1980 के दशक में लखनऊ में गठित ‘महिला संघर्ष मोर्चा’ से विमल किशोर ने सामाजिक जीवन का आरम्भ किया। वे इस संगठन की सह संयोजक बनी। बाद में इसका अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन ( ऐपवा) में विलय हो गया। विमल किशोर एपवा से जुड़ीं हैं। आंदोलनों के दौरान ही उन्होंने कविताएं लिखीं। इनमें स्त्री जीवन की पीड़ा है तो वहीं मुक्ति की छटपटाहट भी।
उनकी कविताओं में समाज के वे लोग लगातार आते हैं जो उपेक्षित हैं, अवहेलित हैं और हाशिए पर ढ़केल दिये गये हैं। विमल किशोर की रचनांए ‘रेवान्त’, ‘जनसंदेश टाइम्स’, ‘प्रसंग’, ‘डेली न्यूज एक्टिविस्ट’, ‘कथान्तर’, ‘दुनिया इनदिनों’, ‘उत्तर प्रदेश’ आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘दस्तखत’ यू ट्यूब पर भी इनकी कविताएं हैं। संप्रति लखनऊ से प्रकाशित साहित्यिक व सांस्कृतिक पत्रिका ‘रेवान्त’ की उपसंपादक हैं तथा जन संस्कृति मंच लखनऊ से सम्बद्ध हैं। प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं-
रुकली
खुद को निहारती
कभी फूलते हुए पेट पर टिकी आँखें
आइने में अपना वजूद तलाशती रुकली
अपने अजन्में बच्चे से सवाल पूछती रुकली
कौन है इसका पिता ?
कौन है इसका जिम्मेदार ?
यह समाज या इसके ठीकेदार……
जो आदमी की खाल में पूरे भेड़िये
रुकली को नहीं मिलता कोई जवाब
निणर्य अनिर्णय से गुजरती है
कभी हँसती है
कभी रोती है
प्रश्न अनुŸारित रह जाता है
और….और….और…
कितनी रुकलियाँ
उसकी जैसी बलात्कार की शिकार
देह व्यापार करने को मजबूर
न्याय माँगती
पर किससे ?
रुकली पूछती अपने आप से
थाने या अदालत में
जहाँ किया जाता है जिस्मों को और तार तार ???
प्रश्नों के चक्रव्यूह में उलझती रुकली
रंगों के कोलाज में बदलता उसका चेहरा
सख्त कठोर होता
प्रश्नों का हल ढ़ूढ़ता
आइने का प्रतिबिम्ब
मानो कह रहा हो
रुकली लड़ेगी …..जरूर लड़ेगी
उनके लिए
जिनकी दाँव पर लगी हैं जिन्दगियाँ
उनके वजूद के लिए
जो अजन्में हैं अभी
अन्तिम साँस तक लड़ेगी
चिन्गारियां
(आसिफा के लिए)
वह भोली थी
हंसती तो घर-आंगन के बाग में
रंग‘बिरंगे फूल खिल उठते
नहीं होती तो लगता
सब तरफ उदासी ही उदासी
मां का बुरा हाल है
रोते-रोते आंखें सूज आई हैं
वह नहीं भूल पाती
उसका मासूम चेहरा
चलचित्र की तरह
उसकी आंखों के आगे
वह नाचता
और बापू हैं
परकटे पंछी की तरह
निढ़ाल पड़े हैं
अपराधबोध से ग्रस्त
रह-रह कर मन में उठता एक ही सवाल
क्यों भेजा था उसे स्कूल ?
मां और बापू ने पाला था
एक ही सपना
कि उसे पढ़ायेंगे
जो बनना चाहेगी वह बनायेंगे
उनके तन-बदन में
जो लगा है अशिक्षा का मैल
उसे धो डालेंगे
यही सपना था उनका
कि गांव-जवार में वह तनकर खड़ी हांेगी
और वही क्यों खड़ी होगी
उसके साथ मां-बापू भी तो
तन कर खड़े होंगे
वह रौशन करेगी
उनका भी नाम
पर सपना जब टूटता है
तो शीशे की तरह ही चकनाचूर होता है
ऐसे ही टूटा था उनका सपना
जब वह नहीं उसकी लाश मिली थी
मन्दिर के पिछवाड़े खेत में
उसका शरीर क्षत’-विक्षत
जैसे किसी जंगली जानवर ने
उसे बनाया था अपना शिकार
बताया जाता है
कि उसके साथ जो हुआ
उस मन्दिर में ही हुआ
उन हिंसक जानवरों के लिए
इससे सुरक्षित जगह
कोई हो भी नहीं सकती थी
हम मन्दिर को पवित्र मानते हैं
यहां देवता ही नहीं देवियां भी वास करती हैं
यह कैसा है धर्म
कि देवियों के निर्जीव रूप को
जो पुरुष समाज पूजता है
उसी के सजीव रूप को रौंदता है
अपने बहशीपन का शिकार बनाता है
उस बच्ची के साथ क्या हुआ
हकीकत सब जानते थे
पर वे चुप थे
पर चुप नहीं थे तो मां-बापू
उनकी आंखों के आंसू सूख गये थे
वे ज्वाला की तरह जल रही थीं
जब भी उनकी आंखें उठती मन्दिर की ओर
वे और लाल हो जाती
और उनसे बरसती चिन्गारियां
चिन्गारियां ही चिनगारियां!
रिक्शावाला
मेरे सामने से हर रोज गुजरता है रिक्शावाला
टुन टुन घंटी बजाता
कभी सवारी होती
कभी खाली होता
और खाली रिक्शा देख
हमारे बच्चे खेलते कूदते लटक लेते
वह झिड़कता डाँटता भगाता
हमसे शिकायत करता
पर ढीठ शरारती
कहाँ मानने वाले
और वह भी
इनसे एक अनजान रिश्ते की डोर में बँध जाता
हँसी ठिठोली करता
रोज ही ऐसा होता
और बच्चे
उसे ‘टा टा….बाॅय….बाॅय’ कर लौट आते
रात जब चढ़ जाती वह लौटता
नहीं होता अपने आपे में
उसके ऊपर चढ़ा होता नशा
डगमगाता वह आता
मैं सोचती
आखिर क्यों पीता है
कौन सी खुशी मिलती है उसे
कौन से गम मिटते हैं इससे
मैं समझाती और
वह बहनजी या मेम साहब कह हँस देता
मेरे समझाने की क्रिया जारी रहती
उसे सब ‘पर उपदेश’ से लगते
और टुन टुन करता उसका रिक्शा
आगे बढ़ जाता
वह चला जाता
पर मेरे सोचने की क्रिया जारी रहती
सोचती कि किसी दिन ऐसी न चढ़ जाय
कि वह उतारे भी न उतरे
वह जिसे पीता है
कहीं वही न पी ले उसकी जिन्दगी
मैं झुँझलाती
कि क्यों नहीं समझता वह जिन्दगी का मोल
और एक दिन ऐसा ही हुआ
देर रात टुन टुन करता
आया उसका रिक्शा
उसके साथी खींच रहे थे
और वह पड़ा था अपने ही रिक्शे पर निढ़ाल
शोर उठा
भीड़ जुटी
एक कहानी खत्म हुई
और बन्द हो गई टुन टुन की आवाज
पर नहीं बन्द हुआ जहर का व्यापार
न बन्द हुईं दुकानें
न बन्द हुए कारखाने
बढ़े धंधे
इस लोकतंत्र में फलाफूला कारोबार
पर अब भी
वह रिक्शावाला मेरे सामने से गुजरता है
टुन टुन घंटी बजाता
मेरे सपने में आता है
अचकचा कर उठ बैठती हूँ
बेचैन होती हूँ
और अपनी बेचैनी में रात भर चलती रहती हूँ
यह कौन सा रिश्ता है
जो मुझे बेचैन करता है
रात रात भर सोने नहीं देता……..
कूड़ा बीनते बच्चे
सुबह के समय
अपनी सेहत के लिए
घर के सामने पार्क में टहलना
और टहलने के बाद
आपस में गप-शप करना
मोहल्ले की छोटी से छेाटी बातों से लेकर
देश-दुनिया की बड़ी से बड़ी से खबर पर
चर्चा में मशगूल रहना
यह लोगों की दिनचर्या में शामिल है।
कैसे हैं ये लोग
जो खबरों में जीते है
पर अपने आसपास से बेखबर रहते हैं
उन बच्चे और बच्चियों से
जो रोज ही
उनकी आंखों के सामने से गुजरते है
जिनके कंधे पर होता है
उनके कद से बड़ा
मैला-कुचैला थैला
इसी में वे अपने लिए जीवन बटोरते हैं
लोगों की नजर पड़ती है
उन्हें देख कर भी
अनदेखा कर देते हैं
नाक-भौं सिकोड़ते हैं
वे अपने घर की जिन फालतू,
बेकार और सड़ी गली चाजों को बाहर फेक
कूड़ा का ढेर बनाते है
ये बच्चे उन्हीं पर पलते हैं ं
इन्हीं में वे कुछ ढूंढते हैं, बीनते हैं
अपने लिए बहुमल्य
काम की चीजें
जिनसे हमें घिन्न आती
वही होता उनके लिए जीने का जरिये
जीवन का जुगाड़
यह सब देखती हूं
मैं उनके भोले-भाले
मासूम चेहरे को देखती हूं
उनके पास जाना चाहती हूं
बतियाना चाहती हूं
पर यह कैसी
हिचक की दीवार है हमारे बीच
कि मैं उन्हें देखती रह जाती हूं
वे आगे बढ़ जाते हैं
मेरे अन्दर कुछ चटकाता है
दरकता है
मन में सावल उठता कि
जिस देश और दुनिया के बारे में
हम चर्चा में मशगूल रहते हैं
उनमें ये बच्चे कहां होंगे
कहां होगी उनकी जगह
गर्व से कहा जाता बच्चे हैं देश का भविष्य
और नहीं सोचा जाता इनके भविष्य के बारे में
ये सबसे तिरस्कृत
समाज से बहिष्कृत
कब तक ऐसी जिन्दगी जीने को
होते रहेंगे मजबूर ?
किताब
किताब में लिखी बातें
सब झूठी हो जायेंगी
किसी को जानने के लिए
नहीं पलटे जायेंगे पन्ने
आदमी मिलेगा किताबों में नहीं
मूर्तियों में
उसका कद
उसकी महानता नापी जायेगी
मूर्तियों की ऊँचाई से।
विकास का प्रसाद
हमने देखी हैं कई प्रतिमाएं
वे बसी हैं आंखों में
गांधी सुभाष
भगत आजाद
लेनिन अम्बेडकर
सब बसे हैं मन में
आज की बात विकास की बात है
देश की तरक्की ही तो है कि
कि दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा
बनी है गुजरात में
एक सौ अस्सी मीटर ऊंची
यह प्रतिमा है सरदार पटेल की
वे धरती से इतने ऊंचे
कि सरदार का चेहरा देखना भी मुश्किल
सिर उठा देखा, पर नहीं दिखा
और जब देखा तो मुंह से आह निकली
दर्द भरी आह
नब्बे डिग्री पीछे की ओर झुकी
चटक गयी गर्दन की हड्डी
अब विकास की अगली मंजिल है
और सरकार जुटी है
एक और प्रतिमा बनाने में
वह होगी भगवान श्रीराम की प्रतिमा
भगवान के आगे
सरदार की क्या औकात
उनकी प्रतिमा होगी आसमान को स्पर्श करती
दौ सौ इक्कीस मीटर ऊंची
पवित्र सरयू तट पर सरकार बना रही
अब यहीं विराजेंगे श्रीराम
अपनी दिव्य दृष्टि से वे देखेंगे सारे जगत कों
अयोध्या आयेंगे श्रद्धालु
श्रीराम दर्शन को
और लौटेंगे
अपनी टूटी गर्दन के साथ
आखिर यही तो है विकास का प्रसाद !
घड़ी की सूइयों पर टिकी जिन्दगी
घड़ी की सूइयों पर टिकी आंखें
मुझे बेचैन करती हैं
निर्घारित करती हैं
नियंत्रित करती हैं
जिन्दगी के हर लम्हे को
मेरी दिनचर्या हो या जीवनचर्या
सबको बांधती हैं
घड़ी की सूइयां
मैं अपने सपनों को पंख देना चाहती हूं
उड़ना चाहती हूं
उड़-उड़ वहां पहुंचना चाहती हूं
जो मन की चाहत है
मैं कुछ पढ़ना चाहती हूं
मैं कुछ लिखना चाहती हूं
मैं घर की चारदीवारी से
बाहर निकलना चाहती हूं
मैं उनसे जुड़ना चाहती हूं
जिन्हें मेरा इंतजार है
मैं समाज में
कुछ कर दिखाना चाहती हूं
पर यह घड़ी
टिक-टिक करती
हर घंटे टन-टन करती
मुझे समय का अहसास कराती
हर-हमेशा याद दिलाती
कि किचेन ही तुम्हारा घर है
यही है तुम्हारा आशियाना
प्रिवार, समाज और तुम्हारा स्वर्ग
इसी में सिमटी है तुम्हारी दुनिया
घर परिवार का बोझ
दूधवाला, कामवाली
अखबारवाला, सफाईवाला
इन सबके साथ जितने लोग
उनकी फरमाइशें भी उतनी
और सारी दुश्चिंताओं का बोझ लिए
इस घड़ी के साथ अपने को मिलाने में ही
बीत रही है सारी उम्र
कभी मन करता कि
यह घड़ी जो मुझे बांधे है
उसे पटक दूं
सब कुछ झटक दूं
मुक्त हो जाऊँ
अपने सपनों को हवा दूं
समय से बाहर निकलूं
पंख खोलूं
और उड़ चलूं खुले आसमान में।