समकालीन जनमत
स्मृति

काल से होड़ लेता प्रेम और मुक्ति का कवि

 

शमशेर बहादुर सिंह उन प्रगतिवादी कवियों में हैं जिनकी विश्वदृष्टि और रचना दृष्टि में एक फाँक बताया जाता है। इसके बावजूद कि अपने पहले संग्रह ‘ कुछ कविताएं ’ का समर्पण उन्होंने नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल को किया है।

मुक्तिबोध के साथ शमशेर बहादुर सिंह प्रगतिवादी आलोचना की तत्कालीन संकीर्णता के मुखर आलोचक थे। शमशेर ने उस संकीर्णता का विरोध करते हुए रचनात्मक रूप से उसका प्रतिवाद भी किया। शमशेर जहाँ एक तरफ परम्परा के आधुनिकीकरण के पक्षधर थे वहीं वे नयी कविता और प्रगतिवाद के साथ स्वस्थ बहस और आलोचनात्मक रिश्ते के भी पक्षधर थे।

अपने समय के प्रगतिवाद और प्रयोगशील काव्यान्दोलन से इनका गहरा सम्बन्ध था। लेकिन इन्हें अपनी विचारधारा और प्रतिबद्धता कभी कोई फाँस नहीं लगी, जैसा कि समझा जाता है।

प्रगतिवाद और नई कविता के अधिकांश कवि निराला की ‘बहुवस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा’ और उनकी शिल्पगत वैविध्यता से बहुत गहरे तक प्रभावित थे। शमशेर जी ने अपनी एक कविता ‘निराला के प्रति’में उन्हें अपनी रचनात्मक यात्रा के ‘सघन तम की आंख’ और ‘आगत प्राण का संचय लिये’ कवि के रूप में याद किया हैं-

‘ भूलकर जब राह- जब-जब राह….. भटका मैं/तुम्हीं झलके, हे महाकवि/सघन तम की आंख बन मेरे लिए/ अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये/जगत के उन्माद का/परिचय लिए/और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम।’

परम्परा का बड़ा कवि न सिर्फ अपने समय और समाज को अंधेरे से बाहर निकालता है बल्कि आगत जीवन में प्राणमय संचार भी करता है। कहना न होगा कि यह बात सिर्फ निराला ही नहीं खुद शमशेर की काव्यदृष्टि का भी सत्य है।

शमशेर ‘दूसरे सप्तक’ के प्रकाशित कवियों में सर्वप्रमुख थे। यूँ तो उन्हें ‘तार सप्तक’ में प्रकाशित होना था, पर कम कविताएं होने के कारण ऐसा न हो सका। इस बात को अज्ञेय ने खुद लिखा है।

शमशेर ने ‘दूसरे सप्तक’ के अपने वक्तव्य में निराला की ‘कविता कानन’ पुस्तक को अपनी अत्यधिक प्रिय पुस्तक बताया है। साथ ही आधुनिकतावादी और बिम्बवादी एजरा पाउंड को टेकनीक में अपना सबसे बड़ा आदर्श बताया है।

साहित्य के प्रगतिशील आन्दोलन में अपनी दिलचस्पी, नया साहित्य के प्रकाशन के लिये बम्बई गमन और कम्युनिस्ट मूल्यों के प्रति अपने आकर्षण का जिक्र इन शब्दों में किया है- ‘बनारस में शिवदान सिंह चौहान के सत्संग से साहित्य के सम्पादन के सिलसिले में बम्बई गया। वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी के संगठित जीवन में अपने मन में अस्पष्ट से बने हुए सामाजिक आदर्श को मैनें एक बहुत सुन्दर और सजीव रूप में देखा। मेरी काव्य प्रतिभा ने उससे बहुत लाभ उठाया।’

शमशेर की कविताओं में एक खास किस्म की दुरूहता और प्रतिबद्धता दोनों का मेल दिखाई पड़ता है। हिन्दी आलोचना में शमशेर का न्यायपूर्ण मूल्यांकन न तो प्रगतिशील आलोचकों द्वारा संभव हो सका, न ही नई कविता के आलोचकों द्वारा।

उनकी काव्यगत दुरूहता के कारण राम विलास शर्मा जैसे आलोचक उन्हें रहस्यवादी करार देते हैं जबकि नई कविता के नेता अज्ञेय का मानना था कि- ‘शमशेर बहादुर उन कवियों में रहे जो लगातार अपनी कविता के प्रति सजग और समर्पित रहे। राजनीति की दृृष्टि से बहुत ज्यादा सक्रिय तो वे नहीं रहे और उनकी कविता में निहित मूल्य दृष्टि में और उसकी घोषित राजनीति में, राजनीति दृष्टि में लगातार एक विरोध भी रहा।

वह प्रगतिवादी आन्दोलन के साथ रहे लेकिन उसके सिद्धांतों का प्रतिपादन करने वाले कवि नहीं रहे। उन सिद्धांतों में उनका पूरा विश्वास कभी नहीं रहा। उन्होंने मान लिया कि हम इस आन्दोलन के साथ हैं और स्वयं उनकी कविता है, उसका जो बुनियादी संवेदन है वह लगातार उसके बाहर और उसके विरुद्ध जाता रहा।’

इन बहसों का फायदा उठाते हुए विजय देवनारायण साही जैसे कवि- आलोचक ने अपने चर्चित निबंध ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’ में उन्हें न सिर्फ सौन्दर्याभिरूचि के कवि के रूप में व्याख्यायित किया बल्कि रहस्यवाद से एक कदम आगे बढ़कर पुष्टि मार्ग और वैष्णव चेतना के कवि के रूप में ‘जानबूझकर’ व्याख्यायित किया।

साही ने लिखा है कि- ‘हम एक ऐसी सृष्टि की कल्पना करें जिसमें जन्म देने वाले ब्रह्मा तो है, लेकिन उस दृष्टि को धारण करने वाले, उसे निरंतर अस्तित्त्व प्रदान करने वाले- सही लगने वाले विष्णु का अभाव है। सच्चाई की तलाश इस विष्णु तत्त्व की तलाश है। देवताओं के इन प्रतीकों का प्रयोग मैं जानबूझकर कर रहा हूँ। क्योंकि एक तरह की वैष्णव भावना, अर्पित निरीहता शमशेर की कविता में बराबर मौजूद है।’

इस अर्पित निरीहता को साही ने सौन्दर्याभिरूचि के रूप में व्याख्यायित करते हुए प्रस्तावित किया कि-.. तात्त्विक रूप से शमशेर की काव्यानुभूति सौन्दर्य की ही अनुभूति है। जिन लोगों का ख्याल है कि छायावाद के बाद हिन्दी कविता ने सौन्दर्य का दामन छोड़ दिया है उन्होंने शायद शमशेर की कविताओं का आस्वादन करने का कष्ट कभी नहीं किया। मैं एक कदम और आगे बढ़कर कहना चाहूँगा कि आज तक हिन्दी में विशुद्ध सौन्दर्य का कवि यदि कोई हुआ है तो वह शमशेर है।… सच तो यह है कि शमशेर की सारी कविता- यदि शीर्षकहीन छपे या उन सबका एक ही शीर्षक हो- ‘सौन्दर्य’, शुद्ध सौन्दर्य, तो कोई अंतर नहीं पड़ेगा। शमशेर ने किसी विषय पर कविताएं नहीं लिखी है, उन्होंने कविताएं, सिर्फ कविताएं लिखी है, या यों कहें कि एक ही कविता बार-बार लिखी है।’

इस कुल तर्क प्रणाली का उद्देश्य सिर्फ यह है कि शमशेर को सिर्फ अमूर्त सौन्दर्य का कवि बताया जाए। ऐसा सौंदर्य के रचनात्मक स्रोतों से एक रचनाकार को काटकर ही किया जा सकता है। जानबूझकर इसीलिए शमशेर की विश्वदृष्टि पर इस लेख में कोई चर्चा नहीं मिलती है। वैष्णवता की चेतना, शुद्धता पर इतना जोर और ‘जानबूझकर’ शब्द का प्रयोग असल में एक राजनीति सजग रचनाकार को उसकी राजनीति से काटकर ‘सिर्फ कवि रूप में खड़ा करने की राजनीति’ का हिस्सा है।

यह वह राजनीति है जो यह मानकर चलती है कि साहित्य परिवर्तन और मुक्ति के काम नहीं आता। इस राजनीति को भी समझने की जरूरत है। दुर्भाग्य से अभी तक इस तरफ ध्यान नहीं दिया जा सका है। जिस शुद्ध ‘सुरूचि’ को लेकर इतने बड़े वक्तव्य साही ने दिये, उसे अपने वक्तव्य और कविता दोनों से ही शमशेर खारिज करते हैं। उनके पहले कविता संग्रह ‘कुछ कविताएं’ में आखिरी कविता ‘अज्ञेय से’ मुखातिब है। इस कविता के बारे उनकी टिप्पणी यह है कि ‘संग्रह की अंतिम कविता गत नवम्बर (58) में अज्ञेय जी के कुछ इधर के कविता-संग्रह पढ़ते समय अनायास ही लिख गई। कविता इस प्रकार है-

‘जो नहीं है/जैसे कि ‘सुरूचि’/उसका गम क्या ?/वह नहीं है।

किससे लड़ना ?
रूचि तो है शान्ति,/स्थिरता,/काल क्षण में/एक सौन्दर्य की/मौन अमरता/अस्थिर क्यों होना/फिर ?
जो है
उसे ही क्यों न सँजोना ?/उसी के क्यों होना ?/जो कि है।
जो नहीं है
जैसे कि सुरूचि/उसका गम क्या ?/वह नहीं है।

यूं तो शमशेर के यहां भी ‘ मौन आहों में बुझी तलवार ’ या ‘मैं समय की मौन लम्बी आह’ जैसी पंक्ति किसी को मिल ही जायेगी, जिसकी व्याख्या से शमशेर को अज्ञेय आदि के करीब दिखाया जा सकता है। लेकिन इस पूरी कविता में व्यंग्य और जिरह साथ चलती है, जिसका मतलब यह हुआ कि शमशेर , अज्ञेय आदि की शब्दावली में भी भौतिक और प्रत्यक्ष जीवन को तरजीह दे रहे हैं न कि शाश्वतता और निरंतरता आदि अमूर्त प्रत्ययों के जरिये किसी लघु मानव में प्राण प्रतिष्ठा की नयी कविता संबंधी अभियान को आगे बढ़ा रहे थे। रूचि और जीवन का सौंदर्य तो उन्हें काम्य है पर यही अंतिम तौर पर निर्णायक नहीं हो सकते। यहां पूरी कविता में प्रश्नचिन्ह (?) का वाजिब प्रयोग एक मद्धिम व्यंग्य के लिए किया गया है।

मुक्तिबोध ने एक कविता ही लिखी थी कि ‘ जब प्रश्नचिन्ह बौखला उठे।’ शमशेर जी विनम्र एवं संकोची स्वभाव के थे, अतः बौखलाहट नहीं है उनके यहां। वे कई जगह मद्धिम राग से ही काम चलाते है। शुरू के तीन प्रश्नचिन्ह तो उस रूचि को कटघरे में खड़ा करते है जो शान्ति, स्थिरता, कालक्षण में सौन्दर्य की मौन अमरता का पोषक है। फिर बाद में जो जीवन है उसे संजोने और उसके होने की बात भी शालीनता से कहते हैं। इस शालीनता को ही कई लोग उनकी प्रतिबद्धता का विलोम मान बैठे है।

खैर- जो नहीं है, जैसे कि सुरूचि, उसका गम क्या ? वह नहीं है।शमशेर की कविताओं के संदर्भ में जिस मूल्यदृष्टि की बात बार-बार होती है, उसका स्रोत क्या है ? ‘ काल क्षण में सौन्दर्य की मौन अमरता तो कत्तई नहीं’ जैसा कि साही समझते हैं । जो है उसके भीतर यानी उपलब्ध का सर्वश्रेष्ठ अपने सुंदर रूप में आये, यह चिन्ता जरूर है। मानवता की विकासयात्रा के प्रति यह कवि अत्यंत आशावान् है। उनकी एक छोटी कविता ‘एक आदमी दो पहाड़ों दो कुहनियों से ठेलता ’ इस प्रकार है-

एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता/पूरब से पश्चिम को एक कदम से नापता/बढ़ रहा है/कितनी ऊँची घासे चाँद तारों को छूने-छूने को है/जिनसे घुटनों को निकालता वह बढ़ रहा है/अपनी शाम को सुबह से मिलाता हुआ/फिर क्यों दो बादलों के तार/उसे महज उलझा रहे हैं ?

मानव का इतना बड़ा बिम्ब, जिजीविषा का इतना बड़ा सम्मान। शायद ही कोई और उदाहरण हिन्दी कविता में अन्यत्र मिले। यह वो ‘ऐतिहासिक मनुष्य’ है जो इतिहास के निर्णायक दौर में सबसे महत्त्वपूर्ण और परिवर्तन कारी भूमिका निभाता है। मनुष्यता की विकासयात्रा श्रम की धुरी पर ही निर्भर है। शाम को सुबह से मिलाने का उद्यम इस श्रम से ही संभव है।

‘ऊँची घासें’ संकट है, अवरोध है इस विकासयात्रा के। ‘बादलों के तार’ उसे उलझाने की कोशिश में है लेकिन धरती से आकाश के बीच की दूरी को खत्म करती शख्सियत के आगे लाचार है। इसकी तुलना उस चित्र से ही की जा सकता है जिसमें एक व्यक्ति अपनी पीठ पर पूरी पृथ्वी को धारण करता दिखाई पड़ता है।

प्रसंगवश याद आती है माओ द्वारा पार्टी कार्यकर्ताओं को सुनाई गई वह लोककथा जिसमें एक बूढ़ा आदमी अपने घर के सामने के पहाड़ को खोदकर हटाने के लिए अनवरत श्रम करता है। उसके बेटे भी उसकी मदद करते हैं। देवदूत आकर पूछते हैं कि यह पहाड़ तो जितनी तुम्हारी उम्र है उसमें नहीं खोदा जा सकेगा। बूढ़ा जवाब देता है कि मैं न सही आगे आने वाली पीढ़ी इसे जरूर खोद सकेंगी। देवदूत इस जवाब से प्रसन्न हुए और रात में आकर खुद उस पहाड़ को लेकर चले गये।

काल के ही प्रसंग में शमशेर जी की एक कविता है ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’। जिन्हें यह यकीन हो कि मनुष्य अपने श्रम और संघर्ष से काल के प्रवाह को बदल सकता है, उन्हें यह कविता जरूर देखनी चाहिए।’काल के कपाल’ पर कोई गीत ही नहीं लिखना है बल्कि काल को मनुष्य सापेक्ष बनाने का अथक और अनवरत संघर्ष, बिना रुके, बिना समझौता किए और हर तरह की मानवीय अभिव्यक्तियों, उपलब्धियों के बीच जीता जागता सजीव इंसान जो अपने इतिहास को रोज गढ़ता, बनाता चलता है। जो काल के प्रवाह को अपनी रचनात्मक सामर्थ्य से सीधी चुनौती दे सकता है उस मनुष्यता का पक्ष शमशेर इस कविता में रचते हैं-

काल,
तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू-
तुझमें अपराजित मैं वास करूं ।
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूं
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो-
कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं- तेरे भी, ओ’ ‘काल’ ऊपर!
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !

जो मैं हूं-
मैं कि जिसमें सब कुछ है…

क्रांतियां, कम्यून,
कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं ।

मैं, जो वह हरेक हूं
जो, तुझसे, ओ काल, परे है

 

यह अकेली कविता शमशेर पर दोनों तरफ़ से लगाए गए आरोपों का- रहस्यवादी से लेकर शुद्ध सौंदर्यवादी या तकनीकवादी, विचार और रचना में फांक आदि का एक साथ जवाब है। काल पर दुनिया भर के साहित्य में बहुत चिंतन हुआ है। आधुनिक साहित्य में अज्ञेय ने इस पर सोचने लिखने में बहुत समय खर्च किया है। काल के प्रवाह को निरंतरता और शाश्वतता में देखने की एकांतवादी दृष्टि, काल के सीने पर धंसे हुई तीर के द्वारा पैदा की गई हलचल को जानबूझकर नहीं देखना चाहती।

‘काल के प्रवाह में कुछ नहीं बचेगा’ कहने वालों से शमशेर कहते हैं-‘मैं- तेरे भी, ओ’ ‘काल’ ऊपर!’ यह दृढ़ता वही व्यक्त कर सकता है जो सभ्यता के विकास में बिखरी मानवीय रश्मियों की ऊष्मा को अंतर्भूत कर सके। जो दृढ़ता से यह कह सके कि-

‘जो मैं हूं-
मैं कि जिसमें सब कुछ है…

शमशेर का यह जो ‘मैं’ है वह क्षण का अनन्त तक विस्तार कर ले जाने वाले व्यक्तिवादी अहं से थोड़ा अलग है। वह काल से परे हर एक के साथ अपनी एका चाहता है, अलगाव नहीं-

क्रांतियां, कम्यून,
कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं ।

मैं, जो वह हरेक हूं
जो, तुझसे, ओ काल, परे है

काल और उससे होड़ लेते मनुष्य की रचना सामर्थ्य को कविता में बिलकुल नए, आधुनिक, वस्तुगत-वैज्ञानिक अप्रोच के साथ संभव शमशेर ने ही बनाया. यह कविता न केवल शमशेर की विचार और रचना दृष्टि की एकतानता को व्यक्त करती है बल्कि वह  हिंदी कविता जगत की बेजोड़ उपलब्धि है।

शमशेर बहादुर सिंह की प्रेम कविताएं भी मनुष्यता की मुक्ति की चिन्ता से प्रेरित कविताएं है। भले ही साही को लगता हो कि उनकी कविताओं का कोई विषय नहीं है लेकिन खुद शमशेर इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट थे। उनके वक्तव्य और कविताएं इस बात के प्रमाण देते हैं। ‘दूसरा सप्तक’ की वक्तव्य में वे लिखते हैं कि-

‘‘कला का संघर्ष समाज के संघर्षों से एकदम अलग कोई चीज नहीं हो सकती और इतिहास आज इन संघर्षों का साथ दे रहा है। सभी देशों में और बेशक यहाँ भी, दरअसल आज की कला का असली भेद और गुण उन लोक कलाकारों के पास है, जो जन आंदोलनों में हिस्सा ले रहे हैं। टूटते हुए मध्यवर्ग के मुझ जैसे कवि उस भेद को, जहाँ वह है, वहीं से पा सकते हैं, वे उसको पाने की कोशिश में लगे हुए हैं।’’

अपने काव्य विषय और शिल्प के बारे में शमशेर जी ने ‘कुछ और कविताएं’ की भूमिका में काफी विस्तार से लिखा है। लोक की ताकत और जनांदोलनों से ऊर्जा वे भी ग्रहण करते हैं पर लोकप्रिय तरीके से उसे वे नागार्जुन की तरह अभिव्यक्तनहीं कर पाते हैं। इसका उन्हें अहसास भी था। कहीं कहा भी हैं उन्होंने कि मैं नागार्जुन की तरह कविता लिखना चाहता हूँ। अपने इस संघर्ष को वे रेखांकित भी करते हैं। उनकी एक कविता में एक जनांदोलन का बिम्ब इस तरह से बनता है-

‘पृष्ठभूमि का विरोध/अंधकारलीन/ व्यक्तिकुहाऽस्पष्ट हृदय-भार आज हीन।/ हीनभाव, हीनभाव, /मध्यवर्ग का समाज, दीन।’
‘किन्तु उधर/पथ प्रदर्शिका मशाल कमकर की मुट्ठी में, किन्तु उधर/आगे आगे जलती चलती है/लाल लाल/वज्र कठिन कमकर की मुट्ठी में/पथ प्रदर्शिका मशाल।’

उनकी ‘उषा’ जैसी शुद्ध प्राकृतिक बिम्बों की कविताओं में भी लोक जीवन का अनुभव ही प्रकट होता है-

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे/भोर का नभ/राख से लीपा हुआ चौका (अभी गीला पड़ा है)/बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से/कि जैसे धुल गयी हो/स्लेट पर या लाल खड़िया चाक/मल दी हो किसी ने/नील जल में या किसी की/गौर झिलमिल देह/जैसे हिल रही हो/और……………./जादू टूटता है इस उषा का…../सूर्योदय हो रहा है।

शमशेर जी जिस सांस्कृतिक उच्चता को अपनी कविता के जरिए पाना चाहते थे, उसके बारे में उनका कहना था कि- ‘ललित कलाएं काफी एक दूसरे में समोयी हुई है। तसवीर, इमारत, मुर्ति, नाच, गाना और कविता – इन सब में बहुत कुछ एक ही बात अपने-अपने ढंग से खोलकर या छिपाकर या कुछ खोलकर, कुछ छिपाकर कही जाती है। मगर इनके ये अलग-अलग ढंग दरअस्ल एक दूसरे से ऐसे अलग-अलग नहीं है जैसे कि उपरी तौर पर लगते हैं।’

उनकी ‘अमन का राग’ कविता मानों कलाओं के इस उपरी भेद को नष्ट करती हुई कलाओं की अंतर्राष्ट्रीयता का आख्यान प्रतीत होती है – कला को उसकी सीमा से मुक्त करती हुई-

‘ये पूरब पश्चिम मेरी आत्मा के ताने बाने है/मैनें एशिया की सतरंगी किरणों को अपनी दिशाओं के गिर्द/लपेट लिया/और मैं यूरोप और अमेरीका की नर्म आँच की धूप-छांव पर/बहुत हौले-हौले नाच रहा हूँ/सब संस्कृतियां मेरे सरगम में विभोर है/क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख शांति का राग हूँ/बहुत आदिम, बहुत अभिनव।
देखो न हकीकत हमारे समय की कि जिसमें/होकर एक हिन्दी कवि सरदार जाफरी को/इशारे से अपने करीब बुला रहा है/कि जिसमें/फैयाज खां विटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है/मैंने समझाा कि संगीत की कोई अमरलता हिल उठी/मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में/झलकता हुआ देख रहा हूँ/और कालिदास को वैमर के कुंजों में विहार करते/और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफिज मेरा तुलसी मेरा गालिब/एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का/कुशल आपरेटर हैं।’

प्रेम भी उनके लिए मुक्ति की कसौटी ही है। अपनी चर्चित प्रेम कविताओं में भी शमशेर जिस मूल्य दृष्टि के पक्षकार थे, वह व्यक्तित्त्व की स्वतंत्रता का हामी है, अधिकार भावना का नहीं – ‘टुटी हुई बिखरी हुई’ कविता का एक अंश देखें-

‘हाँ तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती है/………….. जिसमें वह फंसने के लिए नहीं आती/जैसे हवाएं मेरे सीने से करती है/जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पाती/तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।’

स्त्री शरीर के जैसे अंकुठ चित्र शमशेर की कविताओं में मिलते हैं वह सिवा विचारधारा की ताकत और लोकतांत्रिक सोच मे संभव ही नहीं है-

‘सुन्दर !/उठाओ/निजवक्ष /और-कस- उभर/क्यारी/भरी गेंदा की/स्वर्णरिक्त/क्यारी भरी गेंदा कीः/तन पर/खिली सारी-/अति सुन्दर ! उठाओं………..।’

सुरुचि और सौंदर्य जो कि जीवन में नहीं है उसे रचना में बनाए रखने के तमाम ‘मुजफ्फर नगरी’ रचनाकारों की कवायद के खिलाफ ही शमशेर नहीं थे बल्कि दुबारा से जीवन को उसकी सम्पूर्णता में फिर से रच देने के कायल रचनाकार थे। उनकी ही यह पंक्तिया इस सन्दर्भ में ज्यादा मौजू हैं-

‘जी को लगती है तेरी बात खरी है शायद/वही शमशेर मुज़फ्फर नगरी है शायद/ आज फिर काम से लौटा हूँ बड़ी रात गये/ताक पर ही मेरे हिस्से की धरी है शायद/मेरी बातें भी तुझे खाबे- जवानी सी है/तेरी आंखों में अभी नींद भरी है शायद।’

कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कविताएं जिनकी व्याख्या से शमशेर की विचारधारा, कविता के विषय और सौन्दर्य के प्रतिमान की व्याख्या विस्तार से की जा सकती है। इस विषय में अभी सिर्फ वीरेन डंगवाल की ‘शमशेर’ शीर्षक कविता ही काफी है-

‘अकेलापन शाम का तारा था/इकलौता/ जिसे मैंने गटका/नींद की गोली की तरह/मगर मैं सोया नहीं/हवाओं, मैं धुल जाऊँ/धाराओं/ सूखने को फैला दो मुझे चौड़े जल प्रवातों के कंधों पर/पत्तों मैं जमा रहूँ/तुम्हारी तरह/एक कांपती हुई कोमल जिद/कामगारों/तुम कहो, ये भी है हमीं/अनश्वरता/मैं तुझ में धँसा रहूँ/तेरे दिल में मुसल्सल गड़ती/एक मीठी फाँस!’

 

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