समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-12

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

अभी तक तो समता स्कूल से 11.30 तक आ जाती थी। फिर दिन भर मेरे स्कूल से लौटने तक उदय और समता मिलकर अंकुर को संभाल लेते थे। लेकिन अब समता के स्कूल का समय 11.30 से 4 बजे का हो गया था। अब अंकुर की देख- रेख की समस्या फिर आ गई। बरसात भी खूब हो रही थी। अभी गर्मी की छुट्टी के बाद स्कूल खुला ही था। समता को आठ जुलाई से स्कूल जाना था। 3–4 जुलाई रही होगी। आसमान में बादल घिरे थे। स्कूल तो जाना ही था- घर से तो निकल गई मैं, रास्ते में तेज बारिश होने लगी। पेड़ के नीचे भी अब खड़े रहने का कोई मतलब नहीं रह गया था। आधा से ज्यादा बौछार से और पेड़ भी टपकने की जगह बरसने ही लगा था, फिर तो पूरी तरह भीग गई। तेज हवा के कारण ठंड भी लग रही थी। इसलिए साइकिल उठाई और भीगते हुए स्कूल चल दी। स्कूल में साड़ी तो रखी थी सो बदल लिए। पेटीकोट ब्लाउज न बदल पाए। स्कूल से लौटते समय भी भीगते हुए ही आना पड़ा। रात होते-होते बुखार हो गया। सुबह भी बुखार नहीं उतरा। उदय ही खाना बनाए। स्कूल से छुट्टी लेनी पड़ी। डाक्टर को दिखाकर दवा ले आई लेकिन बुखार उतर ही नहीं रहा था। मुझे डर लग रहा था कि कहीं टायफाइड न हो जाय, और हुआ यही। टायफाइड हो गया और सवा महीने लग गया हमको ठीक होने में। टायफाइड मुझे बहुत झेलाता रहा है।( बचपन में जहां तक मुझको याद है मुझे कक्षा-7 तक हर साल गरमी में टायफाइड हो जाता था और उसका साइड इफेक्ट भी पड़ता था। कभी बाल झड़ जाते, तो कभी आंत कमजोर हो जाने से खाने के बाद पेट में दर्द होने लगता। कितने-कितने दिन तक रोटी का पपरा दाल के पानी के साथ खाना पड़ता था। टायफाइड का ही साइड इफेक्ट मेरे गले पर हुआ और मेरी आवाज खराब हो गई। हाई स्कूल में एक बार 3-4 दिन तक मेरी आवाज ही बंद हो गई थी। सभी लोग परेशान। फैमिली डाक्टर परमानंद राय ने बीएचयू या पटना ले जाने के लिए कह दिया। पिताजी पटना में डाक्टर केदार शर्मा को दिखाए। डाक्टर केदार शर्मा हमलोगों के रिश्तेदार भी थे। उन्होंने कोई इंजेक्शन लगाया और थोड़ी देर बाद मेरा नाम पूछा तो मैंने अपना नाम बताया। अरे !आवाज वापस आ गई। उस समय आवाज वापस आ जाने से ही लोग इतना खुश हो गए कि किसी ने यह ध्यान ही नहीं दिया कि मेरी खुलकर आवाज नहीं आई , फंसी फंसी आवाज आई और फिर वैसी ही रह गई।) तबियत ठीक होने के बाद भी मुझे कमजोरी बहुत थी इसलिए कुछ दिन के लिए गुड़िया (बड़ी दी की लड़की) को बुला लिए थे। बगल में ऊपर एक किरायेदार श्रीवास्तव फैमिली रहती थी। पूरा परिवार ही भाई साहब, भाभी जी, तीनों बेटियां बेबी, माला, शिखा और बेटा राजा बाबू अंकुर को बहुत मानते थे। कोई न रहे तो उन्हीं के यहां अंकुर को छोड़कर स्कूल जाते थे। मेरी बीमारी के बाद तो जैसे बीमारी ने घर में डेरा ही डाल दिया।

मेरे बाद अंकुर की तबियत खराब हुई। अंकुर को बहुत पतली टट्टी होने लगी। उसे कुछ नहीं पच रहा था। कुमुदिनीपति के साथ जाकर बच्चों के डाक्टर राजीव सरन को उसे दिखाया। उन्होंने कुछ दवा दी और तुरन्त ऐडमिट करने को कहा। उनकी पर्ची लेकर चिल्ड्रेन हॉस्पिटल गए, तो वहां ज़बाब मिल गया कि बेड नहीं है, इसे स्वरूपरानी मेडिकल हॉस्पिटल ले जाइए।

मैं अंकुर को लेकर कमरे पर आ गई और उदय स्वरूपरानी मेडिकल हॉस्पिटल की डॉक्टर रमा मिश्रा से ऐडमिट कर लेने के लिए पत्र लिखवाने चले गए। रामजी राय घर पर थे। उदय पत्र लेकर आए तो उनके साथ मैं अंकुर को लेकर हॉस्पिटल गई। अंकुर को इतनी कमजोरी हो गई थी कि मुंह के बल गिर जा रहा था। रामजी राय मेरे साथ नहीं गए। रामजी राय किसी के भी बीमार पड़ने पर बहुत घबड़ा जाते थे। पहले से ही अनहोनी घटना के लिए, पता नहीं अपना मन तैयार रखने के लिए ऐसा करते थे या दूसरों को तैयार रखने के लिए। जब भी अंकुर बीमार पड़े यही कहते थे कि हमारे घर में तीन भाइयों में एक भाई का वंश नहीं चलता है (रामजी राय तीन भाई थे)। स्वरूपरानी हॉस्पिटल में इमरजेंसी में ले जाने को बोला गया। वहां भी डाक्टरों ने ऐडमिट नहीं किया और बेली हास्पीटल के लिए रेफर कर दिया। वहां इसको लेकर डाक्टरों से उदय की थोड़ी बहस भी हो गई। कुछ समझ में नहीं आ रहा था और अंकुर की हालत खराब होती जा रही थी। डर लग रहा था कि इस भागा- दौड़ी में मेरा बच्चा बचेगा कि नहीं। इमरजेंसी से हमलोग बाहर निकलने वाले थे, उसी समय एक डाक्टर अंदर आया। उसने मेरी तरफ ध्यान से देखा, फिर आगे बढ़ गया। हमलोग बाहर निकल ही रहे थे कि वही डाक्टर लौटकर आया और उदय को बुलाकर अंदर ले गया। मैं तो डर गई कि उदय की बहस के कारण तो नहीं बुलाए सब। डाक्टर ने उदय से पूछा कि आप कौन हैं और जिस महिला के साथ आप आए हैं उनके साथ आप का क्या रिश्ता है? (दरअसल, वो डाक्टर मुझे पहचान रहा था) उदय ने बताया कि मैं उदय और ये मेरी भाभी हैं। डाक्टर ने फिर पूछा कि आपके भाई का नाम क्या है और वे क्या करते हैं ? उदय बताए कि भाई का नाम रामजी राय है और वे आई.पी.एफ. के कार्यकर्ता हैं। और मैं ‘दस्ता नाट्य मंच’ का संयोजक हूं। रामजी राय और दस्ता का नाम सुनते ही डाक्टर बोला- जाओ जल्दी से मीना भाभी और बच्चे को ले आओ, तब तक मैं बच्चे को यहां भर्ती कराने की व्यवस्था करता हूं। ये डाक्टर कोई और नहीं पार्थ चौधरी थे, जो ‘दस्ता नाट्य मंच’ के निर्माण के समय से ही उसमें सक्रिय थे। नाटकों का निर्देशन करते थे और रिहर्सल करवाते थे। वह अच्छे गायक भी थे। इस तरह संगठन के बदौलत अंकुर ऐडमिट हो पाए। तुरन्त अंकुर को पानी चढ़ने लगा। तब जा के जी में जी आया। थोड़ी देर बाद रामजी राय खाना लेकर आ गए। फिर पार्थ, उदय और रामजी राय आपस में देर तक बात करते रहे। अगले दिन हमलोग घर आ गए।

अंकुर अब तीन साल का होने वाला था। जैसे जैसे बड़ा हो रहा था वैसे वैसे समस्याएं भी बड़ी होती जा रही थीं। शिखा के यहां छोड़ कर जाने पर अब अंकुर कोई न कोई बहाना बनाकर शिखा के यहां से नीचे आना चाहता था। बार-बार शिखा के छत से अपने छत पर आकर नीचे देखने की कोशिश करता कि कोई आया तो नहीं है। शिखा लोग डरती थीं कि उनके छत से हमारे छत पर फांदकर आने में कहीं गिर न जाए। कभी-कभी भाभी जी कहें भी कि तुम छोड़ के चली जाती हो और अंकुर नीचे भागता रहता है, कहीं गिर गया, कुछ हो जाय तो…। उनकी बड़ी बेटी बेबी मुझे इशारा कर देती कि अंकुर को नीचे छोड़ के जाइए, हम बाद में ऊपर बुला लेंगे।

थोड़े दिन बाद अंकुर का एडमिशन कटरा में ही शिशु मंदिर में करा दिए। अब चारों तरफ से लोग यही बोल रहे थे कि ऐडमिशन शिशु मंदिर में क्यों कराईं? अब मेरी तो मजबूरी थी मैं क्या करती। अंकुर सुबह 8 बजे जाता था और 12 बजे आता था। सुबह बैग, टिफिन सब तैयार करके, यहां तक कि उसे भी तैयार करके 6.30 बजे मैं स्कूल निकल जाती। समता और उदय घर में रहते थे रिक्शा वाला 8 बजे अंकुर को ले जाता था। 12 बजे उसके आने पर कोई नहीं रहता था। ऊपर शिखा लोगों के यहां बैग रखकर चार घंटा दरवाजे पर या सामने चाची ( रवि जायसवाल के यहां जिनकी कटरे में लक्ष्मी टाकिज के कम्पाउण्ड में पान की दुकान है) के गैलरी में ही रहता था। गली के बाहर कभी नहीं जाता था। गली में एक दो लड़के थे उनके साथ खेलता भी था। कोई आ गया तो शिखा के यहां से चाभी लेकर दरवाजा खुलवाकर अंदर जाता था। अकेले रहने पर घर से बाहर ही रहता था। मैं और समता 4 बजे तक लौटते थे।

एक दिन अंकुर को होमवर्क करवा रहे थे। थोड़ी देर बाद कहा टट्टी जाना है। लौटकर आया और अभी दुबारा काम शुरू ही किया कि बोला- पेट दर्द कर रहा है, फिर टट्टी जाऊंगा। मुझे लगा कि ये काम नहीं करना चाहता है, खैर मैंने जाने दिया। देर हुई तो जाकर देखे तो उसकी टट्टी के साथ खून भी निकला था। मैंने पूछा कि पहले भी निकला है कभी खून। बोला कि नहीं लैट्रिन करते समय दर्द होता है और लाल रंग का कुछ लटका रहता है। जो गांव में तुम्हें दिखाए थे, वो हमेशा निकलता है।( गांव में उसको लैट्रिन होते समय बड़ी मटर के आकार का दो मस्सा निकल आया था देखने में लगता कि खून का थक्का है लेकिन कड़ा था। मां से पूछी तो बोलीं- कभी कभी बहुत सूखी लैट्रिन होती है (कंडी बंध जाती है) तो ऐसा हो जाता है। फिर हम भी ध्यान नहीं दिए और अंकुर भी नहीं बताया। अब समझ में आ रहा है कि इसीलिए वह टट्टी जाने से कतराता था।) उसके बाद अंकुर 15 मिनट में तीन बार टट्टी करने गया और थक्का थक्का केवल खून की टट्टी निकल रही थी, जिसे ऊपर वाली भाभी जी देखीं तो तुरंत डाक्टर को दिखाने को बोलीं। अंकुर को लेकर मैं डाक्टर राजीव सरन के यहां दिखाने गई। वे देखे, कुछ दवा दिए और बोले- कल सुबह 8 बजे स्वरूपरानी हॉस्पिटल में पर्ची बनवाकर आपरेशन कक्ष के सामने मिलना। सुबह 8 बजे पर्ची बनवाकर आपरेशन कक्ष के पास मैं पहुंच गई। 8.30 पर डाक्टर आए और अपने साथ अंदर ले गए। अंदर कुछ लोग और बैठे थे वहीं बैठने के लिए कहकर अंदर चले गए कि जब अंकुर का नाम बुलाया जाएगा तो अंदर भेज देना। थोड़ी देर बाद एक नर्स आई और अंकुर का कपड़ा बदलकर एप्रेन पहनाने को दे गई। मैंने अंकुर को एप्रेन पहना दिया। फिर एक नर्स आई तो फार्म पर साइन करवाई। अंकुर मुझसे चिपककर बैठा था। डर रहा था। कहा- मम्मी तुम भी अंदर चलना। मैं भी तो डर ही रही थी कि इतने छोटे बच्चे का आपरेशन करेंगे। लेकिन उसको समझाए पड़ी थी कि कुछ नहीं पता चलेगा। मस्सा निकाल देंगे, फिर तुम्हें कभी टट्टी करते समय दर्द नहीं होगा। थोड़ी देर बाद इसका नाम बुलाया गया और नर्स के साथ अंकुर डर के मारे चुपचाप चला गया। मैं आपरेशन वाले कमरे के अंदर जाने तक उसको देखती रही। 5 मिनट बाद ही देखे अकेले चला आ रहा है। हम सोचे कि इतना जल्दी कैसे आ रहा है। कहीं भाग तो नहीं आया। आया तो बोला- टट्टी जाएंगे। वह डर के मारे टट्टी का बहाना कर के चला आया था। टट्टी हुई भी नहीं। फिर हमको सहेज कर गया कि तुम सामने ही खड़ी रहना और कमरे में जाते समय पलटकर मुझे देखा। 10 मिनट बाद देखती हूं तो फिर पर्ची लिए चला आ रहा है। मैंने पूछा क्या हुआ? तो बोला- हो गया, पर्ची पर लिखा है कहां जाना है। पर्ची पर वार्ड और बेड नम्बर पड़ा था। वहां गए हमलोग। मैं दोपहर का खाना साथ लेकर आई थी। जब डाक्टर राउंड पर आए तो बताए कि ये बवासीर का ही एक प्रकार है। आधा आपरेशन तो आपका बेटा कर ही दिया था आधा हमलोग कर दिए हैं अब ठीक हो जाएगा। आप के बेटे ने निकलने वाले मस्से को दबाकर फोड़ दिया था इसीलिए इतना खून निकल रहा था। 2 दिन यहां रखेंगे। रामजी राय रात में खाना लेकर आए थे। शिखा के पापा की उस समय शायद हंडिया में ड्यूटी थी। रात को 11 बजे अंकुर को देखने आए थे। तीसरे दिन हमलोग घर आ गए।

इस बीच रामजी राय को ‘समकालीन जनमत ‘ पत्रिका के संपादन की जिम्मेदारी मिली। जनमत उस समय पाक्षिक निकलती थी, अब साप्ताहिक होने जा रही थी। महेश्वर जी उसके प्रधान संपादक हुए। इसके लिए रामजी राय को पटना जाना पड़ा। महीने में 2-3 दिन के लिए रामजी राय आ पाते थे। कभी कभी तो दो महीने भी हो जाता था। चुनाव के समय और भी समय नहीं मिलता था। उस समय इलाहाबाद में विमल वर्मा 400 प्रति जनमत मंगाते थे। शायद ए जी आफिस में ही 100-150 प्रति निकल जाती थी। विमल वर्मा के अंदर ऐसा जुनून था कि हर हफ्ते साइकिल से जनमत की 400 प्रतियों को वितरित करते थे, और समय से जनमत का पैसा भी भेज देते थे। जबकि ‘दस्ता नाट्य मंच’ का भी कार्यक्रम होता रहता था और विमल वर्मा की उसमें मुख्य भूमिका रहती थी। महीने में 1600 जनमत वितरित करने में जनमत से जो छूट का पैसा बचता था, उससे विमल का कमरे के किराये के अलावा भी खर्च निकल आता था। मेरे यहां ‘पी एस ओ’ और ‘दस्ता नाट्य मंच’ से जुड़े लड़कों का आना जाना लगा ही रहता था। जनमत बांटते या जनमत का पैसा लेने के क्रम में विमल अक्सर कटरा आ जाते थे और कहते- भाभी मंजन करके ही निकल गए थे, चाय भी नहीं पिए हैं। मैं तो समझती ही थी कि ये सब कहने का मतलब क्या है। लेकिन पहले मैं ये कहती कि मैं कुछ सुन ही नहीं रही हूं कि तुम क्या कह रहे हो। लेकिन खाना तो खिलाना ही रहता था। यह लिखते समय सारा सीन सामने आता जा रहा है और विमल का वो भोला चेहरा और तिरछी मुस्कुराहट भी। खाना खाने के लिए कैसै-कैसे घुमाकर बोलना, सब याद आ रहा है। प्रमोद सिंह, विमल वर्मा,अमरेश मिश्र तो अक्सर आते ही रहते थे। उदय, शिवकुमार यहां रहते ही थे। उदय इस बीच एक प्रेस चला रहे थे। जिसका नाम शब्द प्रिंटिंग प्रेस था। इसी बीच घर से नन्हें ( मेरा छोटा भाई) भी आ गया। उदय ने नन्हें को भी प्रेस में ही कुछ काम दिलवा दिया था। चार साल तक नन्हें मेरे पास रहा। उसी दौरान दो वर्ष का पालिटेक्निक में कोई कोर्स भी किया। उसके बाद वह लोकयुद्ध में पटना चला गया और 94 में कामरेड वी के सिंह के बदौलत बनारस में एल आई सी के कोआपरेटिव ब्रांच में नौकरी करने लगा। इस तरह संगठन, घर-परिवार और नौकरी सब एक साथ चलता रहा।
जनमत का आफिस उस समय पटना के पीर मुहानी में था। जनमत का रेजिडेन्स भी पास ही था। राजेन्द्र जी का मकान था और वे भी पार्टी के सेम्पेथाइजर थे। भारती जी (उनकी पत्नी ) बिहिया या बिहटा ड्यूटी करने जाती थीं। जनमत के पास एक बड़ा कमरा था जिसमें एक तखत बिछा था और नीचे बड़ी दरी पर ही गद्दा बिछा रहता और दूसरा कमरा बहुत छोटा था। इसी में खाना बनता था। गैलरी से जाने वाली सीढ़ी का निचला हिस्सा इसी कमरे में पड़ता था। सीढ़ी के नीचे ही कृष्णा जी किचेन का सामान रखते थे। उस समय वहां प्रसन्न कुमार चौधरी उर्फ नवीन जी, जगदीश जी, रामजी राय और कृष्णा जी रहते थे। बाद के दिनों में प्रमोद सिंह भी कला संपादक बन कर इलाहाबाद से वहां गए थे। जब सब लोग काम करने में लगे रहते थे तो कुछ देर तो अंकुर बरामदे में या इधर-उधर खेलता रहता था। फिर आकर रामजी राय की पीठ पर बैठ कर गाने लगता -कोहराम मचा देंगे। रामजी राय कहते अब इसको घुमाना पड़ेगा नहीं तो ये कोहराम मचाएगा। बच्चे अपने तरीके से अपनी तरफ ध्यान आकर्षित कर ही लेते है़ं।

{फीचर्ड इमेज में मैं, अंकुर, समता, सृंजय (कहानीकार), उदय, विमल (दस्ता के साथी)}

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