समकालीन जनमत
चित्रकला

सत्ता प्रायोजित सौंदर्य प्रतिमान के विरुद्ध नया सौंदर्य प्रतिमान गढ़ती अजय शर्मा की कला

दृश्य कला में विषय वस्तु को केंद्रित  कर काम करना जरा कठिन होता है। यह एक श्रमसाध्य और शोधपरक काम है। यह दिमाग खपाई , एकाग्रता , सुलझी हुई दृष्टि की मांग करता है | ऐसा काम करने के लिए अच्छा खासा समय देना होता है। मानवीय दृष्टिकोण रखने वाले कलाकार जब किसी खास घटना या त्रासदी पर काम करते हैं तो वे सतही दृश्य तक ही सीमित नहीं रहते बल्कि उसके पीछे के यर्थार्थ तक पहुँचने की कोशिश करते हैं। अक्सर यह कोशिश सत्ता के सेंसर और भद्रलोक के सौन्दर्य शास्त्रीय प्रतिमान से पुरजोर टकराती है। आज जैसा माहौल है उसमें यह एक जोखिम भरा काम है। इसके बावजूद कुछ ऐसे कलाकार हैं जो तमाम तरह के खतरे और जोखिम उठा कर भी छुपाए जा रहे यथार्थ तक पहुँचते हैं और उसका भावपूर्ण चित्रण करते हैं। निसंदेह ये ऐसे कलाकार हैं जो इस मान्यता को सच साबित करते हैं कि कला , समय के कड़वे सच को दर्ज करती है। एक ऐसे ही कलाकार हैं अजय शर्मा।

अजय शर्मा एक सुलझे हुए मानवीय दृष्टिकोण के कलाकार हैं। वे मुख्य रुप से किसी खास विषय पर केंद्रित हो कर काम करते हैं। विषय के अन्तर्वस्तु तक जाना और फिर उसका प्रभावोत्पादक चित्रण करना , अजय शर्मा को हमारे समय का एक महत्वपूर्ण कलाकार साबित करता है। यह अलग बात है कि उन्हें बहुत प्रसिद्धि हासिल नहीं है और फाकामस्‍ती में उनका गुजारा होता है। लेकिन यह हमारे समय और समाज का एक कड़वा सच है। अमानवीय व्यवस्था में मानवीय व ईमानदार रचनाकार होने का शायद यह एक जरुरी शर्त भी है।

जीवन 

अजय शर्मा का जन्‍म 07-10-1971 को खड़गपुर में हुआ। पिता लाल बहादुर शर्मा खड़गपुर आई आई टी में फोर मैन थे तथा माता शिवकुमारी देवी एक गृहणि हैं। पांच भाई बहन में अजय चौथे नम्बर पर हैं। बारहवीं तक की पढा़ई लिखाई आई आई टी खड़गपुर के केन्द्रीय विद्यालय से हुई। बचपन से ही अजय की गहरी रुचि कला में थी। दसवीं तक जाते-जाते इसके प्रति वे काफी गंभीर हो गये। इसके लिए विभिन्न कला शिक्षकों से उन्होंने विधिवत ट्यूशन ली। बारहवीं के दौरान कला शिक्षक तरुण कांति दास ने उन्हें एम एस विश्वविद्यालय बडौ़दा के कला संकाय के बारे में बताया। जैसा कि आम तौर पर होता है घरवालों की सख्त हिदायत थी कि लड़का आईआईटी करे , इंजिनियर बने और लड़के की जिद थी कि चाहे जो हो जाए कलाकार बनूंगा। अंततः अजय की जिद  पूरी हुई और उन्होंने 1991 में एम एस विश्वविद्यालय बडौ़दा में दाखिला लिया। वहां से उन्होंने 1995 में पेंटिग से स्नातक और 1997 में छापा कला से स्नातकोत्तर किया |

कला और दुनिया

विज्ञान और तकनीक के मामले में मनुष्य ने असीम ऊँचाई को छुआ है । राजनीतिक तौर पर वह लोकतंत्र के दौर से गुजर रहा है। जंगलयुग से अभी तक के सफर में उसने मनुष्‍य होने की हर कोशिश की है। लेकिन कभी कभी मनुष्य के अंदर बैठा हुआ पशु , दरिंदगी की सभी हदों को पार कर जाता है। भयानक दंगे और आतंकवादी हमले शायद यही साबित करते हैं। मनुष्‍यता को शर्मसार करने वाली ये भयानक घटनाएं अजय शर्मा को गहरे तौर पर दुःख पहुँचाती हैं। अजय शर्मा बताते हैं कि ” मैं हमेशा किसी ठोस विषय पर काम करता हूँ। विषय के रुप में कभी खुद मेरी अनुभूतियां होती हैं या फिर दुनिया में घटित कोई बड़ी अमानवीय घटनाएं । “

 

लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि वीभत्स घटनाओं पर अजय तत्काल कोई प्रतिक्रिया जैसा नहीं देते हैं। घटना के बहुत बाद में , कभी-कभी कई सालों के बाद उस घटना पर पूरी जांच पड़ताल के बाद , उसके पूरे निहितार्थ के साथ उसे रुपायित करते हैं।  इसके उदाहरण के तौर पर उनके दो काम को देखा जा सकता है। जैसे 2002 के गुजरात दंगे को केंद्रित कर उन्होंने 2009 में पेंटिग बनाई। इसी तरह 9/11 नाम से 2001 के बहुचर्चित आतंकवादी हमले पर भी 2009 में उन्होंने पेंटिग बनाई।

अजय शर्मा कहते हैं ” किसी घटना पर मैं तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं देता , ना ही मैं सिर्फ सूचना देता हूँ। मैं पत्रकार नहीं हूँ।  मैं चित्रकार हूँ | “

 

 

अजय पेंटिग बनाने में जल्दबाजी नहीं करते। वे बनाते हैं तो महीनों तक बनाते हैं | कभी-कभी तो साल भी लग जाते हैं | वे विषय की अन्तर्वस्तु को पूरी तरह आत्मसात करते हैं और उसे कैनवास पर सम्पूर्णता से उतारते हैं। जब तक चित्र उनकी अपेक्षा के अनुरुप नहीं हो जाता वे आगे नहीं बढ़ते। उस पर काम करते रहते हैं , वे समय के चक्कर में नहीं पड़ते। एक ही चित्र पर लम्बे समय तक काम करने से थोड़े बहुत दृश्यात्मक बदलाव होते हैं , घटना के दुष्परिणाम और बदली हुई परिस्थिति के साथ नये तत्व जुड़ते हैं लेकिन उसकी वैचारिकी नहीं बदलती ।यह एक तरह से उनका रचनात्मक कौशल भी है और बौद्धिक स्पष्टता भी |

समकालीन दौर में आम तौर पर वेगवान गति का चलन है | दो चार घंटे में पेंटिग बना देने का दौर है | हुसैन और सूजा का समय है | काइनेटिक व मोशन आर्ट का दौर है , एक्शन आर्ट का दौर है सच कहें तो पॉप आर्ट और ओप ऑप आर्ट का जमाना है | सब कुछ फास्ट फास्ट है। एकदम फटा फट के अंदाज में | कौन रज़ा की तरह ध्यान लगाये | लगा भी ले अगर विषय अध्यात्म का हो तो | पल पल बदलते घटनाक्रम के दौर में , पल पल बदलती हुई दुनिया में , ठहर कर सोचता कौन है | एक तरह से एक्सीडेन्टल इफेक्ट्स के जमाने में , पंद्रहवीं सदी की चित्रणपद्धति को लेकर इक्कीसवीं सदी की कला की वैचारिकी गढ़ने की कोशिश अजय शर्मा की कला को असाधारण बनाता है। यह वाक्य थोडा़ आलोचनात्मक लग सकता है लेकिन यह सच है। उनकी गति कुछ ज्यादा ही धीमी है।

दूसरी तरह से देखा जाए तो अजय शर्मा की खासियत यह है कि वे भले ही वह कम रच पा रहे हों , उनकी रफ्तार भले धीमी हो , वे कुछ ज्यादा ही समय लेते हों लेकिन , वे जो कुछ भी रचते हैं अर्थपूर्ण और महत्वपूर्ण रचते हैं। उनकी रचनाएं निरर्थक नहीं होती। आक्रोश , उन्माद , शोक उनकी रचनाओं पर हावी नहीं होते। वे जो करते हैं सोच समझ कर करते हैं। रचनाशीलता की धरातल पर ऐसे कलाकार आज न के बराबर हैं। खास कर इस तरह की घटनाओं पर रचना करते हुए तो उन्मादी हो जाने का खतरा बहुत अधिक होता है। न्याय प्रिय आदमी भी आज बापू की तरह अहिंसक विरोध करने का धैर्य कहां रखता है ?

तकनीकी प्रदर्शन के दौर में सारगर्भित शिल्प

रचनाशीलता की धरातल पर देखें तो अजय शर्मा की कलाकृतियां उत्साहजनक इस मायने में है कि वे यर्थार्थ से एक बहुचर्चित इमेज को लेकर कलाकृतियों में इस तरह से पिरोते हैं कि कलाकृतियां महत्वपूर्ण हो जाती है। वे एक गजब का शिल्प रचते हैं | बहुचर्चित इमेज को बिल्कुल एक अलग खाने में रखकर उसके चारो तरफ कल्‍पनाशील आकृतियों का ऐसा संयोजन वही कर सकता है जिसका रचनात्मक आत्मविश्वास बहुत मजबूत हो क्योंकि इस तरह के प्रयोग में उस बहुचर्चित इमेज के हावी हो जाने का खतरा अत्याधिक रहता है।  लेकिन अजय शर्मा अधिकांशतः उसे हावी नहीं होने देते बल्कि उसे सम्प्रेषण का औजार बना देते हैं।

एक उदाहरण के तौर पर उनकी कलाकृति ‘ पोट्रेट ऑफ वान गॉग विद सनफ्लावर ‘ को देखा जा सकता है | इस कलाकृति में वे , वानगॉग की विश्वविख्यात कलाकृति , सनफ्लावर का इमेज पेंट करते हैं। उसमें एक तरफ गोल घेरे में वान गॉग का पाइप है। एक तरफ पिकासो का पोट्रेट है और ऊपर की तरफ एन्डी वारहोल का पोट्रट है।  यहां वान गॉग का पोट्रेट न होते हुए भी , वे अपने रचनात्मक आवेग के साथ मौजूद हैं | पिकासो और एन्डी वारहोल , यहां बस इसलिए हैं कि कलाकार ने अपनी रचनाशीलता की अदालत में उन्हें तलब किया है। आज हम सब जानते हैं कि वान गॉग की रचनात्मक प्रतिभा , किसी मायने में कम नहीं थी |

प्रदर्शन प्रिय जमाने में प्रयोगधर्मिता का दिखावा या तकनीकी चमत्कार का प्रदर्शन , उनके यहां नहीं है | वे समान्यतः मिश्रित माध्यम को अपनाते है | ( जिसमें जलरंग , ऐक्रेलिक , मोम आदि होते हैं ) | वे तकनीक का अपना व्याकरण गढ़ते हैं | रंग समान्यतः अपारदर्शक होते हैं , वे रंगों के मोटे स्तर का इस्तेमाल करते हैं | एक ही पेंटिग के किसी हिस्से में रंगत चटख तथा विरोधी होते हैं तथा दूसरे हिस्से में लयात्मक व कोमल तान में नजर आते है। इसके बावजूद सम्पूर्णता मे एक अद्भुत लय और ताल होता है। एकदम परिपक्व वर्णयोजना का इस्तेमाल उनकी कलाकृतियों में दिखता है। मतलब की विरोधी और लयात्मक वर्णयोजना , दोनों का इस्तेमाल एक साथ देखने को मिलता है। ऐसा आम तौर पर नहीं होता। कोई बहुत धैर्यवान और सुलझा हुआ रचनाकार ही इस तरह का तकनीकी प्रयोग कर सकता है। तकनीकी और शिल्प का इस तरह का प्रयोग अजय शर्मा की खास प्रतिभा को परिलक्षित करते हैं।

कला की चुनौती और जीवन का संघर्ष

किसी भी कलाकार को एक साथ दो मोर्चे पर संघर्ष करना होता है | एक तो रोजी रोटी के लिए , दूसरा अपनी कला की स्थापना के लिए | एक बेरोजगारी भरे दौर में , यह संघर्ष कलाकार के लिए , थोडा़ ज्यादा संघर्ष पूर्ण इसलिए हो जाता है कि लगभग एक दशक की कला साधना के दौरान , वह दुनियादारी से पूरी तरह कट जाता है। उसके बाद उम्र भर उसमें फिट नहीं हो पाता | पक्की नौकरी तो ऐसे ही न के बराबर है , समाजिक प्राणी के तौर पर अव्यवहारिक हो चुके कलाकार को नौकरी कहाँ मिलेगी। कुछ अस्थाई नौकरी मिलती भी है तो कुछ ऐसी कि या तो नौकरी करिए या कला करिए। एकदम निचोड़ कर रख देने वाली।

एक कलाकार के लिए लगातार काम करते रहना ही खर्चीला और चुनौतीपूर्ण होता है। अपनी रचना की स्थापना के लिए दो चार प्रदर्शनी और कार्यक्रम के बाद तो लगभग असंभव सा ही हो जाता है। जनता में कोई कला अभिरुचि का न होना और बदतर अकादमिक स्थिति इसे और दयनीय बना देते हैं। ऐसी स्थिति में जो भी रचनाकार अपनी शर्तों पर रचनाशील हैं उनकी कलात्‍मक जिजीविषा पर गौर किया जाना चाहिए |

अजय शर्मा की कलाकृतियों पर गौर करते हुए यह कहा जा सकता है कि वे भी अपनी कलात्‍मक जिजीविषा को विस्तार देने के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं  लेकिन यह कोशिशें सैकड़ों कलाकारों से अलग इस मायने में है कि उनके चित्रों का विषय मानवीय है और वह सत्ता प्रायोजित सौंदर्य प्रतिमान के विरुद्ध है। अजय शर्मा आदमी के दुखः तकलीफ से प्रभावित होते हैं , सत्ता के छल छद्म को बखूबी समझते हैं और उसे विधिवत अपनी कला में दर्ज करते हैं | पाश्विक वृति और मानवीय वृति का संघर्ष उनके अधिकतर कलाकृतियों में देखा जा सकता है | एक तरह से अपनी रचना के जरिए अजय शर्मा एक नया सौंदर्य प्रतिमान गढ़ते हैं , यह अजय शर्मा को खास बनाता है।

उनकी कलाकृतियों में मौजूद साफगोई कमाल का है। यह साफगोई दृश्यात्मक स्तर पर भी है और वैचारिक स्तर पर भी है। मानव आकृति , पशु पक्षी की आकृति या किसी वस्तु की आकृति का जितना विविधता पूर्ण इस्तेमाल अजय करते हैं वैसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। वे पेंटिग के एक एक हिस्से पर पूरे मनोयोग से काम करते हैं। अजय शर्मा जैसे साधक रचनाकार को देखते हुए यह जरुर कहा जा सकता है कि समकालीन भारतीय कला का यह भी एक महत्वपूर्ण पक्ष है जिस पर गौर किया जाना चाहिए ।

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