समकालीन जनमत’ फेसबुक लाइव के जरिए आज सुधीर सुमन ने चर्चित कथाकार संजीव के उपन्यास ‘प्रत्यंचा’ के कुछ महत्वपूर्ण अंशों का पाठ किया। विशाखापट्टनम के गैस रिसाव के कारण मारे गए लोगों और औरंगाबाद में मालगाड़ी से कुुचल कर मारे गए मजदूरों को श्रद्धांजलि देते हुए उन्होंने कहा कि शहरों से लाखों मजदूर लौट रहे हैं और कोई व्यवस्था नहीं है, ट्रेने रद्द की जा रही हैं। वे ट्रेन में नहीं चढ़ रहे बल्कि ट्रेनें उनपर चढ़कर गुजर रही हैं। यह भीषण त्रासदी है और अंततः व्यवस्था का प्रश्न है। प्रश्न यह है कि हमें कैसा शासक चाहिए?
उन्होंने कहानीकार-पत्रकार शशिभूषण द्विवेदी को भी श्रद्धांजलि दी और उनकी एक फेसबुक पोस्ट का जिक्र करते हुए कहा कि आज जो बीमारियां (सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक और सांस्कृतिक) अतीत से आ रही हैं, उनका इलाज अगर अतीत से भी आए तो गलत नहीं है। उन्होंने कहा कि इतिहास, लोकप्रशासन, कानून और नवजागरण संबंधी जो चीजें हैं, उनमें प्रायः ‘प्रत्यंचा’ के नायक शाहूजी महाराज का जिक्र नहीं मिलता। विचारकों के नाम आते हैं, पर जो उन विचारों को कार्यान्वित करता है, उसका नाम नहीं आता। कई लोगों ने शाहूजी महाराज को जनतंत्रवादी राजा कहा है, आर्यसमाजी, फुले के सत्यशोधक समाज वाले और सामाजिक न्याय की धाराएँ- सब शाहूजी महाराज से अपने संबंध जोड़ती हैं, पर उनके बारे में हिंदी प्रदेश में बहुत कम सामग्री मिलती है। आखिर यह किस तरह के वर्चस्व की ओर संकेत करता है?
अकाल और प्लेग से किस तरह शाहूजी महाराज ने अपनी प्रजा की रक्षा की, सुधीर सुमन ने इस प्रसंग से उपन्यास अंशों के पाठ की शुरुआत की। जाहिर है इसके जरिए उन्होंने कोरोना महामारी के दौरान आज की सरकार के जनविरोधी रवैये और उसकी कारपोरेटपरस्ती की ओर भी उन्होंने ध्यान खींचा। उन्होंने कहा कि शाहूजी महाराज को पहली बार पचास प्रतिशत आरक्षण लागू करने के लिए याद किया जाता है और इसके लिए यह भी तर्क दिया जाता है कि चूंकि ब्राह्मण उन्हें शूद्र मानते थे, इसी की प्रतिक्रिया में उसने ऐसा किया। लेकिन यह बुनियादी बात नहीं है। असल बात यह है कि शिवाजी की उत्तराधिकार परंपरा के वे ऐसे राजा थे, जिनके मन में जनता की जीवन की बेहतरी और आर्थिक बराबरी के सपने थे। यदि उन्हें सिर्फ शासक बने रहना होता तो शोषण और भेदभाव के लिए उत्तरदायी सामाजिक शक्तियों के साथ समझौता करके वे शासन करते रहते, पर जिस तरह के परिवर्तन का सपना वे देख रहे थे, उसमें समाज, संस्कृति, प्रशासन और न्यायपालिका आदि पर काबिज एक समुदाय का अलोकतांत्रिक वर्चस्व बाधक था। आरक्षण उनके लिए बेहतर प्रशासन का भी सवाल है। वे महिलाओं की बराबरी और उत्तराधिकार के संबंध में कानून बनाते हैं, अस्पृश्यता के खिलाफ सख्त कानून बनाते हैं और उसे लागू करते हैं।
सुधीर सुमन ने विभिन्न क्षेत्रों में किए गए शाहूजी महाराज के प्रयोगों और संघर्षों से जुड़े ‘प्रत्यंचा’ उपन्यास के प्रसंगों का पाठ किया और कहा कि जो लोग भी चाहते हैं कि सबको स्वास्थ्य, शिक्षा और अवसरों की बराबरी के अधिकार मिलें, कृषि और तकनीक का विकास हो, उन सबके लिए यह उपन्यास प्रासंगिकहै। उन्होंने मौजूदा शासक की ओर संकेत करते हुए कहा कि जो शासक हर चीज का श्रेय खुद लेता हो, अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य तंत्र की बर्बादी और लाखों मजदूरों की त्रासदी की जिम्मेवारी भी उसे ही लेनी होगी।