( वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक नवीन जोशी के प्रकाशित-अप्रकाशित संस्मरणों की श्रृंखला ‘ये चिराग जल रहे हैं’ की पांचवीं क़िस्त में प्रस्तुत है नवीन जोशी के स्कूली मास्टर श्री राम मिश्र उर्फ़ छंगा मास्साब की कहानी . सं.)
बप्पा श्री नारायण वोकेशनल इण्टर कॉलेज, लखनऊ (पूर्व नाम कान्यकुब्ज वोकेशनल कॉलेज) में कक्षा नौ और दस (1969-71) के अपने अध्यापक श्री राम मिश्र उर्फ छंगा मास्साब को मैं अब अक्सर याद करता हूँ. उनका उदाहरण भी दिया करता हूँ. शिक्षक दिवस पर ही उन्हें याद करने का मतलब नहीं होता. आज के शिक्षकों को देखता हूं, उनके बारे में तरह-तरह के किस्से सुनता हूँ और शहर-शहर गली-मुहल्ले खुले कोचिंग सेंटर देखता तो वे बहुत याद आते हैं. उनके प्रति श्रद्धा से मन विनत हो उठता है. मन करता है आज के शिक्षकों, अभिभावकों और छात्रों को बताऊं कि ऐसे भी शिक्षक होते थे.
मैं पहाड़ के सुदूर गांव से पढ़ने के लिए ही लखनऊ लाया गया था. गांव में स्कूल बहुत दूर था और रास्ता खतरनाक. इसीलिए उम्र हो जाने पर भी स्कूल नहीं भेजा गया. यह भी कहा जाता था कि स्कूल के रास्ते में बच्चे बीड़ी के टुर्रे बीन कर पीते हैं और बिगड़ते जाते हैं. रिश्ते में भिनज्यू (फूफा जी) नन्दाबल्लभ तिवाड़ी मुझे घर पर ही पढ़ाते थे. वह हमारी चचेरी बुआ से ब्याहे थे और घर जंवाई के रूप में हमारे ही गांव में रहते थे. नैनीताल में मास्टरी से रिटायर होने के बाद वे गांव आ गये थे और मेरे जैसे कुछ बच्चों को पढ़ाने के अलावा गांव वालों की चिट्ठी-पत्री लिख-पढ़ देते थे.
तिवाड़ी जी बहुत सख्त लेकिन गणित और हिंदी के बहुत बढ़िया मास्टर थे. उनके पढ़ाने की शुरुआत पाटी घोटने के कठिन अभ्यास से शुरू होती थी. आग जलाने के सगड़ पर रखी लोहे की तिपाई से कालिख निकाल कर उसे एक कपड़े से पाटी पर पोतना होता था. सूख जाने पर एक सख्त चिकने पत्थर से उसे देर तक रगड़ना होता था, जब तक कि वह चिकनी चमकदार न हो जाए. कमीज के काज पर हमेशा बंधे रहने वाले ‘रूल’ (डोरी) से उस पर सीधी रेखाएं खींचनी होती थी. इन्हीं रूलों के बीच नरकुल (सेठे) की कलम से लिखना पड़ता था. कलम की नोक की तिरछी खत काटी जाती थी, जिससे अक्षर सुंदर बनते थे.
पाटी ठीक से तैयार न हो या कलम की नोक बढ़िया छिली कटी न हो तो सजा मिलती. सजा में मार नहीं पड़ती थी, बल्कि कान मरोड़े जाते थे. अगर जोड़-गुणा-भाग गलत हो जाए या मात्राएं गलत लग जाएं तो कान इतनी जोर से उमेठते कि तन-मन कांप उठता. तब बहुत गुस्सा आता. देर तक लाल कान देख कर ईजा भी ‘शिबौशिब’ करती लेकिन तिवाड़ी जी को तनिक दया न आती.
मैं अपने पहले शिक्षक तिवाड़ी का ऋणी हूँ. मेरा पढ़ाई की अच्छी नींव और खूबसूरत हस्तलेख उन ही की देन है. उनकी रगड़ाई का ही नतीजा रहा कि जब मुझे 1963 में लखनऊ लाकर स्कूल की भर्ती परीक्षा में बैठाया गया तो प्रधानाचार्य खुश हो गये. बप्पा श्री नारायण बेसिक एवं नर्सरी इंस्टीट्यूट में कक्षा दो की भर्ती परीक्षा दी थी लेकिन तीसरी कक्षा में प्रवेश दे दिया गया. समस्या एक ही थी कि अंग्रेज़ी का ‘ए’ भी आता नहीं था. पहाड़ के स्कूलों में भी दर्जा पांच तक अंग्रेजी की पढ़ाई तब नहीं होती थी. तिवाड़ी जी ने भी नहीं सिखाया था.
लखनऊ लाने की ज़िद चूंकि भाई साहब (पूरन दाज्यू) ने की थी इसलिए मुझे पढ़ाने का ज़िम्मा भी उनका हुआ. वे दफ्तर जाने से पहले सुबह और आने के बाद शाम को बैठाकर मेरी खूब रगड़ाई करते. कंचे-पिन्नी और पतंगबाजी में ज़ल्दी ही उस्ताद हो चुके इस पहाड़ी बालक को उन्होंने अंग्रेज़ी भी सिखाने में कोई कसर नहीं रखी. एबीसीडी तो किसी तरह रट लिये लेकिन शब्द पढ़ना और उच्चारण करना बहुत कठिन जान पढ़ता. भाई साहब भी खूब कान खीचते जिन्हें तिवाड़ी जी ने पहले ही गांव में मरोड़-मरोड़ कर टेढ़ा कर दिया था.
खैर, बाकी विषयों में सर्वाधिक और अंग्रेजी में अनुग्रहांक (ग्रेस मार्क्स) पाकर शुरुआती कक्षाएं पार हुईं. छठी-सातवीं तक अंग्रेजी में पास होने लायक नम्बर भी आने लगे तो कक्षा में दूसरा-तीसरा स्थान मिलने लगा. छठी कक्षा से उसी स्कूल के इण्टर सेक्शन की इमारत में आ गये थे.
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नौवीं कक्षा में अंग्रेज़ी पढ़ाने वाले क्लास टीचर श्री राम मिश्र ने पहले ही दिन क्लास के ‘होशियार’ लड़के से पहला पाठ पढ़कर पूरी क्लास को सुनाने को कहा. ‘वोरल्ड’ (world) और ‘क्नोलेडगे’ (knowledge) जैसे उच्चारण सुन कर उनका दिमाग चकराया. मैं हिंदी की तर्ज़ पर ही अक्षर-अक्षर जोड़ कर अंग्रेजी शब्द पढ़ता था. इन शब्दों से पहले पाला पढ़ा न था. क्लास में खूब हंसी हुई और मास्साब का गुस्सा सातवें आसमान पर. जोर से डांटा ही नहीं.,आठवीं के रिजल्ट पर शंका भी जाहिर कर दी. कहा कि वापस सातवीं कक्षा में जाकर एक साल और पढ़ो. रोने के अलावा और क्या किया जा सकता था!
इण्टरवल में सारा फ्रस्टेशन गेंदताड़ी में उतारा. देह सींकिया थी मगर कबड्डी और खासकर गेंदताड़ी खेलने में बहुत जल्दी उस्ताद हो गया था. सींकिया हाथों से पूरा जोर लगाकर साथियों को ऐसी गेंद चिपकाई कि उनके बदन में लाल-लाल निशान पड़ गये. साथियों ने कहा- ‘अबे बच के रहो, आज जोशी गुस्से में है’.
खेल चल ही रहा था कि ‘जोशी-जोशी’ की पुकार हुई. मैदान के कोने से मास्साब पुकार रहे थे. वही, अंग्रेजी वाले मास्साब. डरते-डरते उनके पास पहुंचा. लगा कि सातवीं कक्षा में भेजे जाने का फरमान सुनाया जाएगा. मगर मास्साब ने प्यार से कहा- ‘मेरे पीछे-पीछे आओ.’ वे एक खाली क्लास में ले गये. सभी विषयों में अव्वल नम्बर लाने वाला लड़का अंग्रेजी में फिसड्डी क्यों है, वे यह जानना चाहते थे. पहले तो मेरा मुंह ही न खुला लेकिन जब उन्होंने प्यार से बार-बार पूछा तो मैंने रो-रो कर सब बता दिया. निवेदन किया कि पिछली क्लास में मत भेजिए, मैं जल्दी ही सीख लूंगा.
मास्साब ने मुझे चुप कराया और कुछ देर तक सोचते रहे. उनकी वह मुद्रा मुझे आज तक याद है. फिर उनका निर्देश मिला कि स्कूल की छुट्टी के बाद फौरन घर नहीं जाना है. रोज क्लास ही में बैठे रहना है.
आशंकाओं से घिरा में छुट्टी की घंटी के बाद भी क्लास में बैठा रहा. थोड़ी देर बाद मास्साब आये. फिर शुरू हुई अंग्रेजी की अतिरिक्त पढ़ाई. हर रोज़ स्कूल की छुट्टी के बाद. मास्साब जिस भी क्लास में पढ़ा रहे होते, छुट्टी की घण्टी के बाद चॉक से सफेद हाथ लिये हमारी क्लास में चले आते. सामने बैठा कर पूरा एक घण्टा मेरी क्लास चलती. अंग्रेजी ग्रामर, वर्ड-मीनिंग, ऑपोजिट, एक्टिव वॉइस-पैसिव वॉइस, डायरेक्ट-इनडाइरेक्ट नरेशन, उच्चारण, वगैरह-वगैरह. कभी-कभी इण्टरवल में भी बुला लेते.
छुट्टी होते ही लड़के चिल्लाते- ‘अबे जोशी, ज़ल्दी भाग, छंगा आ जाएगा.’ इण्टरवल में तो कई दफा मैं भागा भी. कबड्डी और गेंदताड़ी के लिए मेरी हड्डियां हंसती थीं. दोस्तों को भी मेरे बिना मजा न आता. मास्साब को पता था कि हम कहां कबड्डी खेल रहे होंगे या कहां ‘आइस-पाइस’ (यह ‘आई स्पाई’ होता है, प्रौढ़ हो जाने के बाद जाना) चल रही होगी. वे मुझे वहीं से पकड़ ले आते और क्लास में ले जाकर अंग्रेजी पढ़ाते. मैं मन ही मन चिढ़ता, उन्हें कोसता, कि कहां छंगा के चक्कर में फंस गया.
हां, मास्साब को सब लड़के छंगा कहते थे. उनके एक हाथ के अंगूठे में एक और अंगुली-सी निकली थी, इसलिए. एक हाथ में छह अंगुलियों वाले छंगा मास्साब बूढ़े थे. उनका पूरा शरीर हलके-हलके कांपता भी था. सिर हर समय हलके-हलके हिलता रहता था. आवाज लड़खड़ाती थी और बोलते समय मुंह से थूक के छींटे निकलते. जोश में पढ़ाते समय तो और भी ज़्यादा. मैदान से छुपन-छुपाई की चीखें उठतीं या ‘सेवन टाइल्स’ का शोर. मेरा किशोर मन उधर ही भागने लगता. मास्साब मेरे मन को भी पकड़ लाने की कला जानते थे. कांपते हाथों के इशारों, लड़खड़ाती जुबान और थूक के छीटों के बीच मेरी एक्स्ट्रा क्लास, छुट्टियों को छोड़कर, लगभग दो साल चली. धीरे-धीरे चीजें समझ में आने से मेरा भी मन लगने लगा. उन्होंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी. पाठ पढ़वाते, अर्थ समझाते-लिखवाते, वाक्य सही करने को देते. गलती होने पर झिड़की मिलती, बस. न कभी कान पकड़ा, न थप्पड़ पड़ा. मुझे सीखता देखता देख उनका जोश बढ़ जाता. हिलती गरदन के साथ उनके चेहरे की मुस्कान मेरी शाबाशी होती.
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यू पी बोर्ड का 1971 का हाई स्कूल का रिजल्ट आया. बप्पा श्री वोकेशनल इण्टर कॉलेज के दो लड़कों को फर्स्ट डिवीजन मिली थी.
मैं गर्मियों की छुट्टी में हर साल पहाड़ चला जाता था. जुलाई पहले हफ्ते में ही वापसी होती. बाबू स्कूल जाकर रिजल्ट ले आया करते थे जिसे मैं जुलाई में देख पाता था. उस साल स्टेशन से घर पहुंचते ही बाबू ने खुशी से बताया कि मेरी फर्स्ट डिवीजन आयी है. उन्होंने मुहल्ले में मिठाई भी बांटी थी. मार्क्स शीट लेने के लिए कॉलेज गया तो छंगा मास्साब जैसे मेरी ही राह देख रहे थे. उन्होंने मेरे नम्बर पता कर लिये थे. मैंने प्रणाम किया तो सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा- ‘खुश हो?’
मैं खुश तो था ही लेकिन उनसे कुछ कहते न बना. उनके सामने मौन खड़ा रहा. वे मेरा हाथ थाम कर स्कूल बोर्ड के पास ले गये. अपने कांपते हाथ की अंगुली उन्होंने बोर्ड की तरफ उठाई. स्कूल में फर्स्ट डिवीजन पाने वाले दोनों लड़कों के नाम वहां सफेद पेण्ट से लिखे हुए थे- पहले स्थान पर हरि शंकर शुक्ल, दूसरे स्थान पर नवीन चंद्र जोशी. देख कर मुझे अपार खुशी हुई.
मैंने मास्साब की तरफ देखा. बोर्ड में मेरे नाम की तरफ उठी उनकी उंगली पूरे हाथ के साथ कांप रही थी. उनका चेहरा अद्भुत रूप से दमक रहा था और आंखों में कुछ तरल-सा भी तैरता मैंने देखा था. वे मेरा हाथ पकड़े वहां खड़े रहे.
तभी किसी साथी ने मुझे पुकारा और मैं मास्साब से हाथ छुड़ा कर उसकी तरफ दौड़ गया. एक-दूसरे के रिजल्ट के बारे में पूछने के बाद हम खेल में रम गये.
मास्साब से मेरी फिर कभी भेंट नहीं हुई. इण्टर करने के लिए मैं पड़ोस के जय नारायण इण्टर कॉलेज (केकेसी) चला गया था. छंगा मास्साब को मैं भूल ही गया. बिल्कुल ही विस्मृत हो गये वे. गांव के तिवाड़ी मास्साब को मैं अक्सर याद करता था लेकिन छंगा मास्साब को कैसे भूल गया!
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उनकी याद आयी मुझे 1999 में, 28 साल बाद, जब करीब 22 साल की पत्रकारिता कर चुकने के बाद मुझे बतौर समाचार सम्पादक ‘हिंदुस्तान’ में नियुक्ति मिली. अखबारों में कमप्यूटरों का दौर शुरू हो चुका था लेकिन पूरी तरह कमप्यूटर पर निकलने वाला वह लखनऊ का पहला अखबार था. दिल्ली कार्यालय से और लखनऊ में भी विभिन्न विभागों में संवाद ई-मेल पर होता था. ई-मेल होते थे अंग्रेजी में. इससे पहले हिंदी अखबारों में अंग्रेजी से ज्यादा वास्ता नहीं पड़ा था. अंग्रेजी से खबरों के अनुवाद जरूर करने पड़ते थे और वह भी धीरे-धीरे कम होता गया था.
तो, ‘हिंदुस्तान, लखनऊ में अंग्रेजी में ई-मेल पढ़ते-लिखते, गलतियां करते और सुधारते हुए मुझे अचानक ही छंगा मास्साब याद आ गये. उनका सिखाया-रगड़ाया काम जो आने लगा था.
तब बहुत पश्चाताप हुआ. आज भी सोचता हूँ कि मैं कितना नाशुक्रा निकला. मास्साब को एक टुकड़ा मिठाई तो क्या खिलाता लेकिन उनके पैर भी नहीं छुए थे. तब इतना भी ख्याल नहीं आया था कि उनको थैंक-यू ही कह दूं. ‘थैंक-यू’ कहना आपने क्यों नहीं सिखाया था, मास्साब! लेकिन क्या उन्हें मेरे ‘थैंक-यू’ की ज़रूरत थी? उन दिनों मैंने ट्यूशन और कोचिंग के नाम भी नहीं सुन रखे थे. वर्षों बाद समझा कि उन्होंने मेरे लिए क्या किया. मुझे क्या दिया.
1971 के उस दिन उनकी अंगुली छुड़ा कर मेरे भाग जाने के बाद पता नहीं वे कितनी देर स्कूल के बोर्ड के सामने खड़े फर्स्ट डिवीजन के नीचे लिखे मेरे नाम को देखते रहे होंगे. मेरी ‘थैंक-यू’ और मिठाई क्या उन्हें शिक्षक होने का वह सुख-संतोष दे सकते थे जो मैंने उस दिन उनके चहरे की दमक में देखा था?
तो भी, थैंक-यू, सर. थैंक-यू अ लॉट.
आप मिले तो इस अंग्रेजीदां दुनिया में अपनी भी निभ ही गयी.