समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-11

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)


अंकुर के पैदा होने के पहले ही इस विषय पर चिन्ता तो थी कि छोटे बच्चे के साथ नौकरी और घर कैसे संभलेगा। स्कूल की प्रिंसिपल श्रीमती प्रकाश श्रीवास्तव से मैंने एक दिन इस पर चर्चा की कि मेरी मां ने कहा है कि बच्चे को मेरे पास छोड़ देना, शुरु से छोड़ दोगी तो कोई दिक्कत नहीं होगी, आराम से बच्चा मेरे पास रह जाएगा। इस पर प्रिंसिपल ने कहा कि मां है न, वो तो चाहेगी ही कि तुमको कोई दिक्कत न हो, मुझे दो बातें कहनी है:- एक तो यह कि ज्वाइंट फैमिली, है मां तो रख लेंगी बच्चा, लेकिन इसके चलते ही आगे चलकर घर में जाने अनजाने बवाल शुरु होगा। सुनकर तुम्हें भी बुरा लगेगा। ये तुम्हारे घर में हो न हो, दुनिया ऐसी ही है। दूसरी यह कि चाहे जितनी परेशानी हो, एक टाइम ही खाना मिले लेकिन अपने बच्चे को अपने पास, अपने नजर के सामने रखना चाहिए। एक नजर बच्चे को देख लेने भर से जो तुमको सुकून मिलेगा वह बड़ी से बड़ी परेशानी को हल्का कर देगा। कुछ तो समता को ट्रेनिंग के समय घर छोड़ने का अनुभव भी था इसलिए मैम की बात मन में बैठ गई। अपने घर को भी मैं जानती ही थी, खैर……।

मातृत्व अवकाश समाप्त होने का समय नजदीक आ गया था। मैंने मां को प्रिंसिपल मैम की राय बता दी थी। मां ने कहा कि उनकी बात सही है लेकिन तुम कैसे करोगी? अभी छोड़कर जाओ, जब कोई ऐसी बात आएगी तो तुम्हें बता दूंगी तो तुम ले जाना। मैंने बहुत सोचा और मां को धर्मसंकट में न डालने का निर्णय लेते हुए मातृत्व अवकाश समाप्त होने के 10 दिन पहले ही समता, अंकुर सहित इलाहाबाद आ गई। नौकरी, घर और बच्चों को संभालना कठिन था। अंकुर को न तो कहीं छोड़ सकते थे और न ही कोई ऐसा दिख रहा था जिसको अंकुर की देख रेख के लिए बुलाते। मैंने साइकिल बनाने वाले मिस्त्री (मुन्ना भाई) से बात की कि बहुत लोगों के साइकिल के हैंडिल में टोकरी लगी रहती है, क्या ऐसी टोकरी लग सकती है जिसमें छोटा बच्चा बैठाया जा सके? मुन्ना भाई बोले कि टोकरी लग तो जाएगी लेकिन आर्डर देकर बनवाना पड़ेगा। फिर हम दोनों मिलकर डिजाइन पर बात किए कि बच्चे का पैर भी टोकरी से बाहर निकल सके, लेकिन दोनों पैर अलग अलग निकले नहीं तो टोकरी में बड़ा कट होने पर बच्चा सरक कर गिर सकता है और पैर रखने के लिए भी एक हिस्सा मेडगार्ड के ऊपर तक रहे नहीं तो पैर मे चोट लग सकती है। एक हफ्ते बाद मुन्ना भाई बेंत की टोकरी बनवाकर ला दिए और हैंडिल में लगा दिए। हम लोग जैसा चाहते थे वैसी ही टोकरी बनी थी। मुन्ना भाई अंकुर को बैठाकर चेक भी कर लिए। फिर अगले ही दिन मुझे स्कूल जाना था मैंने टोकरी में एक गद्दी बिछाई और एक गद्दी लगाकर उस पर सिर टिका दिया कि झटका लगने पर उसे चोट न लगे। अंकुर अभी तीन महीने का था, बैठ भी नहीं पाता था। समझ में नहीं आ रहा था कि बैठाएं या लेटा दें । लेटाने में पैर मुड़ता था और चारों तरफ से झटका लगता इसलिए बैठाकर ही ले गई। पहले दिन तो इतना डर लग रहा था कि बार बार रुककर उसको गोद में उठा लेती थी फिर बैठाती। धीरे धीरे आदत बन गई। रास्ते में कितने लोग मुझे रोकते कि आप के बच्चे का पैर लटका है चोट लग जाएगी। लेकिन मेडगार्ड के ऊपर बेंत की चटाई लगने से मैं निश्चिंत रहती थी। फिर तो मैं टोकरी में अंकुर को बैठाती और पीछे समता को बैठाकर राजापुर में समता को स्कूल छोड़ते हुए स्कूल चली जाती थी । समता रिक्से से स्कूल से आ जाती थी या कोई ले आता रहा।

कुछ दिन तो ठीक चला। मैं क्लास लेती तो जिस टीचर की घंटी फ्री होती बारी बारी देख लेती थीं। यहां तक की सबसे ज्यादा बड़ी बहन जी ( प्रिंसिपल मैम ) ध्यान देती थीं। बाद में स्कूल में बच्चा लाने पर प्रबंधक द्वारा रोक लगा दिया गया। स्कूल के सामने ही चौकीदार का घर था। मैंने चौकिदारिन बसन्ती अम्मा से बात की कि अम्मा आप मेरे बच्चे को स्कूल टाइम में देख लेंगी क्या? स्कूल में बच्चा रखने के लिए मना कर दिया गया है। अम्मा बोलीं कि बिटिया मिट्टी का घर है। बाहर जगह भी बहुत है लेकिन जमीन कच्ची ( मिट्टी ) ही है, इससे तुमका कवनो दिक्कत न होय तो मुझे तुम्हार बेटवा रखे में कवनो दिक्कत नहीं न।

बसन्ती अम्मा

मैंने सूजी भूनकर स्कूल में ही रख दिया था। दूध बसन्ती अम्मा के यहां से ही लेती थी। वही दो बार दूध पिला भी देती थीं। इंटरवल से पहले मैं एक कटोरी में दूध में सूजी डालकर चूल्हे में ( जहां सबके लिए चाय बनती थी ) रख देती थी। इंटरवल में अंकुर को लेकर उसको खिलाकर, नहलाकर / साफ कर कपड़ा बदल देती थी। फिर अंकुर थोड़ी देर मेरे पास रहता था। घंटी बजते ही बाउंड्री से ही चौकिदारिन को पकड़ा देती। फिर छुट्टी होने के 10 मिनट पहले ही अम्मा अंकुर को लेकर खुद स्कूल में आ जाती थीं। इस तरह कुछ दिन बीता। जैसे जैसे अंकुर बड़ा होने लगा दूसरे तरह की दिक्कत होने लगी।

जब – जब चौराहा आता ट्राफिक पुलिस वाले हाथों से ट्रैफिक को जाने का संकेत करते, अंकुर को लगता कि वे टाटा कर रहे हैं तो ये उनको टाटा करने लगता। कहीं कहीं तो पुलिस वाले भी इसको टाटा करने लगते थे। थोड़ा और बड़ा हुआ तो कभी- कभी ठेलों पर फल/खाने का सामान देखकर अचानक से उधर झुक जाता तो साइकिल का बैलेंस गड़बड़ा जाता था। एक बार स्कूल से लौटते समय बी.टी.सी. चौराहे ( मिलीट्री एरिया में ) के पास बारिस होने लगी तो पेड़ के नीचे साइकिल खड़ी कर अंकुर को लेकर पेड़ के नीचे रुक गई थी। बारिश बंद होने पर उसको बैठाने लगे तो, गद्दी हल्की गीली हो जाने के कारण बैठ ही नहीं रहा था फिर उसका ही गंदा वाला कपड़ा गद्दी के ऊपर डाले तो बैठा। साइकिल ज्यों ही चलाना शुरु किये पीच वाली सड़क पर पिछला पहिया नहीं चढ़ पाया और ठरठरा के बैलेंस गड़बड़ाया और साइकिल सहित हम गिर गए। गिरते ही झट से उठ कर पहले अंकुर को उठाए तब तक मिलीट्री वाले आ गए, साइकिल उठाए और सड़क पर बराबर में खड़ा किए। दरअसल पीच रोड की ऊंचाई कुछ ज्यादा थी और बारिश भी हुई थी सो साइकिल का दोनों पहिया पीच रोड पर करने के बाद ही साइकिल चलाना चाहिए था। अब अंकुर साइकिल पर बैठ ही नहीं रहा था, थोड़ी देर बाद किसी तरह बैठा । अब तो मुझे भी डर लगा रहता था कि साइकिल न गिरे।

इसी तरह एक बार और हुआ। रेडियो स्टेशन से पहले इन्दिरा चौराहे को हम क्रास ही करने वाले थे कि बहुगुणा मार्केट की तरफ से एक 20-25 साल का लड़का बहुत स्पीड में स्कूटर चलाते हुए हाईकोर्ट की तरफ निकला। मैंने भी बचने के लिए साइकिल का हैंडिल हाइकोर्ट की तरफ ही मोड़ लिया फिर भी टक्कर हो ही गयी- मैं कहीं, अंकुर कहीं और साइकिल कहीं गई। मैं सोचने लगी कि अंकुर का क्या हुआ होगा। तब तक उसके रोने की आवाज आई तब जा के मैं उठी कि बच गया है मेरा बच्चा। गनीमत रही कि साइकिल धक्के से सड़क के किनारे गिरी और अंकुर सड़क के किनारे कच्ची जमीन पर फेंका गए थे। साइकिल का पूरा पैडिल ही टूटकर फेका गया था। लोग हमको उठाए और अंकुर को लाकर हमें दिए। फिर एक जगह किनारे बैठाकर लोग मुझे पानी पिलाए। थोड़ी देर बाद हमें रेडियो स्टेशन के सामने वाली दुकान पर बेंच पर बैठाए और चाय पिलाए। साइकिल भी थोड़ी देर में बनकर आ गई। मैंने तो हिम्मत जुटाई लेकिन बच्चा इतना डर गया था कि साइकिल में बैठ नहीं रहा था और मेरी भी जबरदस्ती बैठाने की हिम्मत नहीं रह गई थी। मैं कुछ दूर तो सारा सामान टोकरी में रख उसको गोदी में लेकर पैदल ही एक हाथ से साइकिल डगराते हुए आगे बढ़ी। फिर अंकुर से कहे कि टोकरी में बैठ जाओ साइकिल चलाएंगे नहीं हम, पैदल साइकिल लेकर चलेंगे तो अंकुर टोकरी में बैठ गया। थोड़ी दूर चलने के बाद अंकुर सो गया फिर मैं साइकिल चलाकर स्कूल पहुंची। स्कूल से लौटते समय बहुत समझाने बुझाने के बाद भी अंकुर साइकिल में नहीं बैठ रहा था। फिर पैदल चलने के नाम पर बैठा। और सूरज देवी बहिन जी, मास्टर जी और मैं मिलीट्री अस्पताल तक 3 कि.मी. पैदल आए। उसके बाद वह सो गया तो हम साइकिल चलाकर घर पहुंचे। लैकिन उसके बाद से अंकुर साइकिल की टोकरी में नहीं बैठना चाहता था, रोने लगता था कि गिर जाऊंगा और मैं भी डर गई थी। समस्या तो आ गई कि अब क्या किया जाय। 2-3 दिन तो छुट्टी लिए हम। समता 11.30 तक स्कूल से आ जाती थी। 9.15 तक मुझे स्कूल निकलना होता था। समता के आने तक उसे उदय देखते फिर समता और उदय मिलकर स्कूल से आने तक उसे संभाल लेते थे।

कुछ दिन बाद ऐपवा का राष्ट्रीय सम्मेलन कलकत्ता में था। कुमुदिनी पति, माधुरी पाठक , माया पाठक, सरोज चौबे पहले चली गईं। मैं सविता सक्सेना ( दयाशंकर राय की पत्नी ) का कोई पेपर होने के कारण अगले दिन सविता के साथ सम्मेलन के लिए निकल पाई थी। रामजी राय उस समय ट्रेड यूनियन देख रहे थे, और उनका सेंटर कानपुर ही था। सम्मेलन में कानपुर से का. शारदा जी (का.हरी सिंह, जो टेक्सटाइल मिल में मजदूर थे की पत्नी-जो अब नहीं रहे ) आई थीं। अंकुर वाली समस्या उन्हें पता था। उन्होंने कहा कि मैंने रामजी राय से कई बार कहा कि आप अंकुर को कानपुर लेते आइए, आप यहां आते ही रहते हैं। उसका मन लग जाएगा। मैं उसकी देख रेख कर लूंगी, घर की गाय का दूध भी है, कोई दिक्कत नहीं होगी। कलकत्ता में हम लोग रविन्द्र सरोवर झील में स्नान किये और वहीं मेरे कमर में हूक पड़ गई और मेरी हालत खराब हो गई। अगले दिन ही लौटना था। इलाहाबाद और कानपुर के लोग एक ही डिब्बे में थे। शारदा जी कहने लगीं कि तुम्हारी ऐसी हालत है कैसे बच्चे को संभालोगी। अंकुर को मेरे साथ कानपुर जाने दो। मुझ पर विश्वास करो, उसको कोई दिक्कत नहीं होगी, मैं बहुत अच्छे से उसकी देख भाल करुंगी। मैंने कहा विश्वास की बात नहीं है कामरेड, मैंने उसे कभी छोड़ा नहीं है और अभी भी रात में मेरा दूध पीता है। बोलीं कि उसकी भी चिंता न करो मैं मां के दूध का भी इंतजाम कर दूंगी। और अगर नहीं रह पाएगा तो भिजवा दूंगी। इलाहाबाद आने से पहले अंकुर का कपड़ा अपने बैग में रख लिया उन्होंने। इलाहाबाद स्टेशन आया तो वह सो रहा था। कलेजे पर पत्थर रखकर मैं उतर गई और दूर से ट्रेन देखती रही और रोती रही। आज यह लिखते समय भी आंसू नहीं रुक रहा है और लग रहा है कि मैंने कैसे उसे छोड़ दिया। करीब सवा महीना अंकुर के बिना मैं कैसे रही क्या कहूं…। रामजी राय बीच में एक बार इलाहाबाद आए भी तो तब तक वहां गए ही नहीं थे। बताये कि हरी सिंह बता रहे थे कि बहुत ठीक से है। दूध भी अपने से पी लेता है। शारदा जी के साथ गइया के आगे पीछे लगा रहता है। बच्चों के साथ खेलता है। मीना से कहना चिंता न करें। लेकिन अंकुर भी भीतर ही भीतर घुट रहा था। इसका पता तब लगा जब रामजी राय एक दिन वहां गए तो उन्हीं के पास चिपककर सोया और जब सुबह रामजी राय जाने लगे तो उनकी गोदी में चढ़ गया और गले से ऐसा चिपका कि छोड़ ही नहीं रहा था। रामजी राय जाते समय उन लोगों से कहकर गए कि अब ये अपनी मां के बगैर नहीं रह पाएगा , इसको इसकी मां के पास भेज दीजिए आप लोग। रामजी राय को जाना जरुरी था सो चले गए। उनके चले जाने पर अंकुर बहुत रोया कि पापा के पास जाऊंगा। उसके बाद से वह चुप रहने लगा। न ठीक से खाना खाए न दूध पीए और न ही खेलने जाय। रामजी राय को समय नहीं था कि वहां जाएं। हरी सिंह ने रामजी राय से बताया कि आप के आने के पहले अंकुर एकदम ठीक था लेकिन आपसे मिलने के बाद लग ही नहीं रहा कि वही अंकुर है। क्या हो गया है उसको, समझ में ही नहीं आ रहा है। रामजी राय ने कहा कि उसी दिन मैंने कहा था कि अब अंकुर अपनी मां के बिना नहीं रह पाएगा। उसे आप लोग तत्काल उसकी मां के पास पहुंचा दीजिए। उसकी हालत देख शारदा जी कामरेड राजीव डिमरी (जो आजकल ऐक्टू के महासचिव हैं ) के साथ अंकुर को इलाहाबाद भेज दीं। का. डिमरी अंकुर को लेकर रात तक आए और खाना खाकर रात ही में वापस भी चले गए।

शारदा जी के यहां रहते हुए उसे एक आदत तो अच्छी पड़ी कि दूध का गिलास उठाता और दूध पीकर गिलास जोर से नीचे रखता। लेकिन एक और आदत ये पड़ गई थी कि जब भी किसी के साथ सोता उसका हाथ हमेशा मुझे खोजता था मुझे न पाकर वह बनियान/ब्रा के स्टेप में उंगली फंसाकर ऐंठते हुए दूद्धू पीने जैसे मुंह चलाता रहता था। कोई साथ न रहे तो सोते समय अपनी बनियान में ही उंगली फंसा बनियान पेरता रहता था। और बनियान कुछ ही दिनों में बिना स्टेप के हो जाती। बाद में मुंह चलाना तो बंद हो गया लेकिन बनियान के स्टेप में उंगली फंसाना तो अभी भी कभी कभी दिखता है। एक बार तो समता बोली भी थी कि आदत छोड़ दो नहीं तो अनजाने में बहुत मार खाओगे।

एक दुखद बात यह कि कल ही मैंने अपने संस्मरण का 11वां किश्त पूरा किया आज 10.04.2022 को बसन्त त्रिपाठी का कविता- संग्रह ‘नागरिक समाज’ के लोकार्पण एवं परिचर्चा सम्बन्धी कार्यक्रम में मैं आई थी। कार्यक्रम शुरु होने के पहले ही अचानक एक लड़का मेरे पास आया और झुककर धीरे से पूछा आप मुझे पहचान रहीं हैं? मैं ध्यान से उसे देखने लगी! उसे लग गया कि मैं नहीं पहचान रही, बोला स्वप्निल हूं। फिर भी मुझे सोचते देख बोला, आपकी दोस्त का बेटा। मैं सोच ही रही थी कि किस दोस्त का बेटा हो सकता है, उसने धीरे से कहा पुष्पा का बेटा। अरे, बेटा! इधर सेवा निवृत्ति के बाद से उसकी बहुत याद आ रही है। कैसी है पुष्पा?( मेरा वाक्य पूरा ही नहीं हो पाया) उसने कहा कि मम्मी नही रहीं मौसी। मम्मी को गए 11 साल हो गए और पापा को गए 18 साल। बोला शाम 5 से 8 मैं यहीं स्वराज में ही रहता हूं। यह दुखद सूचना सुनकर मेरी स्थिति देख वह कंधे पर हाथ रख यह कहते आगे बढ़ गया कि कार्यक्रम के बाद मिलते हैं।

मेरी दोस्त पुष्पा

मेरी तो यह भी स्थिति नहीं थी कि उठकर बाहर चली जाऊं। मंच पर कौन बैठा है, क्या बोल रहा है कुछ दिखाई-सुनाई नहीं पड़ रहा था। मैं शरीर से तो कार्यक्रम में थी लेकिन मन से अपने दोस्त की यादों के साथ थी। स्वप्निल के घर का नाम बब्बू था। कार्यक्रम के बाद मैंने स्वप्निल से पूछा कि बब्बू तुम तो बहुत छोटे थे कैसे पहचान लिए। उसने कहा कि आपको बब्बू याद है तो मुझे मौसी कैसे न याद रहेगी। आप साइकिल से स्कूल जाते समय ए जी आफिस के पास एक दो बार पापा से मिली थीं, साइकिल की टोकरी में आप का बेटा बैठा रहता था। तब भी मैंने आप को देखा था। घर आकर मैंने दोस्त पुष्पा की फोटो खोजी। यह वही पुष्पा है जिसका जिक्र मैंने ‘समर न जीते कोय’-8 और 9 में ट्रेनिंग के दौरान के संस्मरण में किया है- मेरे गाढ़े दिनों की दोस्त पुष्पा।

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