लखनऊ। हिन्दी के शीर्षस्थ कवि व गद्यकार विजेन्द्र के रचनात्मक अवदान पर सार्थक एवं बेहद जरूरी परिचर्चा 27 जुलाई को जूम पर हुई । बीते 30 अप्रैल को कोरोना से संक्रमित होकर उनका निधन हुआ। उन्हीं की याद में कार्यक्रम था। इसका संयोजन विजेन्द्र के पुत्र राहुल नीलमणि ने और संचालन युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने किया । तकनीकि सहयोग बबलू कुमार का था ।
यह परिचर्चा विजेन्द्र द्वारा स्थापित कविता केन्द्रित लोकधर्मी पत्रिका ‘कृतिओर’ के पेज पर सजीव प्रसारित की गयी।
शुरूआत में राहुल नीलमणि ने कवि विजेन्द्र को श्रद्धांजलि देते हुए उन पर केन्द्रित अपनी योजनाओं, उनके साथ गुजारे समय तथा उनके व्यक्तित्व पर संक्षिप्त वक्तव्य दिया। इस परिचर्चा की सार्थकता पर अपनी बात रखी। संचालक उमाशंकर सिंह परमार ने कहा कि पत्रिका ‘कृतिओर’ के संचालन को लेकर विजेन्द्र ज्यादा चिन्तित थे विशेषकर जबसे उसके वर्तमान संपादक अमीरचन्द वैश्य बीमार हुए और पत्रिका बन्द हुई। उसके बाद निरन्तर मुझे पत्रिका के संपादन का दायित्व संभालने के लिए कह रहे थे। परमार ने वरिष्ठ़ आलोचक नीलकान्त जी से फोन संवाद कर विजेन्द्र जी पर उनकी भावनाओं तथा बनारस के बीते दिनों की याद का पाठ किया।
परिचर्चा का आरम्भ वरिष्ठ़ कवि सुधीर सक्सेना (संपादक दुनिया इन दिनो) ने किया। उन्होंने विजेन्द्र को अग्रज कवि कहते हुए उनके रचाव व विस्तीर्ण फलक पर अपनी बात रखी । सुधीर सक्सेना ने विजेन्द्र को लोकधर्मिता व प्रगतिशीलता का अगुवा कवि कहते हुए कहा कि कवि की मृत्यु कभी नही होती । वह अपनी रचनाओं के माध्यम से सर्वदा हमारे बीच उपस्थित रहता है। उन्होंने विजेन्द्र के कवि कर्म के साथ साथ विजेन्द्र की आलोचना व काव्यपक्षधरता का बार बार स्मरण किया । केदारनाथ सिंह, विजय नारायण देव साही, रघुवीर सहाय, अशोक बाजपेयी की विजेन्द्र कृत आलोचना के उद्धरणों का पाठ किया और कहा कि उनकी लम्बी कविताओं में जो धैर्य, साहस और भाषा का स्थाई समागम है वह दुर्लभ है। मै कभी अलग से इन कविताओं पर जरूर लिखूँगा ।
वरिष्ठ़ कवि शम्भु बादल ने कहा कि विजेन्द्र जी कवि ही नहीं थे, विचारक और मार्गदर्शक भी थे। शम्भु बादल ने उनकी कविताओं का पाठ करते हुए उनके काव्य मर्म को भी उदघाटित किया और कहा कि उनकी कविता में लोक रंग और रंगों मे लोक है। कवि विजेन्द्र के ‘आधीरात के रंग’ में कविता, कवि और रंग तीनो एक दूसरे से मिल गये हैं । हम उनकी कविताओं से प्रेरणा लेकर नयी पीढी को कविता के मायने बता पाये, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।
वरिष्ठ़ कवि व आलोचक चन्द्रेश्वर ने विजेन्द्र के अवदानों, संघर्षों व उन पर निरन्तर हुए कलावादी आक्रमणों तथा विजेन्द्र द्वारा किये प्रतिरोध पर व्यापक ढंग से अपनी बात रखी । उनका कहना था कि साठ – सत्तर के दशक में जो प्रगतिशील कविता की वापसी हो रही थी, उसके मूल में विजेन्द्र जैसे कवि ही थे जिन्होंने छोटी छोटी पत्रिकाओं के माध्यम से प्रगतिशील रचनाकारों की पीढी तैयार की । उस दौर की नयी कविता, आधुनिकताबोध, संरचनावाद के शोरगुल में गुम हो चुके लोकधर्मी प्रगतिशील कवि नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल व शील जी पर पुनः चर्चा शुरू हुई । विजेन्द्र कलावाद व संरचनावाद के विरोध में लोकार्जित भाषा का प्रयोग कर एक नया भाषाशास्त्र और सौन्दर्यशास्त्र रचा । उन पर जब आक्रमण हो रहे थे और वे उपेक्षित किये जा रहे थे, तब भी मोर्चे पर डटे रहे और कलावादियों से लोहा लेते रहे ।
वरिष्ठ़ कवि, आलोचक व विचारक कौशल किशोर ने कहा कि ‘विजेंद्र जैसे कवि और रचनाकार संघर्ष की देन है । समकालीन कविता में प्रगतिशील व जनवादी धारा ही उसकी मुख्यधारा है। आज इसके कई स्तर हैं। अनेक प्रवृतियां काम कर रही हैं। विजेंद्र जी इस धारा की अग्रगामी चेतना के वाहक कवि हैं। जिस लोकधर्मी कविता की बात उनके संदर्भ में की जाती है, वह यही चेतना है। इसके मूल में वर्ग संघर्ष है। लोक धर्मिता का यह बीज उन्होंने त्रिलोचन से प्राप्त किया था, जो समय के साथ विकसित हुआ। काव्य यात्रा के आरंभ से ही उनकी प्रतिबद्धता श्रमिक वर्ग और किसान जनता से रही है। यह कविता में क्रांतिकारी बदलाव की भावना के साथ शोषित पीड़ित जनता की मुक्ति के स्वप्न में व्यक्त हुआ।
वे कहते हैं : ‘उसकी छायाएं अंकित है चट्टानों की पीठ पर/उसके वंशज अभी जिंदा हैं/हृदय में पचाये दहकती ज्वालाएं/वे जिंदा है विशाल भुजाएं/विष को मारता है विष ही/लोहा काटता है लोहे को/खनिज पिघलते हैं आंच से/वो जिंदा हैं देश की जागती जनता में/पूरे विश्व में जागता सर्वहारा/देखने को वह समय/जब-जब हो सुखी, मुक्त उत्पीड़न से/उनकी हो अपनी धरती, आकाश, जल/और वायु, समता हो शांति हो’। कौशल किशोर का कहना था कि सजावटी प्रतिरोध और अवसरवादी प्रगतिशीलता के दौर में विजेन्द्र जैसा कवि उपेक्षित रह जाये आश्चर्य नहीं है। लेकिन विजेन्द्र को जिनके बीच प्रतिष्ठित होना था, वहाँ वो प्रतिष्ठ़ित हैं, रहे हैं और रहेंगे ।
‘सूत्र’ के संपादक कवि विजय सिंह ने विजेन्द्र को लोक , जनपद और जनपक्षधरता का कवि कहा। उनका कहना था कि वे छोटे से लेकर बड़े कवियों तक सबका सम्मान करते थे, सब का उत्साह वर्धन करते थे। हमारे बेहद आत्मीय और नजदीकी रहे। मेरा उनसे जुड़ाव ‘सूत्र’ पत्रिका के माध्यम से नब्बे के दशक में हुआ । उस समय लघु पत्रिकिओं पर हंस मे आलेख निकला था जिसमे लघु पत्रिकाओं और गाँव तथा जनपद से निकलने वाली पत्रिकाओं को कमतर माना गया था। उसका विरोध करते हुए मैने हंस को टिप्पणी भेजी। वह नही छपी। अन्त मे विजेन्द्र जी ने लघु पत्रिका अंक निकालकर उसे छापा। विजय सिंह ने उनके पत्रों का पाठ किया।
संचालक उमाशंकर सिंह परमार विजेन्द्र पर हुए आक्रमण का जिक्र करते हुए उनके रचनात्मक प्रतिरोध को स्मरण किया और कहा कि वे लगातार मजबूत होते गयी। उनकी वैचारिक दृढ़ता बढ़ती गई। ‘कृतिओर’ ने आज के कार्यक्रम से उन्हें याद करने तथा उनके अवदान पर चर्चा की शुरुआत की है । यह हर हफ्ते होगी। अन्त में कार्यक्रम के संयोजक राहुल नील मणि ने सभी वक्ताओ़ का आभार व्यक्त किया और कहा कि हम जल्द ही अगले रविवार के समय व पैनल की सूचना सभी साथियों को देगें ।