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स्मृति

साझी जन संस्कृति के झण्डे को बुलन्द करने वाले योद्धा थे कवि ओमप्रकाश मिश्र

लखनऊ। गंगाजमुनी तहजीब के शायर, गजलकार, जनवादी कवि व गीतकार ओमप्रकाश मिश्र नहीं रहे। आज जौनपुर में उनका निधन हुआ। लम्बे समय से वे बीमार चल रहे थे। उनकी कर्मभूमि जौनपुर थी। इसी जिले के तरसांवा, जपटापुर गांव में उनका जन्म 7 फरवरी 1955 में हुआ था। शिक्षा-दीक्षा असम में हुई। युवा दिनों से ही उनका क्रान्तिकारी वामधारा से जुड़ाव था। वामिक जौनपुरी जैसे शायरों की सोहबत थी। उनसे वे गहरे प्रेरित थे। जौनपुर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष तथा जौनपुर के हिन्दी भवन की संचालन समिति के सदस्य थे। इसके साथ वे जन संस्कृति मंच की उत्तर प्रदेश इकाई के उपाध्यक्ष थी थे। मंच से वे इसकी स्थापना के समय से जुड़े थे।

ओमप्रकाश मिश्र मूलतः कवि और गीतकार थे। उनकी जनपक्षधर वैचारिकी आलोचनात्मक लेखों में देखने को मिलती है। उन्होंने ऐसे लेख कम लिखे पर जो लिखे, वे काफी चर्चित रहे विशेषतौर से शिवमूर्ति की कहानी ‘कुच्ची का कानून’ पर लिखा आलोचनात्मक लेख। कथाकार शिवमूर्ति पर पत्रिका के विशेषांक में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान था। उनका कविता संग्रह ‘नन्हीं दोस्त के नाम’ अस्सी के आसपास ही छपा था। कुछ अरसा पहले उसका दूसरा संस्करण आया। इसे नवारुण ने छापा। सांप्रदायिकता के खिलाफ अजय कुमार के साथ कविता पुस्तिका ‘जिससे युग युग से भाई का नाता है’ तथा ‘अजालिया माउण्टेन’ (अ चाइनिज आपेरा) का पद्यानुवाद। जौनपुर की रंग संस्था ‘परचम’ के साथ लंबा जुड़ाव। उनके गीतों और कविताओं में गांव की माटी की सुगंध और आम जनजीवन के बिम्ब मिलते हैं।

वरिष्ठ कवि और लेखक अजय कुमार का ओमप्रकाश मिश्र के कविता संग्रह ‘नन्ही दोस्त के नाम’ की कविताओं के बारे में कहना है कि इसमें एक तरफ विविधताओं से भरे जीवन अनुभव हैं, वहीं दूसरी तरफ श्रेष्ठ कविता के प्रतिमान पर भी ये खरी उतरती हैं। उद्देश्यपरकता की कसौटी के साथ काव्य शिल्प के स्तर पर भी कविताएं उत्कृष्ट हैं । 70 के दशक की क्रांतिकारी कविताओं से ये कविताएं इस अर्थ में भिन्न हैं कि इनमें अपनी बात कहने के आवेश में कवि ने बात कहने के लहजे को नजरअंदाज नहीं कर दिया है। फूल के रंग और गंध की तरह कवि की विचारधारा उसकी कविता में समाई हुई है । ये पाठकों को सोचने को मजबूर करती हैं और क्रांतिकारी गुस्से से भरती हैं । इस सड़ी हुई समाज व्यवस्था को बदल देने और बेहतर समाज बनाने के लिए प्रेरित करती हैं।

ओमप्रकाश मिश्र करीब सात साल पहले सेवा मुक्त हुए। उनके पास अपने गीतों, कविताओं को संग्रहित करने के साथ ही सांस्कृतिक पहल की कई योजनाएं थीं। हिन्दी भवन में कई कार्यक्रम आयोजित किये। इसी दौरान गंभीर व लाइलाज बीमारी मोटर न्यूरान डिजिज (एमएनडी) के शिकार हुए। धीरे-धीरे अंगों ने काम करना बन्द कर दिया। जब एक हाथ ने जवाब दे दिया तो वे दूसरे हाथ का इस्तेमाल करने लगे। सोशल मीडिया पर भी उनकी सक्रियता थी। वह उनके रचना व विचारों को व्यक्त करने का माध्यम था।

जन संस्कृति मंच ने अपने प्रिय रचनाकार ओप्रकाश मिश्र के निधन पर गहरा शोक प्रकट किया है। मंच की ओर से जारी बयान में उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष कौशल किशोर ने कहा कि यह जन संस्कृति आन्दोलन की बड़ी क्षति है। आज जब नफरत व विभाजन की ताकतें हमलावार हैं, ऐसे में मिश्र जी साझी जन संस्कृति के झण्डे को बुलन्द करने वाले सहयोद्धा थे। हमने सांस्कृतिक आन्दोलन के योद्धा को खो दिया। मंच अपना श्रद्धा सुमन अर्पित करने के साथ उन्हें सलाम करता हैं तथा उनके परिवार व साथियों के साथ इस शोक में शामिल है।

ओमप्रकाश मिश्र की कुछ कविताएं व गीत 

( 1) 

छींजते समय में बूंदे जिन्दगी की

नई ऊर्जा से झलकते
पौत्र की हाथों की कोमल उगलियाँ
जब थामती हैं झुर्रियों भरी चमड़ी से मढ़ा हाथ
अचानक समय की दीवार फांद जाता है
एक बूढ़ा मन!
बेआवाज,
बूढ़ापे की वीरान गली में
खुलने लगती है कहीं
बचपन की एक खिड़की!
किसी फिल्म की रील की तरह
किसी वीडियो क्लिप की तरह
स्मृतियों के पर्दे पर
फिर से घटित होने लगता है
जैसे सब कुछ!
उसका यूं थामना मेरे हाथ
छींजती जिन्दगी में जोड़ देता है
जैसे कुछ और नये दिन!

इतने प्रेमहीन दिनों में भी 

इतने प्रेमहीन दिनों में भी
खिलते हैं फूल
प्रेम में विह्वल होकर
मंडराती हैं तितलियाँ अब भी
अब भी पूरे चाँद की रात
तेज हो जातीं हैं सांसे समुद्र की
झाग से भर उठते हैं सागर के तट
इतने प्रेमहीन दिनों में भी
नेता करते हैं केवल
कुर्सी से एकांतिक प्रेम
जबकि आतंक की नली से निकल कर
गोलियां धंस रही हैं
फूल जैसे तन-मन वाले बच्चों
और सागर-हृदय उन थोड़े से लोगों के दिलों में
जो इतने प्रेमहीन दिनों मंे भी
बने रहे गये प्रेम भरे और अच्छे
तनाव भरे इस डरावने अंधेरें में भी
टटोलते रहो अपने आस-पास
कहीं न कहीं
जरूर अँखुआ रहा होगा प्रेम
इतने प्रेमहीन दिनों में भी!

गीत-1

निरछल सपना पंख पसारे
दूर उड़ाये जाये रे
टुटही खटिया रथ बन जाये
मन राजा हो जाये रे

अपना खेत फसल हो अपनी
हल-बैलों की जोई अपनी
पकते चावल की खुशबू से
घर सारा भर जाये रे

ना ये थाना और कचहरी
ना ये सात जनम के बैरी
ना गुंडा का राज रहे ये
ना कोई धमकाये रे

मुक्त गगन में सूरज चमके
धरती पर खुशहाली लहके
मेहनत की एका का परचम
लहर-लहर लहराये रे

गीत-2
कह देने सा सरल नही था
जो-जो हाल हुआ
कितना ख़ून बहा तब जाकर
परचम लाल हुआ

किन जन्मों की प्यास दबी थी
कितना तरसा मन
किसने नाम लिया पानी का
मन बेहाल हुआ

जाने किस खिड़की से झांका
पंक्षी ने बादल
हर पल जैसे उस बन्दी का
सौ-सौ साल हुआ

घुप्प अंधेरा थका-थका तन
सूना उजड़ा मन
कैसा स्वप्न दिया तुमने जो
यह भूचाल हुआ

गीत-3

प्यारी सखी बता दे मुझको
किस दिन भाग जागेगा अपना
कब अंँधियारी रात कटेगी
सच होगा सूरज का सपना

कब खुशियों के फूल खिलेंगे
रंग गगन मे कब बिखरेंगे
कब यह दिल की टीस मिटेगी
कब आयेंगे मेरे सजना

नेह से मारी मैं दुखयारी
रहना कठिन गाँव में भारी
दुश्मन सारे सीना ताने
अब तो मुश्किल है यह सहना

गीत-4

पगडंडी के पहले पग ही सपना टूट गया
गाँव मिलाकर गाँव का मौसम पीछे छूट गया
रिमझिम सावन मेघ घनेरे हरियाली छायी
बस कदम्ब की डार कटी है झूला टूट गया
त्योहारों का रंग उड़ा है सूखे फूल, झरे
तेल दिया से, नेह हिया से कोई लूट गया
गन्दे पोखर कौन नहाये, पनघट सूने हैं
हाथों का मेंहदी से जैसे नाता टूट गया
चक्की की चिंघाड़ में दबकर खोये गीत सभी
भूल गयी है धुन जातें की, ओखल छूट गया
दूध-दही सब हाट बिके है, बचपन रीता सा
बच्चे का दिल एक खिलौना, गिरकर टूट गया
हे गुईयां कोई बैद बुलाओ, कुछ तो जतन करो
पीर बहुत नासूर में है अब, संयम छूट गया!

मुखौटा

चले सैर करने अंँधेरों के राजा
नयी रोशनी का मुखौटा लगाये
लगा सख्त पहरा गली दर गली है
अँधेरे में जुगनू चमकने न पाये
छुपे अंग सारे, मुखौटा चमकता
बदन से निकलकर अँधेरा लपकता
प्रजा के लिए हुक्म मुँह भी न खोले
निगाहों पे पट्टी हो राहे टटोले
न पीड़ा से चीखे न फरियाद लाए
सहे दर्द सारा न आँसू बहाये
कंटीले बिछौने पे भर नींद सो ले
अगर बोलना हो तो जयकार बोले
न नाचे, न गाये, न मातम मनाये
मरूस्थल बने हर हृदय सूख जाए
गुलाबों से मुस्कान भी छिन गयी है
कोई अनदिखी रायफल तन गयी है
कदम दर कदम जैसे फांसी के फन्दे
चमकने लगे हैं लुटेरों के धन्धे
हिमालय पे कीमत ग़जल गा रही है
झरोखों से मन्दी चली आ रही है
बुढ़ापा है बच्चों पे करता सवारी
मिली नौजवानों को बेरोजगारी
चलो उठ के राहों में दीपक जला दें
रियाया को राजा के दर्शन करा दें
कहीं सांस लेने का हक छिन ल जाये
खड़ा सिर पर कातिल कुल्हाड़ा उठाये!

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