समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

संजीव का साहित्य समकालीन भारत का आदमकद आईना है : रविभूषण

आसनसोल में कथाकार संजीव के 75वें वर्ष पर दो दिवसीय आयोजन

आज आसनसोल, पश्चिम बंगाल में कथाकार संजीव के 75वें वर्ष पर होने वाले आयोजनों की शुरुआत हुई। हिन्दी भवन, ऊषा ग्राम, आसनसोल में आयोजित दो दिवसीय (7-8 अगस्त 2021 ) आयोजन संजीव अमृत महोत्सव एवं नागरिक अभिनंदन समारोह के आरंभ में संजीव को सम्मानित किया गया। ऊषा सर्राफ ने स्वागत वक्तव्य दिया। मेयर अमरनाथ चटर्जी ने सामाजिक बदलाव में साहित्य की भूमिका की चर्चा करते हुए संजीव के योगदान को रेखांकित किया।

इस मौके पर मंच पर कथाकार संजीव, उनकी पत्नी प्रभावती जी, वरिष्ठ आलोचक रविभूषण, कथाकार मधु कांकरिया, कथाकार रणेंद्र, प्रो. विजय कुमार भारती आदि मौजूद थे। संचालन निशांत ने किया। इस मौके पर संजीव पर केंद्रित ‘सहयोग’ पत्रिका के प्रवेशांक का लोकार्पण भी हुआ। इसके प्रधान संपादक कहानीकार शिवकुमार यादव हैं और संपादन युवा कवि निशांत ने किया है।

दूसरे सत्र में ‘कोयलांचल-शिल्पांचल के संजीव ’ विषय पर परिचर्चा हुई जिसमें कवि निर्मला तोदी ने कहा कि संजीव का साहित्य समाज का दर्पण है। उन्होंने बंद आंखों को खोलने का काम किया है। आदिवासी, दलित, स्त्री के हक-अधिकार की बात की है। सामाजिक कुरीतियों, भेदभाव और रूढ़िवाद का विरोध किया है। हमारे समाज को जानना है तो संजीव को पढ़ना चाहिए।

कथाकार मधु कांकरिया ने कहा कि संजीव को पढ़ते हुुए उनकी दुनिया बड़ी होती गयी। उनका साहित्य जीवन और मनुष्य की खोज में की गयी यात्राएं हैं। ‘ रह गई दिशाएं इसी पार ’ का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि पूंजीवाद और जैविक विज्ञान का गठजोड़ पूरी दुनिया के लिए कितना खतरनाक है, संजीव यह दिखलाते हैं। संजीव के साथ रहना, लोकतंत्र के साथ रहना है, सुंदर भावनाओं और कल्पनाओं के साथ रहना है। संजीव आज भी एक योद्धा हैं।

हिन्दी अकादमी के सचिव मनोज कुमार यादव ने कहा कि संजीव अपने पात्रों को जीने वाले साहित्यकार हैं। समरसता के चक्कर में वे समानता को नहीं भूलते। उन्होंने कोयलांचल के मजदूरों की समस्या को अपने साहित्य में दर्ज किया है। डॉ. अरुण कुमार पांडेय का मानना था कि संजीव ने अगर सिर्फ ‘अपराध’ कहानी ही लिखी होती, तब भी वे हमारे समय के महान साहित्यकार होते। उनकी कहानी बताती है कि शोषणमुक्त समाज व्यवस्था का स्वप्न पूरा नहीं होगा, तो अपराध भी खत्म नहीं होगा। उनकी कहानियां नक्सलवाद के पैदा होने की वजहों की शिनाख्त करती हैं।

मेराज अहमद मेराज का कहना था कि जहां प्रेमचंद की कहानियां खत्म होती है, वहां से संजीव जी के सोच की शुरुआत होती है। कहानीकार सृंजय ने कहा कि संजीव ने इस अंचल से लिया है तो दिया भी है। संजीव ने वही लिखा है जो समाज के लिए जरूरी है। ‘सावधान! नीचे आग है’ के निहितार्थ गहरे हैं। वह एक चेतावनी है। इशरत बेताब ने कहा कि उनकी कहानियां जेहन को कचोटती है। वे एक ऐसे फनकार हैं, जिन्हें सदियों तक याद रखा जाएगा।

मुख्य अतिथि रविभूषण ने पहले तो संजीव के शीघ्र स्वस्थ होने की कामना की, फिर उन पर केंद्रित ‘सहयोग’ के प्रवेशांक की चर्चा करते हुए कहा कि हिन्दी में शायद ही किसी पत्रिका का प्रवेशांक 580 पृष्ठों का निकला होगा। उन्होंने कहा कि संजीव ने शिवकुमार यादव, संजय सुमति जैसे कई रचनाकारों का निर्माण किया है। इस समारोह में तीन पीढ़ियां संजीव का सम्मान कर रही हैं। युवाओं की उपस्थिति बुजुर्गों से कम नहीं है। एक ध्वंसात्मक समय में रचनात्मक मानस को तैयार करना कठिन काम होता है, जो संजीव ने किया है। उन्होंने लोगों को साहित्यकारों और साहित्य से जोड़ा है। कोयलांचल-शिल्पांचल जो लगभग डेढ़ सौ-दो सौ मिल के दायरे में फैला हुआ है, उसको संजीव पर गर्व होना चाहिए। इसी अंचल में संजीव की आंखें खुलीं, खिलीं, उसमें चमक आई, उसमें तेज आया।

रविभूषण ने कहा कि संजीव ने जैसा संघर्ष किया है, हिन्दी में दो-तीन लोगों को छोड़कर किसी ने नहीं किया। हिन्दी कहानी के इतिहास में 20 नामों की कोई सूची बनेगी तो उसमें संजीव का नाम जरूर शामिल होगा। एक लेखक जहां रहता है, वही उसकी कर्मभूमि होती है, उसी के प्रश्नों, जीवन, समस्याओं, वातावरण आदि को वह लिखता है। काजी नजरूल इस्लाम के बाद वे इस धरती के दूसरे महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं। उन्होंने कभी भी हिम्मत नहीं हारी। कोयलांचल-शिल्पांचल के जो सवाल हैं, वे सिर्फ यहीं के सवाल नहीं हैं। वे पूरे भारत के सवाल हैं। स्थानीयता को व्यापक रूप में प्रस्तुत कर देना संजीव का कमाल है। संजीव का साहित्य समकालीन भारत का आदमकद आईना है। एक बेईमान समय में वे हिन्दी के अत्यंत ईमानदार कथाकार हैं। उन्होंने कहा कि संजीव राजेंद्र यादव का नहीं, बल्कि प्रेमचंद का विस्तार हैं।

अध्यक्षता कर रहे विजय कुमार भारती ने कहा कि एक रचनाकार का जीवन जिन चुनौतियों और संघर्षों से भरा होता है, उसी से उसकी रचनाएं बनती हैं। संजीव ने सत्ता की जनविरोधी नीतियों का विरोध किया है। उनका नैतिक इरादा बहुत मजबूत हैं। उनके विचारधारात्मक लेखन की यात्रा मार्क्सवाद से अंबेडकरवाद की रही है। ‘प्रत्यंचा’ उपन्यास इसका साक्ष्य है। उनका इतिहासबोध महत्त्वपूर्ण है। वे इतिहास का उपयोग नहीं, बल्कि इतिहास का निर्माण करते हैं।

 

8 अगस्त को भी यह आयोजन जारी रहेगा। पहले सत्र में ‘बदलता भारत और संजीव का रचना-संसार’ तथा दूसरे सत्र में ‘हिन्दी कथा साहित्य में संजीव की उपस्थिति’ विषय पर परिचर्चा होगी।

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion