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कार्पोरेट न्यूज मीडिया : धनतंत्र के लिए और धनतंत्र-फासीवाद की सेवा में

अधिकांश न्यूज चैनलों पर इन दिनों 24×7 अहर्निश “बहस”, “महाबहस”, “दंगल”, “ताल ठोंक के” और इस जैसे और कई चर्चाओं के प्राइम टाइम कार्यक्रमों में सिर्फ और सिर्फ मंदिर-मस्जिद, हिन्दू-मुसलमान-पाकिस्तान, गौमाता-गौरक्षा-तीन तलाक-मुस्लिम तुष्टीकरण-बांग्लादेशी घुसपैठिये, देशद्रोही बनाम देशभक्त, हिन्दू खतरे में जैसे मुद्दे छाए हुए हैं. ख़बरों में भी यही मुद्दे/विषय सुर्ख़ियों में हैं. ज्यादातर अखबारों में भी ऐसी ही ख़बरें/रिपोर्टें छाई हुईं हैं. इन्हें देखकर/सुनकर/पढ़कर ऐसा लगेगा कि देश की सबसे बड़ी समस्या राममंदिर का निर्माण है; देश की बहुसंख्यक आबादी यानी हिन्दुओं के साथ भेदभाव/अन्याय/अत्याचार हो रहा है, उन्हें दबाया जा रहा है जबकि मुसलमानों के मजे हैं और उनका तुष्टीकरण हो रहा है; हिन्दू धर्म खतरे में है जबकि इस्लाम/ईसाइयत को बढ़ावा दिया जा रहा है; साथ ही देश खतरे में है क्योंकि देश में “एंटी नेशनल” (राष्ट्रविरोधी) बढ़ रहे हैं, शहरों में अर्बन-नक्सल फ़ैल रहे हैं, विपक्षी पार्टियों की इनके साथ सांठगांठ है, इन सबके पाकिस्तान के साथ लिंक हैं आदि-आदि.

या फिर, इन न्यूज चैनलों और अखबारों में ऐसी ख़बरें और बहसें सुर्ख़ियों में हैं जिनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के “ऐतिहासिक”, देश में “पहली बार” और “चमत्कारिक” फैसलों, कामों और उपलब्धियों का बखान है. यह भी कि तमाम मुश्किलों के बावजूद देश कितनी तेजी से तरक्की कर रहा है, विकास हो रहा है, इंफ्रास्ट्रक्चर में क्रांति हो रही है, कालेधन/भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चल रही है, आर्थिक सुधार तेजी से चल रहे हैं, अर्थव्यवस्था साफ़-सुथरी हो रही है और इसके साथ देश बदल रहा है. चैनलों और अखबारों को देखकर/पढ़कर यही लगेगा कि “अच्छे दिन” आ गए हैं और जो कुछ कमी रह गई है, वह भी आनेवाले दिनों में पूरी हो जायेगी. गाहे-बगाहे कुछ दूसरी “नकारात्मक” खबरें चल भी रही हैं तो उनके लिए भी विपक्ष और खासकर कांग्रेस की पूर्व सरकारों को जिम्मेदार ठहराया जाता है.

गरज यह कि मुख्यधारा के समाचार मीडिया (न्यूज चैनलों और अखबारों) का बड़ा हिस्सा मोदी सरकार और दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक राजनीति के भोंपू या प्रचार माध्यम (प्रोपैगंडा चैनल) में बदल गया है. बिना किसी संकोच या शर्म के ये चैनल/अखबार एक ओर जहरीले दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक राजनीतिक-सामाजिक एजेंडे को मुख्यधारा का एजेंडा बना रहे हैं, उसके प्रचारक बन गए हैं और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को मजबूत कर रहे हैं. दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक चमत्कारिक, प्रभावशाली, निर्णायक और स्वच्छ नेता के रूप में छवि गढ़ने में जुटे हैं. उनके हर छोटे-बड़े फैसले को ऐतिहासिक और गेम चेंजर बताया जा रहा है. सरकार की ओर से बढ़ाये जा रहे आर्थिक सुधारों, निजीकरण और उदारीकरण के फैसलों की तारीफों के पुल बांधे जा रहे हैं.

लेकिन मुख्यधारा के कार्पोरेट समाचार मीडिया में यह बदलाव या कायांतरण एक दिन में या तीन-चार सालों में नहीं आया है. इन चार सालों में यह प्रक्रिया सिर्फ और तेज हुई है और अपने चरम पर पहुँच गई है. लेकिन कार्पोरेट समाचार मीडिया का यह दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक कायाकल्प एक लम्बी प्रक्रिया के तहत हुआ है. इसकी शुरुआत भारतीय समाचार मीडिया के एक बड़े हिस्से के कारपोरेटीकरण के साथ हुई. यह ठीक है कि भारत में समाचार मीडिया हमेशा से निजी हाथों में था और उसका प्रभावशाली हिस्सा बड़ी पूंजी के कब्जे में था. वह हमेशा से बड़ी पूंजी के हितों के मुताबिक तत्कालीन कांग्रेस सरकारों के साथ रहा है. लेकिन समाचार मीडिया का एक बड़ा हिस्सा छोटी और मंझोली पूंजी के हाथों में भी था और राजनीतिक-कारोबारी प्रतियोगिता के कारण उसमें सरकार और कांग्रेस विरोधी सुर भी रहे हैं. यही नहीं, उसमें विचारों और कवरेज के स्तर पर विविधता और बहुलता के साथ-साथ उदार और प्रगतिशील नजरिए को जगह मिलती रही.

लेकिन 80 के दशक के उत्तरार्ध और खासकर 1991 में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के साथ एक ओर राजनीति में रामजन्मभूमि आन्दोलन के जरिये दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक राजनीति का उभार शुरू हुआ और दूसरी ओर, आर्थिक उदारीकरण ने अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ समाचार मीडिया के कारपोरेटीकरण की प्रक्रिया तेज कर दी. इस कारपोरेटीकरण की प्रक्रिया के कुछ खास पहलू हैं जिन्होंने मीडिया घरानों/ समूहों की संरचना और उसके प्रबंधकीय ढांचे को बहुत गहरे प्रभावित किया है. इसका सीधा असर उनके कंटेंट पर भी पड़ा है. इसलिए इस प्रक्रिया और मीडिया खासकर अखबार और टी.वी उद्योग में आये परिवर्तनों को समझना बहुत जरूरी है.

मीडिया के कारपोरेटीकरण की इस प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण पहलू उसके स्वामित्व के रूप में आया बदलाव है. जहां 80 के दशक तक हिंदुस्तान टाइम्स (एच.टी), बेनेट कोलमैन कंपनी (टाइम्स आफ इंडिया) और इक्का-दुक्का अन्य अपवादों को छोड़कर अधिकांश अखबार घराने या समूह छोटी या मझोली पूंजी के उपक्रम थे और उनका मालिकाना एक परिवार तक सीमित था, वहीँ 90 के दशक में समाचार मीडिया उद्योग में बड़ी पूंजी पूंजी का प्रवेश शुरू हुआ. इसके साथ ही अखबार के प्रबंधन में प्रोफेशनल मैनेजरों का प्रवेश हुआ और मार्केटिंग की भूमिका बढ़ने लगी. असल में, टाइम्स आफ इंडिया (टी.ओ.आई) में यह प्रक्रिया 80 के दशक के आखिरी वर्षों में काफी हद तक पूरी हो चुकी थी और अधिकांश सामाचार समूहों ने उसके कार्पोरेट माडल को ही अपनाया.

टी.ओ.आई की व्यवसायिक सफलता ने सभी अखबार समूहों को चौंका दिया था. टी.ओ.आई ने समीर जैन के नेतृत्व में स्वतंत्र और क्रिटिकल संपादकों की कीमत पर प्रोफेशनल मैनेजरों को महत्व देकर और आक्रामक मार्केटिंग के जरिये आर्थिक सफलता के नए मानदंड बनाने शुरू कर दिए थे. इसने अन्य अखबार घरानों/समूहों को भी इस रणनीति की नक़ल करने के लिए प्रोत्साहित किया. जल्दी ही कई अखबार समूह/घराने छोटी-मंझोली पूंजी के कुटीर/छोटे उद्योग से बड़ी पूंजी के मैनेजरों और मार्केटिंग से चलनेवाले उद्योगों में बदलने लगे. कई अख़बार घराने/समूह पूंजी जुटाने के लिए शेयर बाज़ार में उतरने लगे. इन अखबार समूहों में शेयर बाज़ार में उतरने की प्रेरणा टी.वी कंपनियों के बाज़ार से पूंजी उगाहने और उसे अपने विस्तार/प्रसार में लगाने से आई.

आज अधिकांश बड़ी टी.वी न्यूज कम्पनियां- टी.वी टुडे, टी.वी-18, एन.डी.टी.वी, जी टी.वी, यू.टी.वी, बैग फिल्म्स, सन टी.वी, आदि शेयर बाज़ार में लिस्टेड कम्पनियाँ हैं. उनकी सफलता ने अखबार समूहों को भी शेयर बाज़ार में उतरने के लिए ललचाया. नतीजा 90 के दशक के आखिरी वर्षों में एच.टी, डेक्कन क्रॉनिकल, मिड डे, जागरण प्रकाशन आदि ने और 2000 के दशक में भास्कर समूह ने शेयर बाज़ार में उतरकर कारपोरेटीकरण की इस प्रक्रिया को उसके तार्किक नतीजे तक पहुंचा दिया. असल में, शेयर बाज़ार में उतरना और वहां से पैसा जुटाना कोई मामूली बात नहीं है. बाज़ार में लिस्टेड कंपनी होने के बाद उसपर पूंजी बाज़ार के कई घोषित-अघोषित नियम लागू होने लगते हैं. कंपनी के प्रबंधन में कई बदलाव होते हैं. कम्पनी को खुद को बाज़ार की जरूरतों के अनुसार ढालना पड़ता है.

लेकिन सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह कि शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनी पर हमेशा अपने निवेशकों को अधिक से अधिक मुनाफा देने का दबाव होता है. जाहिर है कि अब अखबार या टी.वी न्यूज कम्पनियां छोटी पूंजी नहीं बल्कि बड़ी पूंजी का खेल हो गई हैं. इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आज कई बड़ी मीडिया कम्पनियां हजारों करोड़ की कम्पनियां हैं जिसमें देशी और विदेशी निवेशकों का पैसा लगा हुआ है. उदाहरण के लिए, 23 नवम्बर 18 को जब मुंबई शेयर बाज़ार का सूचकांक 34981 अंको पर था, उस समय अपने प्रति शेयर की कीमत के आधार पर “दैनिक जागरण” प्रकाशित करनेवाली कंपनी-जागरण प्रकाशन कुल 3496 करोड़ रुपये की कंपनी थी जबकि हिंदुस्तान टाइम्स समूह (एच.टी मीडिया) 926 करोड़ रुपये और हिंदी “दैनिक हिंदुस्तान” की प्रकाशक कंपनी- हिंदुस्तान मीडिया 949 करोड़ रूपये की थी.

इसी तरह, बाज़ार पूंजीकरण के हिसाब से सन टी.वी 23623 करोड़ रूपये, जी इंटरटेन 44037 करोड़ रुपये, टीवी 18 ब्राडकास्ट 6034 करोड़ रुपये, जी (न्यूज) मीडिया 1148  करोड़ रुपये, दैनिक भास्कर यानी डी.बी कार्प 3184 करोड़ रूपये और टीवी टुडे (इंडिया टुडे और आजतक) 2280 करोड़ रुपये की कम्पनियाँ हैं. मजे की बात यह है कि मौजूदा सरकार के प्रति क्रिटिकल और लिबरल-सेक्युलर माने जानेवाले एनडीटीवी के बाजार पूंजीकरण में काफी गिरावट आई है और वह सिर्फ 229 करोड़ रुपये की कंपनी रह गई है. इन सभी कंपनियों में देशी और विदेशी दोनों ही निवेशकों का पैसा लगा हुआ है. इन निवेशकों की मांग अधिक से अधिक मुनाफे की होती है. अगर ये कम्पनियां अपेक्षित मुनाफा यानी अन्य ब्ल्यू-चिप कंपनियों या किसी सीमेंट/ऑटोमोबाइल/दूरसंचार कंपनी की तरह लाभांश नहीं देंगी तो निवेशक उसके शेयर बेचकर निकल जाएंगे. इससे कंपनी के शेयरों के भाव गिर जायेंगे और उसका पूंजीकरण भी नीचे आ जायेगा.

ऐसी स्थिति में इन कंपनियों के लिए भविष्य में बाज़ार से पैसा उठाने में दिक्कत आ सकती है. जाहिर है कि इस कारण सभी मीडिया कंपनियों पर प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए अपना मुनाफा दोगुना-चौगुना करने का दबाव बना रहता है. इसलिए अपने देशी-विदेशी निवेशकों के अधिक से अधिक मुनाफे  की मांग को पूरा करने के लिए अखबार और टी.वी कंपनियों का प्रबंधन मार्केटिंग के सभी आक्रामक तौर तरीके और कथित “इनोवेटिव” (पेड कंटेंट, प्राइवेट ट्रीटी, मीडिया नेट आदि स्कीम ) रणनीति आजमाता रहा है. इन स्कीमों के जरिये पत्रकारिता की सभी नैतिकताओं, मूल्यों  और परम्पराओं की धज्जियाँ उड़ाई जाती रही हैं. चुनावों में पार्टियों और उम्मीदवारों से पैसा लेकर “खबरें” (पेड न्यूज) छापी जाती रही हैं. पाठकों के साथ विश्वासघात  किया जाता रहा है क्योंकि उन्हें पता नहीं है कि चुनाव कि जो रिपोर्ट वह पढ़ रहे हैं, वह वास्तव में किसी प्रत्याशी या पार्टी से पैसा लेकर लिखी गई है.

इसी तरह, टाइम्स आफ इंडिया और दूसरे कई अखबारों और चैनलों ने कंपनियों से पैसा लेकर बिना अपने पाठकों/दर्शकों को बताये कंपनियों के अनुकूल रिपोर्टें  छाप और दिखाते रहे हैं. यह बीमारी यहां तक फ़ैल गई है कि कुछ अखबार और चैनल अन्य कंपनियों के कुछ प्रतिशत शेयर लेकर बदले में उन्हें “प्रोमोट” करने के वास्ते उनके विज्ञापन छापने से लेकर उनके पक्ष में सकारात्मक “खबरें” छाप और दिखा रहे हैं. इसे वे “प्राइवेट इक्विटी” या ब्रांड इक्विटी स्कीम कहते हैं. आश्चर्य नहीं कि अधिकांश मीडिया कंपनियों के मुनाफे में छलांग दिखाई पड़ रही है. इस मायने में उनके “अच्छे दिन” आ गए हैं. कम से कम खुद को “राष्ट्रवादी मीडिया” बतानेवाले जी मीडिया की इनदिनों चांदी है.

लेकिन बड़ी पूंजी और उसके साथ आयी आक्रामक मार्केटिंग के बढ़ते दबदबे के कारण जहां कुछ समाचारपत्र समूहों (जैसे टाइम्स समूह, एचटी, जागरण, भास्कर आदि) ने बाजार में अपनी स्थिति मजबूत की है, वहीं कई मध्यम और छोटे समाचारपत्र समूहों (जैसे आज, देशबंधु, प्रभात खबर, पॉयनियर, स्टेटसमैन आदि) के सामने अपना अस्तित्व बचाए रखने या होड़ में टिके रहने का संकट पैदा हो गया है. कुछ और बड़े और माध्यम आकार के अखबार समूहों (जैसे अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, नवभारत (म.प्र.), ट्रिब्यून, इंडियन एक्सप्रेस आदि) पर अपने मजबूत प्रतिद्वंद्वियों के बढ़ते दबाव का असर साफ देखा जा सकता है. स्थिति यह हो गई है कि समाचारपत्र उद्योग में जारी तीखी प्रतियोगिता और बड़ी पूंजी के बढ़ते दबाव के कारण छोटे और मंझोले अखबारों के लिए इस होड़ में टिकाना लगातार मुश्किल होता जा रहा है. छोटे और मंझोले अखबार प्रतियोगिता से किस तरह बाहर हो रहे हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2007 की एक रिपोर्ट के अनुसार देश भर में सिर्फ 14 बड़े समाचारपत्र समूह कुल प्रसार यानि सर्कुलेशन का दो-तिहाई और कुल राजस्व का तीन-चौथाई हड़प जा रहे हैं जबकि बाकी दर्जनों भाषाई अखबारों और पत्रिकाओं को बचे हुए 25 प्रतिशत में काम चलाना पड़ रहा है. यही हाल टीवी न्यूज चैनलों का है जहाँ तीन-चार बड़ी कंपनियों (जी, टाइम्स, टीवी टुडे, टीवी-18, सन टीवी) के चैनलों को छोड़कर बाकी प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि उनका क्या होगा?

संकेत साफ हैं. आनेवाले वर्षों में समाचार मीडिया उद्योग में टीवी-18 जैसे कई बड़े उलटफेर देखने को मिल सकते हैं जहाँ राघव बहल की कंपनी को ठीक 2014 के आम चुनावों के बाद मुकेश अम्बानी की कंपनी रिलायंस ने टेकओवर कर लिया. यह आशंका बढ़ती जा रही है कि बड़ी पूंजी के दबाव में छोटे और मंझोले खिलाड़ी प्रतियोगिता से बाहर हो जाएंगे. कुछ बड़े अखबार या मीडिया समूहों का दबदबा और बढ़ेगा. समाचार मीडिया उद्योग में अधिग्रहण और विलयन (खरीद-बिक्री और आपसी गठबंधन) की प्रक्रिया तेज होगी.

यह कोई नई बात नहीं है. पूंजी का यही चरित्र होता है. बड़ी पूंजी छोटी पूंजी को खा जाती है. अमेरिका के समाचारपत्र और मीडिया उद्योग में यह बहुत पहले ही हो चुका है. वहां  1984 के आसपास 50 मीडिया कंपनियां थीं, वहीं 1987 आते आते इन कंपनियों की संख्या घटकर 26 रह गई जो 1990 में और घटकर 23 से भी कम हो गईं. इसके बाद नई तकनीक और कनवर्जेंस की प्रक्रिया के कारण यह संख्या 1993 में घटकर 20 से भी कम हो गई और 90 के दशक के अंत आते आते मात्र 10 बड़ी मीडिया कंपनियां ही पूरे अमेरिकी मीडिया उद्योग को नियंत्रित करने लगीं.

समाचार मीडिया में इस संकेन्द्रण  नतीजा अख़बारों और चैनलों के कंटेंट और कवरेज पर पड़ना तय है. जैसे-जैसे छोटे और मंझोले अख़बार और चैनल कमजोर होंगें या बंद होंगे, समाचार मीडिया में विविधता और बहुलता और काम होगी. जब कुछ ही अखबार और चैनल समूह होंगें तो जाहिर है कि पाठकों/दर्शकों को उतने ही सीमित विचार, दृष्टिकोण और कवरेज मुहैया होंगे. यहां एक और गौर करनेवाली बात यह है कि कुछ ही समूहों के बीच प्रतियोगिता होने के कारण कंटेंट की गुणवत्ता में वृद्धि या सुधार के बजाय एक-दूसरे के सफल फार्मूलों की नक़ल बढ़ जाती है. टी.वी में यह नक़ल बिलकुल साफ दिखती है लेकिन अखबारों में भी धीरे-धीरे फर्क खत्म होता जा रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसके लिए काफी हद तक मौजूदा प्रतियोगिता और बाज़ार में होड़ में बने रहने का दबाव जिम्मेदार है. असल में, किसी अखबार या न्यूज चैनल समूह की व्यावसायिक सफलता उसके अंतर्वस्तु की गुणवत्ता, विविधता, विचारों की बहुलता, पत्रकारिता के उसूलों से कहीं अधिक मार्केटिंग की आक्रामक रणनीति से तय हो रही है.

इस प्रक्रिया में अखबारों के अंदर संपादकीय विभाग का महत्व लगातार कम हुआ है और मालिकों-प्रबंधन का दबदबा बढ़ा है. यहां तक कि अंतर्वस्तु के निर्धारण में संपादकीय विभाग की भूमिका कम हुई है और मार्केटिंग मैनेजरों का हस्तक्षेप बढ़ गया है. अधिकांश न्यूज चैनलों/अखबार समूहों में संपादक की भूमिका मैनेजर की हो गयी है और नयी पीढ़ी के संपादकों की पहली प्राथमिकता न्यूज चैनल/अखबार की अन्तर्वस्तु नहीं बल्कि उसे एक ‘बिक्री योग्य लोकप्रिय उत्पाद` में बदलने की है. उनका आदर्श वाक्य है: जो बिकता है, वह चलता है. इसलिए अगर जहरीला सांप्रदायिक प्रोपैगंडा बिक रहा है तो उन्हें उसे बेचने में कोई शर्म या लिहाज नहीं है. वे टीआरपी के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं.

कारपोरेटीकरण की इस प्रवृत्ति का दूसरा पहलू यह है कि न्यूज मीडिया कम्पनियाँ जैसे-जैसे बड़ी हो रही हैं, उनका कारपोरेटीकरण हो रहा है, उनका मुनाफा बढ़ रहा है, वैसे-वैसे वे मीडिया से इतर दूसरे धंधों/कारोबार की ओर बढ़ रही हैं. हाल के वर्षों में ऐसे अनेकों उदाहरण सामने आए हैं जिनमें मीडिया कंपनियों ने रीयल इस्टेट, शापिंग माल्स, चीनी मिल, पावर स्टेशन, माइनिंग से लेकर हर तरह के कारोबार में निवेश करना और विस्तार करना शुरू कर दिया है. कहने की जरूरत नहीं है कि अपने कारोबार को फ़ैलाने में उन्हें अपने न्यूज चैनलों/अखबारों से खासी मदद मिल रही है क्योंकि उसके प्रभाव का इस्तेमाल करके वे सरकार और नेताओं/अफसरों के जरिये आसानी से लाइसेंस/ठेके और जमीन हासिल कर ले रहे हैं.

आश्चर्य नहीं कि हाल के दिनों में सामने आए बड़े घोटालों में कई बड़ी मीडिया कंपनियों और उनके मालिकों के नाम भी लाभार्थियों के रूप में सामने आए हैं. उदाहरण के लिए, कोयला खदानों के आवंटन में हुई धांधली और घोटाले में कुछ मीडिया कंपनियों (जैसे लोकमत समूह और उसके मालिक विजय दर्डा) के नाम चर्चा में आए थे. यही नहीं, ऐसी पुष्ट/अपुष्ट रिपोर्टें आपको देश के हर बड़े शहर/राज्यों की राजधानियों में सुनने को मिल जायेंगी कि कैसे इन मीडिया कंपनियों ने अवैध तरीके से जमीन कब्जाया, रीयल इस्टेट में निवेश किया है और माइनिंग के पट्टे आदि हासिल किये हैं. कहते हैं कि इसी लोभ में बहुतेरी मीडिया कंपनियों ने झारखण्ड और छत्तीसगढ़ जैसे खनिज संसाधनों से संपन्न राज्यों में अपने अखबार और चैनल का विस्तार किया है क्योंकि उससे माइनिंग के ठेके हासिल करने में आसानी होती है.

लेकिन दूसरी ओर, न्यूज मीडिया की इस शक्ति और प्रभाव ने बड़ी कंपनियों/कार्पोरेट्स को भी मीडिया कारोबार में घुसने के लिए प्रेरित किया है. हालाँकि उनकी हमेशा से मीडिया कारोबार में दिलचस्पी रही है लेकिन हाल के वर्षों में जबसे आर्थिक उदारीकरण के नामपर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण और प्राकृतिक संसाधनों खासकर जल-जंगल-जमीन-खनिजों को कब्जाने की होड़ शुरू हुई है और दूसरी ओर, मीडिया कंपनियों के रसूख और लाबीइंग शक्ति बढ़ी है, बड़े कार्पोरेट्स भी मीडिया कंपनियों में बड़े पैमाने पर निवेश करते दिखाई पड़े हैं.

उदाहरण के लिए, देश के सबसे बड़े कार्पोरेट समूह रिलायंस ने टी.वी-18 समूह को खरीद लिया. इसी तरह कुमारमंगलम बिरला की आदित्य बिरला समूह ने टी.वी. टुडे समूह में निवेश किया है. अनिल अम्बानी की ज्यादातर मीडिया कंपनियों में 5 से लेकर 15 फीसदी तक शेयर रहे हैं. यही नहीं, मीडिया कंपनियों और बड़े कारपोरेट समूहों के बीच बढ़ते गठजोड़ का एक बड़ा प्रमाण यह भी है कि सभी बड़ी मीडिया कंपनियों के निदेशक मंडल में बड़े कारपोरेट समूहों के प्रमुख शामिल हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि ये तीनों ही प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं. इसके साथ ही, मीडिया उद्योग में स्वामित्व के ढाँचे में बड़े और बुनियादी बदलाव भी हो रहे हैं. मीडिया उद्योग के इस नए पिरामिड में सबसे ऊपर मुट्ठी भर वे बड़े कारपोरेट मीडिया समूह हैं जिनकी संख्या मुश्किल से 10 के आसपास है. लेकिन तथ्य यह है कि वे ही आज मीडिया कारोबार को नियंत्रित और निर्देशित कर रहे हैं. वे वास्तव में अभिजात्य शासक वर्ग के हिस्से हैं और इसका सबूत यह है कि उनके नाम देश के पचास और सौ सबसे ताकतवर और प्रभावशाली लोगों की सूची में छपते रहते हैं.

इन चुनिंदा मीडिया समूहों के हाथ में देश के सबसे अधिक पढ़े जानेवाले 20 सबसे बड़े अखबार और सबसे अधिक देखे जानेवाले 15 न्यूज चैनल हैं.

हाल के वर्षों में उदारीकरण और भूमंडलीकरण का फायदा उठाकर उन्होंने न सिर्फ विदेशी निवेश आकर्षित किया है बल्कि उनका तेजी से विस्तार हुआ है. इन बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों ने क्रास मीडिया प्रतिबंधों और उससे संबंधित रेगुलेशन के अभाव का फायदा उठाकर न सिर्फ अखबार, टेलीविजन, रेडियो, इंटरनेट जैसे सभी मीडिया प्लेटफार्मों पर अपने कारोबार का विस्तार किया है बल्कि उन्होंने भौगोलिक सीमाओं को लांघकर क्षेत्रीय भाषाओँ के मीडिया बाजार में भी घुसपैठ की है. इसके कारण हाल के वर्षों में मीडिया उद्योग में प्रतियोगिता बढ़ी और तीखी हुई है और इसमें छोटे-मंझोले प्रतियोगियों के लिए टिकना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है. इस बीच, कई छोटे और मंझोले अखबार/चैनल बंद हो गए हैं या बड़े मीडिया समूहों द्वारा खरीद लिए गए हैं.

इससे मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण बढ़ा है और बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों के कारण एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को भी मजबूत होते हुए देखा जा सकता है. आज वे ही तय करते हैं कि देश में लोग क्या पढेंगे, देखेंगे और सोचेंगे? वे ही देश का एजेंडा तय करते हैं और जनमत बनाने में उनकी भूमिका पहले की तुलना में कई गुना बढ़ गई है. इसकी वजह यह भी है कि आज मीडिया की पहुँच और उसका उपभोग बढ़ा है, अखबारों/न्यूज चैनलों के पाठकों/दर्शकों की संख्या में कई गुना का इजाफा हुआ है और इसके साथ ही, बढ़ते शहरीकरण/आप्रवासन/व्यक्तिकरण के कारण सूचनाओं के लिए लोगों की निर्भरता उनपर बढ़ी है. आज राजनीति और राज-समाज आदि के बारे में लोगों खासकर शहरी मध्यवर्ग की सूचनाओं का मुख्य स्रोत कारपोरेट न्यूज मीडिया होता जा रहा है.

जाहिर है कि इसके कारण मीडिया उद्योग के पिरामिड के शीर्ष पर बैठे इन मुट्ठी भर कारपोरेट मीडिया समूहों के मालिकों और उनके चुनिंदा संपादकों/पत्रकारों की ताकत और प्रभाव में भी भारी इजाफा हुआ है. उनकी प्रधानमंत्री से लेकर कैबिनेट मंत्रियों और अफसरों तक और शासक पार्टियों के शीर्ष नेताओं से लेकर बड़े उद्योगपतियों तक सीधी पहुँच है. इनकी पहुँच और प्रभाव का कुछ अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि इनमें से कई मीडिया मालिक और पत्रकार विभिन्न पार्टियों की ओर से और कुछ ‘सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक’ योगदान के कोटे से राज्यसभा में सदस्य नामांकित होते रहे हैं. इनके बढ़ते प्रभाव का अंदाज़ा नीरा राडिया के टेप्स से भी चलता है जिसमें इन समूहों के जाने-माने पत्रकार लाबीइंग से लेकर कारपोरेट के इशारे पर लिखते/बोलते और फिक्सिंग करते हुए पाए गए.

इस मीडिया उद्योग के पिरामिड के मध्य में वे क्षेत्रीय/भाषाई कारपोरेट मीडिया समूह हैं जो हाल के वर्षों में तेजी से फले-फूले हैं और अपनी क्षेत्रीय सीमाओं से भी बाहर निकले हैं. इसके साथ ही उन्होंने अखबार के साथ-साथ टी.वी, रेडियो और इंटरनेट में भी पाँव फैलाया है. कहने की जरूरत नहीं है कि ये बहुत महत्वाकांक्षी हैं और इन्होंने स्थानीय शासक वर्ग में अपनी पैठ और प्रभाव के बलपर अपने कारोबार को फैलाया है. वे मीडिया के अलावा दूसरे कारोबारों में भी घुस रहे हैं ताकि बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों के मुकाबले टिक सकें. यही नहीं, इनमें से कई ने मौके की नजाकत को समझते हुए बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों के साथ गठजोड़ में चले गए हैं.

इन क्षेत्रीय/भाषाई मीडिया समूहों के लिए उनके कारोबारी हित सबसे ऊपर हैं और मुनाफे के लिए वे किसी भी समझौते को तैयार रहते हैं. हैरानी की बात नहीं है कि हाल के वर्षों में बिना किसी अपवाद के लगभग सभी राज्यों में क्षेत्रीय/भाषाई मीडिया समूहों और राज्य सरकारों के बीच संबंध अत्यधिक ‘मधुर’ बने रहे हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह राज्य सरकारों से मिलनेवाला विज्ञापन राजस्व और दूसरे कारोबारी फायदे रहे हैं. इस कारण ये मीडिया समूह राज्य सरकारों को नाराज नहीं करना चाहते हैं. यही नहीं, कई क्षेत्रीय मीडिया समूहों की क्षेत्रीय शासक दलों के साथ गहरी निकटता बन गई है क्योंकि इन दलों के शीर्ष नेता और मीडिया समूहों के मालिक या तो एक हैं या उनके कारोबारी हित गहरे जुड़ गए हैं.

इसका एक और उल्लेखनीय पहलू यह है कि हाल के वर्षों में कई राज्यों में उनके ताकतवर नेताओं/मुख्यमंत्रियों/दलों ने जनमत को प्रभावित करने में मीडिया के बढ़ते महत्व को समझते हुए परोक्ष या सीधे मीडिया में निवेश किया है और अखबार और खासकर न्यूज चैनल शुरू किये हैं. यही नहीं, पंजाब, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में तो शासक दलों ने टी.वी वितरण यानी केबल उद्योग पर कब्ज़ा जमा लिया है और उसके जरिये चैनलों की बाहें मरोड़ते रहते हैं. दूसरी ओर, कई राज्यों में कमजोर सरकारों/मुख्यमंत्रियों को ताकतवर क्षेत्रीय मीडिया समूह विज्ञापन से लेकर दूसरे कारोबारी फायदों के लिए ब्लैकमेल करते भी दिख जाते हैं.

मीडिया उद्योग के पिरामिड के सबसे निचले हिस्से में हैं छोटी-मंझोली वे मीडिया कम्पनियाँ जिनके पीछे वैध-अवैध तरीके से रीयल इस्टेट, चिट फंड, लाटरी, ठेकेदारी, नर्सिंग होम/निजी विश्वविद्यालयों, डांस बार से लेकर अंडरवर्ल्ड तक से कमाई गई पूंजी लगी है. इनका असली मकसद मीडिया कारोबार से ज्यादा न्यूज मीडिया को अपने वैध-अवैध धंधों को पुलिस/प्रशासन/सरकार से बचाने और सार्वजनिक जीवन में साख बटोरने के लिए इस्तेमाल करना है. ये मीडिया कम्पनियाँ घाटे के बावजूद कैसे चलती रहती हैं, इस रहस्य का सीधा संबंध उनके दूसरे वैध-अवैध कारोबार के फलने-फूलने के साथ जुड़ा हुआ है. आश्चर्य नहीं कि इन मीडिया कंपनियों के मालिक उसका इस्तेमाल नेताओं/अफसरों तक पहुँचने और उनसे लाबीइंग के लिए करते हैं.

यही नहीं, इन मीडिया कंपनियों में काम करनेवाले ज्यादातर वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों को भी पत्रकारिता से मालिकों के कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने के लिए दलाली करनी पड़ती है. इन मीडिया समूहों में संपादक/ब्यूरो चीफ जैसे पदों पर पहुँचने की सबसे बड़ी योग्यता पत्रकारों की सत्तासीन पार्टी के साथ नजदीकी और उनके संपर्क/पहुँच होते हैं. सारदा समूह को ही लीजिए जिसके चैनलों/अखबारों के सी.ई.ओ कुणाल घोष पेशे से पत्रकार होने के बावजूद समूह के शीर्ष पर इसलिए पहुँच पाए कि उनके तृणमूल के शीर्ष नेतृत्व के साथ नजदीकी संबंध थे. हैरानी की बात नहीं है कि कुणाल घोष तृणमूल के राज्यसभा सांसद भी बन गए.

लेकिन सारदा ऐसी अकेली कंपनी नहीं है जो अपने अवैध धंधों पर पर्दा डालने, उसे एक विश्वसनीयता देने और सरकार/सत्तारुढ़ पार्टी के साथ नजदीकी का फायदा उठाने के लिए अखबार/चैनल चला रही थी. देश में ऐसे अखबार/चैनल बहुत हैं. क्या यह सिर्फ संयोग है कि देश में इस समय केन्द्र सरकार ने 800 से अधिक चैनलों के लाइसेंस दिए हुए हैं जिनमें लगभग आधे न्यूज चैनल हैं? जाहिर है कि इन न्यूज चैनलों में से लगभग आधे ऐसे ही कारोबारियों के चैनल हैं जिनके धंधे और आमदनी के स्रोत साफ़ नहीं हैं. हालाँकि वे घाटे में चल रहे हैं, वहां काम करने की परिस्थितियां बहुत खराब हैं, पत्रकारों को तनख्वाह तक समय पर नहीं मिलती है और पत्रकारिता से इतर सत्ता की दलाली का दबाव रहता है लेकिन उनकी ‘कामयाबी’ देखकर ऐसे ही दूसरे कारोबारियों की मीडिया के धंधे में उतरने की लाइन लगी हुई है.

हालाँकि मीडिया उद्योग के पिरामिड के शीर्ष से लेकर नीचे तक यानी बड़ी कारपोरेट मीडिया कंपनियों से लेकर छोटी-मंझोली कंपनियों तक सभी कम या बेशी पत्रकारिता के नामपर खबरों की खरीद-फरोख्त के धंधे में लगी हुई हैं, भांति-भांति के समझौते करके अपने दूसरे कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं और पाठकों-दर्शकों की आँख में धूल झोंकने में शामिल हैं लेकिन बड़ी कारपोरेट मीडिया कम्पनियाँ इसका सारा दोष पिरामिड के निचले और कुछ हद तक मध्य हिस्से की मीडिया कंपनियों पर डालकर अपना दामन बचाने की कोशिश करती रही हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या कुछ चिट फंड, रीयल इस्टेट, डांस बार आदि धंधे करनेवाले मीडिया कारोबार में आ गए हैं और मीडिया के पवित्र सरोवर को गन्दा कर रहे हैं या फिर मुद्दा ‘सगरे कूप में भांग’ पड़ने की है ?

अगर मुद्दा सिर्फ कुछ मछलियों के तालाब को गन्दा करने का है तो साफ़-सुथरी और गंभीर पत्रकारिता करनेवाले बड़े मीडिया समूह ऐसी मछलियों का पर्दाफाश क्यों नहीं करते हैं? वे ऐसी मीडिया कंपनियों की कारगुजारियों पर चुप क्यों रहते हैं? जी-जिंदल के बीच हुए झगड़े और ब्लैकमेलिंग की कहानी क्या बताती है! याद रहे कि जी इंटरतेंमेंट, डिश टीवी और जी मीडिया इस देश की तीन सबसे बड़ी मीडिया कंपनियों में से एक है. क्या यह सच नहीं है कि न्यूज मीडिया के धंधे के बड़े खिलाडी ज्यादा व्यवस्थित, सृजनात्मक और प्रबंधकीय नवोन्मेष के साथ खबरें बेचते या तोड़ते-मरोड़ते हैं जबकि छोटे-मंझोले खिलाडी वह कला नहीं सीख पाए हैं और इसलिए बहुत भद्दे तरीके से खबरों का धंधा करते हैं? उनकी चोरी जल्दी ही पकड़ी भी जाती है.

सबसे बड़ी बात यह है कि दर्शकों/पाठकों में उनकी साख न के बराबर है, इसलिए वे व्यापक पाठक/दर्शक समूह को बहुत नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं लेकिन जिन बड़े अखबारों/चैनलों पर सबसे अधिक पाठकों/दर्शकों का भरोसा है, वे खबरों का सौदा करके जब उन्हें अँधेरे में रखते हैं या उनकी आँखों में धूल झोंकते हैं, तो वे आम पाठकों/दर्शकों और उनके साथ व्यापक जन समुदाय और उनके हितों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. वे मुनाफे और कारोबारी हितों के लिए किस हद तक जा सकते हैं, इसका ताजा उदाहरण है- 2014 के बाद अधिकांश न्यूज चैनलों और अखबारों का जहरीले दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक फासीवादी राजनीति के प्रचार का भोंपू बन जाना. उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि इस जहरीले सांप्रदायिक प्रचार से समाज के तानेबाने को कितना गहरा नुकसान हो रहा है.

असल में, कार्पोरेट समाचार मीडिया का बड़ा हिस्सा जनतंत्र नहीं, धनतंत्र की सेवा में लगा हुआ है. वह उसके हितों का भोंपू है. चूँकि मौजूदा दौर में धनतंत्र को दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक राजनीति के उभार और प्रसार में उसके साथ रहने में ही अपने कारोबारी हित दिख रहे हैं, इसलिए वह जोरशोर से उसके एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगी हुई है. चैनलों/अखबारों में होड़ खुद को राष्ट्रवादी साबित करने की होड़ लगी हुई है. उन्हें सरकार का बाजा बनने से भी कोई परहेज नहीं है क्योंकि सरकार न सिर्फ सबसे बड़ी विज्ञापनदाता है बल्कि उनके तमाम धंधों की कुंजी भी उसके पास है और उनके काम उमेठने की ताकत उसके पास हैं. जाहिर है कि इस धंधे में दाँव बहुत बड़े और ऊँचे हो गए हैं. हजारों करोड़ की पूंजी और सैकड़ों करोड़ के मुनाफा दाँव पर लगा हुआ है. ऐसे में, किस बड़े कार्पोरेट न्यूज मीडिया कंपनी में स्वतंत्र-आलोचनात्मक-खोजी पत्रकारिता करने की हिम्मत बची रह सकती है ?

नतीजा हमारे सामने है.

 

(आनंद प्रधान प्रसिद्ध मीडिया विश्लेषक हैं. वे भारतीय जन संचार संस्थान में शिक्षक हैं. उनका यह लेख समकालीन जनमत पत्रिका के दिसम्बर-2018 अंक में प्रकाशित हुआ था)

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