समकालीन जनमत
कविता

योगेंद्र गौतम की कविताएँ अंधेरे के अज्ञात बिन्दु से प्रकाश की खोज में निकली यात्री हैं

प्रिया वर्मा


यह कवि रात्रि के किसी अज्ञात बिंदु पर खड़ा हुआ है और अंधेरे के उस अज्ञात बिंदु में प्रकाश को खोजते हुए कविता को पा लेता है।

इन कविताओं में थमा हुआ समय है और वर्तमान को ठिठक कर देखता नायक है। इन कविताओं में जलती बुझती जन्म लेती रात रहती है, मुंह छुपाए चुपचाप बीतता दिन बैठा है। कहीं तो मिटने का भय लगता है नायक को, जो संभवत कवि खुद है या कवि द्वारा रचित पृथ्वी का कोई अनिवार्य नागरिक- जिसके भीतर मृत्यु के लिए संशय नहीं है, स्वागत है। जिसमें विश्व का अभय है, स्वयं के उचाट का स्वागत है। अंत तक बज उठती वेदना है, द्वंद्व नहीं- सौंदर्य है : दुख में, सुख में, उदासी में भी।

इन में आधुनिकता के भ्रम से पसरी आदिम मानवीय व्यथा की रूनुर-झुनुर झलकती सुनाई देती है। अधिकांश पंक्तियों को पढ़कर पुरातन की- सी शांति अनुभव होती है लेकिन इस शांति में कवि दृष्टि कहीं खो नहीं पाती, वह खपती है – यथार्थ और कल्पना के मिलन बिंदु पर। कवि की कहन खोजती है, सौंदर्य और खुरदरापन दोनों। कई जगहों पर यथार्थ ऐसा बेबाक है कि पढ़ने वाला वहाँ थम जाता है जहाँ कवि लगातार अपने समय को दर्ज कर रहा है। जो स्थिर है, उसमें किसी चलायमान की खोज कर रहा है।

एक चिड़िया उतर आती है सीने में। कहीं आसमान में दो परिचितों के मिलन का बिंब उभरता है लेकिन कविता में लिखे गए पानी का स्वभाव देखें कि वह व्यक्तियों में दो में से एक की छाया को ही स्वीकार करता है। उसे द्वैत प्रिय नहीं, संसार के आदिम नागरिक पानी की तरह का लक्षण है कविता में दर्ज़ पानी में। वे दो जो संभवतः प्रेमी हैं।

वर्तमान की घुटी हुई धीमी- सी आवाज है, जिसे सुनने को पाठक में आँख का धैर्य चाहिए। चित्र बनते हैं कविता की पंक्तियों से। रात किसी मजदूर के दिन भर की मेहनत की थकान लिए घर लौटने के बाद बेध्यानी में खुली छूट गई कि झोले से बाहर झांकता है एक अवसर जो विश्राम के लिए है या शायद थकान का भार उतारने के लिए या शायद अगले दिन की फिक्र को लिखने और संभालने का या अपने कर्ज का हिसाब लगाने या परिवार के साथ या गांव में छूटे घर को याद करते हुए बहुत उदास होने का।

योगेंद्र गौतम की कविता में पृथ्वी के सीने पर गड़ा हुआ पेड़ मिलता है जो स्वागत करता है एक आश्रय-हीन पक्षी का। वह पक्षी जो इन कविताओं को पढ़ते हुए पाठक अपने भीतर महसूस करता है। यहां झाड़ियों के बीच कोने में जलती धधकती हुई पर चुप- सी एक आग है, चिंगारी है, राख है। देह है, जीवित भी मृत भी। शव से रिसता हुआ पानी दिखाता है दर्पण। शव प्रतीक्षा में है या नए जन्म की या अंतिम मुक्ति की। संबंधियों के हथेलियों पर छूटे अपनेपन के धब्बे से कवि कलाई थामता है।

कानों में उड़ेलता है एक बुझा हुआ दुख। दिखाता है एक सुंदर दिन, जिसे कमोबेश हर संवेदनशील मन जी ही लेता है महीने- दो महीने में कम अस कम एक बार।
कवि ने मुरझाए हुए रंगों को अपने कंधे के झूले में रखकर टांग रखा है फिर कविता लिखने को शायद धरती पर रख दिया है। धरती पर रखते ही झोला खुल गया है, अब रंग बिखर गए हैं और आपस में मिलकर एक हो जाने से जो नया एक रंग बना है, वह दरअसल कोई इंद्रधनुषी रंग नहीं है वह है पृथ्वी का रंग। मिट्टी से उपजा हुआ अर्थात चंपा का फूल ।

योगेंद्र गौतम की कविताएँ शांत में शोक की कविताएँ हैं और प्रेम में विप्रलंभ की। कविता अपने हाथों से ही किसी पर्व की रंगोली जैसी सज जाती है जो शोक में शांति और उत्साह में हर्ष जैसी आकुल हैं ।

योगेंद्र गौतम की कविता में कविता का मूल स्थाई भाव- तत्व है, पढ़ने का रस है, समयांतर की आहट है, प्रेम की बेचैनी और मौन है, चुप्पी की गूंजती हुई- सी कसमसाहट है। इनमें सामयिक मनुष्य का अकेलापन है। एक अबूझ प्रेमिका की ओर दिन दिन बढ़ता जाता आकर्षण है। सबसे बढ़कर इन कविताओं में स्वयं कवि उपस्थित है जो इन कविताओं को पढ़ते समय कब पाठक से अपनी अदल-बदल कर हर पंक्ति में किसी सार्थकता का निवेश करता चलता है। पढ़ते हुए, अनायास यह पता ही नहीं चलता कि कविताएं चल रही हैं या कि जीवन सरक रहा है हथेली से। रस कम होने के स्थूल से रूपांतरित होकर रक्त हो रहा है, उदासी की परिणति में जिसे पढ़ने के लिए कविताएं पढ़ते हैं पाठक। उस आकुल उदासी में सिक्त होने को पढ़ते हैं योगेंद्र गौतम जी की कुछ चुनिंदा कविताएँ।

 

 

योगेंद्र गौतम की कविताएँ

 

1. कही अनकही

वह पहले मरता था तो बस मर जाता था,

ये कहने के साथ ही कि वह मरना चाहता है

आजकल वह यही कहता है

और एक कोशिश किसी साँस के साथ बचा रख लेता है

फिर कभी मरने के लिये..

आजकल कभी बातचीत के बीच में वह अपनी साँस रुकी महसूस करता है,

सिलसिले को न रोकते हुए बैठा रहता है लेकिन

वो जानता है,

रुके सिलसिले अक्सर पूरे नहीं होते

यों मरने की उसकी इच्छा बस इच्छा ही हो,

ऐसा भी नहीं है,

होने को सब कुछ है उसके पास,

मसलन- परिवार है, ज़िम्मेदारियाँ हैं

याद करने के लिये प्रेमिका है

याद आने के लिये जीवन के सभी अच्छे बुरे अनुभव,

वो रोता है समय के हाशिये पर चलता हुआ

पर विलाप करती उसकी आँखें दिखती नहीं

वह जहाँ जाता है आजकल वहाँ से उसकी गुमशुदगी मापी जाती है

वह समय को बदल लेना चाहता है

अपने सबसे सच्चे प्रतिरोध में

वह जानता है कि जिन चीजों पर हक़ जताती उसकी साँसों से

ज़िन्दगी चलती थी किसी की

आजकल वो चलती रहती है बाकी ज़िन्दगियों की तरह

वो भी बस चाहता है उन ज़िन्दगियों का चलते जाना उसकी रुक चुकी साँसों के गुरुत्व से बंधी।

वो धरती के सीने पर गड़ा पेड़ बन जाता है बस, किसी नदी किनारे खड़ा..

 

2. पुकार
बारिश और अंधेरे में लिपटा शहर
लगता है दो आँखें घूरती हैं लगातार
इस घड़ी घूमते
आवारा जोड़ी कदमों को।

डगमगाती लहराती सड़क
पानी की तरह डोलती है।

दूर से कुत्तों के भूंकने की आवाज़—
पता नहीं रास्ते का पता मिलता है या भटक कर छूट जाता है!

यह यात्रा ख़त्म नहीं होती
(लगता नहीं यह यात्रा ख़त्म होगी)।

तेज़ चलती हवा से जन्मता है
जन्मों पुराना अनिश्चय
दूर, बरसों पहले छोड़े शहर से आती पुकार
वहाँ अब कौन बुलाता है मुझको?

 

3. यह रात
यह रात संध्या के अवसान से जन्मी है
आई है, ज्यों प्रतीक्षा में ही थी होने के

सम्भवत: थककर घर लौटे किसी श्रमिक के
रखे थैले के खुले मुँह से
रहा है इसका उद्गम।

इसके आगमन का अन्य कारक
या फिर कोई वन्य पशु है
जिसके सींग से उतरकर
यह छा गई है इस प्रदेश में। इस प्रांतर में
नदी किनारे खड़े वृक्ष
पहले अचानक बढ़ी अपनी लम्बाई से हतप्रभ
अंततः इसके मुख में समा गये हैं;

इसने जैसे ग्रस ली है समग्र सृष्टि।

इसी रात्रि के किसी
अज्ञात बिंदु पर खड़ा मैं सोचता हूँ –
यह रात बस क्या इतनी लम्बी है जितना इसके उस छोर पर खड़ा दिन,
या कि यह बस है और प्रिया की काजल रीती आँख—
कि यह है जिसके दृश्य में खड़ा मैं, इस भरोसे में हूँ कि
अभी यह काजल पुंछ जायेगा और सुबह हो जायेगी!

 

4. वह (१)
वह आएगी, द्वार खटकायेगी
मैं अशक्त उठकर न खोल पाऊँ द्वार
तो भी,
कहीं से भीतर आ जायेगी
मेरे पुरखे मुस्कुराते होंगे,
उसे मेरे पास देखकर, जब
ज्वर से तप्त मेरे माथे पर वह हाथ रखेगी,
मुझे देख मुस्कुराएगी, थोड़ी देर बैठ सिरहाने
हाथ पकड़ेगी और साथ ले जाएगी,

वह आएगी और मुझे ले जायेगी।

 

वह (२)
वह मर चुका है
उसकी मृत देह वहाँ एक ओर पड़ी है
बहुत लोग उस की मृत्यु के नये विशेषण ढूंढकर लड़ रहे हैं
जबकि कुछ खामोश हैं– मौन और दुःखों की तह में लिपटे।

बहुतों ने उसकी देह से चादर उतारकर
उसे अनावृत कर दिया है और
अपने अपने शामियाने तान लिये हैं
उनमें से कुछों की हथेलियों पर उसकी मृत देह के धब्बे झूलते हैं।
वहीं पास एक ठूंठ के नीचे
एक चिड़िया बैठी है– प्यासी– हांफती हुई।

एक रौशनी ठूंठ के पीछे फूटती है
उस रौशनी को जाने कोई क्यूँ नहीं देखता!

मृत देह के धब्बे, जो कुछों
की हथेलियों से छूट गये हैं, धरती पर
एक नक्शे सा कुछ बनाते हैं
जिससे पानी का एक सोता छूटता है
और मृत देह की ओर बढ़ता है
मृतक की देह का नमक पानी में घुल जाता है—
लोग अब उस पानी पर लड़ते हैं।

सोते की बूंदें उछलकर
चिड़िया की ओर गिरती हैं
जहाँ वह उन बूँदों को पीती है और उनमें नाचती है
नाचते नाचते वह उस अबूझ रौशनी में गुम हो जाती है।
उसकी गुमशुदगी का साक्ष्य वह ठूंठ भी
चिड़िया के पीछे कहीं गुम हो जाता है
लोग लड़ना छोड़कर रौशनी में अब काठ और चिड़िया ढूँढते हैं
उन्हें न उसकी काया मिलती है न काठ की छाया।

लोग जहाँ खड़े थे वहाँ उनका मौन अब मुखर हो आया है
लगता है वह ठूंठ उनकी आत्मा में उतर आया है
अब वहाँ वे नहीं बस उनकी देह खड़ी हैं
वह चिड़िया और उनकी उपस्थिति अब रौशनी की आवाज़ों में गुम हैं।

मृतक की देह का नमकीन पानी अब भी वहाँ झिलमिलाता पड़ा है।

 

वह (३)
वह कुछ न कहती थी,
बारम्बार पूछो, तो भी नहीं।

न रोती, न हँसती ही वह
मैं सोचता कौन है वह इस नौका पर
कोई तापसी, मायाविनी,
प्रेतिनी,
या फिर समुद्र-तनया स्वयं,
या नदियों के देश में
पिरामिड़ों की कोई रहस्यमयी देवी!

उसकी आँखों के सागर
बड़े गहरे थे जिनमें
कभी जंगल का हरा लहलहाता था
कभी लहराता अंबर का नील
कभी-कभी दोनों मिलकर मन का रंग बनाते।

उसे जाना कहाँ था,
कुछ न कहती;
कहाँ से आई थी
यह भी कोई नहीं जानता था।

उसके होंठ थरथराते तो अनुमान देते
उसकी भावाकुलता का,
आकाश में बादल घिर आते।

उसकी उम्र
उसके बालों में सिमट आये वर्षों से कहीं ज़्यादा थी,
उसकी त्वचा में लेकिन जादू था।

उसे छूते मुझे लगता—
उसकी दृष्टि पड़े तो उमड़ पड़ेगा जल
तेज़ बहने लगेंगी हवायें
इतना तीखा हो जायेगा प्रकाश
कि दिखाई देने लगेगा आर-पार।

पता नहीं, वह उस छोर पर वहाँ अकेली क्यूँ बैठी है!
मैं उसके समीप जाता हूँ,
जल में उसकी परछाई पड़ती है, मेरी नहीं—
गगन पर बनता है बिंब।

किनारे जलती आग जलती ही जा रही है
आग में फँसा, जलता हुआ कोई
निज सा दीखता है
मुझे देखकर हवा में उसका हाथ लहरता है

जैसे-जैसे मेरे लिये पुकार उठती है
नदी-धार में टंकी मेरी नाव
हो जाती है उससे दूर।

 

5. नगरमार्ग पर
धीमे चलते
मुझसे आगे निकल जाता है वह
उसके बीतते
मैं नगर की दीवारों पर लगे इश्तेहारों को देखता हूँ
नहीं कोई चेहरा परिचित– नहीं कोई दृष्टि
नहीं जान पाता चित्त
किसी भारी या तृण-देह का कोई लक्षण–
भारी जन एकदम खाली लगते हैं और
हल्के लोग बहुत भरे हुए।
दोनों ही के बारे में यह कोई प्रमाणित बात नहीं हालांकि
दोनों अपने ही जैसे भी लग सकते हैं बिल्कुल।

इस बात में भी कोई भेद नहीं कि,
जाते हुओं की पीठ मुझे सदा एक सी लगी।
जो गीत मैं गाता हूँ
उसे सुन, पलटकर नहीं देखता कोई।

गगनभेदी अट्टालिकाओं से
विवर्ण प्रकाश उतरता है और एक शोर,
समय के धूमिल आलोक में जो
एक संसार तिलिस्मी सा रचता है
– एक ऐसा संसार
जिस में देह की जगह देह नहीं होती,
मन की जगह मन नहीं होता; दोनों की जगह दोनों नहीं होते।

 

6 . चंपा के फूल

दिन जलता है,
दिन के रंग जलते हैं
रात जलती है चुपचाप, वीरान अंधेरे में
जली रात की भस्म
वह इकट्ठा करती है अपनी हथेली में
और फैला देती है धरती पर
कुछ ढूँढती है उसमें, फिर इकट्ठा कर फैला देती है
जाने क्या ढूँढती
मैं उसके पास खड़ा उसे देखता
सोचता हूँ कि वह शायद कुछ नहीं ढूँढ रही
मेरे कंधे पर टँगा झोला, जिसमें
दिन के मुर्झाये रंग हैं, उतारकर मैं ज़मीन पर रख देता हूँ
झोले से
उसकी भस्म में जले-मुर्झाये रंग मिलाकर मैंने धरती पर अभी अभी
एक नाम लिख दिया है
नाम के किनारे उसने अपनी पतली उंगली से चंपा का एक फूल खिला दिया है
मेरी ओर बिना देखे वह आगे बढ़कर साँझ की सड़क पर किसी परछाई में खो गयी है
नाम और फूल से अब उसकी देह-गंध उठती है।

 

7. वह दीप
बारिश की बूंदें खिड़की पर
द्वार पर प्रतीक्षा
आँखों में तुम सुचित्रा
होठों पर नहीं कोई नाम और
एक शून्य बस–
दृश्य के इस छोर से अदृश्य के उस छोर।
अंतर के अनन्त और
प्रत्यक्ष के सम्भव के बीच
खिला एक पुष्प
जलता यह दीप– मेरा हृदय!

इसके बुझने से पहले आ जाओ।

 

8. सुख
टूटी देह, टूटा मन ले कहाँ जायेगा वह
किस द्वार जा पुकारेगा कोई नाम?
झूलती-लटकती खिड़कियों से देखेगा वह स्थान
जहाँ ले जाकर रख देगा अंततः
समय की देह का भार!
कितना स्थान चाहिए होता है
फिर मन सम्हारकर रख देने को?

 

9. तुम पुकार दो
दिन ढला
पक्षी लौट रहे अपने-अपने नीड़
सूर्य का रथ अस्ताचल की ओर,
वह नहीं आई।
उसकी प्रतीक्षा में फिर फिर लौटा उसका नाम
कण्ठ शून्य में पुकार, निराशा में मौन हुआ जाता है।

धरा पर धीमे-धीमे उतरता है अन्धकार
मन्द चाप धरते पग थम जाते यकायक।
मार्ग के पेड़ पाषाण हो खड़े–
निर्जीव, निःश्वास पत्रों को देह पर धारे– अकम्प!
नहीं बोलता उन पर कोई खग। द्वार पर नहीं हवा का भी कोई चिह्न
ऊपर नीलाकाश निःशब्द!

हे श्याम गगन के सजग प्रहरियों!
तुम मेरी ओर से पुकार दो वह नाम एक अंतिम बार
जिसकी प्रतीक्षा में भले जिह्वा से स्वर छूटता है,
और छूटता है देह से प्राण;
पुकारने से उसके आ जाने की आस मगर फिर भी नहीं टूटती।

 

10. वह नाम
भटकते हुए
कहीं न पहुँच पाने की हताशा में
हौले से पुकार देता हूँ– एक नाम।
ठिठकी हवा सहसा चलती है,
और उसे बहा ले जाती है।

आकाश में गुम जाती है
पत्तों पर ठहरी ध्वनि।

यायावर भटकता मैं, अब
दोनों खोजता हूँ– वह आवाज़ और वह नाम!

 

11. भीतर-बाहर
वह कहते हैं – जो आपके भीतर होता है, वही बाहर.. एन्ड वाइसे-वर्सा।
मसलन आपके भीतर यदि उथल-पुथल है तो बाहर भी वही होगा।
अंदर अगर शांति है तो बाहर भी शांति होगी।
अंदर बाहर का रिफ्लेक्शन है (वाइसे-वर्सा?)।

मैं सोचते हुए देखता हूँ एक जँगल अपने ही भीतर।
जँगल – जिसमें खूब पेड़ हैं, खूब चिड़िये और खूब जानवर।
लेकिन यहाँ का मौसम अक्सर बाहर के मौसम से मेल नहीं खाता
यहाँ पतझड़ में बारिश होती है, सावन में पत्ते झरते हैं; कभी-कभी दोनों में दोनों।

जँगल के पेड़ों की जड़ें मेरी जड़ों से गुत्थमगुत्था हैं,
यहाँ की चिड़िये मेरी आत्मा की शाखों पर बैठती हैं और खूब चहचह करती हैं।
अपने मन के करने तक वे बैठती हैं और फिर उड़ जाती हैं मेरे मन के आकाश।

जँगल के जानवर मेरे भीतर के जानवरों से अक्सर भिड़ते हैं..
कभी-कभी दोनों एक दूसरे से बचते भी हैं।
अचानक बाहर एक बिजली चमकती है और दोनों छुप जाते हैं मेरे मन की गुफ़ा।

अपने मन की धरती पर खड़ा मैं
सचमुच में देखता हूँ पेड़ों को मिट्टी, चिड़ियों को हवा और जानवरों को मनुष्यों में बदलते हुए।

#शून्य


 

कवि योगेन्द्र गौतम. जन्म 19/10/1985। जन्मस्थान : मुज़फ़्फ़रनगर (उ.प्र.)
सम्प्रति : शिक्षण में सेवारत. सम्पर्क: 9897099219
ईमेल : yogendragautam567@gmail.com

रचनात्मक क्रियाशीलता : विगत कई वर्षों से साहित्य से जुड़ाव। भावात्मक अभिव्यक्ति हेतु स्वतंत्र लेखन। अनुवाद में भी रुचि। विभिन्न वेब पेज/पत्रिकाओं में प्रकाशन।

 

टिप्पणीकार प्रिया वर्मा, सीतापुर (उत्तर प्रदेश ), जन्मतिथि:- 23 नवंबर 1983. जन्म:- जनपद पीलीभीत
शिक्षा:- अंग्रेज़ी साहित्य में परास्नातक व बी एड

संप्रति :- पंद्रह वर्ष से अधिक समय से अध्यापन कार्य
कविता संग्रह- स्वप्न के बाहर पाँव 2023 जुलाई में रज़ा पुस्तक माला के तहत बोधि से प्रकाशित। अनेक पत्र- पत्रिकाओं में कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित।

संपर्क:- itspriyaverma@gmail.com

 

 

 

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