स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता और जनांदोलनों की जब भी बात उठती है तो गोरख पांडेय का नाम अनिवार्य रूप से जुड़ जाता है, पर यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि अभी भी अकादमिक हल्कों में उन्हें ज़्यादातर लोग भोजपुरी के कवि के रूप मे ही महत्त्वपूर्ण मानते हैं। जबकि मुख्यधारा की कविता में भी लोकप्रियता और कलात्मकता को आत्मसात करते हुए ‘स्वातंत्र्योत्तर’ की शिनाख़्त करने वाले कवियों में गोरख पाण्डेय अग्रणी है। आज जब देश में चौतरफा आंदोलनों का उभार दिखाई दे रहा है और प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद के बरक्स प्रगतिशील ‘राष्ट्र’ की खोज की जा रही हो, देश के सही मायने तलाश किए जा रहे हों, तब गोरख पांडे की कविता ‘उठो मेरे देश’ का पुनर्पाठ ज़रूरी लगता है।
आधुनिक हिन्दी कविता मे ‘राष्ट्र’ या ‘देश’ को लेकर प्रबोधन परक कविताओं की लंबी परम्परा रही है। पराधीनता से मुक्ति के हमारे प्रयत्नों के साथ देश की खोज प्रायः दो रूपों में देखने को मिलती रही है। एक तरफ उदात्त सांस्कृतिक चेतना से युक्त छायावादी कविता की जमीन पर खड़े होकर छायावादी और सांस्कृतिक चेतना के रचनाकारों द्वारा ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ या ‘हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुध शुद्ध भारती’ जैसे अतीत के गौरव गान और प्रबोधन से भरी उक्तियों में यह भावना अभिव्यक्त होती रही है दूसरी तरफ ‘बादल राग’, ‘तोड़ती पत्थर’ जैसी कविताओं में स्वतन्त्रता के बाद आगत राष्ट्र की संकल्पनाएँ भी आहट ले रही थी। स्वातंत्र्योत्तर राष्ट्र की निर्णायक शक्तियाँ कौन होंगी-किसान, मजदूर, स्त्रियों के नेतृत्त्व में यह राष्ट्र बनेगा या नहीं, इसे लेकर समाज में चल रही बहस को कविता में निर्णायक स्वर देने का काम प्रगतिवादी कवियों ने अपने तरह से किया। लेकिन जल्दी ही यह सामने आ गया था कि वह आजादी जो एक बड़ा स्वप्न थी, जो एक बड़ी कामना थी उससे समाज के वंचितों को वंचना के अलावा कुछ नहीं मिला । लोकतन्त्र की सीमाएं जल्दी ही देशवासियों के सामने जाहिर होने लगी थीं। न्याय और अधिकार के लिए इंतज़ार करते लोगों को बहुत जल्द ही देश में स्थापित नई सत्ता की क्रूरता और छल के खिलाफ संगठित होने के जरूरत महसूस होने लगी। वंचना के शिकार लोग अब अपनी नई लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के नियंताओं के खिलाफ निर्णायक संघर्ष के लिए उद्दत थे। तेभागा, तेलंगाना से होते हुए नक्सलबाड़ी तक इसकी एक पूरी फेहरिस्त है।
गोरख पांडे की कविता ‘उठो मेरे देश’ जनता के आह्वान की कविता है। उससे पहले वह देश किन भौतिक और आवयविक तत्त्वों से बनता है, के शिनाख्त की कविता है। साथ ही लोकतन्त्र के व्यामोह से उपजी निराशा और भारतीय समाज में व्यापक बदलावों के लिए जारी जद्दोजहद से एकता और क्रांति के तत्कालीन वैश्विक संदर्भों के शिनाख्त की भी कविता है।
कविता शुरू होती है एक बहुत जाने-पहचाने दृश्य से। जिसे कि किसी भी शहर में आसानी से हर सुबह देखा जा सकता है-
सुबह चौराहे पर खड़े
और बिकने का इंतज़ार करते हुए
उसे मैंने देखा[1]
यह जो बिकने के लिया खड़ा है वह कोई सामान नहीं है बल्कि इस देश का सम्मानित नागरिक है। जिसके किसी समानधर्मा को कभी निराला ने ‘वह तोड़ती पत्थर’ कविता में देखा था। वहाँ भी एक ‘मैंने’ उपस्थित है- देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर’। अंतर सिर्फ यह है कि एक कविता आजादी के पहले लिखी गयी थी दूसरी तथाकथित आजादी और लोकतन्त्र स्थापना के करीब 25 वर्ष बाद सन 1974 में। आपातकाल की ठीक पूर्व संध्या पर। पहले में स्त्री की आँखों में एक झेप दिखती है- देखा मुझे उस दृष्टि से/ जो मार खा रोई नहीं। लेकिन यहाँ ऐसी कोई झेप नहीं है। काम उसके हिस्से जो आया है वह उस मज़दूरनी के काम से अलग नहीं है। पूरी एक फहरिश्त है कवि के पास। उसे कहीं पुल बनाने के लिए बिकना है, कहीं इस्पात के खंभे ढालने है, कहीं रेगिस्तान मे फसलें खड़ी करनी है । ऐसे ही अनगिनत काम जो किसी सभ्यता को श्रम का स्पर्श देने के लिए करने हैं, वह उसके हिस्से आता है। लेकिन ऐसा लगता है कि आजादी का कोई मतलब उस मजदूर के सिलसिले से खुलता ही नहीं। अपने ही देश में बिकने के लिए एक नागरिक को अपने ही देश के धन्नासेठों के हाथ रोज सुबह मजबूर होना पड़े तो इससे शर्मनाक बात और क्या होगी। लेकिन मानों यह तय हो गया है कि एक देश जो आजाद हुआ है उसके भीतर अभी एक गुलाम देश मौजूद है और इस आजादी से उसके हिस्से कोई रोशनी नहीं आई है-
थककर चूर बड़बड़ा रहा है
भूख और अपमान से आकुल
उसके चेहरे पर मोटे हरफ़ों में लिखा है….
‘ मैं तुम्हारा गुलाम देश हूँ।’[2]
और काव्य- नायक के लिए यह बात सहज स्वीकार करने लायक नहीं लगती। वह आश्चर्य से भर जाता है। उसे सहसा अपनी आँखों पर विश्वास नहीं होता। उसे मजदूर की बड़बड़ाहट ‘एक अद्भुत दुर्घटना’ की तरह लगती है। सहजता से यह बात कैसे स्वीकार की जा सकती है एक देश जो इतने बलिदानों,संघर्षों के बाद आज़ाद हुआ उसके भीतर एक गुलाम देश अभी ज़िंदा है? आजादी के बाद देश का कायाकल्प होना था। बीमारी और गुलामी की पीड़ा से जनित अपमान से मुक्ति मिलनी थी। आजादी जो हासिल हो चुकी है उसके बाद यह फिर कैसा अपमान, फिर कैसी बीमारी? काव्यनायक उस मजदूर के चेहरे पर लिखे इस सत्य को मानने से एकबारगी तो इंकार ही कर देता है-
नहीं, इतना भूखा-नंगा
इस कदर बीमार
अपमानित बेकार
मेरा देश नहीं हो सकता
किया इंकार मैंने साफ-साफ[3]
और काव्य नायक इंकार क्यों न कर दे! आखिर आजादी कितने हसीन सपनों के लिए पाई गयी थी? नेहरू के नेतृत्त्व मे आजाद देश जिस तरह वैश्विक और राष्ट्रीय मोर्चे पर प्रगति कर रहा था वह आश्चर्यजनक था। रजनी कोठारी ने इसे चिन्हित करते हुए कहा है कि ‘अगले दस वर्षों तक नेहरू का प्रताप -सूर्य मध्याह्न पर रहा। उनके जीवन के दो उद्देश्य थे- लोकतन्त्र और आर्थिक विकास।’[4] लेकिन सही माने मे लोकतंत्र का जो स्वरूप सामने आया उसने आर्थिक असमानता गरीबी, भ्रष्टाचार को ही अधिक बढ़ाया। देश की मेहनतकश आवाम के लिए अभी वास्तविक आजादी एक स्वप्न ही रह गयी थी। लोकतन्त्र प्रभु वर्ग के हितों और समझौतों का मुखापेक्षी बन चला था और आर्थिक हित समावेशी न होकर नेतृत्त्व कर्ता पूजीवादी हितों के संरक्षण का उपक्रम बन गया था । ऐसी स्थिति मे आजादी के सही मायने तलाशने और खोखले लोकतन्त्र को प्रश्नांकित करने का काम कविता के हिस्से आता है-
सुनता रहा हूँ –
मेरा देश तो हवाई जहाज पर उड़ता है
बटन में गुलाब डाले
दुनिया के अमन चैन के लिए
उड़ाता है कबूतर
केनेडी और खृश्चेव के
बीचोबीच होकर
अखबार में
किताबों और पत्रिकाओं में
टाटा-बिड़ला सा अमीर है
रेडियो पर प्रेम और विरह की
धुनों में मस्त
समाजवाद और लोकतन्त्र
मजबूत करने में व्यस्त है, अधीर है।[5]
प्रश्न उठता है कि काव्य नायक ने ‘देश’ को पहचानने से इंकार क्यों कर दिया था? उसे क्यों यह ‘गलतफहमी’ हो गई थी कि उसका देश बीमार नहीं है, गुलाम नहीं है? असल में देश की आजादी जिस संघर्ष और त्याग के चलते संभव हुई थी, वह इतने जल्दी इस कदर अवसरवाद में बदल जाएगी इसकी उम्मीद किसी को न थी। दूसरे देश में जो सत्ता हस्तांतरण हुआ उसने भी कभी देश की वास्तविक श्रमशील जनता को अपने एजेंडे में शामिल करने की जरूरत नहीं समझी। ऊपरी चमक-दमक की चकाचौध में वास्तविक समस्याएँ अनुत्तरित ही रह गई। इन सबके बावजूद आजादी का अपना एक सम्मोहन तो था। उस सम्मोहन में अपने वास्तविक नायकों को न पहचानना संभव था, न उनकी समस्याओं की ओर ध्यान दे पाना। धीरे धीरे जो नव बौद्धिक वर्ग उभर कर सामने आ रहा था उसके सामने मध्यवर्गीय सपने और समाज के वास्तविक रूपान्तरण के सपने में से किसी एक को चुनने की जद्दोजहद बढ़ती जा रही थी। मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ को व्यक्तित्त्वांतरण की इस समस्या के संदर्भ में याद कर लेना समीचीन होगा। गोरख ने इस कविता में एक प्रसंग में काफ्का की कहानी ‘कायांतरण’ (Metamorphosis) का ज़िक्र किया है। यह कहानी एक साथ अजनबीयत, त्रास, और मानव स्वभाव में निहित अवसरवाद को समझने के लिहाज से बहुत प्रासंगिक है। यह कहानी एक ऐसे युवक की है जो अपने परिवार के लिए सबकुछ करता है पर अचानक एक दिन वह एक कीड़े तिलचट्टे में बदल जाता है तो उसके परिवार के लोग उसे पहचानने से इंकार कर देते है। वह नायक एक दारुण मृत्यु को प्राप्त होता है। व्यापक तौर पर देखें तो इस कहानी को इस कविता में याद करने का एक ऐतिहासिक संदर्भ है। आजादी जिन बड़े आदर्शों के लिए पाई गई थी, जो आजादी के वास्तविक नायक थे वह आजादी के बाद इस देश में ऐसे ही अपरिचय, अजनबीयत और त्रास का शिकार होते गए। उनका श्रम हमारे काम तो आता रहा पर श्रम के उत्पादन से वे वंचित होते चले गए।
लेकिन समय के साथ आजादी को लेकर जो ‘भ्रम’ था वह टूटना शुरू होता है। बल्कि यह भ्रम एक विक्षोभ में बदलने लगता है। काव्यनायक ‘मैं’ भी यह महसूस करने लगता है कि –
गोदामों भरकर अनाज
दाने-दाने को मोहताज
तालाबंद गोदामों के बाहर
चक्कर काटता यही मेरा देश है।
एक घबराए बेचैन इंतज़ार-सा
वह जिसे धोखा दिया गया तमाम सालों से
साँस रोककर आने-जाने वालों से
पूछता है-‘भाई! कही देखा आपने
मसीहा को इधर आते देखा?[6]
आजादी के पहले भी निराला जैसे कवियों ने सत्ता के इस अवसरवादी चरित्र की निशानदेही अपने तरीके से की थी। ‘काले-काले बादल छाए न आए वीर जवाहर लाल’। आजादी के बाद यह अवसरवाद और घृणित तरीके से बढ़ता गया। पंचवर्षीय योजनाओं की विफलता ने वास्तविक जन-आकांक्षा को बुरी तरह कुचल दिया था। ऐसी स्थिति में जन आकांक्षा ने जगह-जगह विक्षोभ की शक्ल लेना शुरू कर दिया था। चुनावी वादों के बरक्स तब देशी लोकतन्त्र ने देशी-विदेशी पूंजी की रक्षा के लिए अपने ही लोगों को, अपने देश के जनता का दमन करने से भी गुरेज नहीं किया-
वायदा किया था उसने/ पिछले चुनाव में/आएगा जल्दी ही/ मिटाएगा दुख-दर्द/ सर्दी में अकड़े शरीर पर/ मोटे कंबल-सी गर्मी/और खुशी लाएगा/होंगे सब सामान/किसी का दमन नहीं हो पाएगा।
याद आते हैं दुष्यंत – कहाँ तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए/ कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए । लेकिन बात उससे भी आगे बढ़ गई है। अब बात अभाव और वादे से आगे निकल कर अभाव को कुचलने तक चली गई है। और आश्चर्यजनक रूप से इसे करने वाले वे हैं जो मसीहा के रूप में गद्दीनशीं है। क्योंकि-
जब कभी मिलती भी है
झलक मसीहा की
या उसकी गरीबी घट रही होती है
तनी होती हैं तब लाठियाँ
बेड़िया-हथकड़ियाँ, दीवारे
आंसू गैस की
उसके और रोटी के बीच का फासला
और बढ़ जाता है
दिल्ली से जुड़ी सड़कें
ठंडी असहाय लाशों से पट रही होती है।
यह आजादी के बाद का दृश्य है। अब सत्ता अपनी जनता के खिलाफ लामबंद है। आजादी के पहले जिनकी आँखों में सपना था कि वे आजादी की लड़ाई इसलिए लड़ रहे हैं कि आजादी के बाद आने वाले लोकतन्त्र द्वारा उन्हें निर्णय में भागेदारी का अवसर मिलेगा, उन्हें भूख, अपमान और ज़लालत की ज़िंदगी के बदले आत्मसम्मान और भरपेट भोजन भी मिलना संभव नहीं हो पा रहा था। देश, अपनी जिस जनता को आत्मसमान और गरिमा देने की आकांक्षा से आजाद हुआ था उस आत्मसम्मान और गरिमा के बदले उसके हिस्से अपमान, घृणा और रोटी के लिए रिरियाना ही आया था-
आँसुओं में ढलकर लावे-सा
पिघलकर जलते अमर्ष में
देश होता जा रहा हूँ मैं
मानो देखा है पहली बार
अपने-आपको
अरबों हाथों के बावजूद लूला
लँगड़ा हूँ अरबों पैरों के बावजूद
करोड़ों आँखें मगर देख नहीं पाता
कंठ करोड़ों मगर कभी-कभी
महज भूँकने जैसी आवाज़
करके रह गया हूँ…
आत्मग्लानि से भरा काव्य नायक करोड़ों देशवासियों की आकांक्षाओं की ओर से बोलने लगता है। औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के साथ भारतीय समाज की आंतरिक मरम्मत की ज़िम्मेदारी भी आज़ादी के द्वारा पाए जाने वाल लक्ष्यों में शुमार था। लेकिन असमानता और गरीबी के साथ-साथ जाति-पाँति,धर्म, संप्रदाय में बंटा हमारा समाज सामूहिक प्रगति के रास्ते पर चलने के बजाय आपस में एक दूसरे से लड़ता हुआ ही अधिक दिखाई दे रहा था। कोई भी लक्ष्य जो स्वाधीनता आंदोलन के समय निर्धारित किए गए थे, उसके आसपास भी हम नहीं पहुँच पा रहे थे। लोकतन्त्र को इस कविता में ‘लोहू पीने वाली आदिम मशीन’ और काव्यनायक जो देश की जनता की ओर से बोल रहा है, वह अपने आपको ‘आत्मघाती बौना’ कहता है। यह दोनों रूपक बहुत समीचीन हैं और कविता के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक भी। अपेक्षित लक्ष्य के अनुरूप वृद्धि न पाने वाली मनुष्य प्रजाति को बौना कहा जाता है। औपनिवेशिक दासता से मुक्ति जितना बड़ा लक्ष्य था, उससे कहीं ज्यादा आत्मनिर्भर, समावेशी, भ्रष्टाचार मुक्त विकास, जाति, धर्म, संप्रदाय के आधार पर बंटे समाज को सौहार्द्र के आधार पर पुनर्गठित होना था। लेकिन बक़ौल गालिब- ‘मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की।’ लोकतन्त्र को एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में जब हमने अपनाया तो उसके पीछे एक सपना था कि वृहत्तर जनोन्मुखी लक्ष्यों के प्राप्ति के लिए हर तरीके के भेद को खत्म करते हुए तेजी से राष्ट्र-निर्माण के लक्ष्यों को पूरा किया जाएगा। यह एक मोहक स्वप्न था और देश की अधिसंख्यक जनता इस स्वप्न के मोह का शिकार थी लेकिन लोकतन्त्र के नाम पर कायम व्यवस्था एक छ्ल और अन्याय पूर्ण व्यवहार के रास्ते चल रही थी-
जितना भी कहा जाएगा
या कहा जा सकेगा
उससे ज्यादा ही क्रूर
ज्यादा बर्बर
वह लोहू पीने वाली मशीन
बाहर से देखने पर एकदम मोहक है
एकदम चका-चौंध कर देती है
याद है, इसी के आगे
झुका है मेरा सिर कई बार अज्ञान में
भय में, सम्मान में
लोकतन्त्र और समाजवाद के नाम से
मशहूर इसी दानवी मशीन को
मैं देश मानता रहा
लेकिन त्रासदी यह हुई कि पूंजीवादी देशों की नकल पर हमारे यहाँ भी लोकतन्त्र देशी पूँजीपतियों और सत्ता के दलालों की चाकरी करने लगा और तमाम बौद्धिक इसी प्रक्रिया में रावण के घर पानी भरते नज़र आने लगे-
देखा मैंने एक तरफ दलाल
रंग-बिरंगे झंडों और नारों का
नाटक खेलते तलवा चाटते लँगड़े देश का
लूले देश के हाथों में शब्दों की रोटियाँ
शब्दों के मकान शब्दों के कपड़े बांटते
दलाल कागज कागज की चिन्दियाँ थमा
अंधे देश से अपना चुनाव कराते
कुर्सियों के लिए एक-दूसरे को
खून-सने दांतों से काटते
दलाल
दलों के दल-बदल
दलदल में धँसाते
बेशुमार कर्ज़ के भार से दबे
देश को
पाँच साल
फिर पाँच साल
फिर पाँच साल
दलाल हर काम देश के हित में
करते
यहाँ से यह कविता लोकतन्त्र के नाम पर शोषण करते पूंजीवादी देशों और हमारे देशी दलालों की मिली भगत का पर्दाफाश करते हुए पर्दे के पीछे चल रहे शोषण के खूनी खेल का पर्दाफाश करने की ओर रुख करती है। जनता अपने वास्तविक सुखों से दूर इसलिए है कि उसके हिस्से के सुखों पर पूंजी के बड़े दलालों की नज़र है। औपनिवेशिक दौर में जारी लूट और शोषण की प्रक्रिया में भी कोई अंतर नहीं आया है। मुक्तिबोध ने अपनी एक कविता में ऐसी ही स्थिति को यूँ दर्ज़ किया है-‘इस काले सागर का/ सुदूर पश्चिमी किनारे से ज़रूर कोई नाता है/ इसीलिए सुख और चैन हमारे पास नहीं आता है।’ मुश्किल है मोहक स्वप्न-फांस में फंसी जनता लोकतंत्र के नाम पर चल रहे इस खेल से अंजान लोकतन्त्र के नाम पर नीम होशी का शिकार है और अपना सब कुछ लुटाने के लिए तैयार है। गोरख लिखते हैं कि-
हिंसा और फ़रेब के मजबूत
खंभों पर टिकी
लोहू पीने वाली मशीन
इतनी सफाई से निबटा रही है
मामले को
कि दुश्मन दोस्त लगता है
मूर्छा की हालत में
देश खुद रख देता है गर्दनन उसकी तलवार के नीचे
अगर शोषकों की वैश्विक एकता हो सकती है तो शोषितों और वंचितों की भावात्मक एकता क्यों नहीं हो सकती है? कविता इस संभावना पर भी विचार करती है। ऐसा करने के लिए उसके पास ठोस कारण हैं। क्योंकि कवि देख रहा है कि-
विष्ठा और संभोग की
खुली प्रदर्शनी में लगे
विदेशी नस्ल के कुत्ते
जैसे गरीब किसान की ममता को
प्राण को, आत्मा को
बिटिया को सरेआम नंगा कर
जमीदार कोड़े लगता है
देखा मैंने: किसान-मजदूर देश की
असीम ममता को उज्ज्वल प्राण
विराट आत्मा को, सुंदर बिटिया को
वाशिंगटन-मास्को-लंदन की
सड़कों पर पिटते डालर के कोड़ों से
रूबल के कोड़ों से पीटते
धीरे-धीरे काव्य नायक को मानो यह एहसास होता चला जाता है कि अपमान और तिरस्कार का मुकम्मल जवाब एक संगठित विद्रोहात्मक कार्यवाही है। आजादी के वास्तविक मायने पाने के लिए सशस्त्र विद्रोह की अनिवार्यता उसे महसूस होने लगती है। औपनिवेशिक समय की समस्त विद्रोहात्मक कार्यवाहियों के साथ वैश्विक स्तर पर साम्राज्यवादियों द्वारा थोपी गई हिंसा का समुचित प्रतिकार करती शक्तियाँ उसे नायक की तरह दिखने लगती हैं। प्रतिरोध के श्रेष्ठ तत्त्वों की पहचान और एकता की खोज के क्रम में देशों की सीमाएँ कैसे मिट जाती है, इसका पता ही नहीं चलता। विएतनाम, कंबोडिया,से लेकर तेभागा, तेलंगाना, नक्सल्बाड़ी होते हुए अतीत के प्रतिरोध के सारे मुहावरे एक नई चमक के साथ खिल उठते है। प्रसंगतः इसी जगह ‘वियतनाम’ एक देश नहीं बल्कि प्रतिरोध की इसी गरिमापूर्ण अभिव्यक्ति का नायक बनकर कविता में आता है। कविता का यह हिस्सा द्रष्टव्य है-
मैं खुशी और समान से
चिल्ला उठा-मेरे देश का सही नाम
विएतनाम है।
प्रतिरोध की इन्हीं श्रेष्ठतम परम्पराओं को वह अपमान, तिरस्कार और शोषण से मुक्ति के लिए युद्ध एक अनिवार्य कार्यवाही की तरह लगने लगती है। यह वह दशक था जब दुनिया भर औपनिवेशिक शोषण और दमन के विरुद्ध संघर्ष हो रहे थे और विएतनाम ऐसे संघर्षों में अमरीका को धूल चटाता एक नायक बनकर उभरा था। याद पड़ता है कि उन्ही दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रों के एक कार्यक्रम में बोलते हुए फिराक गोरखपुरी साहब ने एक शेर पढ़ा था- छोटी सी एक कौम ने हिम्मत ही तोड़ दी/ एक दश्ते-नातवाँ ने कलाई मरोड़ दी। इस नई समझ से काव्य नायक देश की सत्ता से हो रहे संघर्षों और उनके नायकों के प्रति सम्मान की भावना से भर उठता है। सशस्त्र क्रांति को वह आगत समाज के निर्माण के लिए अनिवार्य मानता हुआ इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि-
शोषण और दमन की
विश्वव्यापी मशीन के विरुद्ध
अविराम युद्ध ही है
मेरे देश का सही परिचय
काव्यनायक अपने ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर यह पाता है कि न सिर्फ अतीत बल्कि वर्तमान में भी ऐसी किसी कार्यवाही को देशद्रोह कहना सत्ता के लिए सबसे आसान होता है। सत्ता ऐसा कर अपनी हिंसा के लिए आवश्यक औचित्यपूर्ण तर्क जुटाती है। वह विद्रोहियों को ‘हरी क्रान्ति’ के लिए प्रेरित करती है और अपने लिए हिंसक शांति का रास्ता चुनती है। लेकिन काव्यनायक की सचेत निगाह से उसकी यह साजिश अब कहाँ छुपने वाली थी। वह अपने देश की जनता की ओर से ललकार उठता है-
संगठित करो
करोड़ों -करोड़ आग्नेय हाथों को
संगठित कारों
तोड़ो सामंतों-दलाल-पूंजीखोरों को
हिंसक लोहू पीने वाली मशीन को
तोड़ो
हिंसक हो उठो
मेरे गरीब किसान-मजदूर देश
मेरी वंचित ममता
मेरे लुटे हुए प्राण
मेरी निर्वासित आत्मा
मेरी अपमानित कविता
हिंसक हो उठो
जनक्रान्ति ही ऐसे शोषण के दुष्चक्र का अंत कर सही मायने में समाजवादी व्यवास्था के निर्माण का रास्ता खोल सकती है। लोकतन्त्र की समस्त खामियां उसके सामने उजागिर हो चुकी थी। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है जनशक्ति को गुमराह कर लोकतन्त्र रूपी ‘लोहू पीने वाली’ चलती है इसलिए अगर जनता अपने हाथ रोक भर दे तो उसे खत्म होते देर नहीं लगेगी और सही समाजवादी मूल्यों पर खड़ी राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था जो किसी मनुष्य द्वारा किसी मनुष्य के शोषण पर नहीं टिकी होगी, की शुरुआत का दिन होगा। कविता बहुत मजबूती से इस बात को अपने निष्कर्षों में विन्यस्त करती है कि साम्राज्यवादी शोषण से मुक्ति का रास्ता लोकतंत्रात्मक प्रणाली के जरिए पाने की कोशिशे एक छलावे के अलावा कुछ नही है। सही माने में उसका मुकाबिला साम्यवादी मूल्यों पर खड़े राष्ट्रवाद/अंतर्राष्ट्रीयता वाद के सहारे ही किया जा सकता है। जो अपने देश के शोषण के खिलाफ संघर्ष कर रहा है उसे दुनिया में कहीं भी चल रहे संघर्ष के खिलाफ अपना पक्ष तय करना होगा, बेशक यह रास्ता सशस्त्र क्रान्ति का ही होगा –
याद रक्खो
कभी नहीं टूटती हथकड़िया
खुद-ब-खुद
हरगिज़ बेड़िया नहीं कहतीं
‘जाओ तुम्हें आज़ाद किया’
उन्हें चाहिए
धारदार अस्त्र की
भरपूर चोट
मुक्त होने के लिए
बंदूक का मुँह मोड़ना पड़ता है
याद रक्खो
जहां कानून का मतलब
भूख-अपमान और खून है
वहाँ भूख-अपमान और खून का
हमलावर होना ही सही कानून है
कहना न होगा कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में हम अगर कहें तो क्रांति आज भी एक अधूरी किन्तु अनिवार्य ज़रूरत है। इतिहास के किसी भी पिछले समय से ज्यादा अनिवार्य और अपरिहार्य। आज समाज के विभिन्न हिस्सों में जिस तरह का विक्षोभ दिखाई पड़ रहा है और स्वतः स्फूर्त आंदोलन जिस तरह से उठ खड़े हो रहे हैं, सामाजिक क्रांति के लिए एक अनुकूल माहौल तो है। विभाजानकारी शक्तियाँ जहां पहले से अधिक शातिर तरीके से अपने मोहरे बिछा रही हैं, उन्हें जवाब देने के लिए कवि के शब्दों में कहना ही पड़ेगा –
समय फैसला कर चुका है
तुम्हारे पक्ष में
पूरब लाल हो उठा है
उठो मेरे देश
आवाज़ देता हूँ
मैं तुम्हें करोड़ो कंठों से
अरबों पैरों में बांधकर
तूफान
उठो
धधको बगावत की
लोहू-सी लाल आदमी
लपटों में
कविता में यह जो आशावादिता है वह एक रचनाकार के लिए, जो साहित्य को समाज परिवर्तन की जरूरत के रूप मे देखता है,ज़रूरी चीज है। 1974 में लिखी इस कविता में आह्वान के रूप में अभिव्यक्त इस आशा का स्रोत सिवा कवि की जिजीविषा के और कहाँ से संभव है? बिलकुल आपातकाल के सिरहाने बैठकर लिखी गयी इस कविता में किसी को लग सकता है यह एक अतिरिक्त किस्म का क्रांतिकारी आशावाद है। जबकि समाज के भीतर किसी भी तरह की परिवर्तन कामी स्थितियाँ न हों, आंदोलन की ताक़तें पस्त पड़ी हो, घनघोर निराशा के चौतरफा प्रसार के बीच एक कविता को क्रांतिकारी आशावाद के सहारे खड़ी करना एक दूरगामी भविष्य को देखना है, कविता के सहारे आगत भविष्य के स्वप्न को साकार करने की योजना को अंजाम देना है। यह किसी कल्पना के सहारे संभव नहीं। ऐसा वही रचनाकार कर सकता है जो अपने समय के सामाजिक यथार्थ को बहुत गहरे से समझता हो और उसकी गतिशीलता से परिचित हो। आज जब देश में किसानो और नागरिक समुदाय के बड़े आंदोलन सांप्रदायिक और सांस्कृतिक राष्ट्रवादी सरकार के खिलाफ मुखर हैं तब इस कविता को पढ़ते हुए यह लगता है कि यह कविता अपनी विगत अर्थवत्ता से आगे आगत वर्तमान का सत्य है।
[1] कविता ‘उठो मेरे देश’- गोरख पांडे सम्पूर्ण कविताएं, पेज 78, साँस, इलाहाबाद
[2] वही, पेज 79
[3] वही पेज 79
[4] भारत में राजनीति-रजनी कोठारी, पेज 121
[5] वही पेज 79
[6] वही, पेज 81