समकालीन जनमत
पुस्तक

टिकटशुदा रुक्का: अंत ही शुरुआत है

ममता सिंह


नवीन जोशी द्वारा लिखित टिकटशुदा रुक्का उपन्यास पर बात करने के लिए जाने क्यों पहले अंत की बात करने का मन होता है, एक भावुक मगर अस्पष्ट कार्ययोजना लिए उपन्यास का नायक पत्नी और बेटी के साथ पहाड़ वापस लौटता है और उपन्यास समाप्त हो जाता है।

कथा के अथ पर ज़रा बाद में बात करते हैं, पहले अंत से शुरू करना बेहतर…कथा में कथानायक दीवान राम एक बेहद प्रतिस्पर्धी और प्रतिष्ठित कार्पोरेट नौकरी को छोड़कर अपनी जड़ों की ओर लौटते दिखाया जाता है । बहुतों को यह कोरी भावुकता और आदर्शवाद की बातें मालूम होंगी पर दीवान राम की संवेदनशीलता, संघर्ष, सपनों के मद्देनज़र यह अंत कतई चौंकाता नहीं है, बल्कि तसल्ली देता है । यथार्थ में भी ऐसे क़िस्से हो चुके हैं, बस वह बाहर नहीं आ पाते जैसे बाबा आम्टे के कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए उनके डॉक्टर बेटे-बहू का संसाधन हीन जगह पर आजीवन चिकित्सक के रूप में सेवा करना। उनके लिए आसान था आसानियों को चुनना पर उन्होंने मुश्किलों को चुना । टिकटशुदा रुक्का के दीवानराम का पहाड़ वापसी का निर्णय इसलिए चौंकाता नहीं। यह अंत एक नए समय-समाज की नींव बनेगा, ऐसी उम्मीद करनी चाहिए।

अब शुरू से शुरू किया जाए तो टिकटशुदा रुक्का की कहानी एक कोलाज़ की तरह हमारे सामने खुलती है ।कभी फ्लैशबैक में, कभी वर्तमान में तो कभी लिखे-पढ़े रुक्कों, डायरियों में। अलग अलग समय-समाज, वर्ग, स्थान के टुकड़े एक मुक़म्मल तस्वीर बनाते हैं। कहानी शुरू होती है बेहद सफल, इनोवेटिव डिप्युटी जनरल मैनेजर दीवान राम द्वारा एक महत्वाकांक्षी प्रॉडक्ट के लॉन्च से । वहीं दीवान राम मानसिक संतुलन खोकर हॉस्पिटल में एडमिट हो जाते हैं । बाह्य स्तर पर वह सीडेटिव के प्रभाव में सो रहे, किसी को पता नहीं कि ऐसा क्यों हुआ । यहां तक कि उसकी पत्नी शिवानी को भी नहीं। डॉक्टर समेत तमाम लोग दीवानराम को बेहोश या सोया मान रहे हैं, जो कि वह चेतन स्तर पर है भी, किन्तु दीवानराम के अवचेतन मन में कितनी आवाज़ें, चेहरे, वादे, इरादे हलचल मचाए हैं, इसका पता केवल दीवानराम को है।

अब कथा दो स्तर पर चलती है; एक दीवान राम के अतीत और दूसरा वर्तमान । कथा पहाड़ के बेहद ग़रीब बंधुआ हलिया दौलत राम और कोढ़ के कारण गांव वालों के कोपभाजन के डर से घर से निकाली पत्नी सरूली और तीन बेटों, एक बेटी की व्यथा कथा है। दीवानराम माँ की मृत्यु के समय साल भर का था, उसे उसकी बहन गोपुली ने पाला । बिन मां के बच्चे को बहलाने के लिए गोपुली उसका नाम स्कूल में लिखवा देती है । वहाँ के मास्टर साहब सुंदर सिंह छुआछूत मानते हुए भी शिल्पकार बच्चों को पढ़ाने के प्रति उत्साहित रहते हैं, किन्तु गांव के बीठ बच्चों को दीवान का पढ़ना नहीं सुहाता । वह उसे निरन्तर प्रताड़ित करते रहते हैं । गोपुली उसे सबसे बचाती है किंतु कुछ बरस बाद उसका भी ब्याह हो जाता है, सुंदर मास्टर साब भी रिटायर हो जाते हैं ।

उनकी जगह आये नए मास्टर क्रूर और जातिपाति, छुआछूत के कट्टर समर्थक होते हैं। दीवानराम पर अब दोतरफ़ा आक्रमण होता है । एक ओर मास्टर तो दूसरी तरफ़ लड़कों का, फलतः वह स्कूल छोड़ देता है। सुंदर सिंह मास्टर साहब उसे अपने घर पर ही पढ़ाते हैं और अपने मन की अनकही बातों, पहाड़ की त्रासदियों, पेड़ों, फसलों की बातें दीवानराम से करते रहते हैं । उनका एक कथन दृष्टव्य है-“अब यह किताब है दीवान, इसमें जिस खेती की बात है, वह तूने आज तक देखी नहीं। तू क्या करेगा गन्ने की खेती पढ़कर? हमारे पहाड़ की उपराऊँ-तराऊँ ज़मीनों की कोई बात इसमें नहीं है। हमारी फसलों का कोई ज़िक्र नहीं। इन पहाड़ों पर सीढ़ीनुमा खेतों में फसल कैसे अच्छी हो, यह कहीं नहीं लिखा है। कौन सी फसलें या फल फूल सब्ज़ियां बेहतर हो सकती हैं, इसका कोई ज़िक्र नहीं। तेरा बाप हल चलाता है। हम ठाकुर लोग भी अपने खेतों में हल चलाते हैं। वही पुराना, जाने किस जमाने का हल। ऐसा हल बनाना नहीं सिखाया जाता जो चलाने वाले के लिए और बैलों के लिए भी आसान हो”।सुनकर किशोर दीवान सोचता है कि मास्साब कितनी सही बात कह रहे हैं।

धीरे-धीरे दीवान बारहवीं कर लेता है तब सुंदर मास्टर साहब उसे लखनऊ भेजते हैं उच्च शिक्षा हेतु। अब यहीं से दीवानराम की छोटी दुनिया बड़ी होती है। यहीं उसे देवराज, सुरेश पासी जैसे प्रबुद्ध मित्र मिलते हैं तो शिवानी जैसी प्रेयसी जो आगे चलकर उसकी पत्नी बनती है।शिवानी के पिता कालीचरण यूपी के मऊ जिले के एक गाँव मे पैदा हुए थे जहाँ मृत जानवरों को उठाकर उनकी खाल उतारने का उनका पुश्तैनी धंधा था । कालीचरण का मन इस सबमें नहीं लगता था वह पढ़ना चाहते थे। इस प्रसंग को पढ़ते हुए आपको प्रोफ़ेसर तुलसीराम की आत्मकथा मुर्दहिया की याद अनायास आ जायेगी, जाने संयोग है या प्रयोग कि तुलसीराम जी का गांव आजमगढ़ में था और कालीचरण का उससे सटे मऊ जिले में।

आगे कालीचरण के पिता मृत जानवर उठाने से इनकार कर देते हैं । बदले में बाबू साहब लोग उनका घर जला देते हैं । घरवाले डर के मारे इधर उधर कहीं भाग जाते हैं जिनका पता अंत तक नहीं लगता। कालीचरण भटकते हुए लखनऊ आते हैं । यहां ढाबों पर बर्तन मांजकर, मेहनत करके वह उच्च शिक्षा पाते हैं और शहर के प्रतिष्ठित वकील बन जाते हैं। कालांतर में कालीचरण नव सामंतवाद के चेहरे में परिवर्तित हो जाते हैं जिन्हें अपनी यंत्रणा, संघर्ष तो याद रहता है किंतु अपनों की स्थिति सुधारने, बदलने की कोई बेचैनी नहीं रहती।

दीवानराम के मित्र सुरेश पासी के बहाने लेखक ने बहुजन समाज पार्टी के उदय और उत्थान की कथा बहुत प्रामाणिक और सहज ढंग से की है । कांशीराम, मायावती, वीपी सिंह का तत्कालीन समाज पर क्या असर पड़ता है यह कथा में बख़ूबी दर्शाया गया है। दलितों के घर नेताओं के भोजन करने की नौटंकियों की तरह पहाड़ पर भी नेताओं के नाटक चलते हैं पर असलियत में जातिगत कट्टरता तनिक भी कम नहीं होती। लेखक ने कफ़लटा कांड के बहाने जिस जातिगत क्रूरता को रेखांकित किया वह ज्यों की त्यों आज भी समाज में व्याप्त है। आज भी अख़बार में दलित के घोड़ी पर चढ़ने को लेकर मारपीट, हत्यायों की ख़बर पर किसी को ताज़्जुब नहीं होता ।

इस उपन्यास में दर्ज़ पात्र, घटनाएं, राजनैतिक, सामाजिक, न्यायिक, आर्थिक समीकरणों में कोई परिवर्तन आज भी देखने को नहीं मिलता। कुछेक टिकटशुदा रुक्कों के बल पर जाने कितनी ज़िंदगियाँ आज भी रेहन पर कराह रहीं।संविधान लागू हुए बरसों बीते पर उसे समझने, आत्मसात करने में अभी जाने कितने बरस लगेंगे।

कार्पोरेट कल्चर की असंवेदनशीलता, गलाकाट प्रतियोगिता, बिना कारण कर्मचारियों की छंटनी, प्रतिरोध का अभाव सबका बहुत ही प्रामाणिक वर्णन उपन्यास में है। कार्पोरेट कल्चर की इसी असंवेदनशीलता पर गीत चतुर्वेदी का उपन्यास ‘पिंक स्लिप डैडी’ बहुत विस्तार से प्रकाश डालता है।

टिकटशुदा रुक्का घोर ग़रीबी और अति अमीरी दोनों ध्रुवों को बेहद सहज ढंग से दर्शाता है। उपन्यास में आये नारी पात्र अपनी नारी सुलभ गुणों के साथ परिस्थतियों के साथ सामंजस्य बिठाने वाली दिखाई गई हैं, बस अंत में शिवानी अपने पिता की मर्ज़ी के विरुद्ध अपने पति के साथ पहाड़ वापस जाने के लिए तैयार हो जाती है।

टिकटशुदा रुक्का उपन्यास विषमताओं के दो ध्रुवों को बिना अतिरेक और अतिरंजना के बेहद प्रामाणिक और सम्वेदनशील तरीके से सामने रखने में सफल हुआ है।तमाम असुंदर, असंगत, अन्याय के बीच दीवानराम, शिवानी, परतिमा बोज्यू, सुरेश पासी, देवराज, सुंदर मास्साब, मल्लिकार्जुन जैसे पात्र एक शीतल, सुखद बयार की तरह हैं।
यह उपन्यास एक सुंदर, अनगढ़ सपने के सच होने की कथा है ।

और पुनः वही बात कि अंत ही शुरुआत है । शिवानी ने दीवान से जो कहा सच कहा-“सच्चा प्यार मनुष्य को अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटकाता। उसकी राह का रोड़ा नहीं बनता। समझे?”

टिकटशुदा रुक्का-नवीन जोशी
नवारुण प्रकाशन
मूल्य-300रुपये

(पेशे से अध्यापिका और पढ़ने की दीवानगी की हद तक शौकीन ममता सिंह अमेठी के एक गाँव अग्रेसर में सावित्रीबाई फुले पुस्तकालय चलाती हैं । ममता की प्रेरणा और सहयोग से आस-पास के अन्य कई स्थानों पर पुस्तकालयों का संचालन हो रहा है । ममता सोशल मीडिया पर ‘बातें बेवजह की’ शीर्षक से एक बेहद खूबसूरत और लोकप्रिय लेख श्रृंखला भी लिखती हैं। )

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