समकालीन जनमत
कविता

पंखुरी सिन्हा की कविताएँ: तबाही के बरख़िलाफ़ स्मृतियों की पुकार

विपिन चौधरी


जब कोई कविता, संसार के किसी भी शहर के भीतर बसी सामूहिक स्मृतियों के साथ उस शहर के इतिहास और वहाँ के सामाजिक परिवेश को परखते हुए अपने अनुभवों के घने संसार में प्रवेश करते हुए पाठकों को उस अनजाने, अनदेखे परदेशी स्थान से इस तरह परिचित करवाती है कि उन्हें वह जगह या शहर अपना चिरपरिचित शहर या स्थान जैसा ही लगने लगे तो वह एक सार्थक कविता मानी जा सकती है.
लगातार खतरे में बने रहने वाले हंगरी में अपने प्रिय दिवंगत कवि को याद करती यह कविता, महीन संवेदनाओं और युद्ध की संभावनाओं के बीच उपस्थितः होकर कवि का अपना स्पेस रचने देते हुए यह इंगित करती है कि हर शहर के मील के पत्थर कवि के भीतर मौजूद मेमोरी पॉइंट्स से कहीं न कहीं जुड़े हुए हैं तभी हर टुरिस्ट डेस्टिनेशन को देखने के साथ कवि की अपनी स्मृतियां भी वाचाल हो उठती हैं.

कवयित्री ने शहरों पर लिखी इन दो कविताओं ( मंगलेश की जो याद करते हुए और लाल छतों के शहर में ) में शहर के स्पंदन को अपनी सहज वृति से पहचानने की सफ़ल कोशिश की है. मानना होगा कि यह सहज वृति ही पंखुरी की काव्य-कला के करीब सबसे वास्तविक चीज़ है.

हिन्दी की चर्चित कवयित्री पंखुरी सिन्हा की कविताएँ अक्सर वैश्विक स्तर पर आक्रांत करने वाले घटनाक्रमों में मनुष्यता के क्षरण होने की केन्द्रीय भावना को प्रस्तुत करती हैं.

कोरोना महामारी ने कुछ हद तक प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंध के व्यापक संदर्भों को चर्चा के केंद्र में लाने का काम किया है. आम जनता के बीच वैश्विक महामारी के प्रभावों को समझने के लिए नए तरह के ज्ञान की जरूरत भी महसूस की जा रही है.

पंखुरी की कविता ‘कोरोना लहर के बाद दिल्ली’ वैश्विक महामारी के बाद उपजी जीवन परिस्थितियों की बानगी पेश करती है जहाँ मनुष्य के भीतर की आद्रता के खत्म होने और अकेलेपन की त्रासदी की ओर इशारा किया गया है. हैरत की बात नहीं कि इस महामारी से उपज़े इतने संतापों और इतनी असमय की मौतों को हम भूल गए हैं. सोशल डिस्टेंसिंग का अभिप्राय सामाजिक दूरी न होकर मन से मन की दूरी हो गया है जिसके चलते इंसानी संबंधों के बीच इतने अधिक फासले हो गए कि किसी जरूरतमंद की पुकार हमें सुनाई देनी बंद हो गई. इंसान पहले से अधिक आत्मकेंद्रित और स्वार्थी हो गया है. मन से दूरी बढ़ी मगर चारों तरफ की भीड़, आपाधापी, चिलम पौ, दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ की स्थिति आज भी पहले जैसी ही है. महामारी की भयवाहता अब हमारी स्मृतियों का हिस्सा नहीं है. पोस्ट कोरोना काल का सत्य यही है,
“कोई स्मृति नहीं थी
मृत्यु के झंझावात की
न कहीं धब्बे थे खून के
न कोई गंध उसकी शेष थी !

महानगर ने पहले वाली रफ़तार पकड़ ली है मगर अब वह किसी से गले नहीं मिलता दूर से ही नमस्ते करता है. यही कारण है कि यह महानगर अपना होते हुए भी पराया जान पड़ता है. अब यह शक, यकीन में बदल गया है कि शायद इस महानगर की असली पहचान इसका अज़नबीपन ही है.

कविता ‘‘कई शहरों का रग़ों में दौड़ना’ इंसान के भीतरी मौसम पर उंगली रखती है. जो संसार भर की संस्कृतियों का गवाह बनने के बाद भी अपने आप में किसी तरह के बदलाव के लिए बेचैन नहीं दिखाई देता. इस मन को तबदीली से परहेज है, वह अपने भीतर के उन विचारों पर चिंतन करने में ही व्यस्त है जो अक्सर आपस में ही उलझे रहते हैं. कभी पूर्व की स्थापनाओं तो कभी अपनी सोच पर संदेह करते हैं. पूरी उम्र अपने भीतर के स्व से लड़ता भिड़ता, अनेक सभ्यताओं, संस्कृतियों से गुज़रता इंसान, जीवन के अंत तक अपने देखे-समझे को समाहित करने की कोशिश करता है मगर कभी भी इतना नया नहीं हो पाता कि अपने विरासत से मिले हुए मूल्यों से पूरी तरह से मुक्ति पाकर एकदम नया स्वरूप धारण कर सके. इसीलिए हर जागरूक मनुष्य के भीतर की जद्दोजहद चलती रहती है कविता भी अंत में इसी निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि,

केवल सबसे अच्छी ऊँची शिक्षा तलाश लेने से
नहीं तय होता, व्यक्ति के भीतर का समय
न यह कि वह एक से ज़्यादा समय देख और जी पा रहा है या नहीं
जो दुनिया की किसी घड़ी में नही बिक रहा
बदलाव का समय
सबका अपना है लगभग
अगर है
और कई तरहों का एक साथ!

‘ग्राउंड जीरो’ शीर्षक से ललिखी गई कविता,मन की संघनता को खोलने की कोशिश करते हुए बतलाती है कि जब कोई स्थान आपके मन का स्थायी हिस्सा बन जाता है तो आपके मन को वहीं से खुराक मिलती है. अपने पूरे साज़ों-सामान के साथ आपकी सारी स्मृतियाँ वहीं पर अपना बसेरा बना लेती हैं. वह जगह किसी प्रेमी की तरह आपके हृदय के करीब रहने लगती है.

पिछले दो सालों में हमने ऐसे घर वापसी के ऐसे दृश्य देखे जिन्हें देखने के लिए हमारी आँखें अभ्यस्त नहीं थी. हड़बड़ी में अपने ठिकाने की ओर लौटते कामगार लोग इसीलिए झटपटा रहे क्योंकि उनका गाँव उनका कस्बा उनके मन की ठौर थी और और वे अपनी मिट्टी अपने ठौर अपने हृदय से दूर नहीं होना चाहते थे, ठीक इसी तरह यह कविता भी यही कह रही है,

कुछ इस तरह धडक रहा है
यह शहर मेरे भीतर
कि न लौटी तो न बचूँगी

अमेरिका की सहायक नदी, एलीकट क्रीक की स्मृतियाँ एक बार फिर कवयित्री को आवाज़ दे रही हैं. पोस्ट कोविड सिन्ड्रोम के उच्छवास से कोसों दूर जाकर जीवन को एक बार शिद्दत से जी लेने की कामना इस कविता में है.

पंखुरी की इन कविताओं में प्राकृतिक अंसतुलन के बीच मनुष्य के परंपरागत संस्कारों के बीच के अंतर्द्वंद को बखूबी दर्शाती हैं, और इसी उद्देश्य से ये कविताएँ लिखी भी गई हैं.

 

पंखुरी सिन्हा की कविताएँ

1. मंगलेश जी को याद करते

बुदापैश्त? सबसे पहले याद आती है
मंगलेश जी की आवाज़
लेती हुई इस शहर का नाम!

शुक्रिया मंगलेश जी, आपकी चिट्ठी
ने पहुंचाया मुझे यहाँ!

वह नदी जिसके बारे में इतना पढ़ा और जिसके नाम पर
रखे गए इतने पासवर्ड!

अब तो हर कहीं अपने ही
कागज़ों में घुसने के लिए
चाहिए होते हैं पासवर्ड!

किनारे खड़े उसी नदी के
देखते आते जाते जहाज़
याद हैं इतिहास की किताबों
के कितने पन्ने!
जर्मनी के ब्लैक फॉरेस्ट जंगल से
चलकर, कितनी किमवदन्तियों को
जन्म देती, कितनी लोक कथाओं
से जुड़ती, यूरोप के कितने महा नगरों से गुज़रती, बुदापेश्त को
अब भी साफ़ दो टुकड़ों में
बाँट देती है, दोनो शहरों को
जोड़ देने के बाद!
सैलानियों, अद्धेताओं की
सहूलियत के लिए!
चलते डएन्युब किनारे
साथ साथ भी उसके
आगे आ जाता है
यूरोप का समूचा मानचित्र !

दिख जाती है नदी की
समूची यात्रा!
मन होता है साथ चल दूँ
नदी के, यहाँ से ब्रातिस्लावा तक!
फिर मुड़कर दौचलैंड!

उद्गम और मुहाने के
किस्सों से लुभाती
ये देखिये, कितनी सुंदर
दिख रही है बुदापैश्त के
अनेकों पुलों के ऊपर से!

सामने धीर गंभीर खड़ा है
हंगरी का पार्लियामेंट!
जाने क्या बहसें चल रही हों
यहाँ ! एक बार फिर
युद्ध रत है यह प्रायद्वीप!

और किन अन्दरूनी
मामलों की चल रही हो
फरियाद ! कितने मसले हैं
ठीक हमारे आगे!

क्या दिन दहाड़े नशे में धुत्त
ये सब जिप्सी हैं? रोमा लोग?

यह इतना चमकीला
साफ़ दिन इस सुन्दर देश का
क्यों बेगाना जान पड़ रहा
इन्हें?

रात में भी जगमग होती है
डएन्युब! एक के बाद
दूसरे पुल की बत्तियों से
आलोकित!

और रौशनी में नहाया
पार्लियामेंट!

हर कदम दौड़ता, रात भर गुलज़ार
थक कर एक झपकी तक नहीं लेता
यह पर्यटकों का शहर! ताज़े खिले फूल के गुच्छों सा मिलता है
सुबह शाम! जिसे सवांरते दिखते हैं
केवल मूल निवासी नहीं!

कहाँ से लाता है इतनी सब ऊर्जा
यह शहर, जिसकी पहाडियों पर
खुदे हैं, पेड़ों के साथ साथ
न जाने कितने रूप मरियम के!

हे कवि श्रेष्ठ! काश हो पाती
एक और बातचीत आप के
साथ इस शहर पर!

 

 

2. लाल छतों के शहर में

इतना खूबसूरत है दरअसल
बाहर का नज़ारा नहींं
हर कुछ आम, आम चीज़ें
खास कुछ भी नहीं
खिड़की से नज़र आती हुई
बाहर की दुनिया बस!

खिड़की के आगे झुकती हुई
आलिशान सी लाल खपरैल
की सी छत, जैसे सदियों से
कोई वास्तु शिल्पी बना रहा हो
घरों की छतें, बेहतर से बेहतर
जिनमें रहते हों लोग , अपने रोज़
बड़े होते सपनों, हौसलों और जज़्बों के साथ, और जिस छत की ढलान से शुरु होती हो एक दूसरी छत की
उठान! छत का अमूमन दिखता
लाल, भी नहीं होता
जैसे सुग्गे के ओठ का लाल
जैसे लाल त्युलिप के फूल का!
ईंट के दो आधा टुकड़ों के बीच
का सा रंग?

जिससे बनते हैं दुनिया के
सब मंसूबों के घर!
हर कहीं! कहीं कहीं बदले में लाल के दुरंगी, तिरंगी हो जाती हैं छतें
जैसे कलाकार को अभी अभी
मिली हो अनेक रंगो की कूचियाँ!

पहाड़ के हर कटाव , हर घुमाव पर
हैं, वही लाल टीन की छतें!

केसर और गेरू में नहाए हुए शहर
किस प्रेमी का कर रहे हैं
इन्तज़ार?

क्या कहते निर्मल वर्मा
अगर लिख भेजती उन्हें
बचकाना सा यह सवाल?

कितनी तेज़ी से बदल रहा है समय
और विरले ही बचा पाते हैं
कोई अंदाज़!

भीतर देखो, कहती थीं, प्राचीन भारतीय इतिहास की प्राध्यापिका, भीतर ही देखने को
कब से कह रहे हैं बुद्ध और
ईसा मसीह! दुनिया बाहर नहीं
भीतर से बदलती है!

भीतर है वह ऊर्जा, भीतर ही वह
संकल्प भी, और दुनिया को
अब भी बहुत ज़्यादा बदलने की
ज़रूरत है!

इसलिए नहीं कि एक खुशहाल सी
दुनिया में, मैत्री का हाथ बढ़ाए
यूक्रेन पर पीठ पीछे से कर
दिया है रूस ने हमला!
बल्कि इसलिए कि मैत्री को आतुर
कितने ही बढ़े हुए हाथों को
तोड़ मरोड़ कर, चढाई जा रही है न जाने
कितनों की बलि, ताकत के
किस तख्त को बनाने के लिए
सुरक्षित? आखिर, अब भी केवल
एक मोहरा, एक प्यादा, एक
खतरा है व्यक्ति, मुकम्मल कोई
ईकाई नहीं, जिसका किया जा सके
विश्वास! कमाल है कि आस्था के
बाज़ार में अब भी बोली
व्यक्ति की ही है!

और अब भी, वही हताहत !
फिलहाल, क्षत विक्षत है
एक पूरा देश! सुकरात से लेकर
पाणिनी और आर्य भट्ट तक
तलाश रहे हैं जड़ी बूटियाँ!

हाँ जड़ी बूटियाँ, ऊपर से
क्योंकि गणित की संख्याओं
और व्याकरण के नियमों
से साफ़ हो जाती है
व्यक्ति की बात!

लाल हरे पत्तों के विशाल
वितान तले, साफ़ हो कर
तेज़ हो जाती है व्यक्ति की सांस
तेज़ कदम, तेज़ रफ़्तार हो
जाने के लिये!

और छतों के उठते गिरते आसमान
के ऊपर, प्रेम की बहादुरी सी
तनी खड़ी है चिमनी
खूबसूरत युवती की नाक सी!
वक्ष पर जिसके कितने
नक्काशीदार बेल बूटे!

शहर का इतिहास खुदा है
इसी तरह, जहां तहाँ यहाँ वहाँ!
रुककर देखते चलना
तेज़ रफ़्तार दौड़ती सड़कों पर!
जबकि पूरा शहर लगता है
बाहें फैलाए समेट लेने को आतुर!

( हंगरी, 9/5/22)

 

3. कोरोना लहर के बाद दिल्ली

लेश मात्र भी अफसोस नहीं था
इस शहर को , न शोक का अवकाश!
यदि दुगनी नहीं, तो उसी गति से
दौड़ भाग रहा था यह शहर!
लाल बत्तियों की मिचमिचाहट पर
ब्रेक की मार से रुकता हुआ!
कोई स्मृति नहीं थी
मृत्यु के झंझावात की!
न कहीं धब्बे थे खून के
न कोई गंध उसकी शेष थी!

रास्ता अब भी मांगना पड़ता था
तब भी जब खाली जगह थी
आसपास! कुछ ही बिंदुओं पर
था सारा जन जमाव!

दुकानों पर कंधे से कन्धा मिलाने से
कतराते न थे लोग! कि जैसे इकट्ठा
हो जाना, मुठभेड़ करना हो!

सबकी यादाश्त से जैसे निकल गई थी, सोशल डिसटेंसिंग की बात!
जब कि अखब़ारों में ऑनलाइन ढूँढने
पर , अब भी आँकड़े कुछ सौ के थे!

हाँ, घरों में नहीं आ जा रहे थे
ज़्यादा तर लोग! इस शहर में कौन जाता है किसके घर कितना?

दूरियों का बना यह शहर
जो अपने ढंग का सबसे
आज़ाद है, जिसकी सड़को की अपनी खास कशिश, भटकने का एक अलग
आनंद है उनपर!

हुक्मरानों और सियासती अभिवादनों
का यह शहर,
जो अचानक गले भी मिल लेता है
एक ईमानदार मुस्कुराहट में

यह शहर जो संघर्ष गाथायें
सुनने, सुनाने को हमेशा
खोले होता है अपनी बाहें

जिसकी तंग पेंचीदा गलियों में
जिबह होती हैं बकरियों के साथ
लड़कियाँ, चीखें, मासूम ख्वाइशें
कत्ल होते हैं कितने अरमान
सपने, रास्ते, रिश्ते!

यह शहर जहाँ देश भर से
लाये वृक्ष, मनोहर फूलों में
फूलते हैं साल भर !

और जिसकी हवा अब भी रन्धा रही है, अनगिनत वाहनों के धुएँ से !

यह शहर जहाँ आसमान को
उसके पूरे विस्तार में पहली बार
देखा, सुना, सूंघा मैने
और महसूसी ज़मीन की कराह!

क्या कम धारदार होती है
रोज़ चलती शब्दों की तलवार ?
जिसकी पैनी नोक पर टिका है
गणतंत्र का राज सिंहासन!

यह शहर जहाँ पहली बार लिया
प्यार का चुम्बन मैने
और पहचाना बड़ी पाठशालाओं
का आँगन
यह शहर जो किसी धमनी सा
धड़कता रहा है मेरे भीतर
हर कहीं, विदेश में भी
उस शहर में
इस बार भी घोषित हुई हूँ
बेगानी यात्री ही!

 

 

 

4. कई शहरों का रग़ों में दौड़ना

सम्भव है
और सम्भव है
ख़तरनाक़ भी हो
एक साथ कई शहरों का रग़ों में दौड़ना
कई शहरों के समय का
धमनियों में धड़कना
वो इतना ज़्यादा कहते हैं
और सबकुछ से निजात पा लेने को
ये कैसे सम्भव हैं
यों एक संस्कृति हो जाना
कि वह हमसे बहुत बड़ी हो
और हमें उसमे समाना
पर इतनी बड़ी नहीं
कि ढेरो जगह दे
ये कई शहरों की जगमग को
एक साथ जीना
इसलिए नहीं
कि भुलाना सम्भव नहीं
बस इसलिए कि वह सुंदर है
यह कविता टोरंटो की जिराड स्ट्रीट पर नहीं
जहाँ विदेशी सुरुचि और फूलों में
भारतीय मसालों की सुगंध हो
न यह कविता दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों पर है
जहाँ कोस्मोपोलिटनिस्म बस गया है
बस यह उन अनेकानेक शहरों और मनःस्थितियों के समय पर है
जो किसी घड़ी में नही
जिसे विकास की किसी सारणी में ढूढ़ना भी कठिन है
केवल सबसे अच्छी ऊँची शिक्षा तलाश लेने से
नहीं तय होता, व्यक्ति के भीतर का समय
न यह कि वह एक से ज़्यादा समय देख और जी पा रहा है या नहीं
जो दुनिया की किसी घड़ी में नही बिक रहा
बदलाव का समय
सबका अपना है लगभग
अगर है
और कई तरहों का एक साथ!

 

 

5. ग्राउंड जीरो

9/11/ एलिकट क्रीक/मेरा दिल
कुछ इस तरह धड़क रहा है
यह शहर मेरे भीतर
कि न लौटी तो न बचूँगी!

वह सड़क जिसपर
पहली बार निकल गयी थी
एक दोपहर अकेली
पहली या दूसरी दोपहर
मेरी अकेली
पहुँचने के लिए चलकर कहीं
पैदल, अकेली
कि ज़्यादा आती थी
मिटटी और पत्तों की खुशबू
इस तरह
और खुशबू साथ बहते एलीकट क्रीक की
फॉल का महीना था
उस रंग बदलते मौसम को
पतझड़ कहना कितना गलत है
लाल, कत्थई, गुलाबी, हरे. पीले
पत्तों की चादर पर
चलते चले जाना
और मुड़ जाना

कहीं पहुंचकर
कि अंत हीन था बुलावा
खाली, बाहें फैलाये सडकों का!

किसी पुरानी जिगरी दोस्त सी
फिर से बुला रही है
वही सड़क मुझे
आओ! जी भर कर
भर लो ताज़ी हवा
घुटन भरे अपने फेफड़ों में

बंद हो तीन से भी ज़्यादा
महीनों से
अपने घर के भीतर तुम
जूझती कोरोना संकट से

और मैं भी अपने पेड़ों से घिरी
निपट अकेली!

 

कवयित्री पंखुरी सिन्हा, दो हिंदी कथा संग्रह ज्ञानपीठ से,  5 हिंदी कविता संग्रह, दो अंग्रेजी कविता संग्रह। कई किताबें प्रकाशनाधीन। कई संग्रहों में रचनाएं संकलित हैं, -कविता के लिए राजस्थान पत्रिका का 2016 का पहला पुरस्कार,  कुमुद टिक्कू कथा पुरस्कार 2020, मथुरा कुमार गुंजन स्मृति पुरस्कार 2019, प्रतिलिपि कविता सम्मान 2018, राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड 2013, पहले कहानी संग्रह, ‘कोई भी दिन’ , को 2007 का चित्रा कुमार शैलेश मटियानी सम्मान, ‘कोबरा: गॉड ऐट मर्सी’, डाक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लेखन, जिसे 1998-99 के यू जी सी, फिल्म महोत्सव में, सर्व श्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला, ‘एक नया मौन, एक नया उद्घोष’, कविता पर,1995 का गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, 1993 में, CBSE बोर्ड, कक्षा बारहवीं में, हिंदी में सर्वोच्च अंक पाने के लिए, भारत गौरव सम्मान. अंग्रेजी लेखन के लिए रूस, रोमानिया, इटली, अल्बेनिया और नाइजीरिया, द्वारा सम्मानित, जिसमें चेखोव महोत्सव, याल्टा, क्रीमिया में कविता-कहानी दोनो को मिले पुरस्कार, और इटली में प्रेमियो बेसियो स्पैशल जूरी अवार्ड विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं! अभी अभी, इटली की एक कविता प्रतियोगिता में चौथे कविता संग्रह ‘ओसिल सुबहें’ की एक कविता द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित. कविताओं का देश और दुनिया की चौबीस से अधिक भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है. हंगरी और बुल्गारिया में राइटर इन रेजीडेंस कार्यक्रमो में चयनित, जिसके तहत फिलहाल हंगरी के पेच शहर में हैं और जून में सोफिया बुल्गारिया जा रहीं हैं!

 

टिप्पणीकार विपिन चौधरी समकालीन स्त्री कविता का जाना-माना नाम हैं। वह एक कवयित्री होने के साथ-साथ कथाकार, अनुवादक और फ्रीलांस पत्रकार भी हैं.

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