‘हमदर्द’ या ‘समर्थक’ बताकर उसकी गिरफ्तारी जारी है- इसी क्रम में ताजा गिरफ्तारी है दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैनी बाबू की।

भारत का यही हाल हो गया हैः हिन्दुत्व की हिंसा के भीषण अत्याचारों पर पर्दा डालने के लिये कवियों, प्रोफसरों और कार्यकर्ताओं पर बड़े पैमाने पर गैर-जमानती धाराओं में आरोप लगाकर जेलों में ठूँसा जा रहा है।

नागरिकता के मामलों में प्रदर्शन के दौरान भी यही तरीका दिखायी दिया था। मोदी और अमित शाह इस बात से बहुत रुष्ट लगते हैं कि कुछ भारतीय इतने गुस्ताख भी हैं कि वे कई भारतीयों की नागरिकता छीननेवाले ‘‘क्रोनोलाॅजी’’ कानूनों के खिलाफ़ सड़कों पर भी आ सकते हैं। इस समय उनका शिकार इस प्रकार किया जा रहा है जैसे कीड़े मारने वाले रैकेटों से मच्छर मारे जाते हैं।

उन सिखों को भी नहीं बख्शा जा रहा है जिन्होंने नागरिकता संशोधन कानून विरोधी प्रदर्शनों में प्रदर्शनकारियों को खाना खिलाया था या लंगर चलाये थे। दमन का अच्छा अवसर देखकर अभियोजन उनके उत्पीड़न के लिये उनपर आतंकवाद से लेकर डकैती तक की सभी धारायें लगा रहा है। उत्तर-प्रदेश में एक काबिल डाॅक्टर कफ़ील खान सिर्फ इसलिये जेल में हैं कि उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून के सन्दर्भ में भारत के गृहमंत्री के खिलाफ बयान देने की जुर्रत की थी। उनकी जमानत याचिका पर सुनवाई बार-बार टाली जा रही है।

यह पूरी प्रक्रिया दण्डित करने की है क्योंकि ऐसा न करने पर एक प्रशासनिक सोचवाली न्यायपालिका के लिये भी अभिव्यक्ति एवं प्रदर्शन की स्वतंत्रता के विधिक अधिकार के प्रयोग के लिये किसी को दण्डित करना कठिन हो जाता।

5 अगस्त 2019 को मोदी सरकार ने संविधान में एकतरफा बहुत बड़ा बदलाव करते हुये जम्मू और कश्मीर का दर्जा बदल देने के बाद भी ठीक यही किया था। प्रमुख नेता फारुख अब्दुल्ला और ऊमर अब्दुल्ला ने महीनों नज़रबन्दी में बिताये, और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती समेत कई नेता तो अभी भी घरों में नज़रबन्द हैं या जेलों में हैं। यह सारा कुछ सिर्फ यह सुनिश्चित करने के लिये किया गया था कि इन संवैधानिक परिवर्तनों के विरोध में कोई आवाज़ न उठे।

‘ हमको फीडबैक नहीं मिला ’

आपातकाल के बाद 1977 में हुये लोकसभा चुनाव में इंदिरा गाँधी की हार सिर्फ इसलिये नहीं हुयी थी कि उन्होंने राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया था, लोकतंत्र का गला घोंट दिया था, संवैधानिक अधिकार निलम्बित कर दिये थे या अखबारों पर पाबन्दी लगा दी थी। तथ्य यह है कि लोग गाड़ियों के समय से चलने पर उनकी जय-जयकार ही कर रहे थे (मोदी तो यह भी नहीं कर पाये)। आपातकाल के समस्त विवरणों को यदि ध्यान से देखा जाय तो पता चलेगा कि जनसंख्या वृद्धि पर लगाम लगाने के लिये युवाओं की जबरिया नसबन्दी किये जाने के संजय गाँधी के सनकी कार्यक्रम के चलते जनमत इंदिरा गाँधी के खिलाफ़ हो गया।

हमें यह पूछना चाहिये कि क्यों और कैसे इंदिरा गाँधी की लोकप्रिय सरकार ऐसे मुकाम पर पहुँच गयी कि उसने जन-निकायों को उनकी इच्छा के विपरीत बदलना शुरू कर दिया। एक तो यह कि वह इस मुकाम पर इसलिये पहुँच गयी क्योंकि जो लोग उनसे यह कह पाते कि वह आग से खेल रही हैं- विपक्ष और मीडिया- दोनों के होंठ सिल दिये गये थे। सबको पता है कि उनके चुनाव हार जाने पर खुशवंत सिंह ने पूछा था, ‘‘क्या हो गया ?’’ और उनका उत्तर था, ‘‘ हमको फीडबैक नहीं मिला।’’

तानाशाही सरकारें ऐसे ही गिरती हैं। नरेन्द्र मोदी की खासियत यह है कि वह बड़ी तेजी से ताड़ लेते हैं कि जनमत किस ओर मुड़ रहा है या उनके खिलाफ़ भी मुड़ सकता है। वह तुरंत अपनी गलती मान लेते हैं और उस तरह की बातें करने लगते हैं जिससे उनके वोटों में हुये नुकसान की भरपाई हो जाय, वह चाहे भूमि अधिग्रहण को सरल बनाने वाले कानून का मसला रहा हो चाहे किसानों के हाथों में नकदी देने से इन्कार करने का मसला।

असहमतों का जेल में ही होना ठीक है

और फिर भी, यह ध्यान देने की बात है कि भारत में राजनीतिक बन्दियों की सूची ख़तरनाक़ ढंग से लम्बी होती जा रही है। इंदिरा गाँधी के काल की ही तरह सोच यह है कि नकार के स्वर का मुँह बन्द कर दिया जाय। मोदी विमर्श इसी तरह से सफल हो सकता है क्योंकि यही यह सुनिश्चित कर सकता है कि विरोधी स्वर भारत के स्मार्टफोन और गलियों में सुनायी न दे। भाजपा इसी प्रकार ऐसी मिथ्या सर्वसम्मति बना सकती है कि भारतीय जब अपने मताधिकार का प्रयोग करने जायें तो उनके पास सिर्फ एक ही विकल्प रह जाय।

मोदीकाल की यदि गहराई से समीक्षा की जाय तो हम पाते हैं ‘व्यवस्था-विरोधी’ भाव बहुत गहरे व्याप्त है और इसीलिये सरकार की निराशा भी बहुत गहरी है। कोविड महामारी के आने के पहले ही अर्थव्यवस्था के चक्के जाम हो चुके थे। जब आंकड़ों की बाजीगरी भी आर्थिक गतिहीनता पर पर्दा न डाल पाये तो हिन्दुत्व के प्रयोग और नज़रबन्दी शिविरों और सी0ए0ए0-एन0आर0सी0 के ज़रिये मुसलमानों को धमकाना ही लोगों के ध्यान को भटकाने के लिये काफी नहीं है। जब चीन मोदी के 56इंच को झांसा घोषित करता है तो इससे पहले कि मतदाता उन्हें अलविदा कह दें उनके लिये अपने आलोचकों का मुँह बन्द कर देना जरूरी हो जाता है। यही रूस के व्लादिमिर पुतिन, तुर्की के रेसेप तैयिप अर्दोगन और चीन के जी जिनपिंग ने भी किया है। ऐसी सरकारों को ही तानाशाही सरकारें कहा जाता है।

भारतीयों ने यह तय कर लिया है कि मानवाधिकार कार्यकर्ता आनन्द तेलतुम्बडे़ या डाॅ0 कफील खान या किसान नेता और सूचना का अधिकार कार्यकर्ता अखिल गोगोई का जेल में होना कोई मुद्दा नहीं है।  जब सैफुद्दीन सोज या अजय कुमार लल्लू या पी0 चिदम्बरम जैसे कांग्रेसी नेताओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता छिन जाती है तब भी कांग्रेस पार्टी सांकेतिक ट्वीट से आगे नहीं बढ़ पाती।

लोकप्रिय नेता अपने ही प्रचारतंत्र का कैदी है

यह चुप्पी केवल मोदी सरकार के साहस और दण्डमुक्ति को सशक्त करती है। आज हमें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि भारत सरकार कोविड-राहत के नाम पर दान एक निजी खाते में एकत्र कर रही है। हमें इस बात से भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि महान आर्थिक मंदी के इस दौर में केवल अपनी महत्वाकांक्षा संतुष्ट करने के लिये नई दिल्ली के नवीकरण में अकूत धन व्यय होने जा रहा है। इंदिरा गाँधी को इसी तरह विश्वास दिलाया गया था कि नौजवानों की जबरिया नसबन्दी कोई समस्या नहीं है।

अनगिनत सर्वेक्षणों, सोशल मीडिया के रुझानों आदि पर भाजपा की पैनी नज़र है। और मोदी को जनभावनाओं की बहुत अच्छी समझ है। फिर भी लोगों की आवाज़ दबाने से एक ऐसे सामाजिक परिवेश का जन्म होता है जहाँ लोग अनाम सर्वेक्षणों में भी सच कहने से डरते हैं। प्राथमिकी और जेल के बढते भय ने सोशल मीडिया को भी शान्त कर दिया है।

समाचार मीडिया को दण्ड और पुरस्कार की नीतियों से खरीद लिया गया है। असहमति के सिकुड़ते आकाश के परिणामस्वरूप ऐसे हालात पैदा हो गये हैं जिनमें कोई लोकप्रिय नेता एक असफलता से दूसरी की ओर इतनी तेजी से भागा जा रहा है कि वह अपनी असफलता को देख भी नहीं पाता। वह अपने ही प्रचारतंत्र का कैदी बन जाता है। जैसा कि इंदिरा गाँधी ने कहा कि हमको फीडबैक नहीं मिला, यह तभी होता है जब किसी के पास इतना साहस नहीं होता कि वह सत्ता से आँखें मिलाकर सच बोल सके। और जो ऐसा कर सकते हैं वे जेलों में डाल दिये जाते हैं।

स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर हतोत्साही प्रभाव

विरोधी दलों, मीडिया, गैर सरकारी संगठनों, कार्यकर्ताओं और यहाँतक कि सामान्य जनों में भी आज ऐसा कोई नहीं है जिसे सरकार के प्रतिफल का भय न हो। इसने भारत में स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर हतोत्साही प्रभाव डाला हैः हर कोई अपने बयान को खुद ही सेन्सर कर रहा है। यह वह आजादी नहीं है जिसके लिये इसकी नींव डालने वालों ने संघर्ष किया था।

हम पहले ही ऐसे हालात की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ कोई असहमति के लिये बचेगा ही नहीं। और लगता है कि इससे कोई भी सतर्क नहीं है। असहमति बहुत तेज हो सकती थी। जब कोविड-19 देश में टाँग तुड़ाकर बैठा हुआ है और आर्थिक मंदी सामने खड़ी है तो मोदी किसी दूसरे काल की तुलना में अधिक निराशाजनक हो जाते हैं। जब एक बार फिर से जबरिया नसबन्दी के समतुल्य कोई घटना घट जायेगी तभी भारतीयों को पछतावा होगा कि मोदी जब विरोधियों को जेल में ठूँसने के अभियान पर थे उन्होंने अपनी आवाज़ क्यों नहीं बुलन्द की। लोकतंत्र में ‘नहीं’ कहनेवालों की बहुत जरूरत होती है।

Fearlessly expressing peoples opinion