[ प्रकाश उदय भोजपुरी के जातीय कवि हैं। उनकी कविताओं में भोजपुरी समाज पूरे रंग-राग के साथ मौजूद रहता है। आज पढ़िए उनकी एक कविता ‘चुप्पे-चोरी’, जो एक लड़की की बहक है। यह लड़की गाँव की है, नटखट है। उसने उड़ने के लिए चिड़िया के पंख और गोता लगाने के लिए मछली की नाक हासिल कर ली है। लेकिन ये सपने ही सब कुछ नहीं हैं। उसके सपनों की दुनिया का हक़ीक़त की दुनिया से एक दिलचस्प रिश्ता है। यही रिश्ता इस कविता में जान भरता है।
चोरी-चुप्पे की समझ हमारी इस नायिका को दुनिया ने सिखा दी है। उसे उड़ने और गोता लगाने जैसे निषिद्ध समझे जाने वाले कामों में जाने से पहले चुपके से सब तरफ़ देखना पड़ता है। अभी भी यह लड़की माँ के ज़्यादा करीब है। उसका अकुलाना उसे व्याकुल कर देता है। उसके खेल हैं, पर माँ के अकुलाने की शर्त पर नहीं।
कविता में नायिका का जेंडर साफ़ नहीं दिखता। हालाँकि ज़्यादा सम्भावना इसी की है कि यह छोटी लड़की की आवाज़ है, लड़के की नहीं क्योंकि कविता के आख़िरी बंद में दीदी के देवर और भाभी के भाई के साथ जो सम्बंध हैं, वह इसी ओर इशारा करते हैं। दूसरे, एक और बंद में सखी का सम्बोधन भी है जिससे इस का इशारा मिलता है। परिवार के ढाँचे में सत्ता-संरचना को कवि ने ध्यान से देखा तभी यह कह सका कि दीदी का देवर, भाभी के भाई की तुलना में अधिक बहसी है, ख़राब है। आख़िरकार वह भी जीजा, अर्थात वर पक्ष का प्रतिनिधि है, और हमारी नायिका को तनिक भी नहीं सेंटता। दूसरी तरफ़ भाभी का भाई है जो वधू पक्ष से है, भाभी का भाई है, इसलिए ज़्यादा विनम्र और सुनने वाला है।
आजी, सखी और माँ के लिए इस लड़की में बहुत प्यार है। माँ के ललाट पर यह वह चंद्रमा की बिंदी लगाने की हसरत करती है, आजी के लिए सूर्य की ज्योति लाएगी जिससे उसकी नज़र मज़बूत रहेगी और सखी के लिए लाएगी: पके-पके तारे। तारों की, आपने बहुतेरी उपमा सुनी होगी पर पके-पके तारे? यों एक विशेषण भर से कवि तारे के इतने रूढ़ और ताक़तवर बिम्ब को पूरी तरह पलट कर उसे एक फल में बदल देता है। यों ही कवि को ‘विधाता’ नहीं कहते ! भाई, इस लड़की का बकरी चराता है, लड़की उसे श्रम में मदद करना चाहती है पर उसे इस तरह का श्रम पसंद भी नहीं है जहाँ बकरी के साथ वह जो चाहे वह न कर सके। कम से कम एक-दो बकरी तो हाँकने की इजाजत होनी ही चाहिए।
बाबू और चाचा अभी से रोक-टोक करने वाले के रूप में पहचान लिए गए हैं। वे मछली मारने जाएँगे और हमारी नायिका को नहीं ले जाएँगे, यह उसे इलहाम है। लेकिन अभी उसकी सपना देखने वाली आँखें परिवार संस्था के द्वारा पूरी तरह पालतू नहीं बनाई जा सकी हैं, सो वह कह पाने में अभी सक्षम है कि ‘खेल नास देब’]
चुप्पे-चोरी
उड़े खाती चिरईं के पाँख
बुड़े खाती मछरी के नाक लेब
उड़े-बुड़े कुछुओ के पहिले
चुप्पे-चोरी चारो ओरी ताक लेब
चुप्पे-चोरी बदरा के पार से
सउँसे चनरमा उतार के
माई तोर लट सझुराइब
चुप्पे-चोरी लिलरा में साट देब
भरी दुपहरी में छपाक से
पोखरा में सुतब सुतार से
माई जोही, जब ना भेंटाइब —
रोई, ना सहाई जो, त खाँस देब
आजी खाती सुरुज के जोती
सखी खाती पाकल-पाकल जोन्ही
भइया खाती रामजी के बकरी —
चराइब, दूगो चुप्पे-चोरी हाँक लेब
बाबू चाचा मारे जइहें मछरी
हमरा के छोड़िहें जो घरहीं
जले-जले जाल में समाइब —
मछरी भगाइब, खेल नास देब
दीदी के देवरवा ह बहसी
कहला प मानी नाहीं बिहँसी
भउजी के भाई हवे सिधवा —
बताइब, जो चिहाई, त चिहाय देब
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