समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

‘ गाँवों के चेहरों से नूर चुरा लेती हैं बंदूकें, माएं बिलखती हैं जवान बेटों के जनाज़े देखकर ’

 

अमित ओहलान

 

चौबर दे चेहरे उत्ते नूर दसदा

नि ऐदा उठुगा जवानी च्च जनाज़ा मिठिये.”

जिस घर में जवान मौत हो जाए वो घर फिर घर कहाँ रहता है. हमने आपसी रंजिशों, सड़क दुर्घटनाओं, राजनैतिक षड्यंत्रों और गैंग वार में पता नहीं कितने जवान खो दिए हैं. और जिस देश में जवानों और उनके सपनों का जनाजा हर रोज उठता हो वहां एक पॉपुलर गायक-गीतकार की मौत के क्या मायने रह जाते हैं ? जिस देश में भूख से बदहाल जनता है वहां एक व्यक्ति की हत्या की कीमत क्या होगी ? क्यों इस देश में राजनीति भी कंपनियों की तरह विज्ञापन के सहारे चलने लगी है ? और क्यों जवान आदमी पहले से कह रहा है कि वह तो भरी जवानी में ही दुनिया से चला जाएगा ? सिर्फ़ कुछ सवाल हैं जिनके जवाब ढूँढने की जरूरत है. वैसे भी गैर बराबर समाज में शोहरत दो-धारी तलवार की तरह होती है, इसके एक तरफ लोगों का प्यार और पैसों का संसार है तो दूजी तरफ नफ़रत और जलनखोर बदले हैं.

यहाँ सबसे ऊपर जो पंक्ति इस्तेमाल हुई है, सिद्धू मूसेवाला के गाने ‘लास्ट राइड’ की पंक्ति है, जिसे दो हफ़्ते पहले यूट्यूब पर अपलोड किया गया था. इस पर कल रात तक दस मिलियन व्यूज़ और पैंसठ हज़ार से ज्यादा कमेंट थे. जाहिर है अब बढ़ चुके होंगे. इन आंकड़ों से हम शुभदीप सिंह सिद्धू यानी सिद्धू मूसेवाला के कद को समझ सकते हैं. अगर आप जानना चाहें तो सिद्धू मूसेवाला के बारे में सारी जानकारी गूगल पर मौजूद है. कैसे मूसा गाँव, जिला मानसा का शुभदीप सिंह सिद्धू पढ़ाई करते हुए पंजाब का सबसे बड़ा स्टार गायक बन गया. वह जीते जी लीजेंड बना और मरकर कई सवाल हमारे हिस्से छोड़ गया.

अपने गानों में आक्रामकता और जिद्द पेश करते हुए वह न सिर्फ पंजाब बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छा गया. यूट्यूब और इन्स्टाग्राम के समय में लाखों करोड़ों युवा उसके मुरीद बन गए और ‘टिब्बियाँ दे पूत’, ‘एचएमटी 5911’ के बारे में बात करने लगे. बढ़ते हुए फैन बेस और माँ के सरपंची चुनाव में प्रचार करते हुए वह कांग्रेस में शामिल हो पाया और उसे आम आदमी पार्टी के उस कैंडिडेट ने हरा दिया जिसे एक प्रतिशत कमीशन रिश्वत लेने के बदले जेल जाना था. यह भी हमारे दौर की सच्चाई है कि जरूरी और गैर जरूरी आवेश में उबलते युवा, राजनीति के माहिर खिलाड़ियों से बार-बार हार रहे हैं.

सिद्धू की लोकप्रियता का आलम अगर देखना है तो उसके गानों के व्यूज एक बार फिर से नोट करिए. पंजाब हरियाणा से बाहर भारत के दुसरे राज्यों, पाकिस्तान, कनाडा, अमेरिका, इंग्लॅण्ड, इटली और ऑस्ट्रेलिया में बार-बार सुने जाने वाले मूसेवाला ने संगीत की दुनिया में मूसा गाँव और मानसा जिले को नयी पहचान दी. लेकिन इस पहचान और शोहरत में कुछ ऐसा था जो सिद्धू मूसेवाला को असमय मौत दे गया.

 वह 20 मई 2022 की डूबती शाम तक पंजाबी गायकों की लिस्ट में सबसे ऊपर था. यह उसकी जिद्द थी जो उस लड़के ने खुद को लीजेंड कहा और उसके प्रशंसकों ने उसे लिजेंड मान भी लिया. सिर्फ़ छ-सात साल के सफ़र में 28 साल के लड़के ने उस शिखर को छुआ जहाँ पहुँचने की ललक हर गायक, संगीतकार में होती होगी. और मौत से ऐसी दोस्ती की मरने से चंद रोज पहले गा रहा था, जिसका हिंदी तर्जुमा कुछ ऐसा हो सकता है – गबरू के चेहरे का नूर बता रहा है कि इसका जनाजा जवानी में ही उठेगा.

शिव बटालवी ने कभी कहा था – ‘असां ते जोबन रुत ते मरना’. जवानी में मरने का जुनून संगीत से जुड़े लोगों में कुछ ज्यादा ही रहा है. कुछ ने ड्रग्स लेकर आत्महत्या की तो किसी को गोली मार दी गयी. सिद्धू मूसेवाला अमेरिका के मशहूर रैपर टुपैक शकूर से खासे प्रभावित थे. उन्हीं के रैप सुनकर जिद्द पाले बैठे मूसेवाला की हत्या भी टुपैक शकूर की हत्या की दुहराव जैसी लगती है.

सवाल ये है कि एक 28 साल के जवान आदमी को क्यों मरना पड़ा? आखिर उसकी हत्या क्यों की गयी? क्या एक जवान आदमी राजनीति और सांस्कृतिक हिंसा की भेंट चढ़ गया? या इसे केवल गैंग वार कहकर पल्ला झाड़ लिया जाएगा?

मार्च 2022 में संदीप नंगल अंबिया नाम के कबड्डी खिलाड़ी की हत्या हुई थी. हो सकता है देश के दूसरे हिस्सों में रहने वाले लोग उसके बारे में ना जानते हों लेकिन संदीप बड़ी कबड्डी का बड़ा खिलाड़ी था और पंजाब में जाना पहचाना नाम था. कल शुभदीप सिंह सिद्धू यानी सिद्धू मूसेवाला की भी हत्या हुई. और समझदार लोग चिंता करने लगे की पंजाब का काला अध्याय फिर से ना खुल जाए. वैसे भी अस्सी और नब्बे का दशक कोई बहुत पुरानी बात नहीं है.

एक बुरे वक़्त को भूलने की कोशिश करते पंजाबियों को चमकीला और अवतार सिंह पाश की हत्या फिर से याद आई. चमकीला 28 की उम्र में मारा गया था और पाश 38 की उम्र में. कारण चाहे जो भी रहे हों, उन्हें दोहराने की जरूरत नहीं है. लेकिन हमें उन हजारों युवाओं की याद भी आई जो आज भी गायब हैं या जिनके फेक एनकाउंटर हुए थे. आज बात जेहन में पुरानी हत्याओं, सरकारी दमन, धार्मिक और जातीय कट्टरवाद के कारण बढती अशांति की है.

जानने वाले जानते हैं कि पंजाब विधानसभा से पहले ही अस्थिर पंजाब का डर बढ़ने लगा था. उसके बाद लगातार हत्याएं बढ़ी, दीप सिद्धू के साथ हुई दुर्घटना में साजिश की बू आने लगी और 29 मई 2022 को करोड़ों युवाओं के चहेते गायक-गीतकार सिद्धू मूसेवाला पर 30 राउंड फायरिंग हुई. देखते ही देखते सिद्धू के चाहने वालों में हत्या की ख़बर का असर होने लगा. और सीधे सीधे पंजाब सरकार की बचकानी हरकतों को इस हत्याकांड से जोड़ कर देखा जाने लगा. रात तक पुलिस ने कह दिया कि यह गैंग वार है. जिस गैंग वार से सिद्धू की हत्या को जोड़ा जा रहा है उसकी हिस्से में और भी कई हत्याएं हैं.

हत्या की जिम्मेदारी लारेंस बिश्नोई गैंग और कनाडा में बैठे गोल्डी बराड़ ने ली है. सोशल मीडिया पर बयान दिए जा रहे हैं जिन्हें पुलिस सुबूत की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही है. क्या यह कोई धर्म युद्ध था जो जिम्मेदारी ली जा रही है? जिम्मेदारी लेने वाला ग्रुप हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और राजस्थान में सक्रिय रहता है. इस गैंग का सरदार तिहाड़ में बंद है. हत्या में जिम्मेदारी लेने वाला दूसरा शख्स कनाडा बैठा है. लोग कह रहे हैं कि लारेंस बिश्नोई गैंग और गोल्डी बराड़ द्वारा कई दिन से सिद्धू की जासूसी हो रही थी. हत्या करने वाले मौका ढूंढ रहे थे और जैसे ही उन्होंने सिद्धू को बिना सरकारी सिक्यूरिटी और बिना बुलेट प्रूफ कार के देखा, उस पर गोलियां बरसा दी. अब एक सवाल आम आदमी पार्टी सरकार पर भी उठता है कि आखिर उन्होंने सिद्धू मूसेवाला की सिक्यूरिटी कम क्यों की, कम की तो उसका विज्ञापन क्यों किया. और अगर विज्ञापन दे रहे थे तो क्या आपने ये मान लिया था कि पंजाब में सरे-राह गोलियों से किसी को मारा नहीं जा सकता? एक पक्ष ये भी कहता है कि सरकार का काम गैंगस्टर कल्चर को सुरक्षा देना नहीं है.

असल में सवाल ये है कि गैंगस्टर कल्चर पनपें नहीं इसके लिए सरकारें क्या करती हैं? सुना है लारेंस बिश्नोई ग्रुप में पांच-सात सौ बन्दे हैं, जो शूटर का काम करते हैं. क्या यह आम बात है? ऐसे ही कितने जवान लड़के अन्य गैंग में भी शामिल होंगे. और ऐसे कितने ही गैंग भारत में सक्रिय होंगे. जब ये पांच-सात सौ बन्दे एक के कहने पर दुसरे की हत्या कर रहे होते हैं, तब पुलिस क्या कर रही होती है? गैंगस्टर कल्चर को सरकारी शह प्राप्त होती है, यह सब जानते हैं. उगाही, किडनैपिंग, हत्या और डराने धमकाने का काम गैंगस्टर से करवाया जाता है, इसके लिए राजनेता अपने झक सफ़ेद कपडे मैले नहीं करते.

सिद्धू की हत्या से सरकार सबक ले ना ले लेकिन हमें सबक लेने की जरूरत है. पिछले दिनों हरियाणा के अखाड़ों में गोली चलने और हत्या की वारदातों ने हमें झंझोड़ दिया था. कुछ ही दिन पहले रोहतक में एक गायिका की हत्या कर दी गयी थी. देश का नामी पहलवान, ओलिंपिक पदक विजेता सुशील तक जेल में बंद है. लोग मूर्खों की तरह फेसबुक लाइव आकर एक दुसरे को गालियाँ और मारने की धमकी देते हैं. ये कौन सी संस्कृति है? हरियाणा, पंजाब की यह संस्कृति तो नहीं है. इसके अलावा मौजूदा राजनैतिक पार्टियों और नेताओं पर एक आरोप लगता है. उन पर आरोप लगता है कि वे जवानी के जोश का इस्तेमाल अपने राजनैतिक फायदे के लिए कर रहे हैं. इससे किसानी जातियों से सम्बन्ध रखने वाले युवाओं में आपराधिक कल्चर बढ़ रहा है. इन किसान युवाओं के रोल मॉडल ज्यादातर खिलाड़ी और लोकल कलाकार होते हैं. और इसी कारण से खिलाड़ियों और कलाकारों की शोहरत का इस्तेमाल जिस हिसाब से हो रहा है, यह चिंताजनक है.

आज सत्ता में शामिल राजनैतिक पार्टियों इस कद्र कम्पनी नुमा हो गयी हैं कि उन्हें सिर्फ पोस्टर चिपकाने आते हैं. भगवंत मान की सरकार ने उन सब लोगों की लिस्ट शेयर की थी जिनकी सिक्यूरिटी या तो हटाई गयी थी या कम की गयी थी. यह एक ऐसा बचकाना फैसला था जिसके लिए भगवंत मान, केजरीवाल और आम आदमी पार्टी हमेशा विपक्ष के निशाने पर रहेगी. विज्ञापन करने की ऐसी ललक तो स्मार्टफ़ोन, नमक और साबुन बेचने वाली कम्पनियों में होती है. जैसे उनके लिए ग्राहक सिर्फ नंबर होते हैं, वैसे ही वोटर भी अब संख्या ही बनकर रह गए हैं. आज हर अप्रिय घटना को किसी न किसी वोटबैंक से जोड़ने को स्वीकार्यता नेताओं से चलकर वोटरों में घर कर गयी है. और ऐसा भी नहीं है कि आम आदमी पार्टी इस तरह की हरकतों में अकेली है, दूसरे राजनैतिक दल भी पीछे नहीं हैं. पंजाब के बारे में हर समझदार आदमी आशंका व्यक्त कर रहा था. हिंसा होने की पूरी सम्भावना थी और आगे भी रहेगी. पटियाला के दंगे हों या अलग- अलग गैंग की आपसी रंजिश, ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है. लेकिन इसकी शुरुआत विधानसभा चुनावों से पहले हो गयी थी. अब पंजाब सरकार से बस इतनी सी दरख्वास्त है कि पंजाब में फिर से ख़ूनी खेल न शुरू होने दें.

सिद्धू मूसेवाला की हत्या एक ऐसी गैर जरूरी हत्या थी जिसे हर कीमत पर रोका जाना चाहिए था. लेकिन अब हमारे हिस्से अफ़सोस और सबक ही हैं. पुलिस और सरकारी तंत्र इस सबक का किस तरह इस्तेमाल करेगा, इसके बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता. लेकिन हमारे पास यह जानने का मौका जरूर है कि सिद्धू मूसेवाला के पॉपुलर होने का कारण क्या हैं, और क्यों सिद्धू के पॉपुलर होने में भी एक सबक छूपा हुआ है.

2018 की एक शाम थी, मैं सोनीपत में एक जिम में था तब मैंने पहली बार सिद्धू मूसेवाला का गाना ‘सो हाई’ सुना. पहली बार गीत के बोल समझ नहीं आए लेकिन वर्जिश करने में मदद मिली. दूसरी बार एक दूकान में सुना तो मैंने सामने खड़े लड़के से इस गाने के बारे में पूछा. उसने कहा था – “मैं इस गाने को कई दिन से रिपीट पर रिपीट बजाये जा रहा हूँ. ग़जब का गाना है. अलग ही लेवल का नशा है.” इसके बाद बहुत बार ऐसा हुआ कि मैंने भी सिद्धू मूसेवाला के गाने बार-बार सुने. उसके गाने में रोंगटे खड़े करने लायक नशा होता है – यह सच है. हो सकता है क्लासिक सुनने के शौक़ीन कानों को सिद्धू के गानों में शोर और हिंसा ही दिखायी दे. लेकिन ज्यादातर लोगों का जीवन शास्त्रीय संगीत की मधुर धुन पर नहीं बल्कि समस्याओं के शोर शराबे में ही बीतता है. शब्दों के दोहराव और भावनाओं के अतिरेक से भरे हिंदी फिल्मों के गानों से युवा उकताए हुए थे. देश में बिगड़ते माहौल के बीच युवाओं की जरूरतों में एक किस्म का स्पेस बन गया. सिद्धू मूसेवाला और उसके जैसे गायकों ने इसी स्पेस को अपनी जिद्द से भर दिया.

हम सबके भीतर कोई कातिल छुपा होता है, हिंसा और प्रतिहिंसा की आग हर उस व्यक्ति के भीतर सुलगती है – जिसे गुस्सा आता है, जिसमें आगे बढ़ने की जिद्द होती है लेकिन उसके पास रास्ते नहीं होते. उनको सिद्धू मूसेवाला का बार-बार अपने विरोधियों को चैलेंज करना भा गया. सिद्धू ने जो गीत लिखे उसके बाद गन कल्चर नहीं आया था, गन कल्चर था, लोगों की हत्याएं होती थी, माओं के पूत भरी जवानी में मार दिए जाते थे. सिद्धू मूसेवाला गन कल्चर का बाय प्रोडक्ट था जिसके हिस्से में पिंड से जुड़ी भावनाएं और अमेरिका की रैप संस्कृति थी.

इसमें कोई शक नहीं कि सिद्धू मूसेवाला के पास टैलेंट था. मुझे यकीन है अगर उसे फडकती नब्ज़ के बारे में भी लिखने के लिए कहा जाता तो वो लिख देता. लेकिन उसके गाने सुनते हुए आप अंधे नहीं हो सकते. आप गानों के वीडियों में लहराई गयी गन को लहरा नहीं सकते. आप किसी को नीचा दिखाने के लिए, गोलियां बरसाने के लिए के गीत नहीं जोड़ सकते. सबसे पहले आपके दिमाग में सवाल उभरेगा – आखिर सिद्धू मूसेवाला किसको चैलेंज कर रहा है? वह किसे चेतावनी देना चाहता है ? वह गैंगस्टा रैप का ऐसा किरदार था जिसने बहुत कम समय में सुपर हिट गानों की ऐसी आंधी चलायी जिससे पंजाब हरियाणा के हलकों से बाहर जाकर युवाहों का मन मोह लिया.

ऐसा क्यों हुआ ?

हम उस बदनसीब समय में जवानी खर्च रहे हैं जिसके हिस्से में झूठे वादे, नौकरी की अस्थिरता, किश्तों के बोझ और अपने ही देश में जड़ों से कटाव का दंश है. हमारे पास फिल्मों के फिक्शनल किरदार और सोशल मीडिया की निर्मम दुनिया है. ऐसे में सिद्धू के शब्द – चिल्ल भी है, फन भी है, गन भी है, लव भी है, आपको अपने लपेटे में ले लेते हैं. आप इससे बचोगे तो कहीं ऐसे ही किसी दुसरे पॉपुलर चेहरे की ओर जाओगे. क्योंकि दम तोड़ते सपनों की नींद से लुढ़क कर किसी स्टार के बोल दोहराना हम बेरोजगारों की नियति है. हम अहिंसा की बात करते हुए गुस्से और अज्ञानता में उफनते रहते हैं.

सिद्धू के भीतर जो गुस्सा था, एक जवान आदमी का गुस्सा था. उसने अपना गुस्सा अपने गीतों में उतार दिया. जाहिर है उस पर गन कल्चर बढाने के आरोप लगे, लगने ही थे. हम क्यों ऐसे गाने बनाये जिनमें ए के 47 का जिक्र हो? अपने एक गाने में सिद्धू कहते हैं कि ए के 47 उसकी निगरानी करती है. और इन्हीं बंदूकों ने उसकी जान ले ली, पुलिस कहती है सिद्धू की हत्या में कम से कम तीन तरह की गन का इस्तेमाल हुआ. गन कल्चर को बढ़ावा देने के मामले में पुलिस केस झेल रहे सिद्धू पर कई तरफ से हमले हुए. उसने गैर जरूरी ‘रिवेंज’ गाने लिखे. संजय दत्त जैसे किरदार को सेलिब्रेट किया. अब सिर्फ़ उसके गाने नहीं रह गए हैं, रह गया है एक ऐसा लीजेंड जिसे भविष्य में इस्तेमाल किया जाना है – अच्छे या बुरे के लिए. लोग उसके गानों को लेकर उसकी आलोचना करेंगे. वे कहेंगे आखिर क्यों गन, बन्दूक, ग्लोक शब्दों का इस्तेमाल किया गया. जट्ट ब्रांड बनाने के पीछे आखिर उसका मकसद क्या था. इसके लिए हमें मुंबई फिल्म इंडस्ट्री की फिल्मों, वेब शो को देख लेना चाहिए. जहाँ जाति के हिसाब से किरदार तय होते हैं और जी भरकर हिंसा करते हैं. हमें अपने गिरेबान में भी झाँक लेना चाहिए क्योंकि भारत में रहने वाले हर नागरिक की एक जाति है. हम सभी जातिवाद से पोषित संस्कृति का हिस्सा हैं जिसके केंद्र में सबकी अपनी एक जाति है. इसके लिए हमें सिद्धू मूसेवाला से हिसाब लेने की जरूरत नहीं है, जवाब हमारे मन में, हमारे घर की दहलीज़ के भीतर है.

इस मशहूर गायक-गीतकार की हत्या से न सिर्फ़ उनके चाहने वाले बल्कि राजनैतिक विश्लेषक भी स्तब्ध हैं. फौरी तौर पर पंजाब पुलिस ने इसे गैंगवार कह दिया हो, शायद हो भी लेकिन गहराई से देखें तो इस हत्याकांड की जड़ में राजनीति और सांस्कृतिक अवनति की झलक मिलेगी. बेवकूफी भरे फैसले और सत्ता पोषित विज्ञापन मिलेगा. लोगों में गुस्से का उबाल और बेरहम मीम कल्चर मिलेगा.

आज सत्ता पोषित मीडिया और सोशल मीडिया मसखरों के इस दौर में हत्या की ख़बर कितने दिन टिकेगी ? क्या पता इस हत्या की आड़ में कोई खेल चल रहा हो, जनता अब किसी भी अप्रिय घटना को एक एंगल से नहीं देखती. उसका विश्वास गुम हो गया है. हो सकता है, अब इस घटना के राजनैतिक  लाभ लिए जायेंगे और एक माँ अपने बेटे की याद में रोती रहेगी. यह हमारा डर है, पंजाब के पास ऐसी हजारों कहानियां हैं जिनमें माएं अपने बेटों का इंतज़ार करती रह गयी लेकिन वे कभी नहीं आए. आज पंजाब को शांति की जरूरत है, रंग बिरंगे पंजाब को गन कल्चर का लोभ क्यों होगा.

सिद्धू मूसेवाला चला गया है लेकिन हमारे लिए एक ऐसा सबक छोड़ गया है जिसे पहचानने में भलाई है. सिद्धू का एक मशहूर गाना है – 295. यहाँ वे भारतीय दंड सहिंता की धारा 295 की बात करते हैं. इस गाने में सिद्धू कहते हैं – नित कंट्रोवर्सी क्रिएट मिलुगी, धर्मा दे नाम ते डिबेट मिलुगी, सच बोलुगा ता मिलु 295, जे करेगा तरक्की पूत हेट मिलुगी. इस गाने को सुना जाना चाहिए. यहाँ भारत के सामाजिक बिखराव, मीडिया की हरकतों और राजनीति के कमीनेपन का जिक्र है.

हम सिद्धू मूसेवाला से सहमत या असहमत होने के लिए आज़ाद हैं. लीजेंड घोषित हुआ लड़का अब फिर से कोई गीत पेश नहीं कर पायेगा. आप कह सकते हैं कि सिद्धू की जोशीली कलम गन और जाति की भड़काऊ कहानी कह रही थी. आप मान सकते हैं कि गैंगस्टर कल्चर के गीत जोड़ते-गाते वह उसी कल्चर के लिए खाद बन गया. लेकिन जाते-जाते आप सिद्धू की कलम का कुछ कमाल देख लीजिये. आखिर टैलेंट की कद्र होनी चाहिए, और हमें उन शब्दों पर जरूर गौर करना चाहिए जो युवा पीढ़ी के दिल में उतर गए. इन शब्दों की सफलता अलग से शोध की मांग करती है. सिर्फ़ असहमति में सिर हिलाने से काम नहीं चलता, और न अंधे होकर अनुसरण करने की राह अच्छी होती है. हमें उन कारणों को खोजना होगा जब सिद्धू मूसेवाला जैसा कलाकार लाखों के दिलों में उतरता है, उसकी आलोचना होती है लेकिन लोग उसको सुनते हैं. आख़िर हम इतने नाराज़ क्यों हैं जो पिंड की ठंडी हवा के बीच झगड़े और षड्यंत्र खोजते हैं. शांत रहना बेहद बेहद जरूरी है क्योंकि ना तो अभी सिद्धू की कलम की स्याही खत्म हुई थी और ना ही उसके लहू की धार पोंछी गयी है.

और अंत में कुछ पंक्तियाँ सिद्धू मूसेवाला के गीत ‘ जस्ट लिसन’ से –

“मेरी माँ मेरा रब जिहदी कोख होया पैदा

ओहने जिंदगी जियोण दा सिखाया इको कैदा

जित्थे तेरी पुत्तरा जमीर मुक गई

हो मर जावीं उत्थे कोई ज्योण दा नहीं फैदा

 

तां ही दल्ले सौदेबाजाँ ना कलाम नईयो मेरी

किसी ऐरे गैरे बंदे नू सलाम नईयो मेरी

जिन्हा चिर लिखुगी ए सच लिखुगी

होरा वांगु कलम गुलाम नईयो मेरी”

(अमित ओहलान कवि एवं कथाकार हैं)

Fearlessly expressing peoples opinion