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उर्दू पत्रकारिता में इंसानियत का दायरा बड़ा होना चाहिए

(इस आलेख का विचार शफ़ी किदवई के एक आलेख से ग्रहण किया गया है। शफ़ी किदवई का यह आलेख उर्दू का लोकवृत्त (The Urdu public sphere) नाम से सन 22 अप्रैल 2022 को ‘द इंडियन एक्सप्रेस ‘में प्रकाशित हुआ था। शफ़ी किदवई  मीडिया पर लिखते-पढ़ते हैं और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में पढ़ाते हैं। इस लेख में उर्दू पत्रकारिता का जायजा लिया गया है।)         

यह वक्त उर्दू पत्रकारिता को खुद टटोलने का है। आज नहीं तो कल उर्दू पत्रकारिता को विचार करना होगा कि वह किस दिशा में चल रही है। उसे सोचना ही होगा कि वह सरकार की जनविरोधी नीतियों की के पक्ष में है या समर्थन में ? हमारे मुल्क का सोच-विचार बदलता जा रहा है। सोचना जरूरी है कि देश के सोच-विचार में होने वाले इस परिवर्तन के प्रति उर्दू पत्रकारिता का रुख अतीत के उसी तल्ख तेवर की तरह है अथवा अब नरम पड़ चुका है।

इस समय सबसे प्रमुख शब्द, जो जनता के जेहन में डाला जा रहा है, वह है – राष्ट्रवाद। यह शब्द पहले भी लोगों के समझने के ढंग को आकार दिया करता था, और आज भी दे रहा हैं। विचारणीय यह है कि इस शब्द से अतीत में जिस विचार और आचरण का बोध होता था, क्या वही बोध अब भी बरकरार है, और यदि नहीं है, तो उर्दू-पत्रकारिता का रूख इस शब्द को लेकर क्या है और कैसा है? सवाल यह भी है कि राष्ट्रवाद और देशभक्ति जैसे शब्द एक दूसरे पर्याय हैं, या उनमें कोई भेद भी है ? पूरा मुल्क एक तरह के प्रतिगामी भावुक चादर से ढंका हुआ है, जिसमें इन दोनों शब्दद्वय की महत्वपूर्ण भूमिका है।

उर्दू पत्रकारिता 200 वर्ष की हो चुकी है। एक तरह से यह ठहराव का वक्त है। लगभग दो सौ साल पहले 27 मार्च 1822 को उर्दू का पहला अखबार ‘जाम-ए-जहाँ-नुमा’ साप्ताहिक प्रकाशित हुआ था। हिन्दी के पहले पत्र उदंड मार्तंड की ही तरह यह पत्र भी कोलकाता के हरिहर दत्ता के द्वारा निकाला गया था।

उर्दू पत्रकारिता की राहें दूसरी प्रभावशाली भाषा के पत्रों के बरक्स थोड़ी मुश्किल भरी हैं। इन्हें अधिक वित्तीय संकट और घटते प्रसार संख्या का सामना करना पड़ रहा है। फिर भी उनमें अतीत का ताप मौजूद है। उर्दू पत्रकारिता द्वारा अभी भी तमाम दुश्वारियों के बावजूद जनता के सवाल को चिह्नित किया जा रहा है और उठाया जा रहा है। इसमें विद्रोह और असंतोष का अंश अधिक है। उर्दू के अखबार अभी भी सन 1857 के दरम्यान निकलने वाले ‘दिल्ली उर्दू’ अखबार के गौरव से विचलित नहीं हुए हैं। गौरतलब है कि इस अखबार के संपादक मौलवी मोहम्मद बकर भारत के पहले शहीद पत्रकार रहे हैं। उन्हें ब्रिटिश हुकूमत की जनविरोधी नीतियों का मुखालिफ़त करने के कारण तत्कालीन सरकार द्वारा मार डाला गया। इसीलिए अभी भी भारतीय पत्रकारिता में उर्दू प्रेस को गौरवपूर्ण स्थान हासिल है। उर्दू प्रेस ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन में जिस मुखरता से क्रांति का पक्ष लिया, वह बेजोड़ है। वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट 1877 के विरोध की घोषणा और भारतीय असंतोष को आवाज़ देने के लिए इसने  “इंकलाब जिंदाबाद” का नारा दिया, जो संपूर्ण भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में विरल और अद्वितीय है।

हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जिसमें राष्ट्रवाद पर सर्वाधिक चर्चा है। इस समय यह भारत का केंद्रीय विषय बन गया है। ऐसे समय देश के अलग-अलग हिस्सों से निकलने वाले उर्दू के अखबारों के संपादकीय को देखना दिलचस्प होगा। इसलिए देश के विभिन्न हिस्सों से प्रकाशित उर्दू समाचार पत्रों की संपादकीय सामग्री को देखना चाहिए। उर्दू की पत्रिकाएँ अभी भी विशेष हैं, खास कार्पोरेट घरानों के अधीन निकलने वाली सीमित प्रसार संख्या वाली ये पत्रिकाएं शायद ही कभी राष्ट्रवाद के अभियान में शामिल होती हैं। ये पत्रिकाएं खुद को राष्ट्रवाद की आक्रामकता से बचाये रखते हुए जनता के सवाल और संविधान के मुद्दे जुड़ी हुई हैं। ये पत्रिकायें राष्ट्रवाद की आक्रमकता की जगह संविधान द्वारा परिभाषित भारत के स्वरूप पर चर्चा करती हैं। इतना ही नहीं, इन पत्रिकाओं में संविधानिक मूल्य और देशभक्ति पर भी आलेख या खबरें प्रकाशित होती हैं।

इंकलाब (मुंबई), सियासत (हैदराबाद), राष्ट्रीय सहारा (दिल्ली), आग (लखनऊ), कौमी तंजीम (पटना), सालार (बेंगलुरु) जैसे पत्रों ने सीएए और एनआरसी पर संतुलित तरीके से खबर और संपादकीय पेश किया। साथ ही इन कानूनों का विरोध कर रहे लोगों को आगाह किया कि वे धार्मिक भेदभाव के शिकार के रूप में नहीं, बल्कि भारत के नागरिक के रूप में विरोध दर्ज़ करें। इन पत्रों द्वारा यह बात बार-बार दोहराई गई कि भारत के संविधान का सम्मान होना चाहिए। एक तरह से इन पत्रों ने अपने पाठकों को स्वस्थ और सार्थक बहस से जोड़ने का पवित्र कार्य किया। इन पत्रों ने अपने पाठकों को समझदार बनाते हुए उन्हें नागरिकबोध से लैस किया।

उर्दू पत्रकारिता की ओर से भारतीय संविधान के साथ-साथ मुल्क के राष्ट्रीय झंडे के प्रति भी आदर प्रकट किया जाता है। इतना ही नहीं, इसने अतीत की भूलों का भी उपचार किया, खासकर शाहबानो प्रकरण में इनसे जो भूलें हुईं थी, उससे ये पत्र अब मुक्त हो गए हैं। अब इन पत्रों द्वारा आंख मूदकर पितृसत्ता का पक्ष नहीं लिया जाता, मगर ये पत्र अभी भी पूरी तरह से पितृसत्ता से मुक्त नहीं हो पाए हैं।

जिस तरह मुसलमानों को हाशिए पर डाले जाने के नज़ारे आए दिन दिखाई पड़ते हैं, उसका उर्दू के अखबारों ने मुखर विरोध किया है। वह मुसलमानों के साथ हो रहे भेदभाव का भी विरोध करते रहे हैं। हालांकि इन अखबारों के पृष्ठों पर मुस्लिमों को मोहरे और दयनीय रूप में भी दिखाया जाता है, ताकि उन पर तरस या करुणा पैदा किया जा सके। उर्दू के अखबारों द्वारा मुसलमानों की पहचान को धर्म आधारित पहचान से जोड़कर भी पेश किया जाता है। इस पहचान पर खूब विमर्श भी परोसा जाता है। लेकिन इस विषय पर रोदन नहीं पेश किया जाता। साथ ही इससे निकलने के लिए कोई निर्णय या रास्ता भी नहीं दिखाया जाता है। दरअसल यह वह विषय है, जिस पर उर्दू पत्रकारिता की ठोस नीति नहीं दिखाई पड़ती।

आइए विचार करें कि इस तरह के उथल-पुथल और विक्षोभ से क्या होता है ? विदित हो कि ऐसे उथल-पुथल से अतीत के प्रति आकर्षण पैदा होता है। लेकिन हमें यह महसूस होना चाहिए कि अतीत, खासकर कल्पना किया गया अतीत, चाहे वह कितना ही गौरवमई क्यों न हो, उससे कभी भी शानदार और जनसरोकार वाले भविष्य का निर्माण नहीं किया जा सकता है। इस मामले में उर्दू मीडिया का मामला डावाडोल है। इस अनिश्चितता और गाफिली से या कहें कि चूक से छद्म धार्मिकता और रूढ़िवाद को पनपने और बढ़ने का मौका मिलता है और उर्दू की पत्रकारिता आज भी इस प्रवृत्ति का अपवाद नहीं बन पाई है।

सर सैयद अहमद खान और अबुल कलाम आजाद जैसे दो प्रमुख मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से अपने पाठकों को बताया कि जिस समाज में मुसलमान बहुसंख्यक नहीं हैं, उस समाज में उन्हें कैसे रहना चाहिए। अंग्रेजों के सत्ता में आने से पहले भारतीय मुसलमान अल्पसंख्यक होने के अहसास के अभ्यस्त नहीं थे। कौमी आवाज, हिंद समाचार, सियासत, अलजामियात, आजाद हिंद आदि को छोड़कर उर्दू पत्रिकाओं ने इन दोनों विचारकों के उदार मूल्यों की विरासत को न आगे बढ़ाया, न उससे परिचित ही कराया।

जार्गन हैबरमास ने जिस व्यवस्था को “सार्वजनिक विचार परिसर” कहा है, उसमें धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषाई पहचान, क्षेत्रीय आकांक्षांए और उदारवादी मूल्य शामिल हैं। हालांकि सार्वजनिक विचार परिसर का निर्माण मीडिया द्वारा किया गया है, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रमुख स्थान हासिल है। आस्था पर बोलना आसान नहीं है। यह विषय मर्यादित प्रतिबंध के अधीन है। हालांकि आस्था और विश्वास के विरुद्ध कहे गए वचनों पर हिंसा या हिंसात्मक आचरण नहीं होना चाहिए, परंतु होता है। इस तरह के प्रतिवादों का तर्कपूर्ण तरीके से खंडन होना चाहिए। तथाकथित विवादित पुस्तकों को जलाना और उन पर प्रतिबंध लगाना गैरजरूरी और तर्कहीन है। ऐसी पुस्तकों पर बहस करने का माहौल पत्रकारिता द्वारा बनाया जाना चाहिए। और अतीत में उर्दू पत्रकारिता के पास ऐसे स्वस्थ बहस के उदाहरण मौजूद हैं।

बीते जमाने की दो महत्वपूर्ण उर्दू की पत्रिकाओं ने इस मुद्दे को बहुत गंभीरता से उठाया था। सन 1864 में विलियम मुइर की पुस्तक ‘द लाइफ ऑफ मुहम्मद’ प्रकाशित हुई । मुसलमानों ने इस किताब को ईशनिंदा के लायक पाया और इस किताब का खूब विरोध किया। मुसलमानों की ओर से इस किताब के विरोध में सड़कें जाम की गईं, मगर दो महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के संपादक और वायसराय के परिषद के दो बार सदस्य रहे सर सैयद अहमद खॉ ने इस तरह इस पुस्तक के विरोध का समर्थन नहीं किया। उन्होंने इस मसले पर ठंडे दिमाग से विचार करके पुस्तक के प्रति बहुत तर्कपूर्ण तरीके से अपनी आपत्ति दर्ज़ किया।

19वीं और 20वीं शताब्दी में भारत में ईशनिंदा का मुद्दा बार-बार सामने आया और अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट में सर सैयद ने जोर देकर कहा कि इस मामले में कुरान की आयतें मूक हैं, और पैगंबर ने कई लोगों को माफ कर दिया, लेकिन कुछ अपराधी दंडित किए गए। हॉ जब इस्लाम राज्य धर्म बन गया, तब कड़ी सजा का प्रावधान किया गया। इस्लाम के राजधर्म बनने के बाद ईशनिंदा राजद्रोह घोषित कर दिया गया और कानून बनाया गया – अब यदि कोई इस्लाम या उसके पैगंबर के खिलाफ लिखता है, तो यह अपराध राज्यद्रोह की श्रेणी में गिना जाएगा। अबुल कलाम आजाद ने सर सैयद के कट्टरपंथी विचारों का विरोध करते हुए कहा कि एक सच्चा मुसलमान एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कभी बम नहीं रख सकता। काश समकालीन उर्दू अखबार उनके इस संदेश को आगे बढ़ा पाते।

 

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