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शोर ने गंभीर पत्रकारिता की जगह ले ली है और यह देश के जनतंत्र पर सबसे बड़ा खतरा है! : बी.बी.सी. पत्रकार प्रियंका दुबे

कोरस के फेसबुक लाइव में रविवार 26 जुलाई को बीबीसी पत्रकार प्रियंका दुबे से मीनल ने बातचीत की l प्रियंका हिंदुस्तान टाइम्स, तहलका और कारवां जैसे बहुचर्चित अखबारों और पत्रिकाओं से जुड़ी रही  हैं और उनकी बेहतरीन रिपोर्टिंग और पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें रामनाथ गोयनका और 2012 के प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया जैसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड्स से भी सम्मानित किया जा चुका है l प्रियंका सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और लिंग आधारित मुद्दों पर पत्रकारिता कर रही हैं और उनकी एक किताब ‘नो नेशन फॉर वीमेन : रिपोर्ताज ऑन रेप फ्रॉम इंडिया, द वर्ल्डस लार्जेस्ट डेमोक्रेसी’ के नाम से प्रकाशित हुई और बेहद चर्चा में रही है l

 प्रियंका अपनी बात शुरू करते हुए  बताती हैं कि जब उन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई का फैसला लिया, वह समय उनके लिए  काफी उलझन से भरा हुआ था  l वे क्या करना चाहती हैं से ज्यादा अच्छी तरह वे क्या नहीं करना चाहती , इस बात का उन्हें पता था l यही कारण था कि परिवार द्वारा इंजीनियरिंग के कोर्स में दाखिला दिलवा देने  के बाद भी प्रियंका ने अपनी जिद्द नहीं छोड़ी और उस वर्ष एडमिशन के सारे विकल्प बंद हो जाने के बाद अगस्त के महीने यानी काफी देर में जाकर भोपाल में ही एक जर्नलिज्म कॉलेज में उन्होंने दाखिला ले लिया l प्रियंका कहती हैं कि अपने मन का काम न करना अपने कंधे पर बाँस की लकड़ियों का बोझ उठाकर चलने जैसा होता है, जिसे निश्चित ही आप ज्यादा देर तक ढो नहीं पायेंगे l अभिभावकों के मन की उलझन को भी वे ‘ फियर ऑफ़ अननोन’ यानी कि जिसके बारे में कुछ पता न हो उससे उत्पन्न होने वाले डर की स्थिति समझती हैं l वे एक ऐसे घर से आती हैं, जहां पढ़ाई लिखाई का कोई ज्यादा माहौल नहीं था l अखबार और किताबें बहुत कम उपलब्ध  थीं , ऐसे में ज़ाहिर है कि  परिवार को  इस ‘अनजान’पेशे में  प्रियंका का कदम रखना बिलकुल ही नामंज़ूर था |  इस बात का दुःख प्रियंका को आज भी है क्योंकि किसी भी नई चीज़ की शुरुआत करते समय आपको सबसे ज्यादा सहारे और प्रेरणा  की ज़रूरत होती है l इन सब के बावजूद  प्रियंका ने अपनी पढ़ाई पूरी की और पढ़ाई के साथ ही  वह कई सारे इंटर्नशिप्स भी करती रहीं |

प्रियंका ने ज्यादातर रिपोर्टिंग  लिंग आधारित मुद्दों पर की l ऐसी पहली घटना और उसकी रिपोर्टिंग के बारे में पूछे जाने पर वे बताती हैं कि वह पहली घटना साल 2011 की फ़रवरी माह की थी, जब उन्होंने कहीं खबर पढ़ी कि बुंदेलखंड में एक लड़की को बलात्कार के बाद जिंदा जला दिया गया था और यह खबर अखबार के बारहवें पन्ने पर कहीं किसी किस्म से बस दफन थी l उन्हें यह खबर पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे ऐसी ही कोई ख़बर उन्होंने कहीं और भी पढ़ी थी, पर कहाँ ये सही-सही नहीं पता l इसी तफ्तीश में उन्होंने बुंदेलखंड में छत्तरपुर, जहाँ की वह घटना थी, वहां के पत्रकारों को संपर्क किया और जानकारी जुटाने में लग गयीं l प्रियंका बताती हैं कि कुछ ही घंटों में उन्होंने वहां के  बाकी पत्रकारों के साथ मिलकर एक लिस्ट तैयार की और उन्होंने पाया कि एक वर्ष के अंतराल में मध्य प्रदेश के इन दो छोटे जिलों छत्तरपुर और दमोह में 16 ऐसी घटनाएँ हुई थीं जिनमें लड़कियों के साथ  बलात्कार करने के बाद उन्हें जिंदा जला दिया गया था l

प्रियंका बताती हैं कि यह लिस्ट देखकर वे खुद चौंक गयीं और उन्होंने वहां जाकर रिपोर्टिंग करने का फैसला किया l वे बताती हैं कि वहां न कोई रेलवे स्टेशन था न कोई पुलिस थाना l नजदीकी पुलिस थाना  भी 25-30 किलोमीटर की दूरी पर था l इस तरह की स्थितियों में रहकर प्रियंका ने 4 से 5केस की रिपोर्ट बनायीं, जिसमे उन्होंने पाया कि बलात्कारी ज़्यादातर ऊँची जातियों से थे, जिनके पास पैसा और बल दोनों भरपूर थे l उनमें से एक केस की सुनवाई होने के बाद जिला न्यायालय का नतीजा भी आ गया था, जबकि बाकी केस पर अभी भी कार्यवाही चल रही थी l नतीजे में साफ़ शब्दों में यह बात सामने आई कि हालांकि लड़की ने मरने से पहले अपने आखिरी बयान में 5 लोगों की पहचान की थी, जिन्हें वह अपना अपराधी बता रही थी पर अभियुक्तों के वकील ने कोर्ट में यह बात साबित कर दी कि बयान के वक़्त लड़की अस्सी प्रतिशत जली हुई स्थिति में थी और इसी कारण  बेहोशी की स्थिति में दिया गया यह बयान पूरी तरह से मान्य नहीं है l प्रियंका बताती हैं कि जब वे उस पीड़िता के घर गयीं तो लड़की की माँ ने उन्हें वह कमरा दिखाया जहाँ एक स्टूल पर बिठाकर उसे जला दिया गया था और उस रोज़ भी वह स्टूल और जली हुयी राख वहां वैसी ही पड़ी हुयी थी | यह सब देखकर मेरी  रूह काँप गयी l

ऐसे ही वह अपना एक और अनुभव  साझा करते हुए बताती हैं कि कैसे दमोह के एक पुलिस थाने में पूछताछ के वक़्त वहां के थानेदार ने कहा कि लड़कियों को समंदर की तरह सहनशील होना चाहिए l ज़रा सा कुछ हुआ नहीं कि खुद को आग लगा लेती हैं l सहनशीलता की कमी की वजह से ये घटनाएं हो रही हैं l बाद में उन्होंने इस घटना पर स्टोरी  लिखी, जो फिर तहलका पत्रिका की कवर स्टोरी के रूप में प्रकाशित हुई और जिसके लिए प्रियंका को रामनाथ गोयनका अवार्ड भी मिला l स्टोरी प्रकाशित होने के बाद मध्य प्रदेश सरकार ने  इस मामले को संजीदगी से लिया और इस  पर काफी एक्शन भी लिए गए |

इसके साथ  प्रियंका ज़मीनी स्तर पर रिपोर्टिंग मे आने वाली दिक्कतों की चर्चा करते हुए कहती हैं कि आपको नए तरीके से जीवन जीना सीखना पड़ता है l ग्राउंड लेवल की रिपोर्टिंग के लिए आपको शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनों पर ही विशेष तौर से ध्यान देना पड़ता है l वे ग्राउंड रिपोर्टिंग के तीन नियम बताते हुए कहती हैं कि एक तो आपको अपना होमवर्क और प्लानिंग बहुत अच्छे किस्म की करनी चाहिए l आपके पास हमेशा प्लान ए के साथ साथ प्लान बी और सी भी तैयार होना चाहिए |  कोई भी स्टोरी आपके अपने जीवन से बड़ी नहीं है इसलिए जब भी आपको किसी खतरे का आभास हो, आप फ़ौरन वहां से निकल सकें ऐसी तैयारी आपकी होनी चाहिए  l दूसरा नियम ये है कि आपको हर रोज़ अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को अच्छा रखने के उपाय करते रहने चाहिए क्योंकि फील्ड में काम करते वक़्त आपको अठारह से बीस घंटों तक भी भूखा रहना पड सकता है, तेज़ चिलचिलाती धूप में दिन भर खड़ा रहना पड़ सकता है, बहुत लम्बी दूरी पैदल तय करनी भी पड़ जाती है  | इस तरह की स्थितियों के लिए आपको खुद को तैयार रखना चाहिए l मानसिक तौर पर  भी बहुत तरह की चोटें खानी पड़ती हैं, जिनसे आप बच तो हरगिज़ नहीं सकते l वे कहती हैं मुझे आज भी लगता है की मेरी पीठ पर बहुत सी आँखें गड़ी हुई हैं l इन सब में एक और बात है जो बहुत ज़रूरी है और वह है बढ़िया मज़बूत ‘ह्यूमन नेटवर्क’ होना l हर लेवल पर आपके पास भरोसेमंद लोग होने चाहिए और इसे बनाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है l लेकिन आप अगर अच्छा काम कर रहे हैं तो आप पाएंगे कि लोग खुद-ब-खुद आपकी मदद के लिए आगे आते हैं l वे कहती हैं फिर भी हम सबको ये समझने की ज़रूरत है कि हमें अगर अच्छी रिपोर्ट चाहिए तो हमें निवेश करना होगाl

किताब लिखने के उनके अनुभवों के बारे में पूछे गये प्रश्न पर वे कहती हैं कि रिपोर्टिंग अगर मुश्किल काम है तो किताब लिखना भी कोई आसान नहीं l अपनी किताब लिखने के दौरान भी उन्हें बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा l किताब के चलते उन्हें देश भर में यात्राएं करनी थी और हर राज्य से स्टोरी कवर करते हुए चलना था l इतनी यात्राओं के लिए पैसे और समय दोनों ही  इकठ्ठा कर पाना अपने आप में एक संघर्ष था l  अगर किसी प्रकार से वहहो भी गया तो फिर ऐसी वीभत्स घटनाओं को रोज़ रोज़ सुनने में, उन्हें रिकॉर्ड करने में उनकी खुद की मानसिक स्थिति भी जवाब देने लग जाती थी और कई बार भारी नुकसान उठा कर वे काम बीच में छोड़कर घर लौट जाती थीं और फिर तीन महीने बाद हिम्मत जुटा कर वापस जाती थीं l उन्हें ऐसा लगता था जैसे वह “कैन ऑफ़ वर्म्स “ यानी बेहद जटिल समस्याओं के पिटारे में ज़िन्दगी काट रहीं थी  और जिस दिन उन्होंने वह किताब पूरी की, उस दिन वे बस सुन्न हो चुकी थीं l उन्हें लगा जैसे सीने पर से एक भारी पत्थर हट गया हो  क्योंकि उनके कन्धों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी थी कि  उन सभी लोगों की कहानियां लोगों के सामने ले आई जाएँ , जिन्होंने उन पर विश्वास कर के अपनी कहानियाँ उनको सौंपी थीं l

पत्रकारिता आज के समय में जिस तरह से अपना अस्तित्व खोती जा रही है उसके बारे में बात करती हुई  प्रियंका कहती हैं कि ये बहुत ही दुखद है l वे कहती हैं कि यह तो जनता को समझना पड़ेगा कि अगर उन्हें किसी भी घटना की बहुपरतीय तस्वीरें और बहुआयामी पक्ष देखने हैं तो उन्हें उसके लिए निवेश करना पड़ेगा l प्रियंका कहती हैं कि शोर ने गंभीर पत्रकारिता की जगह ले ली है और यह देश के जनतंत्र पर सबसे बड़ा खतरा है l एक अच्छे रिपोर्टर को खुद पर किसी भी राजनैतिक विचारधारा का बोझ लेकर नहीं चलना चाहिए l उसे हमेशा लोगों के लिए और खासकर कमज़ोर और गरीब वर्ग के लिए खड़ा होना चाहिए और जनता को भी ऐसे ईमानदार रिपोर्टरों का उत्साहवर्धन करते रहना चाहिए क्योंकि एक बात तो आपको समझनी होगी कि ट्विटर परपत्रकारिता नहीं होती l पत्रकारिता में आपकी  निजी राय नहीं बल्कि स्टोरी महत्वपूर्ण होती हैं l यहाँ हमें कहानीकार नहीं बल्कि कहानी पर ज़ोर देना होता है lसेलेब्रिटी कल्चर ने स्टोरी से ज्यादा व्यक्ति को ज़रूरी बना दिया है और यह पत्रकारिता, पत्रकार और देश की जनता सभी के लिए दुखद स्थिति है l

पत्रकारिता के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति पर अपनी बात रखते हुए प्रियंका कहती हैं कि महानगरों में तो फिर भी स्थिति बीते सालों में कुछ बेहतर हुई है पर छोटे शहरों में तो आज भी पहले जैसी ही है l महिलाओं को निर्णायक ओहदों पर नहीं रखा जाता, खासकर हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में l छोटे शहरों, कस्बों में जो महिला पत्रकार हैं वो एक तरह से दो-धारी तलवार पर चल रहीं हैं l पहली लड़ाई तो उन्हें अपने परिवार से लड़नी पड़ती है अपने काम को करने के लिए और दूसरी लड़ाई रोज़-रोज़ दफ्तर में व्याप्त पितृसत्ता से होती हैं  l बहुत सारे ऐसे केस हुए हैं जब अच्छी महिला पत्रकारों को परेशान किया गया और बड़े शहरों के पत्रकारों के बहुत जोर लगाने पर उन केसों की सुनवाई हुई l अपनी बात समाप्त करते हुए प्रियंका  कहती हैं कि स्त्रियों का सफ़र अभी बहुत लम्बा है और इस सफ़र में हमें सबको जोड़ते हुए चलना है l बड़े शहरों में अगर स्थिति ठीक होती दिख रही तो वह काफी नहीं है l दूर-दराज़ के इलाकों में बहुत-सी लड़ाइयाँ और लड़ी जा रहीं हैं, हमारा उन तक पहुँचना भी ज़रूरी है l

(प्रस्तुति: निशा, मीनल)

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