रत्नेश विष्वक्सेन
आम आदमी की हमसफर कहानियों के कहानीकार
स्वयं प्रकाश जी का इस तरह चले जाना उदास करता है।उनकी रिक्तता को उनकी कहानियां भरेंगी इसमें कोई संदेह नहीं है।”नीलकांत का सफर” पढ़ते हुए जो कुछ भी समझ पाया उसका अंश आपके सामने रखता हूँ और इसके माध्यम से स्वयं प्रकाश जी को नमन करता हूँ।
नीलकांत का सफर स्वयं प्रकाश की रचनाधर्मिता का प्रतिफलन है। ’नीलकंठ का सफर’ से लेकर ’संधान’ तक कुल ग्यारह कहानियाँ इस संग्रह में है जो अभिव्यक्ति में सहज और प्रभाव में अर्थपूर्ण है।
स्वयं प्रकाश समकालीन हिंदी कहानी के प्रमुख और अनिवार्य कहानीकार हैं। समकालीन लेखक की सबसे पहली पहचान यह है कि वह अपने समय के सवालों के प्रति किस तरह की क्रिया प्रतिक्रिया करता है। उठाये गये सवालों के प्रति वह कितना गंभीर है। रचनात्मक प्रतिक्रिया और सवालों के प्रति गंभीरता जितनी गहन होगी, उतनी ही उसकी समकालीनता सुनिश्चित होगी।
नीलकांत की सफर समकालीन समस्या और जनसाधारण के बीच जो गहरी नातेदारी है उसको व्यक्त करनेवाली कहानियों का सफरनामा है। आम आदमी की आम जिंदगी की समस्या हो, विभाजन के बाद हिंदू-मुस्लिम के बीच की अयाचित कटुता या फिर विस्थापन का दंश झेलती और बलि होती गरीब लड़कियों की विवशता, कुल मिलाकर यह कहानी संग्रह निरंतर रोज के सवालों से लड़ता है।
रोज जिंदगी के खड़े होने और टूटने बिलखने के बाद फिर से चल पड़ने की यातनादायी प्रसंगों से भरी ये कहानियाँ अपने पाठकों को बिना किसी हलचल के अपने सफर का हमसफर बना लेती है।
हिंदी में ’सूरज कब निकलेगा’ और ’आसमाँ कैसे कैसे’ कहानियों से स्वयं प्रकाश ने अपनी पहचान बनायी। ’नीलकंठ का सफर’ इस संग्रह की पहली कहानी है। ट्रेन में सफर और वह भी थर्ड क्लास में ऊबाऊ और निराशा से भरा है। चूंकि वह जनता थे इसलिए थर्ड क्लास में सफर कर रहे थें। इस एकरस सफर को भंग करते हुए अगले पड़ाव पर कुछ फटेहाल मजदूर चढ़ते हैं।
उन्हें देखकर लग रहा था वे इस भीड़ और परेशानी के आदी है। बहरहाल उस ट्रेन में मजदूरों की जिंदादिली से सब कुछ सुखद लगने लगता है। खिड़कियाँ खुलते ही सारे डिब्बे में उजाला हो गया था और ताजा हवा के ठण्डे झोंके सपाटे भरने लगे। बाहर हरे-भरे खेत थे और पेड़ और नदियाँ और पहाड़ और उन सब पर बड़ी सुहानी शाम बिखर रही थी।
आगे की पंक्तियाँ और शाइस्तगी से इस बात को स्पष्ट करती जाती है कि जीवन जीने की कला सहजता में है। तमाम परेशानियों के बीच ट्रेन में चढ़े फटे मैले-कुचैले मजदूरों से नीलकांत जीवन का सफर सीख रहे थें ’’थोड़ी देर में ये लोग कोई गीत शुरू कर देंगे। उदासियाँ दूर भाग जाएँगी। नीलकांत खुश थे, हालांकि खड़े थें। नीलकांत सफर कर रहे थें, पर खुश थें।कहानीकार ने जाने पहचाने प्रसंगों में गंभीर सवाल सिल दिए हैं।
’पार्टीशन’ कहानी यह बताती है कि विभाजन केवल तारीख़ी त्रासदी नहीं बल्कि वह मानसिकता में धँसी हुई कील है जो अब भी गाहे-बगाहे चुभती रहती है। एक बार के घटनाचक्र ने सब कुछ बदल दिया। भीतरी चोट थी इसलिए वह बेआवाज थी पर कुर्बान भाई का रूखाई का अंदाज लगाइए और इसे पढ़िए कि ’’आप क्या खाक़ हिस्ट्री पढ़ाते हैं? कह रहे हैं पार्टीशन हुआ था। हुआ था नहीं हो रहा है, जारी है।
’अविनाश मोटू उर्फ़ एक आदमी’ कहानी रचनाकार के जनसरोकार के प्रति प्रतिबद्धता का परिणाम है। अविनाश लाइनमैन है, एक नंबर का मैकेनिक। अपने पगार पर विश्वास, काम का पक्का और ईमानदार अविनाश सामान्य होते हुए भी विशिष्ट है। उसका मानना है कि ’मर्द का बच्चा गरीब हो ही नहीं सकता।’’ काम सीखने की ललक, मेहनती, बिंदास और जिंदादिल मोटू अविनाश वास्तव भ्रष्टाचार में लिप्त आम आदमी के मुँह पर तमाचा है। अपनी हर कमियों का रोना सरकारों की तरफ फेंककर अपने बेईमानी की दुनियाँ में उतर जाने वाले आम आदमी को सबक है।
’नैनसी का धूड़ा’ इस संदर्भ में अलग तरह की कहानी है कि वह आदमी और पशु दोनों को एक समांतर रखकर अलग तरह की पैदा हुई मार्मिकता को हमारे सामने लाती है। नैनिया नैनसिंग हो जाता है और धूड़ा को बैल बना दिया जाता है। नैनसिंग गाँव छोड़कर शहर कमाने आता है। चोरी का इल्जाम लगता है और फिर अनकही त्रासदी पर जाकर खत्म हो जाता है। धूड़ा अब खेती के काम से अलग है क्योंकि ट्रैक्टर आ गए हैं। वह भी आवारा की तरह घूमते हुए अभिशप्त है। वास्तव में नैनसी धूड़ा में बदल जाता हे। एक आदमी अनुपयोगिता के चरम पर बैल बन जाता है। आदमी के बैल बनने की कहानी हर लिहाज से पाठक को कचोटती है।
अंतिम दो कहानी ’गौरी का गुस्सा’ और ’संधान’ आम आदमी और उसकी रोजमर्रे की जिंदगी से बावस्ता रखती है ’गौरी का गुस्सा’ व्यवस्था के तहत उपजे आक्रोश की कहानी है। आम आदमी के काहिलपन की कहानी है रतनलाल अशांत हे। वह बैठ कर अपनी फूटी किस्मत को कोसता है। चौक पर फुत्तु नाई की दुकान और पंचरत्न टॉकीज के सामने बैठकर ईश्वर से अच्छे दिन की कामना करता है। पार्वती से उसका दुख नहीं देखा गया। उन्होंने उसके अभाव के दिनों को खत्म कर दिया। फिर अच्छा मुहल्ला माँगा, तो शहर खराब था। शहर अच्छा मिला तो एक अच्छा देश माँग लिया। देखें जरा ’’शानदार देश के शानदार शहर के शानदार मोहल्ले के शानदार मकान के शानदार बगीचे में पाया।’’
रतनलाल ने पार्वती की कृपा से सब चाहा पाया। हर उस अभाव को दूर कर लिया जो उनके जीवन-जगत में था। पर यह क्या ’’पंछी थे चहचहाहट नहीं थी, दर्दनाशक था हमदर्द नहीं, संपर्क था संवाद नहीं, मनुष्य थे मनुष्यता नहीं, लोग थे लगाव नहीं।’’
समकालीन दुनिया और जीवन की यही तो समस्या है। हर सुविधा समाधान के बाद भी बेचैनी खत्म नहीं हुई है। रतनलाल ने पार्वती से कहा एक अच्छी दुनिया दे दीजिए। पार्वती ने कहा ’बदल दो दुनिया को, इतना कुछ तुम्हें दिया, तुम ये एक काम अपने से नहीं कर सकते। रतनलाल का उत्तर था ’मैंने दुनिया क बदलने का ठेका लिया है।’’ पार्वती यानी गौरी को गुस्सा आ जाता है कि कैसा आदमी है यह जो दुनिया को बदलना ठेके के काम समझता है। फिर क्या गौरी दी हुई सारी चीजें वापस ले लेती है। रतनलाल फिर से फत्तु नाई की दुकान और पंचरत्न टाॅकिज के सामने पहले की तरह बैठा है
हम बदलाव चाहते हैं, सुधार और बदलाव के आकांक्षी है, लेकिन जैसे ही अपने दायित्व का समय आता हम कन्नी काटने में जरा भी देर नहीं लगाते। हम चाहते हैं कि बैठे-बैठे चमत्कार की तरह दुनिया बदल जाए। हम कुछ न करें बस यूँ ही बदल जाए सबकुछ। यों इस कहानी के माध्यम से स्वयं प्रकाश ने आम जनों की अकर्मण्यता की जमकर खबर ली है।
अंतिम कहानी ’संधान’ मध्यवर्गीय परिवार और उसकी सपनीली इच्छाओं, अप्राप्य के आकर्षण की कहानी है। विश्वमोहन जी काम काजी आदमी हैं। जितना मिलता है उससे घर परिवार और बच्चों की जरूरतों की पूर्ति होती है। उसके अलावा कुछ भी अतिरिक्त सोचना जरा मुश्किल पड़ता है। ’’विश्वमोहन जी के बच्चों को यह तकलीफ थी कि पापा कहीं घुमाने नहीं ले जाते।’’ एक बार उनके महानगरीय दोस्त का परिवार आकर यहाँ खिलखिला उठता है। पंप सेट से नहाया, बाड़ी की सब्जी देखकर खुश हुए। दोनों बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं, विश्वमोहन जी के बच्चों के साथ उनकी खूब छन रही है। दोनों की पत्नी आपसी रिश्तों की मिठास में घुल गयी हैं तो दोनों मित्र अपनी दुनिया में मस्त हैं।
खेत-खलिहान देखकर, रात आँगन में सोते हुए आसमान में तारे निहारते मानो महानगरीय परिवार ने कारूँ का खजाना पा लिया हो। विश्वमोहन जी को छोटी जगह पर रहने का मलाल भी दूर हो जाता है। कहानी के अंत में यह बात यूँ आती है कि ’’लेकिन इस बार विश्वमोहन जी के परिवार को ऐसा हर्गिज नहीं लगा कि वे पीछे छूट गये हैं या छोड़ दिये गये हैं या उतार दिए गए हैं।’’
एक मध्यवर्गीय जीवन अपने प्राप्य पर असंतुष्ट और अप्राप्य के प्रति सतृष्ण रहता है। उसे हमेशा अप्राप्य की ललक तड़पाते रहती है। बार-बार वह इसका पीछा करता है। वास्तव में जो उपलब्ध है उसका सम्मान बड़ा आवश्यक है। मनुष्य आश्चर्यों में बहुत दिनों तक नहीं जी सकता। विश्वमोहन जी के परिवार को महानगर का जीवन बड़ा सुखद प्रतीत होता था, लेकिन महानगर से आया मित्र और उसके परिवार को छोटी जगहों पर आनंद उठाता देख विश्वमोहन जी और उनके परिवार को यह पता चलता है कि अपनी कमियों और खूबियों के साथ सब महत्वपूर्ण है। उनको छोटी जगह पर रहने का मलाल खत्म हो जाता है।
कहानी संग्रह ’नीलकांत का सफर’ स्वयं प्रकाश की चिर परिचित शैली और अंदाज-ए-बयाँ से और ऊर्वर हो गया है। जिन चरित्रों को लेकर वे हमारे सामने आते हैं वे इतने आम और वास्तविक होते हैं कि आप उन्हें हाथ बढ़ाकर छू सकते हैं। आम आदमी की लगातार उपस्थिति इन कहानियों की विशेषता है। स्वयं प्रकाश निर्ममता की हद तक निरपेक्ष है।
आम आदमी या जनपक्षधरता के बावजूद भी वह उसपर आँख मूंद कर भरोसा नहीं करते। उसपर भी सवाल उठाकर कटघरे में खड़ा करते हैं जिसके साथ वह खड़े हैं। कुल मिलाकर ग्यारह कहानियों का संग्रह ’नीलकांत का सफर’ स्वयं प्रकाश और हिंदी पाठकीयता के लिए रचनात्मक हमसफर है।
(रत्नेश विष्वक्सेन, झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं।)