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बेखौफ नई आजादी और सपनों का नया मोर्चा: रोशन बाग

19 जनवरी 2020, इलाहाबाद।

इतिहास कई बार खुद को दोहराता है और नए-नए रूप में दोहराता है । अभी से ठीक 1 बरस पहले जब इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज करने और शहर के पुरखे के समान ऐतिहासिक धरोहर खुसरो बाग के फाटक को जमींदोज करके इतिहास मिटाने की कोशिश की गई, ठीक वहीं से 1 साल बाद इतिहास ने नई करवट ली है । आजादी के आंदोलन का गवाह रहा रोशन बाग का मंसूर अली पार्क , दमन के इस दौर में एक नई आजादी के आंदोलन का केंद्र बनकर उभर आया है। जो लोग इलाहाबाद के भूगोल से परिचित ना हों, उनके लिए सिर्फ इतनी सी जानकारी कि यह वर्तमान रेलवे स्टेशन इलाहाबाद से करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर शहर के पश्चिमी हिस्से में है और 1857 की जंगे आजादी के केंद्र खुसरो बाग के सदरी दरवाजे से भी इसकी दूरी लगभग इतनी ही है। हिंदी और उर्दू अदब से जिनका ताल्लुक है उनके लिए यह जगह उपेंद्र नाथ अश्क, भैरव प्रसाद गुप्त, प्रोफेसर अकील रिजवी और शेखर जोशी के घर से भी लगभग इतनी ही है।
इस समय संगम की धरती पर माघ मेला लगा है जहां किस्म किस्म के बाबा अपने करतब दिखा रहे हैं । जहां दंडी सन्यासियों से लेकर स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती जैसे तमाम धार्मिक पंडालों में सीएए, एनआरसी के पक्ष में प्रवचन हो रहे हैं ,‌ गंगा जमुना के रेतीले लंबे चौड़े मैदान में मानव श्रृंखला बनाकर उसका समर्थन किया जा रहा है । वहीं शहर के अंदर रोशन बाग के मंसूर अली पार्क में दूसरा मेला लगा है । यह केवल धरना प्रदर्शन नहीं है सीएए, एनआरसी, एनपीआर के खिलाफ बल्कि मेला है । यह आपको आजादी की लड़ाई के उस दौर की मशहूर लाइन की याद दिला देगा –
“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशा होगा”।
मंसूर अली पार्क आइए, यह आपको दिसंबर 2012 में निर्भया कांड के खिलाफ चले बेखौफ आजादी के आंदोलन के देश पर पड़े असर की जीती जागती तस्वीर दिखा देगा। यह आपको नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौर में लिखी गोरख पांडे की कविता “क्या थीं क्या हो गई कैथरकला की औरतें
तीज व्रत रखती धान पिसान करतीं…..
पुलिस से भिड़ गईं “
का मतलब समझा देगा ।

रोशन बाग

मुझे आपको यह नहीं बताना है कि देशभर में उठे सीएए, एनआरसी, एनपीआर के खिलाफ चल रहे आंदोलनों की यह भी एक कड़ी है लेकिन यह जरूर बताना है कि इसकी अपनी एक खासियत भी है । इलाहाबाद उत्तर प्रदेश में है जहां एक महंत मुख्यमंत्री है, जो खुद दंगे का आरोपी है, जो बदला लेने की बात करते हुए आज साहेब और शाह से आगे निकल जाना चाहता है । याद रखिए इस पूरे आंदोलन में सबसे बर्बर दमन और 21 लोगों की हत्या जिसे मैं शहादत कहूंगा, यहीं हुई है। उन सबके बीच 20- 30 हजार लोग भी सड़कों पर उतरे इलाहाबाद में और उन्होंने कोई मौका नहीं दिया कि पुलिस प्रशासन को या उसकी शह पर गुंडे अराजकता फैलाकर आंदोलन को बदनाम करने का साहस कर सकें।
16 तारीख को और 17 तारीख की सुबह पुलिस ने काफी दबाव बढ़ा कर आंदोलन तोड़ने की कोशिश की। 17 की सुबह जब लोगों की संख्या थोड़ी कम थी और यह रोज की ही बात है, भारी संख्या में पुलिस, महिला पुलिस के साथ वह पार्क में घुसी लेकिन वहां उस वक्त मौजूद लोगों के जबरदस्त प्रतिवाद के कारण पुलिस को पीछे हटना पड़ा ।यहां धरने पर सुबह के वक्त आप कहिए के 5-6 बजे सुबह से लेकर दिन के 11-12 बजे तक के बीच पार्क में बैठे लोगों की संख्या कम होती है, जिसका कारण यह है कि सुबह महिलाएं घर जाती हैं और रात तक के सारे जरूरी काम करके फिर लौटती हैं । पुरुषों का समूह भी देर रात के बाद सुबह घर लौटता है। कुछ घंटे दैनंदिन और अपनी रोजी रोटी की जरूरतों के लिए भी उन्हें निकालना पड़ता है। लेकिन दोपहर बाद यह भीड़ बढ़ती जाती है और 5000 की क्षमता वाला पार्क उलटने लगता है । अगल बगल की चौड़ी गलियां और सड़कें भर जाती हैं । यहां सड़क पर आपको बीसियों नौजवान वालंटियर दिखेंगे जो ट्रैफिक कंट्रोल कर रहे होते हैं, अंदर बाहर लोगों के आने जाने का रास्ता बनाते हैं, महिलाओं के बीच चाय पानी पहुंचाते हैं । किसी भी किस्म के अराजक शरारती तत्वों पर नजर रखते हैं । यदि किसी ने कभी गलती से भी कोई गलत बयानी कर दी तो वहां मौजूद महिलाएं उसे बखूबी रोक देती हैं । सारे मामलों को हल करना, अपने नौजवान साथियों और बुजुर्गों के साथ मिलकर सुलझाना उन्होंने सीख लिया है। पुलिस प्रशासन ने 2 दिन लगातार कोशिश की कि उसे कोई मौका मिल जाए लेकिन लोग सतर्क हैं । सूचनाएं तुरंत सोशल मीडिया के जरिए, पर्सनल फोन के जरिए पहुंचने लगती हैं और लोग तेजी से पार्क की तरफ आने लगते हैं।

रोशन बाग

आप इस आंदोलन के दृश्य देखिए-सबसे बड़े हिस्से में महिलाएं हैं, अधिकतर जमीन पर और उनके पीछे बुजुर्ग महिलाओं के लिए कुछ कुर्सियां हैं। कुछ कुर्सियां आगे भी हैं मंचनुमा जगह पर। महिलाएं हैं, उनकी अपनी तरह की कमेटी है मंच संचालन के लिए । महिलाओं के हिस्से के बाद मंच के पीछे एक हिस्से में कुछ कुर्सियां हैं, जिन पर शहर के बड़े बुजुर्गों और बाहर से आए मेहमानों के लिए जगह है। बुजुर्गों का यह हिस्सा लगातार पीछे बैठा रहता है । उसके बाद बाहर घेरा है नौजवानों का । इसके पीछे सुनने वाले, समर्थन दे रहे शहरी लोग खड़े रहते हैं। पार्क की दीवारों से बाहर तीन तरफ से युवा, बुजुर्ग, अधेड़ शहर के तमाम सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता, छात्र, इन सब लोगों का जमावड़ा रहता है। पूरा आंदोलन जन सहयोग से चल रहा है उसकी कमेटी है। लोग उन्हीं से संपर्क करके कैश या वस्तुओं के रूप में सहयोग करते हैं। मुख्य गेट पर ही एक बैनर टंगा है कि कोई आपसे आंदोलन के लिए चंदा मांगे तो ना दें ।
मैदान के भीतर तमाम शहीदों, आजादी के आंदोलन के नायकों, देश का निर्माण करने वाले नेताओं की तस्वीरें हैं। । जरा आप इस आंदोलन के नारों पर गौर करिए। जो नारे देश भर में लग रहे हैं , वह यहां के भी नारे हैं लेकिन उनके साथ साथ पितृसत्ता से आजादी, मनुवाद से आजादी, बेरोजगारी से आजादी के नारे भी साथ साथ लगते हैं, गौर करिएगा यहां गोदी मीडिया नहीं लोग सीधे मोदी मीडिया से आजादी के नारे लगा रहे हैं।। यह इलाहाबाद है । वह भगत सिंह, अंबेडकर , सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, मौलाना लियाकत अली वाली आजादी से लेकर जेएनयू वाली आजादी के साथ-साथ महादेवी वर्मा वाली आजादी के भी नारे लगा रहे हैं । एक नारा देखें जो पूरी लय में लगता है । माइक से कोई सवाल करता है लोग जवाब देते हैं।।
एक अहद करोगे हां – भाई हां

हिंदू से लड़ोगे -ना भाई ना

मुस्लिम से लड़ोगे -ना भाई

ना सिक्खों से लड़ोगे ना भाई ना

आरएसएस से. लड़ोगे- हां भाई हां

बीजेपी से लड़ोगे – हां भाई हां

लाठी भी चली है -चलने दो

गोली भी चली है- चलने दो

एफआईआर भी हुई है -होने दो

मौतें भी हुई है- होने दो
एक अहद करोगे- हां भाई हां

लाठी से डरोगे- ना भाई ना

एफआईआर से डरोगे -ना भाई ना

गोली से डरोगे- ना भाई ना

एक अहद करोगे- हां भाई हां।

अम्मार

इस आंदोलन में 11 साल के अम्मार से लेकर 70 साल के बुजुर्ग- महिलाएं -पुरुष एंटी एनपीआर -एनआरसी -सी ए ए के पोस्टर लिए इसी अहद के साथ बैठे हैं । नमाज तक वहीं अदा कर रही हैं महिलाएं। नौजवान लड़के लड़कियों का हुजूम है, यहां जिनके माथे पर और हाथ में तिरंगा है । वे अपने देश, अपने संविधान , अपने तिरंगे को क्लेम करते हुए उसे बचाने निकल पड़े हैं । अपने मादरे वतन को नए तरीके से गढ़ने का संकल्प लेकर बैठे हुए हैं।

रोशन बाग

यहां विभिन्न धर्म संप्रदायों भाषा के, अलग-अलग रंग रूप वाले महिला, पुरुष , बच्चे सब हैं। शहर के पुराने लोग जो आज कहीं बाहर बस गए हैं, मित्र, समर्थक सभी का एक सवाल जरूर होता है, इस आंदोलन के पीछे कौन लोग हैं । किसने शुरू किया और वाजिब भी है उनका पूछना। उन सभी के लिए बस इतना कहा जा सकता है की 25-50 लड़कियों महिलाओं द्वारा 12 की शाम शुरू हुआ सीएए एनआरसी एनपीआर के खिलाफ शुरू हुए इस सिविल नाफरमानी (धारा 144 नहीं मानेंगे) के आंदोलन में विभिन्न राजनीतिक विचार रखने वालों से लेकर जो अपने को गैर राजनीतिक कहते हैं उन तक, सभी लोग वतन पर आए इस गहरे संकट को समझने वाले, अपने मतभेद भुलाकर एक मंच पर हैं। आंदोलन में लगे हैं। इतिहास गवाह है, किसी बड़े लक्ष्य के लिए लोगों की एकता, कई बार वैचारिक मतभेदों के बावजूद विभिन्न राजनैतिक सामाजिक विचारों के लोगों को एक साथ आने के लिए विवश भी करती है । और जब जब यह इतिहास में घटित हुआ है उसने नए विकल्प सुझाए हैं, नए नारे गढ़े हैं, वतन और वतन की आवाम के तरक्की के नए रास्ते खोले हैं । कुछ बहसें रहेंगी , आपस में टकराते भी होंगी लेकिन वह दोस्ताना हैं । उन्हें समझते, हल करते यह लोग उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जमा हैं। यही जज्बा इस आंदोलन का हासिल है। इसने देश को बांटने की सरकार और संघ के मंसूबों को ध्वस्त करने की ठानी है। जब मंच से आप सामने की तरफ देखेंगे तो आपको गहरी पीड़ा में छलकते सपनों की झिलमिल कतार दिखेगी, यह सपने नई आजादी के सपने हैं, यह सपने हिंदुस्तान के आवाम की बेहतरी के सपने हैं। यह तकलीफ में डूबे हुए सपने हैं लेकिन आजादी की नई बेखौफ आजादी की नई रोशनी के सपने हैं।
इसका हौसला बुलंद रहे, हम भी इस के भागीदार बनें। यही हम सबको बदलेगा और देश के लिए तरक्की के नए रास्ते भी खोलेगा।

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