समकालीन जनमत
सिनेमा

लाभ-लोभ की प्रवृत्ति पर जीवन की सहज वृत्ति को स्थापित करती है मणि कौल की ‘दुविधा’

(महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्मों पर  टिप्पणी के क्रम में आज प्रस्तुत है मशहूर निर्देशक मणि कौल की दुविधा । समकालीन जनमत केेे लिए मुकेश आनंद द्वारा लिखी जा रही सिनेमा श्रृंखला की नवीं क़िस्त.-सं)


दुविधा (1973) मणि कौल की ‘उसकी रोटी’ के बाद दूसरी फिल्म है। फ़िल्म विजयदान देथा की लोककथा पर आधारित रचना या पुनर्रचना ‘दुविधा’ पर आधारित है। पटकथा लेखन मणि कौल का है। निर्देशक की रचना-दृष्टि यथार्थवादी है पर इसके प्रति वैसा अतिवादी आग्रह नहीं है जैसा ‘उसकी रोटी’ में था। कहानी बताने में रुचि ली गई है। बात को दर्शकों तक पूरी तरह सम्प्रेषित करने के लिए नरेटर की योजना की गई है। बहुत सम्भव है कि उक्त दोनों फिल्मों में आया दृष्टिगत फर्क, दोनों फिल्मों में ली गई कथाओं में निहित  प्रकृतिगत अंतर के कारण आया हो।
उसकी रोटी मोहन राकेश की कहानी पर आधारित है। स्पष्ट है कि इस फ़िल्म का कथा-आधार परिष्कृत या शिष्ट साहित्य है। जबकि ‘दुविधा’ लोक कथा पर आधारित है। लोक कथाओं में कथा कहने का आग्रह प्रमुख होता है।इस तरह देखें तो मणि कौल ने दोनों फिल्मों में कहानी के अनुकूल रचना-दृष्टि अपनाया जो उचित है।
दुविधा‘ फ़िल्म में पार्श्व संगीत का प्रयोग किया गया है पर सीमित मात्रा में। इसके अतिरिक्त दृश्य के अनुरूप विविध ध्वनियों का प्रयोग है। खास बात यह कि संगीत राजस्थानी लोक संगीतकारों ने दिया है। लोक कथा के साथ लोक संगीत का प्रयोग वह आदिम प्रभाव पैदा करना में सफल हुआ है जिसकी कामना मणि कौल और विजयदान देथा ने की होगी। उल्लेखनीय है कि विजयदान देथा फ़िल्म-निर्माण से गहराई से जुड़े थे। कहानी तो उनकी है ही फ़िल्म की शूटिंग भी उनके गाँव बोरुंडा,जनपद-जोधपुर में की गई थी।इस तरह दृश्य, संगीत, कथा और संवाद   सभी स्तरों पर राजस्थानी लोक-जीवन को फ़िल्म में उतार दर्शक के समक्ष प्रस्तुत कर दिया गया है।
फ़िल्म की कहानी लच्छी (रायसा पदमसी) और किशन लाल (रवि मेनन) की है। लच्छी का विवाह सम्भ्रांत मारवाड़ी व्यापारी के पुत्र किशन लाल से होता है। विदाई के समय नरेटर उसके मनोभावों को बताता है। उसे माँ-बाप, सहेलियों, भाई-भतीजों, तालाब का किनारा, गीत, गुड्डे-गुड्डी सब याद आते हैं। वह सोचती है-“माँ की कोख में समा गई पर बाबुल के आंगन में नहीं समा पाई।”
नवविवाहित लच्छी को पुरानी सारी यादों से पति का प्यार उबार सकता था। किंतु विदाई के रास्ते में ही संकेत मिलने लगता है कि उसे निराशा हाथ लगेगी। उसका मन रास्ते के पेड़ों पे लगे ढालू (बेर) पर लपकता है। किशन लाल इसे गंवारों का फल बतलाता है। वह किशन से बात करना चाहती है जबकि किशन लाल पूरे मनोयोग से विवाह के खर्चे का हिसाब बिठाने में लगा रहता है। इस स्थिति पर नरेटर कहता है-“कुदरत के हिसाब में भूल की गुंजाइश नहीं तो बनिये के बही में कैसे होगी।”
जो संकेत रास्ते में मिले थे वे घर पहुँचकर पराकाष्ठा पर पहुँचते हैं। किशन लाल बताता है कि दो दिन में वह व्यापार के लिए दिशावर (परदेश) जाएगा, पाँच साल के लिए। उसके अनुसार व्यापार के लिए जाने का ऐसा शुभ मुहूर्त अगले सात साल तक नहीं आएगा। अब चूंकि दो दिन में व्यापार के लिए निकलना है तो महज दो दिन के लिए शरीर की आग को क्या जलाना! किशन लाल लच्छी को समझाते हैं कि पाँच वर्ष का वक़्त पलक झपकते निकल जायेगा।
इस बिंदु पर एक प्रासंगिक तुलना इसी कहानी पर अमोल पालेकर निर्देशित पहेली फ़िल्म से बनती है। ‘पहेली’ फ़िल्म में नायक ढालू खाने के लिए और दिशावर जाने के लिए बाबूजी के नाम का उल्लेख करता है, जबकि सुहागरात को सहवास न करने के लिए माँ की सलाह का उल्लेख करता है।
ऊपर से मामूली दिखते यह फर्क अपने निहितार्थ में गम्भीर हैं। मारवाड़ी समाज के भारत में व्यापारिक विस्फोट का समय मुख्यतया 18वीं और 19वीं शताब्दी है। वे इसी कालखण्ड में राजस्थान से लेकर बंगाल-आसाम तक फैल गए और खूब फले-फूले। फ़िल्म में कहानी के काल का उल्लेख कहीं नहीं है लेकिन इसकी कालिक पृष्ठभूमि यही प्रतीत होती है।
17 वीं शती में मुगल बादशाह शाहजहां ने भवन-निर्माण में सर्पिल मेहराबों का प्रथम प्रयोग किया था। चलन के अनुरूप अगली शतियों में भारतीय अभिजात्य वर्ग ने इसे अपनाया। किशन लाल के घर के मेहराब ऐसे ही हैं। वास्तु कला की इस सूक्ष्मता का ख़याल पहेली में नहीं रखा गया है, यद्यपि सेट की भव्यता कहीं ज्यादा है। मुगल काल में भारत आया इतालवी व्यापारी वर्नियर बताता है कि भारतीय व्यापारी अपने पुत्रों को बहुत कम उम्र में व्यापार में दक्ष बना देते थे। यह दक्षता किशन लाल में दिखती है। पहेली के नायक के सम्बंध में लगता है कि वह माँ और अपने लालची बाप के प्रभाव में निर्णय ले रहा है। इस तरह वह लोभ-लालच जो मारवाड़ी समाज की वर्गगत विशेषता है वह ‘पहेली’ फ़िल्म मेंं निर्देशक की असावधानी और व्यावसायिकता के दबाव से नायक की व्यक्तिगत विशेषता बन जाती है। इसका नकारात्मक प्रभाव कथा और फ़िल्म द्वारा दिये गए गम्भीर और साहसिक सन्देश पर पड़ता है।
अब अगर व्यापक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो किशन लाल उन भारतीय पुरुषों की श्रृंखला में अपना नाम जोड़ लेता है जो आध्यात्मिक या राजनीतिक या व्यापारिक उन्नति के लिए प्रेम और काम को ठुकराते हुए; पत्नी को पतन का द्वार मानते हुए गृह त्याग कर देते हैं। इस तरह ‘दुविधा’ में भारतीय संस्कृति की एक शाश्वत समस्या को उठाया गया है। लेकिन समस्या को देखने का तरीका शास्त्रीय नहीं बल्कि लोकवादी है। यह दृष्टि उस आधुनिक विवेक से भी भिन्न नजरिया प्रस्तुत करती है जिससे आधुनिक काल में राधा, यशोधरा और उर्मिला आदि को देखा गया।
लच्छी के विदाई के रास्ते में पड़ने वाले पीपल का भूत उसकी उभरती जवानी पर मोहित होकर मूर्छित हो गया था। जब उसने किशन लाल को विवाह के तुरंत बाद परदेस जाते देखा तो मानुष भेष में भेद जानना चाहा कि भैया कंकन डोरे भी नहीं खुले कहाँ निकल दिये? किशन लाल ने बताया कि कंकन डोरे तो दिसावर में भी खुल जाएंगे लेकिन व्यापार का ऐसा अवसर निकल गया तो अगले सात साल नहीं आएगा। भूत किशन लाल का भेष रखकर लच्छी के घर आ जाता है। किशन लाल के पिता को किसी महात्मा के आशीर्वाद से प्रतिदिन पांच मुहरों के लालच में फंसा लेता है। लेकिन खास बात यह है कि भूत लच्छी को सबकुछ सच-सच बता देता है। लच्छी कहती है कि उसे समझ नहीं आ रहा कि यह जानना अच्छा हुआ या न जानना अच्छा होता। सहज इच्छाओं और प्रचलित नैतिक बोध के बीच यह लच्छी की दुविधा है। और सबकुछ जानकर उसका भूत के साथ रहना, सहवास करना और पुत्री को जन्म देना शास्त्र विहित मान्यताओं पर सहज वृत्तियों की विजय है।
स्त्री महज भोग्या नहीं बल्कि भोग की इच्छा से युक्त मानवी है, यह लच्छी के निर्णय से स्थापित होता है। स्त्री की ऐसी सहज वृत्तियों को पंचतंत्र की कहानियों में भी रेखांकित किया गया है। इस बिंदु पर अगर हम अपनी सांस्कृतिक विरासत का सिंहावलोकन करें तो हमारी निगाह में गंधर्व विवाह, गणिकाओं और अप्सराओं की कथाएँ, कामसूत्र, खजुराहो, गाथासप्तशती, गीत-गोविंद, विद्यापति, राधा-कृष्ण और अर्धनारीश्वर के मिथक आदि सामने आते हैं। वर्तमान स्थितियों पर दृष्टिपात करें तो आभास होता है कि किस प्रकार संगठित अभियान द्वारा राम-सीता की कथा को एकमात्र भारतीय संस्कृति की पहचान बना देने का अभियान ब्राह्मणवाद पोषित शक्तियाँ कर रही हैं। यह ताकतें खासतौर पर स्त्री के प्रेम और सेक्स के अधिकार को लेकर उग्र हैं।
प्रवासी किशन लाल अपनी पत्नी के गर्भ धारण की खबर पाकर वापस लौटता है। उसका पिता पगड़ी बचाने के चक्कर मे उसकी बात नहीं सुनता। समाज के दबाव में मामला राजा के दरबार की ओर चलता है। किंतु रास्ते मे गड़रिये के न्याय से भूत पकड़ा जाता है और उसे एक छागल में कैद कर कुएं में डाल दिया जाता है।आखिरी दृश्य में भूत किशन लाल से कहता है: “व्यापार और कमाई से ज्यादा मुझे मोह और प्रीत जरूरी लगती है।” वह अर्थगर्भित बात कहता है: “पावन बेदी की दुहाई सारी उम्र नहीं चलती।” इस तरह फ़िल्म लाभ-लोभ की प्रवृत्ति पर जीवन की सहज वृत्ति को स्थापित करती है।”

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