समकालीन जनमत
कविता

कविताओं के अनुभवों का आयुष

आज शेखर जोशी जीवित रहे तो 92 साल के हुए। जीवन के अंतिम दो दशकों में उन्होंने फिर से कविताएँ लिखीं और 2012 में ‘साहित्य भंडार’ से उनका पहला कविता संग्रह ‘न रोको शुभा उन्हें’ फिर 2022 में ‘नवारुण’ से उनकी कविता समग्र ‘वारुण’ प्रकाशित हुआ।

उनकी कविता समग्र ‘पार्वती’ पर यह सुचिंतित टिप्पणी वरिष्ठ कवि रीश चंद्र पेंडेस ने 2022 में ही लिखी थी लेकिन किन्ही कारणों से अप्रकाशित रह गए।

शेखर जी के समकालीन जनमत से अत्यंत आत्मीय भाव थे। लखनऊ जाने पर भी उनकी पार्टी से मुलाकात हुई और कई बार जनमत की प्रबंधन सम्पादिका मीना राय जी को उन्होंने चंदा की याद भी दिलाई।

आज उनके 92वें जन्मदिन पर हम उन्हें याद करते हुए अपने एक और प्रिय कवि हरीश चंद्र पांडे जी की टिप्पणी पर बेहद गर्व का अनुभव कर रहे हैं।


‘पार्वती’ बुजुर्ग साकेत शेखर जोशी जी की मंडली का समग्र संग्रह है। 1952 में अब तक की कविताएँ हैं। उनका पहला कविता संग्रह ‘न रोको देम, शुभा’ नौ-दस साल पहले प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की भूमिका में वीरेन डंगवाल कहते हैं-

‘कविता उनकी तस्वीरें की छुपी हुई धुरी तो रही है-गुड़े की गुठली- अब वह उनकी भी कामना करती हैं।’

‘पार्वती’सी इच्छा का विस्तार है। ‘पार्वती की कविताओं का विषय अन्य छह खंडों में विभाजित है- ‘पार्वती, अयांत्रिक, एंडोलिट जन, अस्पताल डायरी, विभिन्ना और दिल्ली यात्रा (1951-1955)। इस विस्तार में वे पहाड़ और औद्योगिक कारखानों के पृष्ठभूमि विषयों के साथ-साथ जीवन के उस अनुभव-खिट्टे को भी काव्य विषय चकमा दे गए हैं जो उनकी कथा दुनिया में दर्ज होने से रह गए थे। शेखर जी के जीवन के पर्यटन स्थलों को देखा जाए तो उनके बचपन का एक महत्वपूर्ण दौर राजस्थान में गुजरा है लेकिन शायद उनकी किताबों में ही राजस्थान के जन-जीवन की उल्लेखनीय झलक मिलती है। कविता में राजस्थान को वे बाल्यावस्था में वहाँ बुनकर सपनों के साथ जीते हैं। वे इस भाग का पूर्वाभास, अपनी प्रकृति और सांस्कृतिक पहचान के साथ जीते हैं। ‘ख्वाहिश एक सपने की’ एक कश्मीरी वर्ष कवि की ख्वाहिशों की फेहरिस्त है। जिसमें बड़ी सी आकृतियों से लेकर कन्याकुमारी के अंतिम छोरों को देखना, सोमेश्वर घाटी के धानों की सुगंध को नासा पुटों में शामिल करना और अपनी पेंशन से मंगल ग्रह के टिकटों की जुगाड़ करना जैसी ख्वाहिशों के बाद राजस्थान की धरती पर उतरना आता है-

‘और कुछ हो न हो/मेरे अजमेर वाले मौला/मेरा वह सपना पूरा हो जाए/ जो हमने अपने पुराने दिनों में देखा था

‘वे विश्व युद्ध के दिन थे/जब हर चीज की चीजें थीं/हॉल के फाल के लिए/लोहे के लिए चित्रांकन लेते थे/कागजों को नत्थी करने के लिए/दफ्तरों में बबूल के काँटे दिखते थे।

केकड़ी में तेजाजी मेले में उस साल/टाउन हॉल में प्रदर्शनी लगी थी/ हम ठेठ बच्चों ने पोस्टरों में अपने-अपने सपने सजाए थे

हमारा सपना था-युद्धपरान्त नवनिर्माण…

इस ‘नवनिर्माण’ पेपर्स पर अजमेर से कोटा तक की रेल चलती है- छोटे-छोटे स्टेशन नसीराबाद, सरवार सरफराज, केकड़ी और देवली होते हुए मालागाड़ी में ऊन और रुई की गोलियां, जीरे की बोरियां अभ्रक के ढोलके आदि लादे जाते हैं। पोस्टर वाली रेल से उतरकर मारवाड़ी सरफराज में लजीज परांठे खाये जाने की ख्वाहिश है। इन ख्वाहिशों में एक ये भी शामिल है ख्वाहिशें-

हितैषी के दिनों के दोस्त एहसान को आवाज दी गई थी कि स्टेशनदार आ उज़हा एक अंधेरी रात में सपरिवार सराय सरहद पार चले गए थे-क्या पता वापस आया था। कविता में विश्व युद्ध की प्रस्तुतियाँ और विभाजन हैं। राजस्थान के सांस्कृतिक परिवेश पर कोई ख्वाहिश पूरी तरह से कैसे हो सकती है-

‘मैं अलगोज़ की धुन पर झूमती हूं

लाल ब्लूबेरी, हरी स्थापत्य पत्रिका के सैलाब में डूब जाना चाहता हूँ

मैं तेजाजी के खिलाफ गाती हूं

घाघरा ओढ़ने वाली महिलाओं के सुर में कौन जाना चाहता है…

शेखर जोशी राजस्थान द्वारा निर्मित उनके बांध को इसी तरह चुकता करते हैं। यह दुधारू के सबसे मिले थनों से जीवन रस प्राप्ति के बाद उनकी पीठ पर फेरा चला गया।

अपने संस्मरणों में शेखर जी कारख़ाना- जीवन को भी अपना दूसरा परिवार मानते हैं। यहां किसम-किसम के गुण-दोष युक्त कथानकों को वे अपनी सृजनात्मकता के पात्रों में शामिल कर सकते हैं। कविता में भी भिन्न-भिन्न परिवेश और भूमिका में लक्षित जा सकते हैं। कड़क और कठोर निर्देश वाला वह ‘उस्ताद’ जो अपने शागिर्द से अपने गंगा ‘वालटैम छोड़ने’ के रहस्य को विश्वास रखता है और एक तरह से कारखाने से श्रमिक समाज के पारंपरिक आचारों की अनदेखी के कारण नाराज़ सा रहता है। वह उस्ताद शागिर्द के अन्य स्थान पर आधी रात को ठंडक झेलते हुए गाड़ी छूटने के पांच मिनट के लिए पूर्व प्लेटफ़ॉर्म पर भागते-भागते खोजकर उसे ‘बालतम छोड़ने’ की युक्ति बताती है। ‘विश्वकर्मा पूजा- एक काव्य रिपोर्ट’ में यह उस्ताद पूजा पंडाल में मिल जाएगा। ‘उस्ताद’ तो उस्ताद की झलक दिखाती है और उस्ताद की कविता में उस्ताद की समानता बताई जाती है। कथा शुरू ही उसकी बंदगी से होती है।

‘आज इस पावन पर्व में

हम उन सभी देवी-देवताओं को स्मरण करते हैं

जो बचाते हैं हमें चोट-चपेट से

दुर्घटना से दैहिक बीमारी से

हम बंदगी अपने उस्तादों को करते हैं

कृपया हमें अपना सुझाव दें

किसी ने बनाया…

इसी पूजा स्थल पर धार्मिक चर्चा भी बातें-बातों में सिर उठाती है। इसका काव्यात्मक शमन भी देखें। मुस्लिम श्रमिक तिरपाल पर न लोहारखाने के आगे पीपल की छाँह में गपिया रहे हैं-

‘अचानक बोले शरीयत के पाबंद शमीउल्ला।’ ए भाई, ई बताओ तबर्रुक लेना जायज़ है? चटख गए बी.पी. के मित्र बैल्डर नाम-ए समीउलवा, तैं बड़ा आलिम बनत है ये/विश्वकर्माजी कोने-पीर पैगम्बर रहे का बेर/ वह तो रहे हमा-सुमा की तराई कलाकार/वे आला दर्जे के कलाकार’ तीस पर दार्शनिक ने जोड़ा दिया-‘जैसा अपने मोइन भाई’. इस काव्यांश का मतलब सिर्फ बतियाना भर नहीं है।

कृषि जगत की उपस्थिति इन-मॉलेज़ में अलग-अलग संदर्भ दर्ज हैं। ‘अस्पताल डायरी’ खंड की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कविता है ‘आभार, अन्नप्रसवा।’ शारीरिक अभिलाषा और नैराश्य के मौन-घटाटोप के बीच में एक रोगी का मनोविज्ञान पहले दूसरे इस सम्मिलित रोगी से संवाद का एक रास्ता तय कर लेता है, यह कविता एक उदाहरण है, और अभिलाषा-त्राण की युक्ति भी है। एक यात्री चाहता है कि मॉन डेम तो अति विशिष्ट साझा हो पर संभव न हो। वह सीज़न की बात करता है, राजनीति की बात करता है पर उत्तर हाँ-हूँ से अधिक नहीं। फिर से संवाद की एक मनोवैज्ञानिक पहल है-

‘खेती बबई तो होगी गांव में/ मेरे तुरुप का पत्ता पीटा/ वे कुछ खुले। जैसे मैंने किसी दुख का जिक्र कर दिया हो/ अच्छा धान भी होता है उधर?/ हां-हां वही तो सहारा है/ बहन तो तैयार हो गई होगी?/ मैंने अपना किसानी गोत्र मंत्र/हां इत्ता-इत्ता चल गया है.. .अब संवाद चल रहा है / जैसे सार्क में नहर का पानी फेल हो रहा है। वह का किसान/मैरी पर्वत की खेती की जानकारी ले रहा था।/ उनके मालिक में लाते/’मसूरी’ ‘सरजूबावन’ ‘नरेंद्र’ ‘भदई’ और ‘जलमगन’ धानों की बालियों की गंध/मुझ तक पहुंच रही थी/और एक पहाड़ के ‘अंजनी’, जड़तिया’ और ‘बासमती’ के अवशेष उनके नासापुटों में चढ़े हुए थे…हम दोनों बतिया रहे थे। अपनी हरी-बीमारी भूलकर।’ यहां अन्न पूर्वा धरती उन दोनों की मनहुसियत हरती है।

एक अन्य कविता ‘धान्य खण्ड’ (पार्वती खण्ड) में कवि धरती का माँस-गीत के अंत में एक बच्चे के मुँह से अलौकिक करवाता है।

‘धरती मां है

देवियाँ पलेगी पोसेगी उन्हें ही

जो उसकी सेवा में जांगर धन्य हो जायेंगे’

इस कविता में एक विचित्र दृश्य श्रव्यता है। यहां बैलों के साथ आषाढ़ी पीतल से हैं, उनकी उठी हुई भीगी पूंछें जैसे हलवाहों का स्वागत कर रही हैं, हुडके की थापों पर भी बारिश हो रही हैं जिसमें लहंगे के फेन्टे मारती, मूंगे-मोती की माला कादारिनें गा रही हैं। बहन जो हरी सी बिछड़ी थी अब क्रांति की पीड़ा से गुजर रही है। इसी माटी का रस पीकर फिर जमना है, गुंजारित बालियों को इठलाता है।

संग्रह की माँगों में अटकलों का एक लोक है। एक मातृहीन बच्चा दूसरी औरत में अपनी माँ को पाता है। सैन्य विधवाएँ अपने पति के साथ विश्वयुद्ध में मारी गईं। एक नवजात बच्ची है जिसे एक मंदिर के पिछवाड़े में छोड़ दिया गया है और है- आचार्य विश्वनाथ त्रिलोक के गांव नागातलाई की विधवा लक्खा की तरह एक विधवा महिला है जो अक्सर ग्राम्य समाजों में पाई जाती है। इनमें अलग-अलग लक्षण से घर या जीवन से पलायन करने वाले लापता लोगों की सूची है- वह 65 साल रामप्रसाद हो सकते हैं या 12 साल चंदन तिवारी नीयन। वह 26 साल की उम्र में कुलसुम या भागमती बहू हो सकती है। शेखर जी की कविता उनके जीवन में जीवन की राहें ढूंढती है। वह समाज के गूढ़ मोटरसाइकिल के विरोध में एक जीवोन्मुख स्टैंड की व्यवस्था है। मंदिर के पिछवाड़े में कृष्णा कर छोड़ दी गई नन्हीं परी से काव्य कथा है कि तुम अनाथ नहीं हो शत्रुता वाले हाथ आगे आ जाओगे। समाज बदल रहा है। अंतरजातीय दाम्पत्य व लिविंग तुगेदार दोस्त हो चले हैं। कवि का विश्वास है-

‘वह दिन दूर नहीं जब कोई कुँआरी माँ चली गई

पूरे दमखम के साथ कह शिक्षा

यह मेरा संगठन है यह मेरा संत है

(नन्हें परी के लिए एक स्वागत गान)

शेखर जी जीवन को बचपन से जीने की हिमायती हैं।

‘पुनर्जन्मः एक प्रार्थना कविता में कवि मछली की काया की कामना करता है, डूब कर पानी पीने के लिए। उसे कैक्टस नहीं मिला, क्योंकि-

‘दुनिया रस-गंध की प्यासी है प्रभो

‘काँटे मुश्किलाकर हमें किसी से क्या लेना।’

यहां कथाकार अमरकांत की अपनी संस्मरण पुस्तक ‘कुछ यादें कुछ बातें’ में शेखर जोशी पर लिखा यह कथन कंध स्थापित है- ‘आप शेखर जोशी की तुलना मछली से कर सकते हैं।’ जीवन और जीवट जी की उनकी यह काव्य-आकांक्षा कविता ‘नववें ​​दशक की दहलीज़ पर’ का अवलोकन किया जा सकता है। नवासी की उम्र में वे कहते हैं-

‘मुझे पंद्रह रन और बनाए गए हैं

सिर्फ बारह रन

एक छक्का एक चौका और एक रन

या दो कर्मचारी और तीन एकल रंग

मेरा शतक पूरा हो जाएगा’

‘नहीं थका हूं मैं अभी/डेटा रहूंगा मैदान में।’

पूरा दम.खम के साथ’

यानि ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’

पर ये तो खेल है/प्रतिद्वंद्वी का कोई फिर से सहयोगी अगर मेरा विकेट गिरा देगा/…मैं एकजुट होकर पैवेलियन लौट जाऊंगा’।

सामूहिकता और पारिवारिकता इनमॉडल की प्रकृति है। यहां अकेले पूरा जग जीत लेने का विश्वास नहीं है। कारख़ाना भी एक परिवार है। यंत्रों का भी मानवीकरण है। मिल के सायरन की आवाज क्षुधातुर इंस्टिट्यूट की आवाज है। उनका कहना है कि मिल के श्रमिकों की ओर से फास्ट स्टेप स्टॉप ऐसे दिए जाते हैं जैसे उनकी देखभाल करने वाली नर्सें होती हैं। उत्तरी पर्वत के भगवान में ‘बखाईवाला गांव’ है जिसमें जुड़े कई परिवारों और परिवारों का एक साझा आँगन है। यहां सुख-दुख की एक साझी दयानंदता है। यादों के झरोखे से शायरी इस आँगन में पूरी दुनिया दिखती है। विवाह की परंपरा में उल्लास है तो मृत्यु का शोक भी। बच्चों की ढिंगामस्ती है तो बुढ़ापे की कमर दबवै भी। बाखली के एक घर में ननिहाल आए बच्चों के कई नाना-नानी, मामा-मामी और मौसियां ​​हैं घर-आंगन की अविभाज्यता ने रिश्ते को छतनार बना दिया है। कवि इस बाखली-संसार को अपनी स्मृति में जीते हुए आज के अपार्टमेंट गुफा -संस्कृति के अकेलेपन से तुलना करता है। कहां उसने चाहा के गिलास, हुक्के की गुड़गुड़ पे रोटियां, कैरुआ का भुर्ता, गडेरी का सागा, बुरूंशी फूलों की रंगत और जहां अब बीसवीं मंजिल की खिड़की से शुरुआती के जंगल को देखा।

प्रकृति, शेखर जोशी की आवाज़ में, जन-जीवन से जुड़कर आती है। समाजशास्त्री एवं अर्थशास्त्री पूर्णचंद्र जोशी कहते हैं कि कवि की प्रकृति को जन-संवेदी होना चाहिए। इसे वे ‘बॉटम अप विज़िट’ कहते हैं।

‘प्रकृति के प्रति एक टॉपडाउन दृष्टि’ नहीं बल्कि ‘बैटम ऐप दृष्टि’ की आवश्यकता है। इसी प्रकृति और जन के अखंड और सिद्धांत संबंध का हमें-सही ज्ञान हो गया..(भूमिकाः हिमाद्री को देखा) इस संग्रह में पार्वती खंड की कविताएँ ऐसी ही जन-संबन्धी कविताएँ ‘नदी किनारा, ग्रीष्मवासन, वसंताभास, घंटियों का सरगम ​​आदि कविताएँ-

‘भूरी मतमैली चंद्रा ओधे

बूचड़ पुरखों से चार पर्वत

मिलजुल बैठे ऊँघते ऊँघते ऊँघते।

घाटी के ओटों से कुहरा प्रतिष्ठान

मन मारे, थके-हारे भरेरे/दिन-दिन भर

चिलम फूँकते-फूँकते। (पहली बारिश के बाद)

$ $ $

कल वनपथ से आते हुए देखाः

हाथों में रंगबिरंगे प्रार्थना-पत्र के लिए

लताएँ नौकरानी रही रहती हैं। (वसंतभास)

$ $ $

…खड़ा रहा मैं तट पर

जल प्रवाह से थोड़ा हटकर

पर, घर की बिल्ली सा लाड रेस्ट

वह लहर चली गई

अभी मेरी योन सत्कार (नदी किनारा)

प्रकृति के इस विशाल क्षेत्र में पशु-जगत के प्रति भी कम आत्मीयता नहीं है। किसानों पर लहलहाती हरी कोमल घास को देख खैरा और बसंती की खुशी का अंदाजा लगता है। इसी घास के साथ कट कर आ सकते हैं वीरेन डगवाल के फ्यूंली के वे फूलप्रोग्राम पिटाभ देखने वाले गोरे युवाओं के नथुने खुशियों से फुंकारने लगे हैं और कान फटाने लगे हैं। शेखर जी के पशु खुशियाँ आशीषते हैं-‘भारी लोड सिर पर ले संभल कर उतरना ओ पार्वती/तेरी राह तकते खैरा ओ’ बसंती/तू आशीष दे देंगे जी भर।’

संग्रह की मातृहीन कविता एक मातृहीन बच्चे का करुण आख्यान है। करुणा से आरम्भ यह कविता करुणा में ही पर्यवसित भी होती है। लेकिन करुणा के इन दो छोरों के बीच में बाल मनोभावों तक श्रम के सौंदर्य की बहुविध छटाएँ विन्यस्त हैं। यहां एक मातृहीन बच्चा एक असमय बन गई मां में अपनी असमय विदा हो गई मां को पाना चाहता है। इस असमय बन गई मां ने अभी-अभी कैशोर्य की देहरी को लांघा है। शिशु को घर पर छोड़ चारे के लिए जंगल गई है। वह लौट रही है। बावड़ी के पास नहाने के लिए खड़े बच्चे को दूर से वह सरकते हुए झब्बरदार नाटे पेड़ की तरह लगती है। बोझ से लदी-फदी इस नन्हीं मां ने-

‘बिसाया बोझ टेकरी पर/श्लथ बदन/आरक्त मुख

अंगुरी ओठों पर टिकाए/संकेत करती प्यास का

गटागट पी गई भरा लोटा/कि जैसे प्राण लौटे

बोल फूटेः ‘लला। एक लोटा और’

इस एक और लोटा पानी से वह पसीने के चिपचिपाहट से मुक्ति पाती है-

‘इस बार/तनिक अपनी कुर्ती उठाई/दो नन्हे सफेदा आम झलके

उन्हे छपछपाकर खूब नहलाया/फिर पेट पोंछा/चिपचिपाहट से मुक्ति पाई।

बुदबुदाईः ‘न रो भव्वा, मैं अब्बी आई’

ये बोल लक्षित थे उस रुदन को/जिसे केवल वह सुन पा रही थी’

कहां दायित्वबोध से लदी एक अबोधता है। शिशु के रुदन को अदृश्य कानों से महसूसता नैसर्गिक मातृत्व है। और है बिछुड़े मातृत्व की रिक्तता को भरने की एक बाल सुलभ चाहना-

‘ओ मां! मुझे अपना शिशु बना लो।’

संग्रह की ‘ओखल नृत्य’ कविता में भी श्रम के सौंदर्य को निहारा जा सकता है। निहारा इसलिए कि इस कविता में एक दृश्यबंधता है। चलचित्रता। श्रम की अबाध गत्यात्मकता है। यहां परिधानों से लेकर सांस-उसांसों की एक जंगम तरतीब है। आंखों की तन्मय दृष्टि कह रही है धान उछलकर ओखली के बाहर चले गए हैं, पांवों की सचेष्टता उन्हें समेट लाती है। अभी ये श्रमिक नृत्याँगनाऐं सांगोपांग लय में हैं। सुडौल पिंडलियाँ थिरक रही हैं। कान के पास के घुंघराले बाल हवा में लहरा रहे हैं। वेणी, वेणी में गुंथे फुन्ने मूंगों की माला चवन्नी के सिक्कों का गलहार और वक्ष सब दोलायमान हैं। चूड़ियों की खनक के सुरमय आरोह-अवरोह हैं। वे माथे का पसीना पोंछ रही हैं, हथेलियाँ फूँक रही हैं और ‘मालकिन की’ नजर बचाकर फाँक लिया है मुट्ठीभर/अपने श्रम का नवनीत।’

कविता ‘मुजफ्फरनगर 94’ उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की पृष्ठभूमि लिए हुए है। इसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं-

‘हादसे से लौटकर आई है वह औरत

माचिस मांगने गई है पड़ोसन से

यह ‘हादसा’ शब्द जितना संक्षिप्त है इसकी भयावहता उतनी ही औपन्यासिक। हादसे से लौटी औरत की देहभाषा से इस भयावहता के कुद संकेत मिलते हैं। उसकी नाचती उंगलियाँ तनी हुई भैंवें, जलती आंखें, चेहरे के दाग, फड़कते नथुने। उसकी देहभाषा की सांकेतिकता कह रही है कि उसका मर्म आहत है। उसकी देह रौंदी गई है। कविता का अंत भी उतना ही सांकेतिक और आंदालन-धर्मी है-

माचिस लेने गई थी औरत

आग दे आई है

इसी खंड ‘आंदोलित जन’ की एक कविता है ‘अखबार की सुर्खियों में’। यह कविता सपनों से भरपूर युवा वर्ग को दिग्भ्रमित कर निहित स्वार्थों द्वारा स्वहित में इस्तेमाल किए जाने की नागरिक चिंता है। ये ऊर्ज्वसित युवा मिस गाइडेड मिसाइल हैं। एक युवा जिसकी मसें अभी-अभी भीगीं हैं, हुमक कर कंधे उचकाता है, मिल्खा का उत्तराधिकारी, गबरू जवान, कड़क फौजी का सपना संजोये हुए, यानि अनन्त संभावनाओं से भरा वह युवा जगतार अखबार की सुर्खियों में मरा पाया जाता है। किस खेल का मोहरा बना वह-

‘खेल-खेल में/साहों ने बनाया चोर उसे

बांध दी पट्टियाँ आंखों में

आप छिप गए ओट में

आंखों पर पट्टियाँ बांधे/ढूँढ़ता है अपने लक्ष्य को

टकराता है खम्भों, दीवारों से

लहूलुहान होता है, जगतार…

ओट से संचालित खेल की टोह लेते हुए यह कविता पंजाब का एक सामाजिक-सांस्कृतिक मानचित्र भी बनाती है। भाषा का खॉरीपन इसे और भी विश्वसनीय बनाता है। मकई की रोटी सरसों का साग, लुंगी का फेट नुकीली जूती, बाएँ कंधे पर गिरा पग्गड़ का सिरा, बहन की वीरनी और माँ का दर्दीला तारये!! थे सब मिलकर पंजाब का लोक रचते हैं। जमीन से जुड़े इसी लोक में जगतार के भविष्य को संवरना था। जगतार जो पारे सा चंचल और बकरी के छौने सा खिलंदरा था-दिग्भ्रमित होकर

अपनी दहकती आग लिए/वह दिशाहारा

खण्डित नक्षत्र/जला गया झोपड़ों, मकानों को

खेतों, खलिहानों को

चला गया/अखबार की सुर्खियों में

एक अनाम गिनती बनकर।

शेखर जी के सृजन-संसार में बच्चों की निरापद आमद है। झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों से लेकर भद्रलोक के बच्चे यहां मिलेंगे। बचपन में मां से बिछुड़ गया बच्चा जैसे सदा उनके साथ रहा है। मतृ

मातृहीन कविता का वह बच्चा यह सोचते हुए कि ‘मुझे अब कौन नहलाए’ लोटा और नन्हीं बाल्टी लेकर अकेला बावड़ी की ओर चल पड़ता है। ‘उत्तराधिकार’ कविता में बड़ा होकर यही बच्चा आंखें मूंदते पिता के मूक प्रश्न का उत्तराधिकार संबंधी उत्तर इस प्रकार देता है-

इस अयोग्य को/उस छोटे अंधियारे कमरे की

कुंजी दे जाना पिता/जहां छिप-छिप कर जाते

मैंने तुमको अक्सर देखा है…

जब-जब तुमने उस कमरे में संचित/स्वप्नों, विश्वासों, आकांक्षाओं को

अपने आँसू से नहलाया है

मैंने भी तब-तब/अपनी आस्था से उनको सहलाया है

पिता को पुत्र द्वारा संबोधित इस कथन के पार्श्व में अनुपस्थित माँ रही होती है। ‘स्मृति में रहें वे’ कविता में भी कवि माँ के दूध की गंध को याद करता है, पिता के कंधों पर बीते सफर को भी। संगी-साथी स्वजन-परिजन सब स्मृति के अमिट हिस्से हैं।

कहानियों में परदेस के होटल में ‘दाज्यू’ के मदन को रचने की दृष्टि संभवतः उसी अभाव से आई हो। उनकी कहानियों में बच्चे भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में आए हैं। ‘भद्रलोक का नीड़’, ‘बच्चे का सपना’, ‘आदमी का डर’, पुराना घर आदि। बाल मनोविज्ञान पर शेखर जी की बेमिसाल पकड़ है। अस्पताल के लंबे बरामदे में तीमारदारों के बच्चों का एक अलग समाज बन गया है। इस सीमित भूखण्ड में ही उनका खेल का मैदान है- छुपम-छुपाई, कैचम-कैच, फिल्मी अंताक्षरी आदि-आदि। उन्होंने आपस में घरेलू पुकार के नाम भी जान लिए हैं। घरों की जगह अंकल आंटी के वार्ड और बैड नम्बर उनके पास हैं। दुःख और विपदा के पहाड़ झेलते लोग इन बच्चों को असमय वयस्क बना रहे हैं। कवि की निगाह में इनकी समझ की परिपक्वता तो देखें-

‘स्वस्थ होकर घर लौट रहे अंकल के परिवार की खुशी में शामिल वे पोर्टिको तक उन्हें बिदा देने जाते हैं। अपनी उदासी, छिपाते हुए। पर कोने अँतरे में छिप जाते हैं। अभागे साथियों से नजरें चुराते हुए जो हताश लौट रहे हैं अपने किसी सगे को खोकर। (बच्चे)।

नन्हीं पाखी के पास तो एक ही अस्फुट शब्द है-‘अम्मै।’

यह शब्द सभी चीज़ों, जगहों या इच्छाओं का वाहक है। पानी, मां, पापा, दादा-दादी, सीढ़ी-सबके लिए ‘अम्मै’। बोल फूटने की यह ऐसी संक्षिप्तता है जो उसकी मुद्राओं के सहारे अर्थ डिकोड कर लेती है। दिक्कत तो उन लोगों से है जिनके पास ढेर सारे शब्द और बातें हैं पर उनके अर्थ बिल्कुल गुंजलक और अन्यथा हैं-

जो बातें तो मीरघाट की करते हैं

पर जिन्हें तीरघाट जाना होता है। (पाखी के लिए एक कविता)

यह लफ़्फ़ाज़ दुनिया पर एक महीन तंज है।

शेखर जी की माँ की भाषा में क्लिष्टता नहीं है। जीवन की सहजता और सकारात्मकता उनके मॉडल में भी पाई जाती है। खुशियाँ पाने के उपाय या उन्हें ढूँढना। ‘आभार अन्नप्रसवा’ में दो बहनों के बीच संवाद का रास्ता निकलता है जैसे उनकी कविता ढूंढती है, उनमें दुख साझा किया जाता है, उसी तरह ‘ओलेलोकेशी’ कविता में साज़िश वार्ड में बगल की दीवार पर भारती एक मूक बधिर महिला रोगी की पीड़ा को कम करना इसमें किशोर नर्स को देखकर कवि के आत्मतोष को लक्षित किया जा सकता है। वह नर्सिंग के लंबे काले केशों को काढ़ते हुए सहयोगी नर्स से उन बालों की प्रशंसा कर रही है। अपनी केशराशी की प्रशंसा में उस ईस्टर महिला-मरीज के चेहरे पर मुस्कान तिर आई है। यह देखना, कवि और कविता दोनों का हासिल है।

कवि को सहजता और अकृत्रिमता के वातावरण में ही सृष्टि के आबदार मोती मिलते हैं। नागार्जुन और एल्वालिव अन्य उनके आत्मीय पूर्वज कवि हैं। वे नहीं, जहां संप्रेषणता का स्वरूप है। दुनिया भर का भ्रमण करने वाले लेखक सृष्टि के वे आबदार मोती नहीं पा सके हैं जो नागार्जुन और केदार ने बागमती और केन की संगति में पा लिए हैं। भाषा के साथ-साथ जीवन में शिल्प के प्रयोग करते हैं आत्महोम करने वाले महाप्राण निराला कवि के आराध्य हैं।

‘पार्वती’ की कविताएँ शेखर जी की दीर्घकालीनता का सत्व हैं। अपने जीवन के अंतिम अतीत से लेकर अधुनातन तक के लिए जगह खोजें। वे अतीत को पूर्वभाग में जीते हैं तो इस विज्ञान क्रांति सदी का स्पष्ट प्रमाण भी देते हैं। इन डेमोक्रेट्स में डोमाजी उस्तादों के संस्करण मिलेंगे। भवन, सेतु और संस्थान संस्थान के नाम केहोगे। प्रतिष्ठित शहर अब नापसंद से नाराज। इन फिल्मों में पॉप स्टार की विषकन्या दिखेगी जो रात भर भर के शरीर से रस की अंतिम ड्रमर, गन्ने की सूखी गठरी सा बनी ‘निशा शेष’ में उन्हें मुक्त कर देगी।

दिल्ली यात्रा में एक युवा कवि जो स्टालिन की मौत पर प्रस्तुति प्लांट फैक्ट्री बंद करके शोक सैरा की जगह उस दिन डटकर प्रोडक्शन करने का सुझाव देता है कि वह जीवन भर के लिए रचनात्मकता के पक्ष में सर्जनारत रहने आया है। ‘पार्वती’ का यही प्रमाण है।

ऋषीचंद्र पैगे

ए/114 गोविंदपुर कलि

इलाहबाद-211004

मो. 9455623176

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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