समकालीन जनमत
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साहित्य-संस्कृति

पूछते हैं वो कि गालिब कौन है !

आज गालिब (27.12.1797-15.02.1869 ) की डेढ़ सौ वीं पुण्यतिथि है और वे बार-बार याद आ रहे हैं – ‘वह हर इक बात पर कहना कि यों होता तो क्या होता।’ उन्होंने अपने को ‘लब तश्न ए तकरीर’ ;बातों का प्यासाद्ध कहा है। आज कौन है और नहीं है बातों का प्यासा ? आज हमारे कवि और शायर क्या कर रहे हैं ? कहां रह रहे हैं ?

अपनी गहरी मानवीय अपील के कारण ही गालिब इतने लोकप्रिय है और यह लोकप्रियता और बढ़ेगी, बढ़ती ही जाएगी। उनके समय में ही उनके अनेक शिष्य थे। मालिक राम ने अपनी किताब ‘तलामजाए ग़ालिब’ में उनके 146 शिष्यों की चर्चा की है, जिनमें मौलाना हाली, मिर्जा हरगोपाल तख्ता और अन्तिम मुगल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र भी थे। अगर दिल्ली के फोटोग्राफर रहमत अली ने उनका फोटो न खींचा होता, तो हम कहां से उनका चेहरा देख पाते। अगर सोहराब मोदी ने उन पर फिल्म न बनायी होती, जिसके संवाद राजेन्द्र सिंह बेदी ने लिखे थे और मंटो ने कहानी लिखी थी और उनकी कब्र पर संगमरमर का पत्थर लगवा कर उसकी सुरक्षा न की होती, तो शायद दिल्ली में ही लोग पूछते कौन था गालिब ? ‘पूछते हैं वो कि गालिब कौन है/कोई यह बतलाये कि हम बतलाए क्या ?’

आज गालिब को समझने वाले कम नहीं हैं, फिर भी ऐसा क्या है उनकी शायरी में, जो पूरी तरह पकड़ में नहीं आता। झरोखे पर झरोखा खुलते चले जाते हैं।

‘जन्नत की हकीकत’ जानने वाले ग़ालिब अकेले शायर हैं, कवि है। कोई ऐसा दूसरा कवि नहीं है जिसने जन्नत को दोज़ख में डाल दिया हो – ‘दोजख में डाल दो कोई लेकर बिहिश्त को’ और ‘क्यों न फिरदौस को दोज़ख में मिला ले यारब !’ शायरी की शुरुआत गालिब ने शादी से पहले ही की। शादी हुई तेरह की उम्र में और दस‘ ग्यारह की उम्र से ही शायरी शुरू हो गयी। पन्द्रह वर्ष की अवस्था (1812) में ही उन्होंने यह शेर कहा था – ‘तर्जे-बेदिल में रेख्ता कहना/असदुल्लाह खां कयामत है’। शायरी की शुरुआत मसनवी से हुई पर वे मशहूर हुए ग़ज़लों से। ग़ज़ल उनके पहले ‘तंग गली’ ;‘गुल-बुलबुल और हुस्न औ इश्क’द्ध में कैद थी। गालिब ने ग़ज़ल को महबूबा की कहानी से निकाल कर जीवन की कहानी बना दिया।

ग़ज़ल ने एक नई करवट ली और उसकी खुबसूरती और अदा वैसी हुई जैसी पहले कभी न थी। उन्होंने ‘कसीदें’ कहे, पर वे ‘भाटों की तरह’ नहीं थे। तफ़्ता को एक ख़त में वे लिखते हैं – ‘मेरे कसीदे देखो। तशबीब (भूमिका)  के शेर बहुत पाओगे, मदद (प्रशंसा)  के शेर कमतर, नस्र में भी यही हाल है’।
गालिब का जन्मस्थान वहां के निवासियों को भी अब मालूम नहीं है।

आगरा की जिस हवेली में 27 दिसम्बर 1797 को यह शायर पैदा हुआ था, वहां आज एक गर्ल्स काॅलेज है। कालामहल नामी इलाके के आज के लोग यह नहीं जानते कि गालिब यहीं पैदा हुए थे। आगरा उनका ननिहाल था। शाह आलम के समय उनके दादा दिल्ली आये थे। उनका नाम कौकान बेग खां था। वंश परम्परा ईरान के राजा जमशेद से जुड़ी हुई है, जिनके पोता फरीदूं गालिब-वंश के आदि पुरुष थे। फरीदू गद्दी पर बैठे और उन्होंने अग्नि मन्दिर का निर्माण कराया था। गालिब की शायरी के अग्नि-बिम्ब को यहां से जोड़ा जा सकता है। एक प्रकार से कविता के जरिए डी एन ए टेस्ट। गालिब के परदादा तर्सुम खां थे जो समरकंद में थे और उनके बेटे कौकान बेग खां जो गालिब के दादा थे, अपने पिता तर्समु खां से झगड़ कर हिन्दुस्तान आ गये। गालिब तुर्क थे। दादा की मातृभाषा तुर्की थी। उन्हें हिन्दुस्तानी बोलने में कठिनाई होती थी। गालिब के पिता अबदुल्ला बेग खां लखनऊ में आसफउद्दौला के दरबार में रहे, फिर हैदराबाद के नव्वाब निजाम अली खां बहादुर की सरकार में और बाद में उन्होंने अलवर में राजा बख्तावर सिंह के यहां नौकरी की। वहीं किसी लड़ाई में मारे गये। उस समय मिर्जा पांच वर्ष के थे। सगे चाचा सिरुलताह बेग ने उन्हें अपना लिया। चाचा की छत्रछाया में पले-बढ़े, पर चार वर्ष बाद वे भी दिवंगत हुए। चाचा की जागीर के बदले में सालाना जागीर जो दी गयी, उसमें उनका व्यक्तिगत हिस्सा वार्षिक साढ़े सात सौ रुपये था।

गालिब के जीवन का बड़ा हिस्सा दिल्ली में बीता। पचपन साल। वह भी कहीं अधिक उस गली कासिम जान में जो आज बल्ली मारान ;चांदनी चैकद्ध के भीतर शम्शी दवाखाना और हकीम शरीफ खां की मस्जिद के बीच है। यही था असद उल्लाह खां ‘गालिब’ का पता। बल्ली मारां की गलियों को गालिब ने ‘पेचीदा दलीलों की-सी’ कहा है। दिल्ली अंग्रेजों की राजधानी गालिब के इन्तकाल के बहुत बाद बनी। गालिब फारसी के प्रेमी थे और उन्हें अपने फारसी-प्रेम पर गर्व भी था। आरम्भ में फारसी का नशा ऐसा था कि उर्दू में शेर कहना उनके लिए लज्जा की बात थी। फारसीयत उनके खून में मिली हुई थी। उनके आरम्भिक काव्य पर ‘बेदिल’ का बेहद प्रभाव था। इन शेरों को देखकर मीर ने यह भविष्यवाणी की थी कि किसी कामिल उस्ताद के मिलने पर और सीधे रास्ते पर इसे डालने पर यह ‘लाजवाब शाइर’ बन जाएगा और हकीकत में ऐसा हुआ भी। गालिब जैसा शायर न हुआ और न होगा। मुहम्मद हुसैन आजाद की माने तो सन 1828 में असदउल्लाह हुल ‘गालिब’ के आधार पर असद उल्लाह खां ने ‘गालिब’ उपनाम धारण किया।

काव्य-रचना के आरम्भ में गालिब ‘बेदिल’ पर रीझे हुए थे। ‘तर्जे बेदिल में रेख्तः कहना/असद उल्ला खां कयामत है ।’ आरम्भिक रचना दुरूह और क्लिष्ट थी। हकीम आगा जान ऐश ने इसी कारण कहा था – ‘मगर इनका कहा यह, आप समझे या खुदा समझे’। इसी पर गालिब का यह जवाब था – ‘न सताइस की तमन्ना, न सिला की परवाह/गर नहीं है मेरे अशआर में मानी न सही’। इस रास्ते से निकलने के बाद गालिब की शायरी अनेक अर्थच्छटाओं-अर्थायामों से भर गयी। उनका अपना ‘अन्दाज-ए-बयां’ था एकदम अपना नितान्त मौलिक। कहते हैं कि गालिब का है अन्दाज-ए-बयां और’ गालिब ने अपनी शायरी में शायरी की खूबियां भी बतायी हैं। वे कविता में एक साथ सादगी, शिल्प-सौंदर्य, बेखुदी और होशियारी को जरूरी मानते थे- ‘सादगी-ओ पुरकारी, बेखुदी-ओ-हुशियारी’ महज चार लफ्ज नहीं है। इनमें से एक एक पर विस्तार से विचार की जरूरत सदैव बनी रहेगी और यह भी देखा जाता रहेगा कि गालिब की शायरी में यह कहां, कितना और कैसे है ? फारसीनिष्ठ उर्दू से जब गालिब गलियों और बाजारों में बोली जाने वाली उर्दू की ओर मुड़े तो उनकी शायरी में अनेक रंग आ मिले।

गालिब के भाष्यकार, व्याख्याकार, आलोचक कम नहीं हैं। उन्नीसवीं सदी के अन्त से उन्हें समझने का जो सिलसिला चला है, वह अब तक थमा नहीं है और न कभी थमेगा। उर्दू और अंग्रेजी में उन पर जितनी शानदार किताबे हैं हिन्दी में नहीं हैं। पर हिन्दी में भी गालिब को नये-नये ढ़ंग से देखने-समझने का सिलसिला जारी है। गालिब की शायरी कई दौरों में बांटी गयी है। 1807 से 1867 के साठ वर्ष की इस शायरी को कालीदास गुप्ता रज़ा ने ग्यारह दौरों में बांटा है – 1807-1812, 1813-1816, 1817-1821, 1822-1826, 1827-1828, 1829-1833, 1834-1847, 1848-1852, 1853-1857, 1857-1862 और 1863-1866। इस साठ साल में गालिब ने 4209 शेर कहे हैं, पर उनके दीवान में केवल 1802 शेर हैं। गालिब ने स्वयं चयन किया और इसमें गालिब की चयन-दृष्टि का पता चलता है। उनके शेरों के कई पाठान्तर हैं, अर्थ-भेद है।

‘दीवान-ए-गालिब’ को रचना तिथि के क्रम से भी देखा गया है, जिससे प्रचलित अर्थ बदला है और नये अर्थ का अविष्कार हुआ है। गालिब ने स्वयं अपने मित्रों को लिखे पत्रों में अपने कई शेरों की व्याख्या की है। शम्सुर्रहमान फारूकी ने ‘तफ्हीमे-गालिब’ ;1989द्ध में गालिब के 138 शेरों की व्याख्या की है। गालिब के शेरों की कोई अन्तिम व्याख्या नहीं हो सकती। हर बार उससे एक नयी रोशनी फूटती है। निराला ने गालिब के कुछ शेरों की व्याख्या वेदान्त की कसौटी पर की – ‘न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता/डुबाया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।’ गालिब के शेरों से उनकी मनोरचना पर भी विचार हुआ है।

गालिब और शेक्सपीयर बार-बार जीवन के किसी भी मोड़ पर अपनी पंक्ति के साथ मौजूद रहते हैं। उनकी पंक्ति अपने संदर्भ से निकल कर एक नये संदर्भ में फिट होकर नवीन हो जाती है। यह संदर्भ का विस्तार है। सृजन का सर्वजनीन पक्ष है। गालिब की शायरी के सैकड़ों रंग हैं। जीवन के रहस्य को जानने की उनके यहां बेचैनी है। पर उन्हें रहस्यवादी नहीं कहा जा सकता। दुनिया को उन्होंने ‘बच्चों का खेल’ कहा है। वे बेचैन चिन्तक कवि हैं। टोटल पोएट हैं। नजर इतनी बारीक और पैनी कि उनकी पकड़ से कुछ भी नहीं छूटता। उनके यहां ‘तर्क’ और ‘प्रश्न’ पर बल है। ‘क्या’ और ‘क्यों’ बार-बार मौजूद है। उनकी प्रश्नाकुलता साफ दिखाई देती है। समय उनके यहां बंधा हुआ नहीं है। काल अखंड है। चिन्ता में वर्तमान है जिसके दो छोरों पर अतीत और भविष्य है। काल की यह सातत्यता उनकी दृष्टि की सम्पूर्णता-अखण्डता से जुड़ी है। वेदान्त और उपनिषदों के स्वरों के साथ हम वहां सूफियों के रंग भी देख सकते हैं। वे ‘मसायल-ए-तसव्वुफ’ पर चिन्तन करते हैं। तसव्वुफ (अध्यात्म) के कारण ही उनके यहां सूफी रंग और लहजा है। भौतिक संसार ही गालिब के लिए सच है।

गालिब फारसी, तुर्की और उर्दू के ज्ञाता थे। वे उर्दू शायरी के पर्याय हो चुके हैं। उनका दीवान उनके जीवन-काल में पांच बार प्रकाशित हुआ था – 1841, 1847, 1861, 1862 और 1863 में, जिनमें पहले तीन दिल्ली से छपे थे, चौथा कानपुर और पांचवां आगरा से। गालिब ने इन सभी संस्करणों का चयन स्वयं किया था। उनके यहां का इश्क ‘स्वाभिमानी और मस्तौन्नत’ है ‘यह इश्क वाले हैं, जो हर चीज लुटा देते हैं’। हमारा समय ‘इश्क’ का नहीं घृणा का है और बिना इश्क के गालिब को नहीं समझा जा सकता है। गालिब ने पहली बार खुदा और माशूक पर व्यंग्य किया। भाव, संवेग और विचार उनकी शायरी में इस कदर घुले-मिले हैं कि उन्हें एक दूसरे से अलगाया नहीं जा सकता। वे ही यह कह सकते थे – ‘वाइज, तेरी दुआ में असीर हो तो मस्जिद को हिला के दिखा/नहीं तो दो घूंट पी।’

गालिब की चर्चा शराब के बिना अधूरी है। वे हुक्काकश थे, पियक्कड़ थे, विनोदी और हंसोड़ थे, विद्वान थे, खर्चीले थे, कर्ज में जीते थे और सोचते थे ‘रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन’। उन पर जुए का मुकदमा चला था 1843-44 में। सजा मिली थी और वे जेल भी गये थे। उनकी परेशानियां उनकी शायरी से अधिक उनके खतों में झलकती है। पत्राचार को उन्होंने वार्तालाप बनाया। एक नयी लेखन-शैली का अविष्कार किया। ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ ;पत्र संकलनद्ध नामकरण उन्होंने स्वयं किया था। उनकी पत्र-शैली ऐसी थी ‘मानो आप सामने बैठे हुए बातों के फूल बिखेर रहे हैं।’

गालिब का समय संक्रान्ति काल का है। बादशाहत जा रही है और नयी सल्तनत आ रही है। 1857 की दिल्ली का जिक्र्र ‘दस्तम्बू’ में है। उन्होंने लिखा – ‘11 मई को यहां यानी दिल्ली फ़साद शुरू हुआ। मैंने इस दिन से घर का दरवाजा बंद और बाहर आना-जाना बंद कर दिया। अपनी सरगुजश्त ;आपबीतीद्ध लिखनी शुरू की।’ ‘दस्तम्बू’ में 11 मई 1857 से 31 जुलाई 1858 तक का जिक्र है। वे तूफान को वसन्तागमन का सूचक मानते थे – ‘तूफाने-आमद, आमदे-फस्ले बहार है’ इसका यह भी अर्थ है कि 1857 के तूफान का अन्त आजादी में होगा।

पाकिस्तानी लेखक मुनीरुर्रहमान की किताब है ‘गालिब और इन्कलाब सत्तावन’। गालिब पर लिखने वालों ने उनके समय को ध्यान में रखा है। राल्फ रसेल की पुस्तक है ‘गालिब, द पोएट एंड हिज एज’ (संपादित 1972) और पवन वर्मा की किताब है ‘गालिब: द मैन, द टाइम्स’ (पेंग्विन 2000)। शम्सुर्रहमान फारूकी ने ब्रायन सिल्वर की पुस्तक ‘द नोबल सांइस आॅफ द गजल: द उर्दू पोयट्री आॅफ मिर्जा गालिब’ की भूमिका में गालिब के सभी आलोचकों को ‘हाली के बच्चे’ कहा है, जिनकी किताब ‘यादगार-ए-गालिब’ गालिब के जीवन और कला पर पहली पुस्तक है। बेगम अख्तर, नूरजहां, मेंहदी हसन, मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर आदि ने उनकी गजलें गायीं। गुलजार ने उन पर टीवी सीरियल 1988 में बनायी।

गालिब ने गंगा को ‘पूर्ण रूप से स्वर्ग’ कहा है और बनारस को ‘हिन्दुस्तान का काबा’ कहकर उसे बुरी दृष्टि से दूर रखने को परमात्मा से कहा था। गंगा मैली होती चली गयी, पर गालिब की शायरी के रंग लगातार खुलते-निखरते गये हैं। गालिब को पढ़ना एक बेहतर इन्सान बनना है। वे आज के समय में कहीं अधिक मानी रखते हैं। वे बार-बार याद आते रहेंगे। अगली शताब्दियों में भी सदैव।

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