(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)
कठिन समय गुजर रहा था, जब मुझे नौकरी मिली। किसी तरह दो साल की सी.टी. नर्सरी की ट्रेनिंग पूरी हुई थी। अब इलाहाबाद में रहना मुश्किल हो रहा था। जिस स्कूल से मैं सेवा निवृत्त हुई हूं वहां मैं इंटरव्यू भी दे चुकी थी, लेकिन कुछ पता नहीं चल पा रहा था। और भी कई जगह कोशिश कर रही थी। अब ये हो रहा था कि घर जाएं और कहीं पढ़ाने का जुगाड़ बन जायेगा तो आपको बुला लिया जाएगा। हालांकि मेरा कहना था कि घर चले जाने पर पता नहीं लौट पाऊंगी कि नहीं। आर्थिक समस्या तो है। एक काम हो सकता है क्या कि PSO के 10 लड़कों का खाना मैं बनाऊंगी तो खाने का खर्च निकल जाएगा और किराये का 100रु रामजी राय के जिम्मे। खैर! कोई निर्णय नहीं हो पाया।
अगले दिन समता को कमरे पर छोड़कर मैं अपने ट्रेनिंग कालेज में प्रिंसिपल सरीन मैडम से मिलने गई कि पता नहीं फिर घर से न लौट पाऊं। मैडम ने कहा कि मेरे एक मित्र का स्कूल है वहां 150 रूपये महीना देंगे, अगर तुम चाहो तो वहां जा सकती हो। मैंने हां कर दिया। उन्होंने कहा कि रानी टंडन का स्कूल डी पी स्कूल वाले रोड पर ही है, तुम चली जाना मैं उनसे बात कर लूंगी।
वहां से मैं एस एस एल में गायत्री भाभी (एम पी सिंह की पत्नी) के यहां गई । (उन दिनों डा0 एम पी सिंह एस एस एल हास्टल के सुपरिटेंडेंट थे। छात्र संगठन PSO के समर्थक थे। वे मेरी ट्रेनिंग के दौरान से ही सहयोगी रहे। रामजी राय को साइकिल भी वही दिये थे)। खैर, जब भाभी ने आकर दरवाजा खोला तो समता को उनके साथ देखकर मैंने कहा कि ये यहां कैसे? इसे तो घर छोड़कर आयी थी। भाभी ने कहा कि बधाई हो आप नींवा में जो इंटरव्यू दी थीं वहां आप का चुनाव हो गया है। अब आपको घर नहीं जाना है।
नींवा इलाहाबाद में मिलिट्री हास्पीटल से तीन कि0मी0 दूर मैकफर्सन झील के किनारे बसा एक गांव था। जो आज के समय में नेहरू पार्क के पास और राजू पाल और पूजा पाल विधायक के गांव के नाम से जाना जाता है। बहुत ही खतरनाक गांव था। जिस दिन मैंने ज्वाइन किया उसी दिन मैकफर्सन झील से पहले कछार की तरफ पुलिस वालों ने तीन इनकाउंटर किया था।
अगले दिन प्रबन्धक घर (14, स्ट्रैची रोड पर) 2 बजे आए कि आप की नियुक्ति तो हो गई है लेकिन दो गड़बड़ी हो गई है-एक प्रबन्धक की तरफ से, एक आप की तरफ से। आप को आज ही आफिस जाकर गड़बड़ी ठीक करना है।
प्रबन्धक की तरफ से गड़बड़ी यह कि–प्रबन्धक ने विज्ञापन में जूनियर अनुभाग की अध्यापिका का वेतनमान प्रकाशित कर दिया है जबकि पोस्ट प्राइमरी की रिक्त थी। आप को यह लिखकर देना होगा कि मुझे प्राइमरी अनुभाग की अध्यापिका का वेतनमान स्वीकार है।
आप की तरफ से गड़बड़ी यह कि- आपके हाई स्कूल के सर्टिफिकेट के अनुसार आप का नाम मीना कुमारी है और इंटरव्यू में उपस्थित अभ्यर्थियों के नाम के सामने हस्ताक्षर आपने मीना राय किया है। आपको अभी जार्ज टाउन में बेसिक शिक्षा अधिकारी के समक्ष उपस्थित होकर अपना हस्ताक्षर मीना कुमारी करना होगा। प्रबन्धक स्कूटर से थे। रामजी राय ने कहा कि आप इनको लेकर जाइए मैं साइकिल से वहां पहुंच जाऊंगा नहीं तो आफिस न बंद हो जाय। प्रबन्धक बोले कि मैं औरतों को स्कूटर पर नहीं बैठाता। (स्कूल जाने पर इनके बारे में इसके विपरीत ही सूचना मिली) रामजी राय साइकिल से हमको लेकर गये। थोड़ी थोड़ी दूर पर प्रबन्धक रास्ता दिखाने के लिए रुके रहते थे। समय रहते हम लोग पहुंच गये और काम हो गया। वहीं प्रबंधक द्वारा नियुक्ति पत्र भी मिल गया।
17.08.1981 को मैंने प्राइमरी अनुभाग की स0 अ0 के पद का कार्यभार ग्रहण किया। पहले ही दिन रामजी राय मुझे स्कूल छोड़ने गये और शाम को कोई और लेने गया क्योंकि रामजी राय 10-15 दिन के लिए मद्रास चले गये। उस समय 3-4 दिन का0 किशन जी मेरे यहां रूके थे। का0 किशन जी भाकपा माले उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव थे। जहां मैं रह रही थी, वह एक दूर के रिश्तेदार को मिले रजिस्ट्रार के बंगले में से 2 कमरा 100/- में मुझे किराये पर मिला था। कमरा बहुत बड़ा और ऊंचा था। अकेले रहने पर रात में सोते समय डर लगता था। जब लाइट बंद कर देती थी तो लगता था कोई रोशनदान से उतर रहा है और लाइट जलाए रहने पर लगता कि मुझे अकेले देख कोई आ न जाए। उस समय छात्र संगठन PSO बन चुका था। संगठन के लोगों के बीच रहने पर जितनी निश्चिन्तता रहती थी उतना अपने रिश्तेदारों के बीच नहीं रहती थी। जात पात का कोई मसला ही नहीं था। संगठन में बल होता है यह मुझे समझ में आने लगा था।
जब तक रामजी राय नहीं लौटे, तब तक मुझे स्कूल छोड़ने का0 दिलीप सिंह जाते और लेने PSO के त्रिलोकी राय, अनिल सिंह, आदित्य बाजपेयी आदि आदि जाते। एक दिन लाल बहादुर सिंह ने भी मुझे स्कूल छोड़ा था और ले भी आये थे। कभी कभी रामजी राय के एक मित्र मिलिट्री एरिया में रहते थे, वो भी लेने जाते थे। अलग अलग लोगों के साथ आने जाने से स्कूल में लोग शक की निगाह से देखते थे, जब तक कि हमें अच्छी तरह समझ नहीं पाये।
इस बीच बतासी दीदी (गांव की एक दीदी) की लड़की पूनम की साइकिल लेकर रात में साइकिल चलाना भी सीखने लगी। साइकिल चलाना सीख लेने से पहले जब भी रामजी राय इलाहाबाद में रहते, सुबह स्कूल छोड़ देते और शाम को ले भी आते थे लेकिन रहते ही कम थे। 1982 में IPF बनने के बाद रामजी राय की जिम्मेदारी और बढ़ गई थी। रामजी राय के जिम्मे ट्रेड यूनियन (कानपुर) का कार्यभार था। उसके बाद इलाहाबाद में रामजी राय का रुकना और कम हो गया।
जब तक मैं साइकिल सीख नहीं ली (लगभग तीन महीने तक) अक्सर मैं सुबह रिक्शे से स्कूल जाती और लौटते समय समता को गोंद में लिए 3.5 कि0मी0 पैदल रेडियो स्टेशन तक आती। उसके पहले रिक्शा मिलता ही नहीं था। वहां से स्ट्रैची रोड (जहां मैं रहती थी) का 10 रु रिक्शे का लगता था। कभी रिक्शा लेते थे कभी घर तक 1.5 कि0 मी0 और पैदल ही आ जाते थे कि इतने में सब्जी खरीद लेंगे। स्कूल से सुलेमसराय की तरफ से आने पर पैदल 2.5 कि0 मी0 ही चलना पड़ता था। लेकिन वहां से घर पहुंचने में 20रु से कम नहीं लगता था। इसलिए रेडियो स्टेशन की तरफ से ही आते थे। स्कूल से आने के बाद सब्जी और घर का अन्य सामान राजापुर से लाती थी। आटा भी पिसवाना ही पड़ता था, मिट्टी के तेल के लिए लाइन में भी लगना पड़ता था।
धीरे धीरे मैंने साइकिल चलाना भी सीख लिया। ओ0 डी0 भइया से 425/- लेकर साइकिल खरीदे। ओ0 डी0 भइया पालिटेक्निक में प्रोफेसर थे और छात्र संगठन PSO के समर्थक थे। नई साइकिल एस एस एल के लान में चलाते समय गिर गयी और पैर में मोच आ गई। ओ0डी0 भइया बोले बिना गिरे कोई साइकिल चलाना नहीं सीख पाता। अब तुम पूरी तरह साइकिल चलाना सीख ली हो। अब अपनी साइकिल से ही स्कूल जाना। और हुआ भी यही, मैं अपनी साइकिल से स्कूल जाने लगी। पहले दिन जब साइकिल से स्कूल गई तो रामजी राय साथ साथ दूसरी साइकिल से गये। 2-3 दिन के बाद मैं अकेले जाने लगी। इस बीच समता का नाम पास के स्कूल में लिखा दिये। रामजी राय रहते थे तो उसको ले जाते, ले आते, नहीं तो मैं छोड़कर जाती और दाई कुछ दूर छोड़ देती आगे बच्चों के साथ आ जाती। फिर गेट के अंदर ही खेलती रहती थी। बगल में मकान मालिक का परिवार भी रहता था। कोई डर नहीं था। कभी PSO से भी कोई लड़का आ जाता। समता चाभी गले में जंजीर की तरह पहने रहती थी। पापा के रहते स्कूल जाना नहीं चाहती थी, तो रामजी राय मेरे रहते उसे समझा बुझाकर स्कूल छोड़ आते और मेरे स्कूल जाते ही उसे जाकर ले आते। दरअसल उसे स्कूल के गेट पर सब्जी वाली के यहां बैठाकर आते कि मम्मी चली जाएंगी तो तुमको घर ले आऊंगा।
इस दौरान मुझे 1982 में ये कमरा छोड़ना पड़ा और मैं सामान सहित बतासी दीदी के यहां चली आई। जल्द ही राजापुर पोस्ट आफिस के पास मुझे एक कमरा 120 रूपये में मिल गया। कमरा फर्स्ट फ्लोर पर था। लेकिन शौचालय नहीं था । कमरे से थोड़ी दूर पब्लिक शौचालय में जाना पड़ता था। कभी कभी तो वहां भी लाइन लगानी पड़ती थी। मकान मालकिन अच्छी थीं। उनकी 6 लड़कियां और एक लड़का था जिसे घर में सब प्यार से गुंडा बुलाते थे। बच्चों के पिता नहीं थे। सारे बच्चे हमें दीदी ही कहते थे। इस तरह समय जैसे तैसे कटने लगा।
समता और मेरा फोटो प्रदीप सौरभ पत्रकार द्वारा संभवत: 1983 में IPF की राष्ट्रीय पार्षद की बैठक (चौक , इलाहाबाद कोतवाली के पीछे बच्चा जी की कोठी) की है।