समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-17

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

एक लड़ाई, इंटर की पढ़ाई


जब किसी भी तरह इंटर में एडमिशन नहीं हुआ और घर पढ़ने का कोई जुगाड़ नहीं बन पाया तो कुछ दिन तो बहुत उदास लगा, फिर थक हार कर मैंने घर गृहस्थी के काम में मन लगा लिया। सुबह की चाय बनाना, नाश्ता बनाना मेरे जिम्मे हो गया। मुन्ना भाभी अभी गौने आयी ही थीं। थोड़े ही दिन बाद बड़ी भाभी और अशोक भाभी मायके चली गईं। अब तो चाय नाश्ते के साथ दोनों टाइम का खाना भी बनाना पड़ता था। उस समय कोई काम वाली भी नहीं रहती थी्, इसलिए बर्तन भी धोना पड़ता था। इसके अलावा त्यौहार में सारे कमरे और बरामदे की गोबर से लिपाई होती थी। यहां तक कि होली और दीवाली में घर के बाहर का चौपाल भी गोबर से लीपते थे। ऐसे में नन्हई (एक यादव परिवार की लड़की) मेरे सहयोग के लिए आ जाती थी। (आज तो मैं पैर के बल बैठ ही नहीं पाती) पूरे दो महीने बाद मुन्ना भाभी खाना बनाना शुरू की थीं। मेरे जिम्मे अब चाय, नाश्ता और बर्तन धोना ही रह गया था।
जून में ही 6 महीने के लिए गेहूं धुलकर सुखा लिया जाता था ताकि बरसात में कोई दिक्कत न हो। शेष सब अनाज बखार में (भूसे के अंदर) रखा जाता था। भूसे में रखने से बरसाती हवा का असर उस पर नहीं पड़ता था। अक्टूबर में रबी की फसल की बुआई के समय अनाज बखार से निकाला जाता था। फिर जाड़े में धान छत पर सुखाया जाता। अगर धान ठीक से नहीं सूखा तो धान कूटते समय चावल टूटने का खतरा होता था। चूड़ा भी कूटा जाता था। कच्चे हरे धान से जो चूड़ा बनाया जाता, उसका स्वाद अलग ही होता था। अब तो ये सब सपना हो गया। बड़ी भाभी तो चार पांच महीने बाद आ गईं थीं, लेकिन अशोक भाभी मेरी शादी तय होने के बाद मायके से आईं।
गरमी की छुट्टी में चाचा का परिवार आ गया था। नीरजा, सुषमा और मैं तीनों दालान में बैठकर सिलाई कढ़ाई करते थे। उस समय दुसूती के कपड़े का चादर, तकिया चलन में था, इसलिए हमलोग तकिए के गिलाफ और चादर पर कढ़ाई करते थे। रेनू दीदी इतना बढ़िया सिलाई करतीं थीं कि उनके आगे टेलर फेल थे। वही हम लोगों को सिखाती थीं। सुषमा का मन इन सबमें नहीं लगता था। चाची बोलीं- ये सब सिल रही हैं, अपनी तैयारी कर रही हैं, तुम नहीं सिलोगी तो शादी में क्या ले जाओगी? सुषमा बोली- मुझे बिना कढ़ाई के दे देना और कढ़ाई में जितने का धागा लग रहा है उतना पैसा दे देना।
मेरी पढ़ाई तो छूट ही चुकी थी। मुझे तो यही सब करना था। कुल मिलाकर शादी की तैयारी। लड़की को घर गृहस्थी के काम के अलावा सिलाई, बुनाई, कढ़ाई भी आना चाहिए। इसलिए शादी के लिए दो चादर, 16 तकिए का गिलाफ, मेजपोस, ट्रे कवर, सारे पेटीकोट, सारे ब्लाउज यहां तक कि बनारसी साड़ी का भी ब्लाउज मैंने ही सिला था। एक कथरी भी सिली थी। घर गृहस्थी में कूटना- पीसना भी होता है। घर में ढेका था तो कूटने में कोई दिक्कत नहीं थी। क्योंकि उसे पैर से चलाया जाता था। कभी कभार ओखली में भी कूटने, छांटने तक तो ठीक था, लेकिन पीसना मुझसे नहीं हो पाता था।
गरमी की छुट्टी में रात में आंगन में दो लाइन में चारपाई लगती।  अपनी- अपनी चारपाई पर रात में बेना (पंखी) पानी में भिगो भिगो कर जब डुलाते तो पानी के छीटे से भीगी हवा किसी कूलर की हवा से कम नहीं लगती थी और उसका आनंद भी। रात में कभी कहानी तो कभी अंताक्षरी होती रहती थी। छु्ट्टी समाप्त हो गई और चाचा का परिवार मुहम्मदाबाद चला गया।

जैसे तैसे समय बीतता गया और मेरी शादी तय हो गई। शादी के बाद एक बार फिर इंटर करने की बात चली। रामजी राय कहे कि आगे आप को पढ़ना हो तो फार्म भर दीजिएगा। फिर वो इलाहाबाद चले गए। जाते समय घर में जेठ (अपने बड़े भाई) से बोल दिए थे कि मीना का इंटर का फार्म भरवा लीजिएगा या उसको इस काम के लिए मायके जाने दीजिएगा। शादी के बाद ससुराल से पढ़ने की हरी झंडी मिलते ही मैंने स्कूल के प्रिंसिपल को पत्र लिखा कि -सर मेरे ससुराल वालों ने मुझे आगे की पढ़ाई करने का परमीशन दे दिया है। आप मेरा सहयोग कर दीजिए। आप मेरे पिताजी को फार्म देकर भरवा लीजिएगा तथा फार्म जमा करने की अंतिम तिथि भी उनको बता दीजिएगा। इधर पिताजी को भी पत्र लिख दिए कि नन्हें को भेज दीजिए, उसी के साथ मैं गाजीपुर जाकर फोटो खिंचवाते हुए आ जाऊंगी और फार्म की बाकी कार्यवाही पूरा कर जमा कर दूंगी। फार्म समय से भर कर जमा हो गया। फिर किताब कापी खरीदकर ससुराल आ गई। वैसे ही पढ़ने का टाइम कम मिलता था। माताजी ( सास ) ने कहा कि शाम में खाना बनाकर तुम पढ़ने बैठ जाया करो। लोगों को खिलाने का काम बाकी लोग कर लेंगे। मैं खाना बनाकर पढ़ने तो बैठ जाती, लेकिन कभी कोई लालटेन ही उठा ले जाता, तो कभी कोई खाना खाने आ जाय तो बुलाने लगते कि इनको खाना दे दो बड़की जनी बहरी ओर (खेत में शौच करने) गई हैं। कुल मिलाकर पढ़ाई न के बराबर होती थी। माताजी चाहते हुए भी कुछ कर नहीं पा रही थीं। कभी इसके लिए बोल भी देती थीं तो घर में पढ़ाई को लेकर ही लड़ाई होने लगती थी। रामजी राय से भी ये सब नहीं बताते थे कि फिर न कोई बात हो जाए। दशहरे में गांव गए तो नई लालटेन ले आए कि अब कोई लालटेन नहीं ले जाएगा। लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ा। कभी पुरानी लालटेन की बत्ती खतम है, तो कभी तेल, तो कभी भभकने के कारण मेरी लालटेन चली जाती। दिन में भी नाश्ता, खाना बनाने के बाद दोपहर में थोड़ा टाइम मिलता तो थकान के कारण नींद भी आ जाती थी। फिर भी कुछ पढ़ाई हो जाती थी। वैसे ये मेरे साथ ही नहीं हो रहा था। उस समय औरतों की पढ़ाई उसमें भी बहुओं की पढ़ाई के प्रति समाज की सोच ही यही थी। एक दो घर ही शायद रहे हों जो बहुओं को ऐसा माहौल देते हों कि वे आगे पढ़ सकें। खैर, मैं तो मायके में भी पढ़ाई को लेकर झेल चुकी थी, भले रूप दूसरा था। करते -करते दिसम्बर आ गया। रामजी राय इलाहाबाद से घर आए हुए थे। मेरी पढ़ाई की स्थिति मोहन (हमारे चचेरे बड़े जेठ के लड़के) देखते ही रहते थे। मोहन ने रामजी राय से कहा कि- चाचा, अगर आप चाची को पढ़ाना चाहते हैं तो उनको परीक्षा तक के लिए मायके भेज दीजिए, क्योंकि यहां रहकर जो पढ़ाई हो रही है उससे उनका पास होना मुश्किल है। उस समय मैं प्रेग्नेंट भी थी। माताजी से बात करके रामजी राय मुझे मायके छोड़ आए।

मायके में बिजली का कनेक्शन भी था सो पढ़ाई में कोई बाधा नहीं थी। मैं मन लगाकर पढ़ने लगी। पिताजी को मेरी प्रेग्नेंसी के बारे में पता चल गया था। पिताजी जब खाना खाने आते तो हमीं खाना देते थे। जिस दिन खाना लेकर हम न जाएं तो पूछते कि मीना कहां है? मां कहती पढ़ रही है। तो पहले वाले टोन में नहीं लेकिन सुनाकर कहते थे कि मैं कहता था न कि ये किताब कापी काम न आएगा। गड़तरी (नवजात बच्चों का बिस्तर) सिलना सीखो वही सब काम आएगा। मां कहती थी कि क्यों आप उसकी पढ़ाई के पीछे पड़े रहते हैं।
सातवां महीना शुरू था। अब बैठने में दिक्कत हो रही थी। परीक्षा की डेट भी आ गई थी। अंतिम पेपर 30 अप्रैल को था। मां मेरी स्थिति देख बोली कि अगले साल परीक्षा दे देना, अभी  कैसे करोगी? इस हालत में इतना बैठना भी नुकसान करेगा। बगल की कामेश्वर भाभी भी कहीं – इस साल मेडिकल लगा दीजिए न। मैंने भाभी से कहा कि- अभी तो बच्चे के लिए मुझे अलग से समय नहीं देना पड़ता। बच्चा होने के बाद तो बहुत काम बढ़ जाएगा। तब पढ़ना और मुश्किल होगा भाभी। इसलिए मैं चाहती हूं कि परीक्षा दे दूं। मैं पहले से ही सजग थी कि बाद में बैठने में मुझे दिक्कत होगी इसलिए लगभग कोर्स तैयार कर चुकी हूं। भाभी ने कहा कि ठीक है लेकिन बैठिएगा नहीं ज्यादा। टहलते हुए या लेट कर भी कोर्स दुहराते रहिएगा।
सेंटर भी अपने स्कूल पर ही था। 23 मार्च को शायद पहला पेपर था। तीन घंटे बैठने से पैर एकदम सूज गया था। ऐसी स्थिति में परीक्षा देने जाने में शर्म भी लग रही थी। सारे टीचर पुराने ही थे। अंतिम पेपर 30 अप्रैल को देते देते मेरा आठवां महीना भी पूरा हो चुका था। मेरी हालत खराब थी। अंतिम पेपर देकर कामेश्वर भाभी के पास जाकर सो गई। वो हमको बहुत मानती थीं। जब वे नई नई दुल्हन थीं तो हम उनके पास जाते थे। हमको 17 का पहाड़ा इन्होंने ही सिखाया था। उस समय मां नाना के यहां गई थी। भाभी पढ़ाई की बात करतीं थीं। उनकी बात हमें अच्छी लगती थी। बाकी कोई भाभी पढ़ाई संबंधी बात नहीं करती थीं। लिखते समय उनकी बहुत याद आ रही है। लेकिन दुख है कि साल भर पहले ही वो गुजर गईं।

रिजल्ट आ गया और मैं द्वितीय श्रेणी से पास हो गई थी। ये नहीं याद आ रहा कि समता के होने के बाद रिजल्ट आया या पहले आया था खैर…। दो जून को मां पूरी तैयारी से मुझे गाजीपुर हॉस्पिटल लेकर गई। वहां डाक्टर को दिखाया गया। डाक्टर ने कहा सब ठीक है। जब दर्द शुरू हो, तब लेकर आइएगा। उस समय हमारे छोटे वाले ननदोई गजानंद जीजा और रामजी राय के मामा का लड़का कमला राय साझे में गाजीपुर में ही कोयले की दुकान चला रहे थे। माताजी भी वहां आई हुई थीं। वहीं पर हम लोग खाना खाए और रुकने के लिए पास ही में एक कमरा लेकर रुके थे। कमरे के बाहर खुली छत थी। अगले दिन रात में माताजी भी हम लोग के साथ ही रुकीं। माताजी चलती फिरती मिडवाइफ थीं। सुबह दुकान पर जाते समय मुझे देखकर मां से बोलीं कि आज हॉस्पिटल जाना पड़ सकता है। उनके जाने के थोड़ी देर बाद ही लेबर पेन शुरु हो गया। मां मुझे हास्पीटल लेकर गई। दिन भर दर्द झेलते रहे। दिन भर मां यहां से वहां दौड़ती रही। 4 जून 1977 को शाम सात बजे समता हुई। अब गांव में उस समय कोई टेस्ट वगैरह तो होता नहीं था। सीधे पेन होने पर लोग अस्पताल चले जाते थे और डिलीवरी हो जाती थी। वो तो अंकुर के समय जब इलाहाबाद में डाक्टर ने टेस्ट के बाद बताया कि आपका आर एच निगेटिव है। आप का पहला बच्चा हुआ था तो आर एच निगेटिव संबंधी कोई इंजेक्शन आपको लगाया गया था? समता के समय तो कोई टेस्ट ही नहीं हुआ था। न ही कोई इंजेक्शन लगा था।

समता के होने के बाद हॉस्पिटल में मां मेरे पास ही रही। लेकिन रात में उसे अंदर नहीं सोने दिया गया तो वह बाहर पेड़ के नीचे चबूतरे पर सोने चली गई। मां ने सुबह जो बताया वह भूलता ही नहीं है। मां दिन भर दौड़ते दौड़ते थक गई थी। उसने एक दाई से कहा कि- एगो रुपिया ले लीह, तनि हमार गोड़ (पैर) दबा द। दाई ने मां को जबाब दिया – हमसे तूहीं दूं रुपिया ले ल,आ हमरे गोड़ दबा द। मां ज़बाब सुनकर सन्न रह गई। 6 जून को हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होकर हम लोग रिक्शे से स्टीमर घाट गए। वहां उस समय गंगा पर पीपे वाले पुल से जाना था। रिक्शा लकड़ी के जोड़ पर इतना हचक रहा था कि मुझे बैठने में दिक्कत हो रही थी। फिर कम से कम दो किलोमीटर पैदल चलकर गंगा का रेता पारकर ताड़ीघाट पहुंचे। ताड़ीघाट की सड़क ऊंचाई पर थी। चढ़ तो गए लेकिन इक्के पर चढ़ने में दिक्कत हो रही थी। शायद अशोक भइया के हाथ पर पैर रख कर किसी तरह इक्के पर चढ़ पाए। घर जाते जाते रात हो गई थी। अगले दिन से बुखार आने लगा। ठीक होने में 15 दिन लग गया।
रामजी राय उस समय तक पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता हो गए थे। और पार्टी अंडरग्राउंड थी। अशोक भइया भी इसी प्रक्रिया में थे। मेरे खयाल से आज भी अधिकांशतः होलटाइमर को अपने घर में बहुत हद तक विरोध ही झेलना पड़ता है। और जो कामरेड अन्य लोगों को पार्टी के प्रति दिमागी तौर पर मजबूत कर पार्टी से जोड़ते हैं, उन कामरेड को देखते ही घर वाले भड़क जाते हैं। कहते हैं यही है जो खुद तो गया ही हमारे बेटे को भी बरबाद कर दिया/ कर रहा है। यही हाल मेरे घर में भी था और सारा कुछ मुझे ही सुनना पड़ता था। उस समय की बहुत सारी बातें याद आ रही हैं खैर………। रामजी राय से हम कुछ कह भी नहीं पाते थे। कुल मिलकर  मैंने यही निर्णय लिया कि जो भी करना पड़े, मुझे मायके में तो नहीं रहना है। तीन महीने की समता थी। मैं ससुराल आई और कुछ दिन बाद हम लोग इलाहाबाद आ गए।

लड़कियों की जिन्दगी बहुत कठिन होती है। कहते हैं लोग कि शादी के बाद लड़कियों की दो मां हो जाती हैं। जब कि होता ये है कि एक भी मां नहीं रह जाती। शादी के बाद अपनी ही मां से हम अपनी दिक्कत नहीं बता सकते। क्योंकि वह मुझे लेकर चिन्तित रहेगी। मायके में ससुराल की कमी नहीं बता सकती और न ससुराल में मायके की। परिस्थिति अनुसार खुद को ही मजबूत बनाना पड़ता है। समाज पितृसत्तातमक है। पति न सर्विस करे तो ससुराल में आपका कोई महत्व नहीं है, भले बहू सर्विस करे। मेरे ससुराल में आज तक मुझे एक कमरा नहीं मिला जिसे मैं अपना कमरा कह सकूं। कभी अपना घर महसूस ही नहीं होने दिया इन लोगों ने। बहुत पहले ( तब सास भी थीं अभी ) एक बार मैंने जरूरत के कुछ सामान (मैक्सी, अपना तथा बच्चों का चप्पल, गमछा और ओढ़ने का चादर), जो हर बार घर जाते समय मुझे ले जाना पड़ता था, उसे एक कमरे में दीवार में बनी निहायत एक छोटी सी आलमारी में रख कर ताला बंद कर दिया था। मेरे चले जाने के बाद मेरे जेठ का लड़का गुड्डू उस आलमारी में लगे ताले को तोड़ कर उसमें का सामान निकाल दिया था। दुबारा घर गए तो पता चला मेरा एक भी सामान उसमें नहीं है। मैंने रामजी राय से कहा। उन्होंने भी उस समय कह दिया कि ठीक हुआ, ताला क्यों बंद की थीं? ये ताला बंद करने का प्रतिरोध है। (आज जेठ की बहुएं अपने-अपने कमरों में ताला बंद करतीं हैं, अब कोई उनका ताला तोड़ के देखे) मैंने रामजी राय से कहा कि ठीक है। मेरा सामान तो मिलना चाहिए। मैं रामजी राय से कितनी बार कहा कि कमरे न होते तो कोई बात नहीं, अब तो सात-आठ कमरे हैं, एक कमरा मुझे चाहिए। लेकिन न कोई ज़बाब दिए न घर में इसके लिए कोई बात किए। मैंने सास, जेठ, जिठानी यहां तक कि बहुओं से भी बात की कि तुम लोगों को तो ये समझना चाहिए कि ससुराल में अपने कमरे का क्या महत्व होता है। ससुराल में चाहे जितना काम करें, आधा घंटा भी अपने कमरे में आराम कर लेने से थकान दूर हो जाती है। किसी ने मेरी बात नहीं सुनी। मेरा मानना है कि रामजी राय के न बोलने के कारण आज तक मुझे कमरा नहीं मिल पाया। सास, ससुर, जेठ, जिठानी सब गुजर गए लेकिन अभी भी मुझे कोई कमरा नहीं मिला है। कितनी बार अपनी बात रखे, लेकिन औरतों की बात सुनता ही कौन है। जबकि रामजी राय की सोच तो ऐसी नहीं है, फिर घर में पता नहीं क्यों नहीं बोलते। घर जाने पर मुझे इधर उधर ही सोना पड़ता है, कभी बरामदे में तो कभी कहीं तो कभी छोटे वाले जेठ के घर। यहां तक कि मेरे शादी का बेड भी जेठ की बीच वाली बहू अपने कमरे में रख ली है। ऐसे में घर जाने का क्या मन करेगा। माता जी के गुजर जाने के बाद अपने हिस्से के लिए बात करने के लिए रामजी राय से कहने पर कहने लगे, भइया हमको पढ़ाए हैं। भइया, भाभी के गुजर जाने पर कहने लगे, भतीजे बेइमान नहीं हैं। गुस्से में मैंने रामजी राय को एक बार बहुत कड़ा बोल दिया कि क्या पूरा खानदान गुजर जाएगा तब बात करिएगा क्या, और बात करने के लिए हम लोग बचे रहेंगे। इसको लेकर कई बार रामजी राय से मेरी बहस हो चुकी। अंकुर, समता भी कहे कि छोड़ दो, जो उनका मन करे करने दो। समझ में नहीं आता कि दूसरों को हक दिलाने की राजनीति करने वाले रामजी राय अपने घर में अपने हक के लिए आखिर क्यों नहीं बोल पाते।

कुल मिला कर हम औरत हैं, इसलिए हम कुछ कर नहीं सकते, और न ही कोई हमारी बात सुनेगा। इस प्रकार लड़कियों का अधिकार न मायके में रहता है न ससुराल में। दोनों जगह पुरुषों की ही चलती है। महिलाएं अपने बूते जो बना लें, लेकिन समाज उन्हें मात्र औरत ही समझता है।

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