समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-25

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

मेरी ट्रेनिंग का दूसरा साल चल रहा था। लगभग अंतिम ही समय था। आर्थिक संकट चरम पर था। उसके बाद की चिंता भी सताने लगी थी। इस बीच रामजी राय से मेरी बहस भी होती रहती थी कि कुछ तो आप को करना चाहिए। रामजी राय कहते- जैसे जैसे आप की ट्रेनिंग समाप्त होने का समय नजदीक होता जा रहा है, आप मेरी नौकरी की बात करके बेमतलब बहस करने लगी हैं। मैंने कहा-आर्थिक दिक्कत मैं किससे कहूं। आखिर घर का खर्च कैसे चलेगा? जब भी इस तरह की बहस हो, रामजी राय अंत में यही कहते कि यही माहौल रहा तो मैं घर छोड़कर चला जाऊंगा। फिर कुछ दिन तक इस तरह की बात नहीं होती थी।

होली का दिन था। पुआ सहित सब खाना बन चुका था। याद नहीं आ रहा किस बात पर रामजी राय से बहस होने लगी और अंत में बहस तीखी हो गई। मैंने कहा- आखिर घर का खर्च कहां से चलेगा। ठीक है, पार्टी का काम करिए, उससे कोई दिक्कत नहीं है। क्या नौकरी करते हुए पार्टी का काम नहीं हो सकता है? अवधेश प्रधान भी तो पार्टी का काम करते हैं, और नौकरी भी करते हैं। रामजी राय ने कहा कि -कुछ लोग गाड़ी के डिब्बे होते हैं और कुछ लोग इंजन होते हैं। गाड़ी के लिए दोनों ज़रूरी होते हैं। मुझे गाड़ी का इंजन बनना है। मैं पहले ही कह चुका हूं कि मैं नौकरी नहीं करूंगा। आप मुझे नौकरी करने के लिए इस तरह का दबाव बनाएंगी, तो मैं घर छोड़ कर चला जाऊंगा। वैसे इस तरह की बहसों पर वे घर छोड़कर चले जाने की बात पहले भी कई बार कह चुके थे। मुझे भी गुस्सा आ गया कि जब देखो घर छोड़कर चले जाने की बात करने लगते हैं। मैंने भी उस दिन जी कड़ा किया और कह दिया कि घर छोड़कर जाना है तो जाइए। रोज रोज धमकी क्यों देते हैं। वही हाल कि -‘कोढ़िया डेरावे कि थूक देब’। इतना सुनने के बाद रामजी राय जो पहने थे वही पहने घर से निकल गए। मैंने रोका भी नहीं। बाद में खराब तो लग रहा था कि त्यौहार के दिन बिना खाए निकल गए। खैर…..
आगे की बात रामजी राय बाद में बताए कि वे गुस्से में घर से निकल कर स्ट्रैची रोड का एरिया तो पार कर गए (उस समय हम लोग स्ट्रैची रोड पर सिंह साहब वाले मकान में रहते थे) उसके बाद सोचने लगे कि जाऊं तो कहां जाऊं, इसके बारे में तो कभी सोचा नहीं? लेकिन घर नहीं लौटकर जाऊंगा। खैर सोचते सोचते अल्लापुर चितरंजन भाई के यहां पहुंच गए। चितरंजन भाई रामजी राय को देखते ही पूछने लगे- तुम सुबह सुबह और वो भी होली के दिन? सब ठीक तो है? मीना से लड़ाई करके आए हो क्या? रामजी राय ने चितरंजन भाई से सारी बात बताई और कहा कि मैं घर लौटकर नहीं जाऊंगा। सब सुनने के बाद चितरंजन भाई ने कहा कि तुमने ठीक नहीं किया है, घर लौट जाओ। रामजी सुनो, हमलोग मीना को ट्रेनिंग कराने का जिम्मा लिए थे। उसकी ट्रेनिंग का अंतिम समय चल रहा है। उसकी परीक्षा नजदीक है। ऐसे में तुमको घर छोड़कर नहीं आना चाहिए था। इसका असर उसकी परीक्षा पर पड़ेगा और उसके साथ हम सबकी सारी मेहनत बेकार चली जाएगी। इसलिए तुम घर लौट जाओ और इस पर कोई बात नहीं करना। रामजी राय को चितरंजन भाई की बात ठीक लगी और वे घर लौट आए।
घर आए तो मैं और समता दरवाजे पर खड़े जैसे उन्हीं का इंतजार ही कर रहे थे। उनके कमरे में आते ही मैं अंदर वाले कमरे में चली गई। समता पापा को बता रही थी कि पापा मम्मी रो रही थी। मैं पुआ सहित खाना लाकर रामजी राय के सामने रख दी। न मैं कुछ बोली न रामजी राय बोले। वे चुप बिना कुछ बोले खाना खा लिए। उस घटना के बाद मैंने अपने कहे पर बार-बार सोचा और शायद रामजी राय ने भी अपने किये पर सोचा होगा। फिर कभी मैंने नौकरी को लेकर रामजी राय से कुछ नहीं कहा।

खाने-पीने का जिक्र आते ही एक और बात याद आ गई। ऐसे ही एक दिन हमलोग आपस में कुछ बात कर रहे थे। मैं अपना काम बता रही थी कि मुझे अभी बहुत काम करना है। उसी पर रामजी राय मुस्कराते हुए और मजा लेते हुए बोले कि- औरतें एक ही काम को दो-दो बार कह दो काम बना देती हैं- जैसे- बर्तन मांजना-धोना, झाड़ू -बुहारु, नहाना-धोना, कपड़ा धोना-फैलाना आदि। मैं उस समय कुछ नहीं बोली। एक दिन मैं सारा बर्तन मांज ली थी। रामजी राय घर में ही थे। मैंने रामजी राय से कहा कि बर्तन सब मांज दी हूं, आप जरा उसे धो दीजिएगा क्या? मुझे जरूरी काम से बाज़ार जाना है; नहीं तो दुकान बंद हो जाएगी। वे बोले ठीक है। मैं बाहर वाले कमरे में ही जाकर बैठ गई। रामजी राय बर्तन धोने लगे। धोते-धोते यह समझ में आ गया कि बर्तन धोना भी एक काम है। हम लोग केवल अपनी जूठी थाली धोकर रख देते हैं तो, मांजना धोना दो काम है, नहीं समझ में आता। जब पूरा बर्तन धोना पड़ा तो मांजना धोना दो काम है, समझ में आ गया। जब अंदाज लग गया कि रामजी राय बर्तन धो लिए होंगे तो मैं अंदर आई और रामजी राय से पूछी कि बर्तन धुल गया, तो बोले कि धुल भी गया और मांजना धोना दो काम है, समझ में भी आ गया। मैंने कहा- मैं कहीं गई नहीं थी, आगे वाले कमरे में ही थी। आप को यही समझने के लिए मैंने कहा था कि बाजार जा रही हूं बर्तन धो लीजिएगा।

शुरू में रामजी राय के मित्र हिमांशुरंजन के यहां ही हमलोग आए थे। जल्दी ही हमलोगों को किराए का कमरा मिल गया था। हिमांशु रंजन खाना बहुत बढ़िया बनाते थे। बाद में हिमांशु रंजन को टी.बी. हो गया था। रोज रामजी राय उनके लिए खाना लेकर जाते थे। उनकी माता जी घर से आ गईं थीं। फिर भी खाना मेरे यहां से ही जा रहा था। मैंने रामजी राय से कहा कि हिमांशुरंजन की मां आ गई हैं न? रामजी राय से कहा कि हां माता जी आ गई हैं, लेकिन उनका खाना बनाने आता ही नहीं। हिमांशु बताते हैं कि बहुत शुरू से हम भाई-बहन ही खाना बना उसे खिलाते रहे। एक दिन कोई बात हुई और मैंने खाना ही नहीं बनाया। रामजी राय किसी तरह से आड़ा बेड़ा रोटी बनाए। उसी में हाथ भी जला लिए। नहीं देखते बना तो मैंने सब्जी बना दी। रामजी राय खाना लेकर गए तो हिमांशुरंजन रोटी देखकर बोले- तुम बनाए हो क्या? मीना से कुछ हो गया है न! चलो इसी में तुम रोटी बनाना सीख जाओगे। फिर जल्दी ही हिंमाशुरंजन की बहन उनकी देख- रेख के लिए आ गईं, और इधर रामजी राय ने रोटी बनाना सीख लिया।

ट्रेनिंग समाप्त हो गई। उसके बाद रामजी राय कहने लगे कि घर जाइए, जब कोई वेकेंसी आएगी तो खबर दी जाएगी। मैंने बोला कि जिस तरह की आजादी का अनुभव आप लोगों के बीच मिला है न, उसके बगैर अब रहना मुश्किल होगा। रामजी राय बोले कि ससुराल में नहीं अच्छा लगेगा तो अपने मायके चले जाइएगा। मैंने कहा कि ससुराल और मायका दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों जगह एक ही तरह माहौल होता है, एक ही तरह की अपेक्षाएं होती हैं। कहने की बात होती है कि मायके में रह लेंगे। मायके का घमंड रखने वालों को ससुराल में और भी दिक्कत होती है। इसलिए मैं 10 लड़कों का खाना बनाऊंगी, उसी से खाने- पीने का खर्च निकाल लूंगी लेकिन अब न मायके जाऊंगी, न ससुराल। मेरा ऐसा निर्णय देख रामजी राय ने कहा फिर तो कहना ही क्या! उनके चेहरे पर दबी-दबी सी एक चमक थी। उसे देख शादी से पहले मेरे बारे में रामजी राय से कही मां की वही बात याद आई- ये बहुत मेहनती है, धान की भरी बोरी लेकर छत पर फैलाने के लिए चढ़ जाती है और सूखने के बाद उतार लाती है। बहरहाल, इसकी नौबत ही नहीं आई। जुलाई में इन्टरव्यू हुआ और 17 अगस्त 1981 को मैंने प्राइमरी अनुभाग की सहायक अध्यापिका के पद पर नौकरी ज्वाइन कर ली।
नौकरी की अभी शुरुआत ही थी। ऐसे ही पार्टी के काम से रामजी राय कहीं बाहर जाते तो शुरू में अकेले रहने में मुझे डर लगता था। जब भी इनसे कहें कि मुझे डर लगता है तो यही कहते कि अपनी सुरक्षा के लिए आप को भी खुद लड़ना होगा। मान लीजिए हम रहें और किसी ने आपको परेशान किया तो मैं उससे लड़ूंगा। सोचिए, अगर वो बदमाश हुआ और मुझे मार डाला फिर? अगर आप अपनी रक्षा के लिए मजबूत रहेंगी तो दोनों मिलकर लड़ेंगे और कोई ऐसी-वैसी स्थिति आ पड़ी तो आप अकेले ही लड़ सकती हैं।
पहले मैं चार-चार चूड़ी पहनती थी। लेकिन बाद में मैंने चूड़ी पहनना छोड़ दिया, एक-एक कड़ा पहनने लगी। क्योंकि स्कूल साइकिल से मिलिट्री एरिया होकर सुनसान रास्ते से जाना होता था। मिलिट्री वालों से डर लगता था। साइकिल चलाने में चूड़ी की आवाज से किसी औरत के आने का पता चल जाता। कड़े से आवाज नहीं आती थी और नजदीक पहुंचने पर तेजी से साइकिल भगा देती थी। इसी तरह शुरू में मैं जहां भी जाती थी, अपने बैग में एक पेचकश और कुटा मिर्चा लिए रहती थी। वैसे भी औरतों की शारीरिक क्षमता पुरुषों से कमजोर होती है। कोई जबर्जस्ती किया तो पेचकश से कहीं भी एक बार तो मारा ही जा सकता है, निशान तो बन ही जाएगा और मौका मिला तो मिर्चे का प्रयोग भी किया जा सकता है। साइकिल छूटने के बाद और समय के साथ स्थिति थोड़ी बदली। कड़े ने तो अपनी जगह स्थाई कर लिया, लेकिन पेचकश और मिर्चे की जगह बदल गई। क्योंकि अंकुर कभी बैग खोल ले तो इससे उसको खतरा हो सकता था इसलिए घर में ये निश्चित जगह पर रखने लगे। लेकिन घर में जितना भी याद करके सामान रखिए मौके पर नहीं मिलता है न याद आता है।

राजापुर पोस्ट ऑफिस के पास वाले मकान में थे। रामजी राय भी आए हुए थे। समता किसी बात पर जिद किए हुई थी। रामजी राय को खाना अभी दिए ही थे। रामजी राय को लग गया था कि अब समता पिटेगी। मुझसे बोले भी कि मारिएगा मत, मैं कह रहा हूं मारिएगा मत। लेकिन मैंने उनकी बात नहीं मानी। इधर मैंने समता को झापड़ लगाया और मुझे समझ में भी नहीं आया कि उधर से रामजी राय ने मुझे भी झापड़ जड़ दिया। फिर तीनों एक दूसरे को देखने लगे। मुझे बुरा तो बहुत लगा लेकिन रामजी राय से सिर्फ मैंने यही कहा कि -और मैं भी पलट के एक लगा दूं तो…..। रामजी राय को भी लग गया था कि गलती तो हो गई है। मैं सीढ़ी के पास वाले कमरे में लेटी रही, खूब रोई भी। शाम में कई लोग आए। रामजी राय सबसे यही कह रहे थे कि आज मुझसे बड़ी ग़लती हो गई है। मैंने मीना राय पर बल प्रयोग कर दिया है। मुझे मारने से भी ज्यादा मारने का प्रचार बुरा लग रहा था। उसके बाद फिर कभी रामजी राय ने मेरे ऊपर हाथ नहीं उठाया, और न मैंने कभी दूसरे की खीझ समता पर उतारने के लिये उसे कभी मारा।
इसी तरह की बहुत सारी छोटी-बड़ी बातों के बीच यह लगता रहा कि जीवन की नाव ऐसे ही चलती है।

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