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महारानी (वेब सीरिज) : आप एजेंडा वाला सिनेमा बना सकते हैं, चला नहीं सकते..

वह एक ऐसी उत्तराधिकारी थी, जो राजनीति की बारहखड़ी तो छोड़ दीजिए, ओलम भी नहीं जानती थी। बिहार का एक मुख्यमंत्री उसे सिर्फ इसलिए अपना उत्तराधिकारी बना देता है, क्योंकि वह चारा घोटाला में फंस चुका है और उस पर मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने का नैतिक दबाव है। ऐसे में राजनीति की शतरंज पर वह कौन सी गोटी फिट करे कि ठीक समय आने पर वह उसे हटाकर फिर से मुख्यमंत्री बन जाए। उसका ख्याल था कि पत्नी एक ऐसी ‘गाय’ है, जिसे अगर मुख्यमंत्री बना दिया जाए तो मुख्यमंत्री न रहते हुए भी वही मुख्यमंत्री बना रहेगा। अपने विधायकों की नाराजगी के बीच वह एक अनट्रेंड तो छोड़िए, राजनीति में सिरे से अरुचि रखने वाली पत्नी को जिस तरह मुख्यमंत्री बनाता है, वह लोकतंत्र की नहीं, राजशाही की मिसाल है। यह महारानी बनाने जैसा ही है। …और शायद इसी बात से फिल्मकार सुभाष कपूर को इस वेब सीरिज का नाम ‘महारानी’ रखने का आइडिया आया हो।

28 मई को यह वेब सीरिज सोनी लिव के ओटीटी प्लैटफॉर्म पर रिलीज हुई, तो देशभर में पसंद तो की ही गई, क्रिटिकली भी बहुत सराही गई। ऐसा जान पड़ता था कि यह वेब सीरिज लालू प्रसाद यादव की छवि को सुधारने का उपक्रम हो सकती है, लेकिन जिस ईमानदारी से सुभाष कपूर और सीरिज के डायरेक्टर करन शर्मा ने इसे बयान किया है, उससे यह अंदाजा गलत साबित हुआ। इस सीरिज के लेखन से सुभाष कपूर, नंदन सिंह और उमाशंकर सिंह जैसे वे लोग जुड़े हैं, जो न सिर्फ समाज और राजनीति में जातिवाद की जड़ों को समझते हैं, बल्कि लैंगिक गैरबराबरी को भी जानते-बूझते हैं। वेब सीरिज बनाने वाले भले इस बात का दावा करते हैं कि इसके मुख्य किरदारों का ताल्लुक राबड़ी देवी और लालू प्रसाद यादव से नहीं है, लेकिन समय और स्थान देखें तो यह दावा महज कुछ रचनात्मक छूट लेने के लिए किया गया लगता है। इसके उन्वान ‘महारानी’ से जान पड़ता है कि किसी खास समय में किसी सूबे के रिजीम को यूं देखना एक आलोचनात्मक नजरिया है। यह अलग बात है कि इस सीरिज की महारानी अपने राजनैतिक सफर में उन तमाम अंदेशों को ध्वस्त करती जाती है, जो उसको लेकर लगाए गए थे। सीरिज के मुख्यमंत्री भीमा भारती और पार्टी व विपक्ष के नेताओं ने रानी भारती को राजनीतिक शतरंज का प्यादा समझा था, लेकिन वह ‘महारानी’ निकली। बेशक वह पढ़ी-लिखी नहीं है, लेकिन इतनी चेतनशील है कि स्त्री के तौर पर जब उसे कमतर समझा जाता है, तो वह इसका न सिर्फ विरोध करती है बल्कि अपनी तरह से सबक भी सिखाती है। फिर इस राह में विपक्ष के नेता हों, उसका अपना मंत्रिमंडल हो या उसका पति भीमा भारती ही क्यों न हो। वह विधान सभा को ‘मर्दों की सभा’ कहने का तब साहस रखती है, जब उसके अपने मंत्रिमंडल के ज्यादातर लोग उसकी खिल्ली उड़ाते हैं.

सुभाष कपूर और उमाशंकर सिंह को इस बात के लिए बधाई दी जानी चाहिए कि समाज में जातिवाद और स्त्री विरोधी नजरिये को वे रानी भारती के मार्फत बहुत सामान्य सी बातों में भी उजागर करते चलते हैं। नवीन कुमार का किरदार नीतीश कुमार से मेल खाता है। वे विपक्ष के नेता हैं और जब विधान सभा में रानी भारती के अनपढ़ होने की बात उठाते हैं तो इसके जवाब में रानी भारती की बात को बहुत गौर से सुना जाना चाहिए। यहां रानी भारती हिंदुस्तान भर की हाशिए पर मौजूद औरतों की आवाज बन जाती हैं। वे यहां जातिवाद और स्त्री विरोधी दोनों नजरियों को एकसाथ बयान करती हैं, लेकिन बहुत अंडरटोन होकर। इस अंडरटोन को फिल्म मेकिंग में आने वाले नए लोगों को गौर से देखना-समझना चाहिए। देखना चाहिए कि एक अनट्रेंड, अनपढ़ लेकिन चेतनशील स्त्री किस तरह बात करती है। यह भी देखना चाहिए कि मुख्यमंत्री होने के बावजूद पिछड़ी जाति के भीमा भारती का कॉन्फिडेंस ऊंची जाति के विधायक और विपक्ष के नेता नवीन कुमार के मुकाबले कहीं कम है। जेंडर और कास्ट पर हिंदी की दो सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों की बात करें तो वे क्रमश: ‘थप्पड़’ और ‘आर्टिकल 15’ हैं। ये दोनों फिल्में अनुभव सिन्हा की हैं। थप्पड़ की नायिका बहुत पढ़ी-लिखी और ‘ऊंची जाति’ से है। वह विमर्शों को समझ सकती है और आवाज उठा सकती है। थप्पड़ में दो वर्गों की स्त्रियां दिखाई गई हैं। दूसरी हाउस हेल्पर है, जो संभवत: ‘नीची जाति’ से है। जेंडर की बात आती है तो जाति के मामले में दोनों स्त्रियां ग़ालिबन एक जैसी हैं। थप्पड़ और महारानी में जेंडर को लेकर जो अलग बात है वह ये कि थप्पड़ में एक स्त्रीवादी विमर्श है। वहां बहुत कुछ कहना पड़ा है, जबकि महारानी में डायलॉग की बहुत जरूरत नहीं पड़ी है। यहां हालात कुछ इस तरह से दिखाए गए हैं कि ‘पीड़ित’ को कहने की जरूरत नहीं पड़ती। पूरे समाज का जो पर्सेप्शन है स्त्री को लेकर वह झांकता रहता है, उघड़ता रहता है- नायकों, अनायकों और मीडिया सबके द्वारा। जाति को लेकर भी यह ऐसे ही है। सिस्टम में जाति किस तरह से काम करती है। इसे गहराई से महसूस करने के लिए महारानी सीरिज में राज्यपाल की भूमिका निभाने वाले गोवर्धन दास को देखा जाना चाहिए। अतुल तिवारी ने इस भूमिका को संवादों से कहीं ज्यादा बॉडी लैंग्वेज से जिया है। वे एक बड़े अभिनेता हैं। डीआईजी के किरदार से भी सिस्टम में जाति को देखा जा सकता है। यहां भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे लेखक विभूति नारायण राय की बहुत महत्वपूर्ण किताब ‘भारतीय पुलिस तथा सांप्रदायिक दंगे’ याद आ जाती है। इस किताब में विभूति नारायण राय बताते हैं कि दंगों के दौरान पुलिस किस तरह पुलिस न रहकर हिंदू या मुसलमान बन जाती है।


महारानी के बहाने हिंदुस्तानी राजनीति में हाशिए की उस आवाज को सुनाया गया है, जिसके टेंटुए में ढाई किलो का पत्थर बांधकर लटकाया जाता रहा और जिसे भारतीय संविधान की कैंची काटती चलती है। एक सूबे के बहाने एक ऐसा मुल्क दिखाया गया है, जिसके संविधान और जिसके समाज में अंतरिक्ष-सी दूरी है।

जहां मीडिया हाशिए की आवाज को या तो उठाता नहीं है, या फिर उस आवाज को मसखरा बना देता है। याद कीजिए लालू प्रसाद यादव की मसखरेपन की छवि कैसे बनाई गई होगी। यहां किसी के सही-गलत पर बात न करें तब मायावती और हाशिए की ऐसी तमाम आवाजों की मजाकिया छवि को याद कीजिए। नफरत और घोर सांप्रदायिक आवाज होने के बावजूद योगी आदित्यनाथ की मीडिया छवि एक मजबूत नेता की बनाई जाती है।

इस वेब सीरिज में रानी भारती का किरदार हुमा कुरैशी ने निभाया है। वे एक बेहतर अदाकारा हैं और यहां बहुत सहज लगी हैं। विनीत कुमार बहुत मंझे हुए अदाकार हैं। उन्होंने गौरी शंकर पांडेय का किरदार बहुत संजीदगी से निभाया है। इसके अलावा दो बहुत जरूरी किरदार हैं। इनमें एक किरदार परवेज आलम का है, जिसे इनामुल हक ने निभाया है और दूसरा भीमा भारती का है, जिसे सोहम शाह ने निभाया है। इन दोनों अदाकारों के सिनेमाई सफर पर नजर जरूर डालनी चाहिए। महारानी में इनामुल हक एक ईमानदार आईएएस अफसर हैं, जो बंगाली हैं। इस किरदार में वे अपनी उम्र से कहीं अधिक लगे हैं। इस लगने को उनके चलने और बोलने के ढंग में भी देखा जा सकता है। उनकी बंगाली सुनकर कोई नहीं कह सकता कि वे बंगाली नहीं हैं। वे जुबान को अदायगी का सबसे मजबूत हथियार बना देते हैं। यह बात उन्हें सिर्फ महारानी में देखकर ही नहीं, सुभाष कपूर की एक दूसरी फिल्म ‘जॉली एलएलबी 2’ और नितिन कक्कड़ की ‘फिल्मिस्तान’ में देखकर भी कही जा सकती है, जहां वे एक कश्मीरी का किरदार निभाते हैं। जॉली एलएलबी 2 के इकबाल कादरी को देखकर लगता है जैसे यह ऐक्टर कश्मीर में ही पैदा हुआ होगा। वहीं राजा कृष्णा मेनन की ‘एयरलिफ्ट’ में ईरानी मेजर और ज़ैग़म इमाम की फिल्म ‘नक्काश’ का अल्लाह रक्खा सिद्दीकी ऐसे किरदार हैं, जो अपनी जुबान और बॉडी लैंग्वेज से बता देते हैं कि वे इस समय के हिंदुस्तानी सिनेमा की अदाकारी में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप हैं।

 

हिंदुस्तानी सिनेमा में जिस तरह से इरफान खान पर बहुत देर से ध्यान दिया गया, उसी तरह अभी इनामुल हक पर ध्यान कम है। मरहूम इरफान यह साबित कर चुके हैं कि वे न सिर्फ हिंदी और हिंदुस्तानी सिनेमा के बड़े नाम हैं, बल्कि विश्व सेनेमा में एक खास मुकाम रखते हैं। अगर सोहम शाह की बात करें तो वे हिंदुस्तानी सिनेमा की उम्मीद कहे जा सकते हैं। वे मैथड एक्टिंग में भरोसा करते हैं और किरदारों को सच्चा बनाने के लिए उनकी आदतों को अपनाते लगते हैं। आनंद गांधी की फिल्म ‘शिप ऑफ थीसियस’ और राही अनिल बार्वे की फिल्म ‘तुम्बाड’ में उनकी अदाकारी तो शानदार है ही, इन दोनों फिल्मों के वे प्रोड्यूसर भी हैं। शिप ऑफ थीसियस के लिए उन्हें नैशनल अवॉर्ड भी मिला है। तुम्बाड में उन्हें देखना किसी जादू को देखने जैसा है।

एक आखिरी बात
एक आखिरी और जरूरी बात यह कि सिनेमा में झूठे लोग भी सच्ची बात सुनना चाहते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पसंद करने वाले करोड़ों लोग हैं, बावजूद इसके उनकी छवि को महामानव की छवि में बदलने के लिए बनाई गई अजेंडा फिल्म ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ नहीं चली। 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले रिलीज की गई इस फिल्म को उन लोगों ने भी नहीं पूछा, जो दिन-रात उनका नाम लेते हैं। इसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि बिगाड़ने के लिए विजय रत्नाकर गुट्टे ने ‘द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ बनाई। मजे की बात यह कि यह फिल्म भी नहीं चली। सिनेमा में भक्त भी सच बात सुनना चाहता है।

 

तसवीरें:  गूगल से साभार

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