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‘डॉ.अम्बेडकर : चिंतन के बुनियादी सरोकार’ ‘यह सामाजिक गैरबराबरी पैदा करने वाली मशीनरी की पहचान कराने वाली किताब है’

रमणिका फाउंडेशन की मासिक गोष्ठी

11/05/2019 / दिल्ली.

यह सामाजिक गैरबराबरी पैदा करने वाली मशीनरी की पहचान कारने वाली किताब है- गोपाल प्रधान

रमणिका फाउंडेशन तथा ऑल इंडिया ट्राइबल लिटरेरी फोरम के संयुक्त तत्वावधान में डॉ रामायन राम की पुस्तक *डॉ अम्बेडकर : चिंतन के बुनियादी सरोकार* पर परिचर्चा का आयोजन किया गया।

विषय प्रस्तावना करते हुए राम नरेश राम ने कहा कि रामायन राम की यह पुस्तक बाबा साहब के ग्रंथों का सिलसिलेवार ढंग से मूल्यांकन और बातचीत का एक पड़ाव है ।

आज बाबा साहब को भावनात्मक प्रतीक के रूप में अधिक प्रयोग किया जा रहा है। बाबा साहब की इतिहास में अपने समय में भी उपेक्षा हुई और यह आज भी उनके विचारों की उपेक्षा के रूप में जारी है।

दलित समाज को हिन्दू पहचान में समाहित करने की राजनीति को बाबा साहब समझ रहे थे और उन्होंने इसकी चिंता को अपने लेखन में व्यक्त किया। रामायन राम ने इस पहलू को बहुत प्रासंगिक ढंग से उठाया है।

जिस तरह से डॉ आंबेडकर की स्वीकार्यता बढ़ी है ऐसे में उन्हें फिर से समझने की आवश्यकता है। गैर दलित समाज को विवश होकर दलित समाज की तरफ ध्यान देना पड़ रहा है।

अब परंपरागत सत्ता संरचना टूटी है। यह किताब भागीदारी के सवालों पर सोचने का रास्ता देती है। यही डॉ आंबेडकर के चिंतन के मूल में था। यह देश मात्र बहुसंख्यक लोगों का ही नहीं है।

बाबा साहब द्वारा संविधान सभा के लिए तैयार किया गया ज्ञापन *राज्य और अल्पसंख्यक* सही मायने में संविधान की पृष्ठभूमि है। हमने बाबा साहब को भागीदारी के दार्शनिक के रूप में रिड्यूस कर दिया ।

आजादी के बाद का भारत कैसा होगा? यह डॉ अम्बेडकर की मूल चिंता थी। उद्योग , कृषि व्यापार आदि को लेकर राज्य की क्या भूमिका होगी यह भी उनकी चिंता थी। राजकीय समाजवाद में खेती करने का जो ढंग है वह क्रांतिकारी है।

यह उत्पादन प्रक्रिया का आदर्श रूप है। यह इतिहास का ऐसा पहलू है जिसे उपेक्षित कर दिया गया। वामपंथी आंदोलन ने भी बाबा साहब के अर्थव्यवस्था संबंधी नजरिये की ओर ध्यान नहीं दिया।

हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि संविधान निर्माण की तह में डॉ अम्बेडकर का सामाजिक दर्शन था। स्त्रीवादी आंदोलन ने भी बाबा साहब के स्त्री संबंधी विचार को तवज्जो नहीं दिया।

जबकि वे स्त्री मुक्ति में सामाजिक मुक्ति मानते थे। हिन्दू कोडबिल के पीछे यही दृष्टि थी।

सम्भु यादव ने अपने वक्तव्य में कहा कि यह किताब आंबेडकर के चिंतन के बहाने आज के समय का क्रिटिक प्रस्तुत करती है। आज के दौर में अम्बेडकर क्यों प्रासंगिक हैं। क्योंकि लोमतंत्र खतरे में है। जब जब ऐसा होता है अम्बेडकर प्रासंगिक होते हैं।

आज के सवालों का जवाब पाने के लिए अम्बेडकर के पास जाना पड़ता है। गांधी और अंबेडकर दोनों एक ट्रोमा में हैं कि दोनों का सामान फेंक दिया जाता है। फिर दोनों अपने अपने ढंग से संघर्ष को आगे बढ़ाते हैं।

गांधी साम्राज्यवाद से तो अम्बेडकर ब्राह्मणवाद से टकराते हैं। डॉ अम्बेडकर हिन्दू कोडबिल के द्वारा स्त्रियों को भी शामिल करते हैं।

भूमि सुधार में यही हुआ कि भूमि की पट्टेदारी मिली ओबीसी को तब दलितों के सरप्लस को वे हड़प गए। डॉ अम्बेडकर फेबियन सोसालिज्म में विश्वास करते थे।

आज ब्राह्मणवाद का सबसे बड़ा पोषक ओबीसी समाज है। आर्थिक प्रश्न को खत्मकर कल्चर के प्रश्न को बढ़ा दिया गया इससे तो सामाजिक न्याय नहीं मिलेगा। रामायन राम की यह किताब इसलिए जरुरी है क्योंकि यह हमें अम्बेडकर के पास दूबारा जाने की जरुरत महसूस कराती है।

रजनी दिसोदिया ने कहा कि इस पुस्तक को लिखने पढ़ने में वर्तमान सरकार के पाँच साल आधार का काम करते हैं। इन पाँच सालों में डॉ अम्बेडकर बार बार प्रासंगिक हुए हैं।तस्वीर: गोविंद वर्मा

इस पुस्तक के लेखन में वामपंथी वैचारिकता का तालमेल दिखाई पड़ता है। इस पुस्तक के दो पक्ष हैं; राष्ट्र को लेकर डॉ अम्बेडकर की प्रस्तावना तथा देश को विकसित करने के लिए विचार।

तीन बातें डॉ अम्बेडकर मानते हैं। भावनात्मक , ठोस भौतिक आधार तथा विविधता में एकता की सुंदरता । राष्ट्रीयता का जो मुहावरा गढ़ा जा रहा है वह काफी अजीब लगता है। राष्ट्रीयता को हिंदुत्व से जोड़ने के खिलाफ थे अम्बेडकर।

1857 का विद्रोह राजतन्त्र को ही स्थापित करने का प्रयास था। भारत माता के डिजाइन में हिंदुत्व साफ झलकता है। आंबेडकर के समस्त चिंतन के पीछे एक वाजिब तर्क दिखाई पड़ता है। रामायन राम की इस पुस्तक में डॉ अम्बेडकर के उस पक्ष को उभारा गया है जिसे प्रगतिशीलों ने भी छिपाया है।

आर्य और अनार्य का प्रसंग हम और वे की बहस को दिखाता है। जाति की शुद्धता के पक्ष में सजातीय विवाह को लागू कर ब्राह्मणों ने उसे शास्त्र सम्मत बना दिया। डॉ अम्बेडकर की राष्ट्र की संकल्पना यहाँ दिखाई पड़ती है।

हीरालाल राजस्थानी ने कहा कि लेखक ने अम्बेडकर की आत्मा को उठाया है। यह पुस्तक डॉ अम्बेडकर की वैचारिक यात्रा को दिखाती है। यूँ इसे डॉ अम्बेडकर की वैचारिक जीवनी भी कह सकते हैं. डॉ अम्बेडकर ने जो रास्ता अपनाया वो मुख्यधारा से अलग था।

उसके लिए अपार साहस की आवश्यकता थी। आज डॉ अम्बेडकर के नाम को प्रत्येक पार्टी अपनाना चाहती है, लेकिन यह दावा नहीं कर सकतीं कि वे उनकी विचाधारा को अपनाती या मानती हैं।

इस  पुस्तक में विचारों की जो कंपोजिशन है वह महत्वपूर्ण है। यह किताब अंबेडकर को पूजने का नहीं सोचने का विचार देती है। यह किताब जाति को तोड़ने वाली है। इसका हिस्सा बनना हमारे लिए महत्वपूर्ण है।

बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि १९१८ में आये प्रगतिशील साहित्य में जो सबसे अधिक बार शब्द आता है वह है-‘न्याय’. यह सामाजिक अर्थ में भी है. वामपंथी कवियों ने जाति का संज्ञान देर से लिया. हालाँकि मुद्दा तो उठा दिया था. समाहित करने वाला भाव प्रगतिशीलों में रहा.

अम्बेडकर जयंती पर सरकारों ने आयोजनों में खूब धन व्यय किया लेकिन दलित वर्ग के प्रति संवेदनहीन रहीं. सहारनपुर के शब्बीरपुर इसका उदाहरण है. इस पुस्तक में बुनियादी सरोकार हैं जो बेहद जरुरी है. अम्बेडकर के नाम पर जो बुनियाद परस्ती है उसको तोड़ने वाली किताब है यह.
लेखकीय वक्तव्य में रामायन राम ने कहा कि हमारी ट्रेनिंग वामपंथ में हुई. वामपंथी आन्दोलन में जाति के सवाल को उतनी शिद्दत से नहीं उठाया गया.

इस बात को देखकर इस किताब की जरुरत महसूस हुई. यह पुस्तक नए दलित युवा कार्यकर्ता तथा वाम युवा कार्यकर्ताओं को ध्यान में रखकर लिखी गयी है.

बौद्ध धर्म का प्रश्न भी इसमें शामिल किया जा सकता था जैसा कि कुछ समीक्षकों ने अपेक्षा जताई है लेकिन इसे अभी जानबूझकर स्थगित रखा गया है.

अम्बेडकर के वाम विचार को भी केंद्र में रखा जा सकता था. दरसल आंबेडकर का पूरा संघर्ष भारत में लोकतंत्र को बचाने का है, वामपंथ आज उस लड़ाई को लड़ रहा है. जनवाद की लड़ाई के दौरान वामपंथ द्वारा अम्बेडकर तक पहुँच जाना सहज स्वाभाविक है.

जय भीम लाल सलाम का नारा इसी का सहज परिणाम है. यह ऊपर से थोपा हुआ नहीं यह आज की जरुरत है.
अध्यक्षीय वक्तव्य में आलोचक गोपाल प्रधान ने कहा कि- वामपंथी आन्दोलन से शिकायत हो सकती है लेकिन दो तारीखों- २३ मार्च और १४ अप्रैल को हम लोग किसी न किसी कार्यक्रम में होते थे.

शुरुवाती कम्युनिष्ट आन्दोलन में भारतीय समाज व्यवस्था की स्थिति को समझने का एक गंभीर प्रयास दिखता है. हिंदी में वैचारिक लेखन का पुरुत्थान हुआ है. इस मायने में रामायन की किताब की भाषा महत्वपूर्ण है.

भारतीय समाज बड़ी गहराई से जातिवाद से परिचालित है. इस पुस्तक की भाषा हिंदी जगत के अनुभवों से निकली हुई संवादपरक भाषा है. यह हिंदी की अपनी भाषा है.

महावीर प्रसाद द्विवेदी के दौर की भाषा में जो संवाद्पराकता थी वह बाद में कम हो गई. लेकिन इस पुस्तक में वह है. बुनियादी सरोकार में बुनियाद को भी चिन्हित किया गया है.

बुनियादी को विशेष ढंग से व्याख्यायित किया गया है. इस पुस्तक पर अपने समय की छाप है. वर्ग-संघर्ष दबे-छुपे ही सही चलता रहता है. हर नए दौर में बार बार वह दुहरा रहा है.

आर्य- द्रविड़ प्रसंग महत्वपूर्ण है. आर्य के बाहर से न आने के तथ्य को जो लेखक ने उठाया है वह महत्वपूर्ण है क्योंकि जाति के सवाल पर हम कुछ इजी समाधान खोज लेते हैं. ऐसे में सामाजिक गैरबराबरी पैदा करने वाली एक मशीनरी दिखाई देती है.

यह किताब इस मशीन की पहचान कराती है. इसी ने स्त्री पराधीनता को ही जन्म देती है. ऐसे में किताब संवाद स्थापित करने की कोशिश करती है यह महत्वपूर्ण है. परिचर्चा का संचालन कहानीकार टेकचंद ने किया.

इस परिचर्चा में कवि संजीव कौशल, उमा गुप्ता, गोविन्द वर्मा, श्रवण, सुनीता, अनुपम सिंह, ओमवती, सुखलाल, आशुतोष, शालिनी वाजपेयी और धर्मेन्द्र आदि मौजूद रहे.
प्रस्तुति
टेकचंद एवं अनुपम सिंह

तस्वीरें: गोविंद वर्मा

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