समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

हर गाँव में हो सावित्रीबाई फुले पुस्तकालय

(अग्रेसर में  में स्थापित सावित्रीबाई फुले पुस्तकालय के तीन बरस पूरे होने के अवसर पर युवा सृजन संवाद के फेसबुक पेज पर ममता सिंह से फ़रजाना महदी की बातचीत।)

मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें।
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं।।
जॉन एलिया
फ़रज़ाना महदी: किताबों का इन्सानी ज़िन्दगी से और इन्सानी समाज से जो ताअल्लुक़ रहा है वो बहुत ही गहरा रहा है। इसे बनाने-संवारने और इन्सानी तारीख़ को सुधारने और उसे आगे की तरफ़ आगे ले जाने में किताबों ने क़लीदी किरदार निभाया है। और पुस्तकालयों का इस माएने में एक तारीख़ी रोल रहा है कि उसने उन्हीं सारी किताबों को, जो शायद सिर्फ़ घरों में होती तो कुछ पीढ़ियों के बाद उनके ज़ाया होने का डर ज़्यादा होता, और तमाम चीज़ों को सहेज कर रखा, बल्कि ये कहा जाए कि किताबों के साथ उनका मां का रिश्ता रहा है तो ग़लत न होगा। जिस तरह से मां अपने बच्चे को अपनी हिफ़ाज़त में रखती है अख़ीर दम तक, तो लाइब्रेरी का भी किताबों के साथ यही रिश्ता रहा। वो किताबों को पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए सहेज कर रखती है अपने आंचल में।
आज के वक़्त में जब कई तरह की चीज़ें आ रही हैं, एक तरह की ये सोच आम हो चुकी है कि किताबों से लोगों की दूरी बढ़ती जा रही है या अब ये आनलाइन का ज़माना है किताबों की क्या भूमिका रह गई या ख़ुद लाइब्रेरी पर भी इस तरह के सवाल उठते हैं कि इतनी बड़ी जगह में सिर्फ़ सात-आठ लोगों के लिए लाइब्रेरी बना देना कितना मौज़ू है वग़ैरह-वगैरह… ऐसे में एक छोटे से गांव में आपका ये क़दम उठाना यक़ीनन सराहनीय है और इसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है।
पहली चीज़ तो हम आपसे यही जानना चाहेंगे कि आपके ज़हन में लाइब्रेरी का ख़याल क्योंकर आया ?
ममता सिंह: सबसे बड़ी वजह तो यही रही कि किताबों से प्रेम बचपन से रहा है। जो एट्टीज़ के दौर में पैदा हुए बच्चे होंगे उन्हें पता होगा कि हमारे जीवन में किताबों का क्या महत्व था। हमारे समय में मनोरंजन का कोई और ख़ास साधन तो था नहीं। ऐसा तो होता नहीं था कि वीडियो गेम खेल लिया या कुछ और तो किताबें बचपन से ही हाथों में रहीं। बचपन से ही मेरा एक सपना था कि मेरा एक कमरा हो जिसमें किताबें छत तक ठसा-ठस भरी हों। शुरु में तो ये सपना ही रहा, किताबें पढ़ती थी ख़रीद-ख़रीदकर क्योंकि हमारे आस-पास तो कोई लाइब्रेरी थी नहीं। जीवन में ये बहुत बड़ी कमी रही कि हमारे आस-पास कोई लाइब्रेरी नहीं थी। फ़ैज़ाबाद में मैंने अपने बी.टी.सी. की ट्रेनिंग के दौरान वहां के ज़िला पुस्तकालय में सदस्यता ली तो मैंने पहली बार लाइब्रेरी देखी थी। मैंने पहली बार ऐसा देखा कि पूरे-पूरे कमरे में सिर्फ़ किताबें। ऐसे कुछ स्कूल या काॅलेज में लाइब्रेरी तो थी नहीं कि कभी गए हों, किताबें मिलीं तब मैंने सोचा कि काश मेरे पास भी एक लाइब्रेरी हो और फ़िल्मों ने भी बड़ा रोमांटिसाइज़ किया था कि एक लाइब्रेरियन होती है और उनका कोई काम नहीं होता, बस पूरे दिन लाइब्रेरी में बैठी रहो और सब को उँगली के इशारे से चुप कराती रहो। मुझे लगता था ये बड़ी अच्छी जाॅब होती है कि जिसमें किताबें पढ़ने को भी मिले और किताबों के साथ आप पूरे दिन भी रहो। तो ये बचपन और जवानी दोनों का ख़्वाब था कि एक लाइब्रेरी होनी चाहिए। तो फिर उतनी तो अच्छी नहीं लेकिन बन ही गई लाइब्रेरी।
फ़रज़ाना महदी: आपको ये एहसास कब हुआ कि अब वक़्त आ गया है इस सपने के साकार होने का ?
ममता सिंह:  मैं अपने को तो नहीं मानूंगी कि मेरे अन्दर ये इंशिपिरेशन था, ये ख़्वाब था लेकिन एक संकोच था कि ये हो नहीं पाएगा। जैसे आप अपने रूम में अपने रैक पर किताबें लगा लें, अपने पढ़ने के लिए, कभी कोई दोस्त आए वो पढ़ ले, इतने भर को था। लेकिन हमारे मित्र हैं गीतेश जी, वे केन्द्रीय विद्यालय में हैं। एक बार मुझसे मिलने आए हमारे यहां। उन्होंने देखा कि कमरे में किताबें ही किताबें हैं, तब उन्होंने कहा कि तुम्हारे पास इतनी किताबें हैं तो तुम लाइब्रेरी क्यों नहीं शुरू करती। मैंने  कहा गांव में कौन पढ़ेगा? उन्होंने कहा नहीं, इसके बारे में सोचो। तब संजय जोशी जी और लोगों ने कहा कि नहीं-नहीं एक लाइब्रेरी तो होनी ही चाहिए। जैसे आप कुछ करना चाहते हैं लेकिन उसके साथ कोई थोड़ा सा पुश करे कि हां ये हो सकता है तो लगता है कि हो जाएगा। फिर घर में बात किया और सब ने सहमति दे दी तो हो गया।
फ़रज़ाना महदी: जब आपने घर में इसका ज़िक्र किया होगा या और लोगों से तो उनका क्या रद्देअमल रहा ?
ममता सिंह: मुझे लगता है कि मेरे घर वाले काफ़ी अच्छे लोग हैं, कभी मालूम ही नहीं चला कि वो इतने अच्छे हैं। मैंने ये बात डरते-डरते कही थी। क्योंकि ब्यूटी पार्लर खोलना हो, कोई परचून की दुकान खोलना हो तो लोग हेल्प भी करते हैं लेकिन लाइब्रेरी गांव में खोलने के लिए तो हम ख़ुद ही डर रहे थे। हम लोग बहुत काल्पनिक भयों में जीते हैं। हम लोग बाउंड्रीज़ पहले से ही बना लेते हैं कि ये नहीं करेंगे, लोग नहीं करने देंगे। तो जैसे मैंने अपने घर में भैया को, भाभी को, अपनी दीदी को, बाबू को इन लोगों को बताया तो सबने कहा कि करो, तुम्हें अच्छा लगता है ये करना तो कर लो। लेकिन हमें क्या करना होगा ये बताओ। बाबू के पास एक गैरेज था गाड़ी खड़ी करने के लिए। तो मैं ने कहा कि वो टीन शेड है, गैरेज है हमें दे दो। हम उसमें रैक-वैक बनवाकर उसमें अपनी लाइब्रेरी शुरू करेंगे। तो बड़े इमोशनल हो गए, कभी-कभी घर वाले बड़े इमोशनल हो जाते हैं।  उन्होंने कहा नहीं-नहीं गैरेज में खोलोगी! अगर ऐसा ही कुछ काम करना है तो हम तुम्हारे लिए कमरा बनवा देंगे। फिर उन्होंने एक अच्छा सा कमरा दो-तीन महीने में, दिन-रात लगकर बनवा दिया। मतलब मेरा किया हुआ कुछ नहीं है सब कुछ सबका किया हुआ है।
फ़रज़ाना महदी: तन्हा निकला था जानिबे मंज़िल मगर।
लोग मिलते गए और क़ाफ़िला बनता गया।।
ममता सिंह: हां बिलकुल।
फ़रज़ाना महदी: अपनी लाइब्रेरी का सावित्री बाई फुले नाम रखने के पीछे कोई ख़ास वजह ?
ममता सिंह: अगर ईमानदारी से कहें तो कुछ लोगों को बुरा भी लगेगा। शायद हमारा ही देश है कि जहां पर विद्या की देवी मानी जाती हैं। उनकी मूर्ति, उनका कलैण्डर सब कुछ सबके घरों में है। लेकिन कभी उन देवी ने हमारे लिए कोई स्कूल या कालेज नहीं खोला। उन्होंने हज़ारों साल तक हमें शिक्षा से वंचित रखा, हमें मतलब महिलाओं को। एक बड़ा तबक़ा शिक्षा से वंचित रहा। अगर मेरे पास कोई पावर हो, मैं देवी हूंगी तो मैं सबसे पहले महिलाओं के लिए कुछ करूँगी। उनकी सुरक्षा, उनकी पढ़ाई, उनकी हेल्थ उसके लिए करूँगी। आप मुझे स्वार्थी कह सकते हैं। एक देवी बना दी गई कि भई देवी सरस्वती हैं, हर जगह वो व्याप्त हैं। हर आफ़िस में, हर कालेज में, स्कूल में उनकी प्रतिमा है लेकिन उन्होंने इतने साल तक क्यों नहीं हमारे लिए कुछ किया। और सावित्री बाई फुले एक असली सरस्वती मां थीं। उन्होंने महिलाओं के पढ़ने के लिए अपनी पढ़ाई की, विपरीत परिस्थिति से जूझ कर, और फ़िर उन्होंने हमारे लिए स्कूल खोला। अगर वो नहीं आई होती तो शायद अभी सौ साल और लग जाते हमें और तुम्हें ऐसे आमने सामने बैठकर बात करने में। इसीलिए हम उनको कहते हैं कि वो हमारी आदि मां हैं, यानी मेरी मां की भी मां हैं और उनको थैंक्स कहने का और क्या तरीक़ा हो सकता है कि हम उनके नाम पर एक लाइब्रेरी बनाएं।
फ़रज़ाना महदी: इस नामकरण को लेकर आपके परिवार और समाज का क्या रद्देअमल रहा ?
ममता सिंह: मैं ख़ुशक़िस्मत मानी जाऊंगी कि भले मेरी फ़ैमली गांव की रही है, कोई वाद या फ़ैमिनिज़म या कम्युनिज़्म या कोई भी ऐसा वाद हमारे परिवार वाले नहीं जानते। मुझे नहीं पता कि मेरे पापा-मम्मी की विचारधारा क्या थी। लेकिन मैंने हमेशा से देखा कि मेरे घर में जातिवाद नहीं है, धर्म की कोई कट्टरता नहीं है। तो जब मैंने ये कहा कि ये नाम रखेंगे सावित्री बाई फुले तो एक बार तो सबने पूछा कि क्यों और जो अभी मैंने तुम्हें बताया है वही मैंने घर में बोला और किसी ने इसपर कोई आपत्ति नहीं जताई। हां, थोड़ा अड़ोस-पड़ोस के चाचा-ताऊ लोग कहे कि अरे लाइब्रेरी खोलनी है तो अपनी मां के नाम पर खोलो, उनके नाम पर क्यों खोल रही हो। तो मैंने कहा कि वो भी मेरी मां हैं। मुझे पता है कि अगर सावित्री बाई फुले नहीं होती तो शायद मेरी मां भी शिक्षित नहीं होती और हमारा तो सवाल ही नहीं है। थोड़ा-थोड़ा तो सबको बुरा लगा लेकिन घर में नहीं, बाहर वालों को। आस-पड़ोस में ये सब थोड़ा होता भी है, सबको अपनी बाउंड्री तोड़ने में थोड़ी मेहनत करनी पड़ती है। उन लोगों को भी पचाने में थोड़ा सा टाइम लगा।
फ़रज़ाना महदी: एक चीज़ ये भी देखी जाती है कि अगर परिवार आपके साथ खड़ा है तो समाज भी उतनी ताक़त से हमला नहीं कर पाता है और उसे अपनी कमज़ोरी का एहसास भी होता है।
ममता सिंह: बिलकुल। परिवार में सब लोग लोगों का नाम लेकर अपनी विचारधारा चलाते हैं न, कि लोग क्या कहेंगे। मेरी फ़ैमिली में किसी ने नहीं कहा कि लोग क्या कहेंगे। उनके लिए ये था कि वो क्या सोच रहे हैं बस ये मायने रखता है। तो लोग कहते भी होंगे तो हमें मालूम भी नहीं चलता।
फ़रज़ाना महदी: शुरुआती दिनो में आपके ज़हन सबसे बड़ा डर क्या था और आपने उसका हल कैसे निकाला ?
ममता सिंह: सबसे बड़ा डर तो यही था कि कोई आएगा भी पढ़ने। ये मुझे भी था और सबको था। जिस दिन लाइब्रेरी का उद्घाटन था, उस दिन बहुत अच्छा सा एक प्रोग्राम हुआ था, दूर-दूर से लोग आए थे। बहुत ताअज्जुब की बात थी कि एक पिछड़े गांव में बिलकुल अपरिचित जगह पर भोपाल से, दिल्ली से, गोरखपुर से, फ़ैज़ाबाद से, जायस से सब जगह से लोग आए, सिर्फ़ एक आह्वान पर कि हमारे यहां ऐसा काम हो रहा है। तो सबको यही डर था कि कोई आएगा? मतलब जो हम प्रयास कर रहे हैं ये सफल होगा कि नहीं। जैसे प्रोग्राम शुरू होने से पहले हमारे गांव के एक रिटायर अध्यापक हैं, वो आए और कहा कि ये सब तुम फ़ालतू काम कर रही हो, कोई पढ़े-वढ़ेगा नहीं, सब मज़ाक़ उड़ाएंगे। तो मैंने बड़े शान से कहा, जबकि अंदर से तो हमारा भी दिल डर रहा था, लेकिन मैंने बड़े कान्फ़िडेंस से कहा कि मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कोई आएगा कि नहीं, अगर कोई एक बंदा पूरे एक साल में कोई एक किताब पढ़ लिया तो मैं समझूंगी कि मेरा प्रयास सफल हुआ। और मज़े की बात कि वे हमारी लाइब्रेरी के सबसे रेगुलर मिम्बर हो गए, जिन्होंने मुझे ये डर दिखाया था।
फ़रज़ाना महदी: तो आपने इस डर का हल क्या निकाला था ?
ममता सिंह: हल एक यही था कि हमने कोई बाउंड्रीज़ नहीं बनाई कि दस बजे लाइब्रेरी खुलेगी, पांच बजे बंद हो जाएगी। आप एक फ़ीस जमा करो, आपको ये करना होगा… मतलब ये जो छोटी-छोटी चीज़ें होती हैं न ये लोगों को बड़ी तकलीफ़ देती हैं। क्योंकि हमारे यहां पढ़ने का कल्चर नहीं है। पढ़ाई का हमारे यहां मतलब यही है कि आप स्कूल/कालेज की पढ़ाई करो कि जिससे आपको नौकरी मिले। लोगों को फ़्रेन्डली फ़ील हो, मतलब उन्हें ये न लगे कि भई दस बजे कोई क्यों आए? तो हमने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं रखी कि जिससे उनको उलझन हो, संकोच हो। छः बजे भी हमारे यहां पाठक आते हैं और नौ बजे रात को भी आ जाते हैं। और सबसे प्यार से बात करना, ये नहीं कि भई हम बिज़ी हैं तो हम नहीं आपसे बात करेंगे, हम नहीं घुसने देंगे, ताला लगाकर रखेंगे। यानि रिलैक्सशन जितना भी हो सका उतना दिया।
फ़रज़ाना महदी: वाक़ई मैंने जितनी भी लाइब्रेरी देखी है उनमें से इतनी रफ़ एण्ड टफ़ लाइब्रेरी नहीं देखी।
ममता सिंह: हां, यहां सब ख़ुद से ही किताब इस्यू करते हैं, ख़ुद ही ले जाते हैं, ख़ुद ही वापस करते हैं कुछ लोग नहीं भी करते हैं।
फ़रज़ाना महदी: इस सफ़र में आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा ?
ममता सिंह: मुझे असल में संघर्ष और चुनौती ये दो शब्दों के मायने कभी पता नहीं चल सके। ये जीवन है, ये सब तो होता ही है न कि कोई किताब फट गई, कोई चोरी हो गई, किसी के परिजन नाराज़ हो गए कि मेरा बच्चा तो कुछ पढ़ता नहीं है, बस आपकी लाइब्रेरी की किताबें पढ़ता है। तो हमको ये सब चुनौती नहीं लगती, ये मुझे मज़ेदार एक छोटे-छोटे स्टेप्स लगते हैं। मैं अगर इस सवाल का ईमानदारी से जवाब दूं तो मुझे चुनौती जैसा कुछ लगा ही नहीं।
फ़रज़ाना महदी: आपका एक बड़ा दिलचस्प जुमला है कि ‘‘मैं अपनी लाइब्रेरी की कामयाबी इसमें मानती हूं कि वहां से किताबें चोरी होती हैं।‘‘ ज़रा आप इस जुमले की वज़ाहत करेंगी ?
ममता सिंह: अच्छा, ईमानदारी से बताओ कि अभी कितने लोग किताबों से प्रेम कर रहे हैं। कौन किताबें रखना चाह रहा है ? अगर किताबें कोई चोरी कर रहा है तो इसका मतलब उसे किताबों से प्रेम है। वैसे एक बहुत शहूर जुमला है कि प्यार और जंग में सब जायज़ होता है। तो ठीक है, आपको किताब नहीं लौटानी है तो रख लो। हम समझ लेंगे कि यही हमारी मंदिर-मस्जिद है, यही इबादतगाह है, हम उतने ही पैसे की फिर किताबें लाकर रख लेंगे। और एक मेरा ये भी है कि कोई किताब ले गया और नहीं पढ़ा, वो लौटाना भूल गया या इंटेन्शनली नहीं लौटा रहा है। तो उसके घर में किताब होगी, वो पढ़ेगा, आते जाते और लोग उसे देखेंगे या उसके बच्चे छुएंगे। ऐक्चुअली हमारे घरों में किताबें होती ही नहीं हैं, होंगी तो लोग पढ़ेंगे। तो ये तो चोरी बड़ी सुंदर सी चोरी है न कि भई किताब किसी ने चुरा लिया तो वो किताब कहीं बरती जाएगी, कहीं पढ़ी जाएगी। रखी रह जाने से तो बेहतर है कि चोरी हो जाए। मतलब मैं ये नहीं कह रही कि लोग आएं और चुरा ले जाएं। जो लोग चुरा ले गए हैं उनके लिए है।
फ़रज़ाना महदी: उमूमन लाइब्रेरीज़ अब इन्टरनेट पर भी मौजूद हैं, आपने अभी इस तरफ़ पहल क्यों नहीं की ?
ममता सिंह: सबसे पहले इस बात का ध्यान रखना ज़रुरी है कि लाइब्रेरी है किस जगह पर। यहां नेट की कनेक्टिविटी का ये हाल है कि मैं यही नैटवर्क के लिए अपने घर से सात किलोमीटर दूर अपनी सहेली के यहां आई हूं, जो हाईवे पर है और उसका ये हेडफ़ोन, उसके भाई का ये लैपटॉप और उसके हाथ की चाय जमाकर बैठी हूं साढ़े दस बजे से। तो जहां पर नेट की ऐसी कनेक्टिविटी है वहां ये सब कैसे चल सकता है। आगे अगर चार-छः-दस साल में नेट-वेट सही हुआ तो कर लेंगे हम लोग। अभी तो पासिबल ही नहीं है। क्योंकि एक लाइव मेरे लिए इतना मुश्किल होता है कि पूरा ज़िला जान जाता है कि आज मैं लाइव हो रही हूं। ये मेरी ज़िन्दगी का दूसरा लाइव है और इसके लिए पूरी एक टीम लगती है इसको कराने में। जब स्थिति ठीक होगी तो जरूर किया जाएगा।
फ़रज़ाना महदी: साल भर में आपकी लाइब्रेरी में कितने लोग विज़िट करने आते हैं और क्या रहती है उनकी प्रतिक्रिया ?
ममता सिंह: विज़िटर हम किनको मानें ? जो किताबें इस्यू कराते हैं या जो वहीं बैठकर किताबें पढ़ते हैं या जो सिर्फ़ देखने आते हैं। किताबें इस्यू करने की ही हम सिर्फ़ संख्या रखते हैं बाक़ी तो अंदाज़ा ही रहता है। फिर भी पांच-छः सौ, सात सौ लोग तो हो ही जाते हैं। हां जो किताबें इस्यू होती हैं हम बस उन्हीं की करेक्ट संख्या बता सकते हैं। लेकिन पांच सौ एवरेज मानकर चलो, इतने लोग तो आते ही हैं साल में ।
फ़रज़ाना महदी: उनकी प्रतिक्रिया क्या रहती है ? कुछ सुझाव देते हैं वो ?
ममता सिंह: जैसे अभी इसी दस-पंद्रह दिन पहले की बात है। बग़ल के गांव के दो-चार बच्चे आए, वो सिक्स क्लास के थे। तो वो आए तो एकदम अचम्भित हो गए। क्योंकि उन्होंने क्लास रूम की पढ़ाई के अलावा कोई किताब नहीं देखी थी। दरअसल उनका एक दोस्त उन्हें पकड़कर लाया था जो कि मेरे गांव का है कि चलो तुम्हें  बहुत सारी किताबें दिखाएं। फिर वो बच्चे इतने ख़ुश हो गए कि हर दूसरे तीसरे दिन आते हैं और किताबें लेकर जाते हैं। जो आता है पहले तो वो आश्चर्य में पड़ता है फिर ख़ुश होता है फिर पढ़ने की कोशिश करता है। मुझे एक सीख मिली कि हमारे जीवन से पन्द्रह-बीस सालों में किताबें निकल गईं, अगर किताबें सहज उपलब्ध हों तो लोग पढ़ते हैं। जो बाहर से आते हैं, जैसे कोई शहर से आया है, कोई भैया के दोस्त आए हैं, पति के दोस्त आए हैं या मेरा ही कोई दोस्त आया है तो वो लोग तो ख़ुश होते हैं। सबको इस बात की हैरत भी होती है कि भई इतने अंदर के गांव में एक लाइब्रेरी रन कर रही है। और मतलब ये नहीं कि दो-चार लोग आए और बंद हो गई। निरंतर तीन साल से चल रही है।
फ़रज़ाना महदी: कोरोना काल में भी क्या लोग आते थे और आप उन्हें किस तरह हैंडल करती थीं ?
ममता सिंह: स्कूली बच्चे जब स्कूल जाते थे तो वो बहुत आते थे, मतलब एक दिन में अस्सी-अस्सी, नब्बे-नब्बे बच्चे आ जाते थे, छुट्टी के बाद या लंच ब्रेक में। गांव में जो नर्सरी स्कूल होते है वहां से, प्राइमरी से भी। तो उतने बच्चे तो नहीं आए, लेकिन दो-दो, चार-चार बच्चे आते रहे, क्योंकि बच्चे खेल कर, मोबाइल देखकर बोर हो गए थे। तो दो-दो, चार-चार बच्चे हमेशा आते रहे, हर दिन। बाहर एक वाशबेसिन है, वहां सेनिटाइज़र रख दिया। अच्छी बात ये रही कि हमारे गांव में कोई भी कोरोना का केस नहीं आया सिवाए एक के। लेकिन लोग हैंड वाश के लिए बहुत जागरूक रहे, मतलब उन्हें कुछ मालूम हो या न हो लेकिन हैंड वाश करना मालूम था। सोशल डिस्टेंसिंग के बारे में उन्हें बता दिया गया था कि भई भीड़ न लगाएं। और सबसे सुंदर बात क्या रही कि उस समय मेरे पास ऐसे पाठक आए कि जिनको हम लोग भी अपनी कन्डीशनिंग के चलते सोचते हैं कि जो लोग सब्ज़ी बेचते हैं, जो लोग प्लम्बर का काम करते हैं, जो इलेक्ट्रीसियन का काम करते हैं ये लोग कहां पढ़ते होंगे। ये हमारी समाजिक दूरी का नतीजा है। मैं अपने को बहुत सोशल समझती थी मगर मुझे अपनी समझ पर शर्मिन्दगी हुई। एक रोज़ तीन लड़के आए, बाइस-पच्चीस साल के थे और वो प्लम्बर का काम करते थे। उन्होंने किसी सब्जी वाले के हाथ में किताब देखी और पूछा कि भाई ये कहां से लाए हो। वो लोग पांच-सात किलोमीटर दूर के गांव के थे, मेरे गांव के नहीं। तो उस सब्जी वाले ने कहा कि अग्रेसर में जाओ, वहां एक लाइब्रेरी है, वहां मिलेंगी किताबें। तो उन्हें लगा कि कुछ फ़ीस-वीस भी होगी। फिर उन्होंने बताया कि मैडम जी हम तो प्लम्बर का काम करते हैं और अभी घर आ गए हैं वापस, फिलहाल अभी तो ख़ाली हैं और हमें पढ़ने का शौक़ रहा है लेकिन बारहवीं के बाद हमें काम सीखना पड़ा। सब्ज़ी वाले आए, सोचिए, कितनी सुंदर बात है। ये नहीं कि भई किसी कालेज वग़ैरह का स्टूडेंट हो। तो मुझे तो कोरोना में बहुत अच्छे पाठक मिले। ऐसे लोग जिन्हें हम ही नहीं जानते थे कि ये पढ़ते होंगे और रेगुलर तब से वो पढ़ रहे हैं। तो हैंडल करने जैसा गांव में कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई क्योंकि कोरोना आया ही नहीं हमारे यहां।
फ़रज़ाना महदी: अभी पिछले साल जब मैं आपके यहां आया था तब मैंने आपसे पूछा था कि कितने मुस्लिम लड़के/लड़कियां आते हैं आपके यहां ? तब आपने बड़ी लम्बी लिस्ट दिखाई थी मुझे। क्या इस कोरोना काल में, जबकि मुस्लिम्स के ख़िलाफ़ एक बाक़ाएदा प्रोपोगन्डा चलाया गया, ख़ासकर जमाती के नाम पर। तो ऐसे में क्या उन मुस्लिम बच्चों का आना-जाना यूं ही बरक़रार रहा और जो आते थे तो लोगों का रवैया उनके प्रति कैसा रहा ?
ममता सिंह: प्रोपोगन्डा का असर तो होता है, लेकिन गांव में अभी भी इतनी समरसता है कि वो लोग मज़ाक़ में कह देंगे कि अरे तुम लोग जमाती हो, तो हम लोग जब भी सुनते थे डपट देते थे, अपने घर के भी बच्चों को कहते थे कि बेटा फ़ेक न्यूज़ में विश्वास नहीं करना चाहिए। कोई असर नहीं हुआ, सब ऐसे ही आना-जाना, किताबें लेना, पढ़ना, सब आते-जाते रहे।
फ़रज़ाना महदी: यानी इससे हम ये भी देख सकते हैं कि इन सारे प्रोपोगन्डे का असर जितना शहरी समाज पर देखा गया, गांव में ऐसा माहौल नहीं रहा।
ममता सिंह: जी हां बिलकुल। इसकी वजह भी यही है कि शहर में लोग अपने में सिमटे होते हैं, गांव में कुछ भी हो आपको बाहर निकलना ही होगा और आप कब तक अपने पड़ोसियों से और मोहल्ले वालों से नाराज़ होकर रहते हैं या इन चीज़ों पर विश्वास करते हैं। तो हमारे यहां तो जाति और धर्म दोनो का कोई असर नहीं हुआ। शायद हमारे आस-पड़ोस के लोग इतने अच्छे हैं, मुझे तो यक़ीन ही नहीं होता कि वो इतने अच्छे हैं।
फ़रज़ाना महदी: आपकी लाइब्रेरी में आए पाठकों को किस तरह की किताबें ज़्यादा पसंद आती हैं ?
ममता सिंह: भई हम तो हमेशा कहते हैं कि मेरी लाइब्रेरी परचून की दुकान है, जहां पर दाल-चावल भी मिलेगा और जियो का सिम भी मिल जाएगा। तो हमारे यहां बच्चों की किताबें…. धार्मिक किताबों में अगर वाल्मीकि की रामायण है तो दाभोलकर भी आपको मिलेगें और इस्लाम को जानने के लिए जो किताब है उर्दू में है, अंग्रेज़ी में है, साहित्य का बहुत ही बड़ा सेक्शन है हमारे पास। चाहे एकदम नवीनतम किताबें हों कि परसों अमेज़न पर आई हो, वो आ जाएगी। मतलब हर तरह की किताबें हर आयु वर्ग के लिए हैं। बच्चों की सबसे ज़्यादा डिमांड कामिक्स की होती है या छोटी-छोटी स्टोरी बुक्स या चित्र कथाएं। लेकिन जो आठवीं-दसवीं के बच्चे हैं वो सीधे आते हैं और उनको कंपटीशन की किताब चाहिए। सब आई.ए.एस. बनना चाहते हैं लेकिन उन्हें टेक्सट बुक नहीं पढ़ना, उन्हें कहानी की किताबें नहीं पढ़ना। मतलब एक तरह से काउन्सलिंग भी करनी पड़ती है अपनी अकल-बुद्धि भर की। समझाना पड़ता है कि बेटा ये सब किताबें भी जीएस ही हैं, तुम बस रट के एक लाइन में आई.ए.एस. नहीं बन पाओगे, पहले तो एक अच्छे इन्सान बनो। तो इस तरह से बच्चों को उन किताबों की तरफ़ मोड़ती हूं। वैसे मैं एक अच्छी सेल्स मैन हो सकती थी, मुझे अब मालूम चला लाइब्रेरी संभालते हुए। जब कोई नया आता है तो मैं पहले उससे बात करती हूं पांच-दस मिनट कि भई तुम्हारे क्या शौक़ हैं, तुम क्या बनना चाहते हो और तुम्हें  यहां के बारे में किसने बताया, तुम्हें क्या चाहिए। तो पन्द्रह साल के ऊपर जो भी आते हैं उन्हे आई.ए.एस. बनना है, पी.सी.एस. बनना और उन्हें कोई ऐसी सिर्फ़ एक जादुई किताब चाहिए जिसे वो पढ़कर जल्दी से सिलेक्ट हो जाएं। वहीं जो पचास-साठ के ऊपर वाले आते हैं वो कहते हैं कि कोई धार्मिक किताब हो तो देना। मतलब ज़िन्दगी भर तो मज़े हो गए अब अन्त में सुधार लें अपना परलोक। तो उसमें भी हम उन्हें बड़ी चतुराई से यही कहते कि धार्मिक किताबों भी नए दृष्टिकोण से पढ़िए न। आप प्रतिभा राय की द्रौपदी पढ़िये, आप शिवाजी सावंत की मृत्युंजय पढ़िए, आप रामायण-महाभारत की कहानी तो जानते ही हैं, उनके पात्रों की भी कुछ और कहानी जानिए। तो मैं एक अच्छी सेल्स मैन की तरह अपनी वाली चीज़ें टिका देती हूं कि लो भई ये ले जाओ, ये पढ़ो। और जब लोग पढ़कर आते हैं तो यही कहते हैं कि बहुत अच्छी किताब थी। तो हर तरह की किताबें हैं और हर तरह की किताबें लोग ले जा रहे हैं।
फ़रज़ाना महदी: आपकी लाइब्रेरी में सबसे कम उम्र का पाठक कौन है ?
ममता सिंह: सबसे कम उम्र की मेरे पड़ोस के एक श्रीवास्तव चाचा हैं, उनकी लड़की तीन साल की उम्र से आ रही है। पिछले तीन साल से, यानी अब उसकी उम्र छः साल की है। वो ऐसी भी किताबें पढ़ती है कि जिसे पढ़ने के लिए हम लोग भी हिम्मत न जुटा सकें, मतलब सबसे मोटी किताब निकालती है और पलटती रहती है घण्टे दो घण्टे बैठकर और बड़ी तनमयता से वो पढ़ती है। तो हम तीन साल मान लेते हैं उसके लिए, अब तो वो ख़ैर छः साल की हो गई है।
फ़रज़ाना महदी: आपकी लाइब्रेरी में महिला पाठकों की क्या भूमिका है, क्या वो सहज रूप से आ पाती हैं ?
ममता सिंह: देखो पर्दा तो अभी भी है गांव में, मतलब एक घर, दो घर छोड़ देने से पर्दा ख़त्म तो हो नहीं जाता। जो सामाजिक बदलाव हैं वो बहुत देर में दिखाई देते हैं। आरतें आती हैं शाम को कि जैसे जब गौधूलि होती है तब वो आती हैं घूंघट निकाले और यही कहेंगी कि कोई धार्मिक किताब देना बच्ची, मतलब पता नहीं सबको क्यों यही लगता है कि धार्मिक किताबें पढ़ने से ही सारे दुख-दर्द दूर हो जाएंगे। तो बच्ची भी चालू है, वो भी उन्हें ऐसी-ऐसी किताबें देती है कि लो अब सीता को नए नज़रिए से पढ़ो, अब द्रौपदी को पढ़ो, बिलकुल से हम उनको सुखसागर और वैसे किताबें नहीं देते हैं कि ये लो पढ़ो। तो आती हैं लेकिन शाम में आती हैं, दिन में आने वाली महिलाओं की संख्या बहुत कम है या फ़ोन करके मंगवा लेती हैं कि कोई अच्छी किताब भेज दो। मतलब फ़ोन का एक अच्छा इस्तेमाल होता है।
फ़रज़ाना महदी: जो बच्चियां आती हैं उनकी क्या प्रतिक्रिया रहती है ?
ममता सिंह: बहुत मज़े करती हैं, बच्चियों के लिए ये सबसे अच्छी बात रही। वो बहुत एक्टिव रहती हैं, बच्चियां पढ़ेंगी भी, बच्चियां महीने भर डांस सीखती हैं और उसके बाद वो अभी तीन जनवरी को परफ़ार्म भी करेंगी। उनके लिए ये एक मल्टी टास्किंग का ज़रिया भी है। हम लोग बीच-बीच में क्लासेज़ भी चलाते हैं। क्लासेज़ जैसे इंगलिश की, मैथ्स की, ज्योग्राफ़ी पढ़ा दिया, छोटी-छोटी क्लास। रेगुलर नहीं, क्योंकि लोगों को लगता है कि ये कोई कोचिंग है और वहां पर फिर वो उसी तरह ट्रीट करने लगते हैं। तो हम बीच-बीच में छोटे-छोटे कार्यक्रम करते हैं बच्चों के लिए।
फ़रज़ाना महदी: आप चूंकि एक सवर्ण समाज से आती हैं तो आपके यहां दलित बच्चे और महिलाओं को आने में क्या कुछ हिचक रही है, वो ख़ुद से आ गए या आपको कोई अभियान चलाना पड़ा ?
ममता सिंह: अभियान जैसा तो हमने नहीं चलाया क्योंकि मुझे बहुत संकोच रहता था। बहुत दिन तक गांव में तो ये रहा कि ये किसी एन.जी.ओ. या कहीं से फ़न्डिंग हुई है, तो हम नहीं जाने देंगे तो फ़्लाप हो जाएगा। और जो दलित परिवार के बच्चे हैं वो आते थे तो दूर खड़े हैं, झाँकते हैं, दूर गेट के बाहर खड़े हैं तो उनको बुलाना कि आओ और उन्हें चार-छः किताबें दे दिया, उन्होंने उलट-पलटकर देखा फिर वह ख़ुद ही अपने गांव में जाकर बता दिए, फिर बच्चे आने लगे तो कोई समस्या नहीं हुई। हमने देखा है कि बच्चों के अन्दर ये सब नहीं होता, ये सब बड़ों के शग़ल हैं कि ये सवर्ण हैं, ये दलित हैं, ये क्या हैं…. लेकिन बच्चे एक साथ अपने स्कूल गए, वहां से लौटते हुए आए सब एक-दूसरे की शिकायत भी करेंगे कि इन्होंने किताब फाड़ी थी, इन्होंने गंदगी की थी….. तो दलितों की भी बहुत बड़ी संख्या है हमारे यहां। दो गांव के बच्चे आते हैं बल्कि।
फ़रज़ाना महदी: दलित महिलाओं का भी क्या इतनी सहजता से आना है ?
ममता सिंह: ईमानदारी से कहूं तो दलित महिलाएं पढ़ने नहीं आईं अभी तक, उन्होंने किताब नहीं लिया अभी तक। सवर्ण में भी ब्राह्मण और ठाकुरों के यहां की भी महिलाएं बहुत कम आईं। ओ.बी.सी. और अदर महिलाएं आईं। सवर्ण के यहां से भी बहुत कम आईं। हां, जिनसे बड़े घरेलू टाइप के रिश्ते थे बस वही आती थीं, वर्ना नहीं आती थीं कि नहीं हमारे घर की औरतें नहीं जाएंगी। तो अगर कभी उनके यहां जाना होता तो मैं किताबों पर एक भाषण दे आती।
फ़रज़ाना महदी: आपने लाइब्रेरी के साथ एक ख़ूबसूरत सा गेस्ट हाउस भी बना रखा है कि जहां आप वो सब सहूलियत देती हैं जो उमूमन शहरी गेस्ट हाउस में भी नहीं पाए जाते। तो इस गेस्ट हाउस की परिकल्पना के पीछे की वजह क्या रही ?
ममता सिंह: वो इसलिए कि अगर कोई बाहर से आया तो वो कहां रहेगा और गांव में भी होता है न कि आप घर में नहीं जा सकते हैं। मतलब कोई भी आ रहा है बाहर से तो वो हमारे घर में नहीं आएगा। अब…. चालीस साल पहले आदमी गांव छोड़कर चले गए और अब गांव पर लिखते हैं तो बड़ी हंसी भी आती है, कभी खीज होती है, कभी हम सोचते हैं कि ये लोग गांव जाकर दस दिन-पंद्रह दिन रह तो लें, अब की गांव की समस्या भी तो देख लें। वो पैंतीस-चालीस साल पहले ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ टाइप का तो मामला रहा नहीं। गांव में क्या प्लस है क्या माइनस है तो उसको देखने के लिए आएं। मेरे बहुत सारे दोस्त भी आते हैं, रुकते हैं, दो दिन चार दिन। नेट-वेट नहीं चलता तो उनको लगता है कि भई ये एकदम बढ़िया सी जगह है। किताबें पढ़ो, खाओ, घूमो, फिरो और गांव वालों को भी अच्छा लगता है कि भई बाहर से लोग आ रहे हैं। गांव में अब कोई आना नहीं चाहता है। जो गांव के ही लोग हैं वो नहीं आना चाहते हैं। गांव को लेकर जो एक निगेटिव अप्रोच था कि क्या है गांव में, बिहार में का बा की तरह से गांव मा का बा तो गांव में आइए देखिए कि का बा। तो इसलिए भी अच्छा है कि एक रूम है, उन्हें भी संकोच न लगे कि भई घर वाले देख रहे हैं और उनके उठने-बैठने में किसी भी तरह की घुसपैठ हो। पुस्तकालय से अटैच रुम है तो आएं और रहें।
फ़रज़ाना महदी: आपने लाइब्रेरी का पूरा सेटअप तैयार करने के लिए और लगातार सक्रियता बरक़रार रखने के लिए जो पैसा ख़र्च हुआ होगा या जो सालाना होता है उसका बन्दोबस्त आापने कैसे किया ?
ममता सिंह: शुरू होने में प्राब्लम थी। जैसे भैया और बाबू ने रूम बनवा दिया और पहला आयोजन था तो दोस्तों ने काफ़ी सहयोग कर दिया। लेकिन तीन साल से तो बिना किसी आर्थिक सहयोग के चल रही है और मुझे लगता है चलती रहेगी। जैसे अपने यहां है न कि कोई मन्दिर-मस्जिद में जाएगा तो दस रूपया चढ़ाएगा लेकिन लाइब्रेरी के लिए कोई नहीं देता है। वैसे मुझे नहीं लगता है कि ज़रूरत भी है। क्योंकि मेरे पास कोई लाइब्रेरियन तो है नहीं कि उसे उसकी सैलरी देनी है। हमने धीरे-धीरे करके दो साल में दो रैक बनवा लिया और दो साल में आगे है कि थोड़ा फ़र्नीचर बनवा लें, अभी बस चौकी रहती है बैठने के लिए तो टेबल चेयर टाइप का कर लेंगे। आर्थिक सहयोग तो अब कोई नहीं होता, हां पुस्तकें मिलती हैं, बहुत सारे दोस्त आनलाइ कर देते हैं, कोरियर करके भेज देते हैं किताबें। और मुझे ख़र्च की ज़रुरत भी नहीं है क्योंकि वो ताम-झाम ही नहीं है। किताबें हैं, पाठक हैं, चौकी है, बस तीन चीज़ है तो तीन चीज़ों में क्या ख़र्च लगना है। किताबें ख़रीद लेते हैं, कुछ आ जाती हैं।
फ़रज़ाना महदी: क्या आप मुझे वो पता बता सकती हैं कि जिस पते पर किताबें भेजी जा सकें। ताकि जो हमारे पाठक भेजना चाहें वो ब-आसानी भेज सकें।
ममता सिंह: जी हां, सावित्री बाई फुले पुस्तकालय, गांव – अग्रेसर, पोस्ट – त्रिसुंडी रामगंज, ज़िला – अमेठी, पिन कोड – 228159। इसपर आप कोरियर कर सकते हैं, सीधे अमेज़ॅन से भी भेज सकते हैं।
फ़रज़ाना महदी: साल भर में आपको तोहफ़े के तौर पर कितनी किताबें मिल जाती होंगी?
ममता सिंह: कम से कम सौ किताबें तो मिल जाती हैं। कुछ दोस्त हैं जो बिना अपना नाम बताए भेज देते हैं। जैसे एक साहब हैं उन्होंने लगातार तीन साल से सस्क्राइब करा दिए हैं हमारे बच्चों के लिए कंपटीशन की किताबें, तो बच्चे हर महीना अपना पढ़ते हैं करन्ट अफ़ेयर की किताब। उन्होंने बताया नहीं था कि उन्होंने किया है, जब आने लगा तब हमें पता चला कि हां किसी ने किया है तो ऐसे भी दोस्त हैं।
फ़रज़ाना महदी: इस पीडीएफ़ और ई-बुक के ज़माने में आपको क्या लगता है कि लाइब्रेरी की क्या भूमिका है और इसका भविष्य कैसा होगा ?
ममता सिंह: मैं शहरों की बात नहीं जानती हूं, मुझे नहीं पता है कि विश्वविद्यलयों में कैसे लोग पढ़ रहे हैं और क्या हो रहा है। लेकिन गांव में बिना किताब के तो नहीं चल पाएगा, पीडीएफ़ के लिए भी आपके पास एक स्मार्ट फ़ोन तो होना ही चाहिए। अभी जैसे आनलाइन क्लासेज़ चलीं तो हमारे बेसिक के बच्चे नहीं पढ़ पाए क्योंकि उनके पास फ़ोन ही नहीं है। तो अभी जिस जगह पर हम हैं वहां पर तो ये फ्लॉप है। हमारे यहां अभी तो किताबें ही चलेंगी। मेरी ख़ुद की भी आदत नहीं है, पी.डी.एफ़. अगर कोई भेजता है तो भागना पड़ता है डाउनलोड करने के लिए नेट की तलाश में और फिर उसमें आंख गड़ा-गड़ाकर पढ़ना, फिर मोबाइल चार्ज है या नहीं। बहुत सारी उसमें ऐसी टेकनिकल चीज़ें हैं कि अभी हम लोग उसके फ्रेंडली नहीं हैं, अभी कुछ साल लगेंगे।
फ़रज़ाना महदी: क्या आप पीडीएफ़ और ई-बुक को लाइब्रेरी के लिए ज़रूरी चीज़ मानती हैं ?
ममता सिंह: हां, हैं तो ज़रूरी चीज़ क्योंकि बहुत सारी ऐसी चीज़ें हैं जो नहीं मिलती हैं और अगर पीडीएफ़ में हैं तो वो आपको आसानी से मिल जाती हैं, उस पर पैसे भी नहीं ख़र्च करने हैं। लेकिन ये अभी हमारी ज़रूरत की चीज़ नहीं है। है तो ज़रूरी लेकिन हमारे लेबल की नहीं है।
फ़रज़ाना महदी: आजकल बच्चे किताबों से ज़्यादा वीडियो विजुवल देखना पसंद करते हैं तो इसको लेकर आपकी कोई योजना है ?
ममता सिंह: हम लोग कभी-कभी फ़िल्में दिखाते हैं लेपटाप पर और अभी एक प्रोजेक्टर मेरे हसबैंड ने दिया हुआ है उस पर भी हम लोग कुछ करेंगे। तो बच्चों को उस छोटे से मीडियम से निकालकर एक ढंग की चीज़ दिखाने के लिए भी कर रहे हैं। इधर कोरोना में तो नहीं हुआ लेकिन उससे पहले हम लोग हर हफ़्ते एक फ़िल्म दिखाते थे, आस-पास के बच्चों को और स्कूल में भी मैंने दिखाने की कोशिश की जो कि वही लाइट और नेटवर्क के चक्कर में हो नहीं पा रहा था, लेकिन है आगे भविष्य में हम करेंगे इसको। ताकि बच्चे अगर डिजिटल मीडियम पर देखें तो ढंग की चीज़ देखें।
फ़रज़ाना महदी: हमारे वो पाठक जो लाइब्रेरी खोलने का ख़्वाब रखते हैं क्या आप उन्हे कुछ सलाह देना चाहेंगी ?
ममता सिंह: सबसे पहले तो आपको इस बात की उम्मीद नहीं करना चाहिए कि लोग इस नज़र से देखें कि आप कोई बहुत बड़ा महान काम कर रहे हैं, इस मुग़ालते में नहीं रहना चाहिए। न ही इसकी उम्मीद करनी चाहिए कि अचानक से सौ-सौ लोग पढ़ने चले आएंगे और बड़ी वाह-वाही होगी। पहले तो आपको किसी फल की प्रत्याशा ही नहीं करनी है। आपके मन में बस ये भाव रहना चाहिए कि चलो हम खोलते हैं, लोग आएंगे पढ़ने, अगर नहीं भी आते पढ़ने तो हम उन्हें प्रोत्साहित करेंगे, तब तो चलेगा। क्योंकि हमने दो लाइब्रेरी और पिछली फ़रवरी में शुरू की हैं। एक तो बहुत अच्छी चल रही है, दूसरे वाले को देख थोड़ा सा दुख होता है। वो बोले कि दीदी, लोग पढ़ने नहीं आते हैं। मैंने कहा भैया धीरे-धीरे लोग फ़्रेंडली होते हैं, पहले तो डर जाते हैं, लोगों को डर लगता है कि ये क्यों कर रहे हैं। और इस क्यों का हमारे पास जवाब नहीं है। ये कोई संस्था नहीं है, कोई एन.जी.ओ. नहीं है और हमें कोई फ़न्डिंग नहीं हो रही है। अब ये लोगों को समझ में आने में बहुत टाइम लगता है। गांव के लोग बहुत भोले नहीं हैं। वो प्रेमचंद वाले गांव से बाहर लोगों को निकलना पड़ेगा। गांव वाले वहीं जाना चाहते हैं जहां उन्हें फ़ायदा हो या किसी को नुकसान हो रहा हो, वो आपको नुकसान पहुचाना चाहेंगे और अपना फ़ायदा लेना चाहेंगे। तो जिस दिन उनको ये समझ में आ जाएगा कि उनका फ़ायदा है आने में, वो आने लगेंगे। तो आपको इस बात की कोई ख़ास उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि आपको इसका कोई फल मिलेगा। लोग अगर कोई काम करते हैं तो उन्हें तुरंत रिटर्न चाहिए कि वो यश के भागी बनें। मुझे बड़ा संकोच लगता है अपनी लाइब्रेरी के बारे में बात करने में, हमने कहीं पर भी कोई बोर्ड नहीं लगाया है, कहीं प्रचार नहीं किया है, बस मेरा ये है कि मेरी लाइब्रेरी को चार-छः-दस किलोमीटर में लोग अपने आप से जान गए हैं, वो आते हैं मेरे लिए बहुत है इतना। दूसरी चीज़ आप बांधिए नहीं उनको, ये सब नहीं कि भई अगर आप किताबें दो दिन के बाद तीसरे दिन लौटाएंगे तो चार्ज लगेगा उसका, आपको फ़ाइन देना होगा। ऐसे कोई नहीं पढ़ेगा। क्योंकि किताबें हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं, ये पन्द्रह-बीस साल जो रहा है ये बहुत बड़ा निर्वात बना चुका है। वो जो एट्टीज़ वाले बच्चे थे, वो तो पढ़ते थे कामिक्स, स्टोरी वग़ैरह, वो फ़ाइन भरकर भी पढ़ते थे। लेकिन इन बच्चों को ग़रज़ नहीं है पढ़ने की। इन्हें पहले आप फ़्रेंडली बनाओ, ये नहीं कि भैया दस बजे लाइब्रेरी खुलेगी तभी आओ। अब कोई आठ ही बजे फ़ुरसत पाया है, किसी को लौटाना है तो वो रात के नौ बजे आ रहा है। हमने अपनी नींदें ख़राब की हैं, हमने बहुत असुविधाएं झेली हैं तब ये जाकर तीन साल से रन कर रहा है। एक सर हैं, उन्होंने कहा कि मैंने अपने गांव में बहुत कोशिश की, लेकिन नहीं हुआ, गांव वाले ऐसे हैं। मैंने कहा नहीं सर आप अनुशासन में रहे, आपको अनुशासन हीन होना पड़ेगा। सबसे पहले लाइब्रेरियन होने के लिए….. हम गांव की लाइब्रेरी की बात कर रहे हैं शहर की नहीं। लोगों की अनुशासन हीनता को आपको अपना अनुशासन बनाना पड़ेगा। किसी को जब आना हो तब आए, जब जाना हो तब जाए, कितने भी दिन किताब अपने पास रखे। तो जितना रिलैक्सेशन आप दे सकते हैं उतना दें और फल की आशा न करें। गीता की ये बात यहां पर काम करती है कि आप कर्म कीजिए पर फल की आशा मत करिए।
फ़रज़ाना महदी: जो दो लाइब्रेरी आपने शुरू  की है ज़रा उनके बारे में कुछ बताएं ?
ममता सिंह: सुल्तानपुर से प्रतापगढ़ के बीच में एक बाज़ार है दुर्गापुर, वहां पर एक लाइब्रेरी है। एक कोचिंग सेन्टर था, जो उस कोचिंग सेन्टर के ओनर थे प्रवीण भास्कर। वो ख़ुद बहुत पढ़ने के शौक़ीन हैं। पहले एक साल तक तो वो मेरी ही लाइब्रेरी से किताबें ले गए पढ़ने के लिए। इतना धुरंधर पढ़ाकू लड़का कि क्या बताएं। फिर बड़े संकोच में उसने कहा कि दीदी हम भी अगर अपने यहां लाइब्रेरी शुरू करें तो….. अब चूंकि उसके यहां बड़े मेच्योर बच्चे आते हैं, ये सिपाही की भरती के लिए कोचिंग कर रहा है तो कोई बैंक के लिए कर रहा तो वो पढ़ना चाहते थे और ये हमारे यहां से किताबें ले जाकर उनको देते थे। फिर हम लोगों ने तय किया कि अब एक कोचिंग में भी लाइब्रेरी बनाई जाए। ये रामगंज के बाएँ है। दूसरी रामगंज के दायें छीड़ागांव है वहां पर है। वहां के एक हमारे अध्यापक साथी हैं तो वो भी किताबें ले जाते थे। तो उन्होंने भी कहा कि हम भी अपने यहां शुरू करें, फिर हमने किताबें इकट्ठी कीं और एक छोटे से आयोजन के साथ उनके यहां भी शुरू हो गया। तीनो लाइब्रेरी सावित्री बाई फुले के नाम से हैं। अच्छी बात क्या है कि बहुत सारे लोग उत्साहित हुए कि हम भी खोलेंगे। पर अपने समाज में प्राब्लम क्या है कि लोग खोलना चाहते हैं तो उन्हें लगता है कि उनके पास बहुत सारा पैसा कहीं से आए और उसी से सारा का सारा आयोजन हो। हम तो बस ज़्यादा से ज़्यादा सौ दो सौ किताबें दे सकते हैं, वो भी अपने पैसे से ख़रीद कर। हम आपके यहां कोई सेटअप नहीं बना सकते कि कोई रूम बनवा देंगे, हम लाइब्रेरी के लिए रैक बनवा देंगे। हम नहीं कर पाएंगे इतना। मेरे यहां भी जो हुआ तो बाप-भाई ने जो कराया तब हुआ है, मतलब मेरे अकेले के बस की बात नहीं थी कि मैं इतना बड़ा सा रूम बनवा लूं। तो लोगों को लगता है कि इन्हें कहीं से पैसे मिले हैं तो इन्होंने इतना बनवा लिया और अब ये हमारे लिए वहां से पैसे ले आएं।
फ़रज़ाना महदी: आख़िरी सवाल ये कि आगे की आपकी क्या योजना है ?
ममता सिंह: योजना तो यही है कि हमारे पूरे क्षेत्र के हर गांव में सावित्री बाई फुले और फ़ातिमा शे’ख़ के नाम पर लाइब्रेरी ही लाइब्रेरी हो। हमारे गांव के हर घर में एक लाइब्रेरी हो, ये भी एक ख़्वाब है। ऊपर वाला चाहेगा तो कभी न कभी पूरा होगा ही। ये डिजिटल फॉर्म में करने की अगले पांच साल में योजना है। एक कम्प्यूटर हो…. थोड़ा सा सिस्ट्मैटिक हो जाए तो अच्छा लगेगा। और ये भी टेबल चेयर का इंतेज़ाम कर लें, फ़िलहाल अभी चौकी से काम चला रहे हैं। ये भी कोशिश है कि हमें नेट उपलब्ध रहे और हमारी लाइब्रेरी नेट पर उपलब्ध रहे।

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion