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हिंदी के अभिमान की विदाई

(हिन्दी के सुपरिचित युवा कवि और आलोचक पंकज चतुर्वेदी की तरफ से नामवर सिंह को श्रद्धांजलि ।)

आज सुबह यह मालूम होते ही कि डॉक्टर नामवर सिंह नहीं रहे, निराला के शब्द बेसाख़्ता याद आये और लगा कि उनकी विदाई ‘हिंदी के अभिमान’ के छिन जाने सरीखी है :

“तुमने जो दिया दान, दान वह,
हिन्दी के हित का अभिमान वह,
जनता का जन-ताका ज्ञान वह,
सच्चा कल्याण वह अथच है–
यह सच है !”

कई वर्ष पहले राष्ट्रीय पुस्तक मेले का उद्घाटन करने नामवर जी कानपुर आये थे. तब रेलवे स्टेशन पर उनकी अगवानी करने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गयी थी. मैं कुछ दोस्तों के साथ उनका स्वागत करने पहुँचा. जैसे ही सुबह-सुबह वह श्रमशक्ति एक्सप्रेस से प्लेटफ़ॉर्म पर उतरे, हमने फूलमालाएँ पहनाकर उनका अभिनन्दन किया. हालाँकि वक़्त की कमी के चलते हम लोग प्लेटफ़ॉर्म टिकट नहीं ले पाये थे ; मगर फूलमालाओं से सुसज्जित, धोती-कुर्ता पहने, ऊँचे क़द और तीखे नाक-नक़्श के, सुदर्शन और प्रभावशाली व्यक्तित्व नामवर सिंह के साथ हमें देखकर किसी ने हमसे टिकट नहीं माँगा. रेलवे के अफ़सरों को लगा होगा कि वह कोई ताक़तवर शख़्सियत या राजनेता हैं !

स्टेशन से बाहर निकलते ही मैंने एक अद्भुत दृश्य देखा. बीती रात कानपुर में किसी कवि-सम्मेलन में आये हुए एक जाने-माने, लहीम-शहीम हास्य-कवि नामवर जी को देखते ही, उनके समक्ष ज़मीन पर घुटनों के बल बैठ गये और दोनों हाथ जोड़कर बोले : “नामवर जी, मैं हिंदी का एक छोटा-सा कवि……….” ऐसा उनका सम्मान था !

मैं ग़ौर से देख रहा था. नामवर जी ने उनकी अभ्यर्थना के जवाब में एक शब्द नहीं कहा, सिर्फ़ हँसते हुए आगे बढ़ गये. हिंदी के दूसरे बड़े पूर्ववर्ती आलोचकों की तरह यह संस्कार हमें उनसे ही मिला है कि जो योग्य नहीं है ; उसकी सराहना करना, आलोचना का अपने धर्म से अपसरण है.

बाद में अख़बार में कार्यरत एक स्थानीय कवि अथवा गीतकार का उनसे परिचय कराते हुए मैंने कहा : “ये अमुक अख़बार में पत्रकार और कवि हैं.”
उन्होंने नामवर जी को नमस्कार करते और कुछ शरमाते हुए तुरंत प्रतिक्रिया दी : “नहीं, नहीं, मैं कवि नहीं हूँ.”

यह उनके आलोचक का औदात्य (ऊँचाई) था कि कवि-सम्मेलन जैसी प्रायः विकृत और निरर्थक हो चुकी संस्थाओं / गतिविधियों के स्तर पर सक्रिय और कविता के नाम पर विपुल धन और यश कमा रहे लोगों को भी उनके सामने जाकर आत्महीनता का एहसास होता था और वे यह स्वीकार करने में संकोच करते थे कि वे कवि हैं.

दोपहर के भोजन के बाद, जबकि कार्यक्रम, यानी नामवर जी का व्याख्यान शुरू होने में कुछ समय था, उस अंतराल में मैंने उनसे निवेदन किया कि ‘अब आप अपने कमरे में आराम कर लीजिये’ और उनकी सेवा के लिए नियुक्त एक परिचारक से उन्हें परिचित कराते हुए कहा : ‘इस बीच ये यहाँ रहेंगे और आपकी आवश्यकताओं का ध्यान रखेंगे.’

कई बार किसी एक शब्द के इस्तेमाल से ही उसे बरत रहे व्यक्तित्व की श्रेष्ठता का पता चल जाता है. नामवर जी बोले कि उन्हें किसी ख़िदमतगार की ज़रूरत नहीं है और इस काम के लिए नियुक्त उस नवयुवक से उन्होंने जो वाक्य कहा, वह अपनी मार्मिकता की बदौलत मेरी चेतना में अमिट हो गया है : “तुम कहाँ मेरे लिए तपस्या करोगे !”

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