हरेक कवि की अपनी जमीन होती है जिस पर वह सृजन करता है और उसी से उसकी पहचान बनती है। निराला, पंत, प्रसाद, महादेवी समकालीन होने के बाद भी इसी विशिष्टता के कारण अपनी अलग पहचान बनाते हैं। यही खासियत नागार्जुन, शमशेर, केदार व त्रिलोचन जैसे प्रगतिशील दौर के कवियों तथा समकालीनों में भी मिलती है।
शंभु बादल की काव्य भूमि भी अपने परिवेश से निर्मित होती है। 70 के दशक में हिन्दी कविता के क्षेत्र में जो नई पीढ़ी आई, शंभु बादल उस दौर के कवि हैं। अपनी लम्बी कविता ‘ पैदल चलने वाले पूछते हैं ’ से वे चर्चा में आये। इस लम्बी कविता के बाद शंभु बादल की कविताओं के संग्रह ‘मौसम को हांक चलो’ और ‘सपनों से बनते है सपने’ आये। दो साल पहले ‘शंभु बादल की चुनी हुई कविताएं’ शीर्षक से उनकी कविताओं का संग्रह प्रकाशित हुआ।
उनकी लम्बी कविता ‘ पैदल चलने वाले…’ जिस आम आदमी की कथा रचती है, उसमें वह अत्याचार व अन्याय जनित पीड़ा को मौन स्वीकार नहीं करता बल्कि वह समस्याओं से जूझता है, उसकी तह में जाता है और सवाल करता है। उसमें संघर्ष का साहस और अविकल दृढ़ता है। वह कहता है:
चाहे आंधी आये….हू-हू-हू
चाहे मेघ गरजे……गड़-गड़-गड़
चाहे बिजली कौंधे…..चम-चम-चम
चाहे ओला बरसे…..तड़-तड़-तड़
चाहे पहाड़ घिर जाये…हमारे रास्ते
हम रहेंगे साथ…..हम बोलेंगे साथ….
हम लड़ेंगे साथ साथ साथ…..
शंभु बादल की बाद की कविताओं में सामूहिकता की यह संस्कृति ज्यादा प्रखर रूप में हमारे सामने आती है। उनका मूल निवास और कर्म भूमि झारखण्ड है। आदिवासियों का जीवन, रीति-नीति, दुख-दर्द, जीव-जन्तु, गांव-समाज, खेत-बघार आदि उनकी कविता में अभिव्यक्ति पाता है। ‘कोल्हा मोची’, ‘सोमरा’, ‘बुधन’, ‘चांद मुर्मू’, ‘फुलवा’, ‘सनीचरा’ आदि के माध्यम से शंभु बादल की कविताओं का जो चेहरा उभरता है, वह आदिवासियों के जीवन और संस्कृति का है।
इसमें उनकी जीवन वेदना व रुदन है तो वहीं उनकी संस्कृति के विविध रंग हैं जिसमें वे डूबते-इतराते है, नाचते-गाते हैं, खुशियां मनाते हैं। शभु बादल के लिए ये बाहरी या पराये नहीं, अपने हैं। इनके साथ के रिश्ते बहुत भावनात्मक है। इसीलिए जिस तरह जंगलों की कटाई व जमीन की लूट हो रही है और इसका प्रतिकूल प्रभाव आदिवासियों के जीवन व संस्कृति पर हो रहा है और वे पलायन-विस्थापन के लिए बाध्य है, ये सारी व्यथा शंभु बादल की कविता में पुरजोर तरीके से व्यक्त होती है।
शंभु बादल सत्ता की उस राजनीति पर भी प्रहार करते है जो आदिवासियों और उनकी संस्कृति को गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल किये जाने जैसी प्रदर्शन की वस्तु तथा पूंजी के बाजार में इनके इस्तेमाल तक सीमित कर दिया है। अपनी कविता ‘गुजरा’ में वे कहते हैं:
‘ हर शाम तुम नाचते हो
गाते हो/मान्दर पर थाप लगाते हो…..
मेहमानों के सामने/कोई जब तुम्हें नचाये
तुम्हारी लोक-कला की प्रशंसा करे
तुम्हें हकीकत नहीं समझनी चाहिए क्या ?
तुम प्रदर्शन की वस्तु हो ?’
तुम्हें तो मुखैटे उतारने और
चांटे जड़ने की कला भी आनी चाहिए
यही शंभु बादल की मूल जमीन है जिसकी बुनियाद पर वे खडे होकर भारतीय जीवन समाज से रू ब रू होते हैं, देश व दुनिया से संवाद करते हैं और कैसे हमारा मानव समाज सुन्दर बने, इसकी सृजनात्मक चिन्ता के साथ कविता में उपस्थित होते हैं। इसी से उनकी वैचारिकी बनती है। बहस धर्मिता और संवाद धर्मिता इनकी कविता की विशेषता है।
इस संबंध में ‘चिडि़या’ कविता का उल्लेख प्रासंगिक होगा। कविता गोरख पाण्डेय और कंवल भारती की इसी विषय पर लिखी कविता के भाव से शुरू होती है। गोरख कहते हैं कि चिडि़या मारी गई क्योंकि वह गुनाहगार थी और उसका गुनाह भूखे रहना था, वहीं कंवल भारती के विचार में ‘चिडि़या भूख से नहीं, चिडि़या होने से पीडि़त थी’। इस तरह जहां गोरख गरीबी के सवाल को उठाते है, वहीं कंवल भारती के लिए गरीबी की तुलना में सामाजिक अन्याय व वंचना का सवाल ज्यादा महत्व रखता है। शंभु बादल के यहां सवाल अपनी तार्किक परिणति तक पहुचता हैं जो दो दृष्टियों का जरूरी मिलन बिन्दु है और जिसे आज के समय में मूर्त होते हम देख भी रहे हैं। शंभु बादल कहते हैं:
‘ चिडि़या भूखी थी और
चिडि़या चिडि़या थी
चूंकि चिडि़या भूखी थी
इसलिए चिडि़या चिडि़या थी
और चिडि़या चिडि़या थी
इसलिए चिडि़या भूखी थी
इसलिए गुनाहगार थी चिडि़या
चिडि़या भूख और चिडि़या होने से पीडि़त थी
इसलिए चिडि़या वहीं मार गई।’
संग्रह की कई कविताएं जैसे ‘नदी में कोई कंकड़ न डाले’, ‘मां’, ‘चेतना के नयन’, ‘मौसम को हांक चलो’ आदि निजी जीवन से जुड़ी है। मां, पिता, दिवंगत पत्नी तथा पुत्र चन्दन के न होने की पीड़ा उदासी और अकेलेपन की ओर ले जाती हैं। ‘ चल पड़ा अकेला/मैं बचपन से ढ़ूंढ़ता रहा/आंखों के उमड़ते मेघों के साथ/धरती की परछाइयों में/आकाश की किलकारियों में/पाताल की गुफाओं में/पिता, फिर मां को/इधर पुत्र, अर्द्धांगिनी को ’।
कहते हैं कहने से दुख कम होता है और फिर उसे समाज के दुख-दर्द के साथ जोड़ दिया जाय तो अपना दुख कम ही नहीं होता वरन उससे दुख से उबरने की ताकत मिलती है। शंभु बादल के लिए कवि कर्म अपने को अभिव्यक्त करने का ही नहीं दूसरों से जुड़ने, उनसे संवाद का माध्यम है। वे कहते हैं:
‘ बड़ी प्यारी है नदी
इसमें मेरे पिता हैं/मेरी मां है
मेरी पत्नी है….
ध्यान रखना
नदी में कोई कंकड़ न डाले।’
शंभु बादल का कवि कर्म अपने समय, समाज और जमीन से जुड़ा है, अपनों से जुडा है। उनसे ही अपनी ताकत ग्रहण करता है। ये पैदल चलने वाले हैं। एक नहीं अनेक है। हाशिए पर है। शंभु बादल के कवि का इनसे भावनात्मक रिश्ता है। इनकी मुक्ति में ही वह सबकी मुक्ति देखता है। यही कारण है कि शंभु बादल अपने कवि कर्म को स्वतः स्फूर्तता के हवाले नहीं करते बल्कि उसे संगठित करने के लिए अपना खून-पसीना बहाते हैं। इसी प्रक्रिया में वे जन सांस्कृतिक आंदोलन से न सिर्फ जुड़ते है बल्कि उसे आगे बढ़ाते हैं।
गौरतलब है कि वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में हैं। आज जब बहुत से साथियें ने मंच से किनारा कर लिया है, वे आज भी सक्रिय हैं बल्कि उन्हें जो भी भूमिका दी गयी, उसका पूरी प्रतिबद्धता से निर्वाह किया है, कर रहे हैं। उनकी सहजता, निश्छलता, कर्मठता और प्रतिबद्धता हमें प्रेरित करती है।