कुमार मुकुल
गुंजन श्रीवास्तव ‘विधान’ की कविताएँ ‘कवियों के कवि’ शमशेर बहादुर सिंह से लेकर सीधा नारा की तर्ज़ पर गांधी के ‘अंतिम आदमी’ की हालत बयाँ करने का जोखिम उठाती दिखती हैं। अपनी कविताओं में वे कला–वला के चक्कर में नहीं पड़ते बल्कि कबीर की तरह ‘आँखिन देखी’ की राह पर चलते हुए अपने समय के सच को पूरी संवेदनशील दृढ़ता के साथ सामने रखने की हिम्मत दिखाते हैं। वे अपने समय के सच से विचलित होते हैं और उसे इस तरह अपनी कविता में रख पाते हैं कि आप भी विचलित होते अपनी गुप्त कारगुजारियों पर विचार करने को बाध्य होते हैं कि आपको ख़ुद को बताना पड़ता है कि ‘पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है।’
अपनी कविताओं में वे कुछ मौलिक सवाल उठाते हैं जो आपको सोचने-विचारने को बाध्य करते हैं कि आपके ख़ुद की निगाह में अजनबी होने का ख़तरा पैदा होने लगता है।
इन कविताओं से गुजरने के बाद चली आ रही व्यवस्था को लेकर आपके मन में भी सवाल उठने लगते हैं और उसके प्रति आँखें मूंदे रहना आपके लिए असुविधाजनक होता जाता है।
विधान की कविताएँ
1.
मेरी मृत्यु लोकतंत्र की हत्या मानी जाये
मेरी मृत्यु,
ग़र क़ानून की लाचारी की वजह से या
किसी गुंडे की गोली से
न्याय के लिए भटकते कभी
अदालत के चक्कर लगाते
संसाधनों से युक्त इस देश में
एक रोटी की ख़ातिर
हो जाये या किसी अस्पताल की चौखट पर
रकम न भर पाने की ख़ातिर हो
तब उसे तुम ‘मृत्यु’ मत कहना दोस्त !
अख़बार लिखें
या दें लोकतंत्र के कुछ कीड़े गवाही
तब भी उसे तुम
हत्या ही कहना!
मेरे परिजनों से कहना कि मुझे
न लिटायें लकड़ियों की सेज पर
करवा लाना संविधान की कुछ प्रतिलिपियाँ
जिनपे मैं लेट सकूँ अपने मृत शरीर को लिए
और कहना मेरी आखिरी इच्छा थी कि
“मेरी मृत्यु को
लोकतंत्र की हत्या मानी जाये”।
2. अच्छा है जो मैंने ये हुनर नहीं सीखा
बड़ा ताज़्ज़ुब होता है
आपको डर नहीं लगता!
बदबू नहीं आती आपकी नाकों तक
लाशों की!
दिखते नहीं अपनी चप्पलो में
आपको किसी गिद्ध के पंजे!
सुनाई नहीं पड़ते आपको
अखबार में धमाकों की गूँज
महिलाओं की बेबस चीख !!
मुझे ताज़्ज़ुब होता है
जब आप देख नहीं पाते
अपने पुलाव में फांसी के फंदे और
किसान के गले को
जब आपको दिखती नहीं
चर्मकार की टूटी चप्पलें
किसान के सूखे बर्तन
नाई की उलझी बढी दाढ़ी और बाल
और दर्जी के फटे पुराने सिलवटों भरे कपड़े!
ताज़्ज़ुब होता है देखी नहीं आपने
सड़क पर बैठे भिखारियो में
आपके निकट आने की आस
गुब्बारे में भरी एक रुपये में बिकती
गरीब की साँस!
मुझे ताज़्ज़ुब होता है!!!
एक तरफ अखबार में बिछी लाशें देख रहा होता हूं
और दूसरी तरफ आपकी शराब और
सिनेमाघरों में टिकट के लिए कशमकश
बड़ी हैरत से घूरता हूँ आपको
श्मशान छोड़ सड़कों पे बेबाक़ घूमता देख
और सोचता हूँ
अच्छा है जो मैंने ये हुनर नहीं सीखा!
3. मुझे इंतज़ार नहीं होता
मैं नहीं जानना चाहता औरों की तरह
पुनर्जन्म और
उसकी काल्पनिकता का रहस्य
और न सुनना चाहता हूँ ऐसे अफ़साने
जिसमें अनिश्चित हों स्वयं
उसके किरदार!
मुझे इंतजार नहीं होता
किसी कहानी के दूसरे भाग के आने का
और न ही मैं देखता हूँ
श्रृंखलाओं वाली फिल्में
मैं खुद को खत्म समझता हूँ
अपनी कहानी में
उसके आखिरी पन्ने पर
हमेशा हमेशा को
नहीं चाहता कि याद रखा जाऊँ मैं
सदियों तक
बनाये जाएँ मेरी स्मृतियों में स्मारक
करूँ वो सब जिनके बाद रखे जायें मुझ पे
सड़कों के नाम
छपें, दीवारों पर मेरी तस्वीरें
मेरे नाम से छले कोई नेता
अनगिनत गरीबों और उनकी उमीदों को!!
नहीं होना चाहता मैं इस षड्यंत्र का शिकार
और न ही मरना चाहता हूं उस अंधविश्वास से
जिसकी आड़ में इंसानियत को निगल रही है
खुदा बनने की चाहत
दिन प्रतिदिन!
मुझे मालूम है
मेरे किरदार का वजूद
मेरे पेट में रखी रोटी की देन है
और
मैं उस कहानी पर भरोसा नहीं करता
जिसे कल मैं खुद
नहीं सुन पाऊंगा!
मुझे बता दिया गया था उसका धर्म
और दे दी गयी थी
उससे दूर रहने की सलाह!
हालांकि उतना सरल नहीं था :
एक ही इलाके में रहते
समान राहों से गुजरते
एक ही मैदान में खेलते
और साथ ही कक्षा में पढ़ते हुये
उन सलाहों का ध्यान रखना !
इसके बावजूद कभी कोई तकलीफ नहीं उठानी पड़ी
इसे ख़्याल रखते हुए साथ रहने में क्योंकि
जो हमें बताया गया था
वही उन्हें भी बता चुके थे उनके बुजुर्ग!
जिसकी वजह से हम दो धर्मों के दोस्त
अलग रहते हुए भी कभी असहज नहीं थे
एकदूसरे के
इस असामान्य बर्ताव पर!
और सालों तक ढोते आ रहे थे अपने बड़ों की
उस सलाह को
जो हमारे बचपन और जवानी को
निगलती आ रही थीं!
4. सबसे घातक और जानलेवा बीमारी
गरीबों की लाशों से गुजरता हूँ
उनके परिजनों से बात कर
उनके अतीत की करता हूँ पड़ताल
उनके कार्यस्थल पर जा कर पूछता हूँ
उनकी खामियां और खासियतें
पढ़ता हूँ अस्पतालों में जा कर
उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट!
हर बार मैं पाता हूँ
‘ईमानदारी और शराफ़त को
इक्कीसवीं सदी की सबसे
घातक और जानलेवा बीमारी’
5. क्योंकि काकी अखबार पढ़ना नहीं जानती थीं
अखबार आया
दौड़ कर गयी काकी
खोला उसे पीछे से
और चश्मा लगा पढ़ने लगी राशिफ़ल
भविष्य जानने की ख़ातिर !
वो नही पढ़ सकीं वो खबरें
जिनमें दर्ज थीं कल की तमाम वारदातें
ना ही वो जान सकीं क़ातिलों को
और उन इलाकों को
जो इनदिनों लुटेरों और क़ातिलों का अड्डा थे !
अफसोस, काकी भविष्य में जाने से पहले ही
चली गयी उस इलाके में
जहाँ जाने को मना कर रहे थे अखबार !
अब उनकी मृत्य के पश्चात –
काका खोलते हैं
भविष्य से पहले अतीत के पन्ने
जो चेतावनी बन कर आते हैं अखबार से लिपट
उनकी दहलीज़ पर!
6. एक तुम
गणित की अनंत तक
फैली भुजाओं
अंकों पर शून्यों की बेशुमार सजावट
उनके अनगिनत विकल्प
और संख्याओं के
बीच तुम
बताती हो मुझे :
‘एक’ का महत्व,
मेरी इस तन्हाई में!
7. अय्याशी का राज
बेटे की फुटानी
और उसकी अय्याशी का राज़
बाप के फटे कुर्ते
और माँ की नकली कान की बाली में
छुपे होते हैं!
8. ये बच्चा नहीं एक देश का मानचित्र है
मुझे भ्रम होता है कि एक दिन ये बच्चा
बदल जायेगा अचानक
‘मेरे देश के मानचित्र में’
और सर पर कश्मीर रख ढोता फिरेगा
सड़कों – चौराहों पर
भूख भूख कहता हुआ
मुझे भ्रम है कि कल इसके
कंधे पर उभर आयेंगी
उत्तराखंड और पंजाब की आकृतियाँ
भुजाओं पर इसकी अचानक उग आयेंगे
गुजरात और असम
सीने में धड़कते दिल की जगह ले लेगा
मध्यप्रदेश
नितंबों को भेदते हुए निकल आएंगे
राजस्थान और उतरप्रदेश
पेट की आग से झुलसता दिखेगा
तेलंगाना
फटे चीथड़े पैजामे के घुटनों से झाँक रहे होंगे
आंध्र और कर्नाटक
और पावँ की जगह ले लेंगे केरल औऱ तमिलनाडु
जैसे राज्य।
मैं जानता हूँ ये बच्चा कोई बच्चा नहीं
इस देश का मानचित्र है
जो कभी भी अपने असली रूप में आ कर
इस मुल्क की धज्जियाँ उड़ा सकता है!
कवि गुंजन श्रीवास्तव ‘विधान’ का जन्म-24 मार्च (बेगुसराय) निवास- समस्तीपुर (बिहार)
स्नातक- रूसी भाषा एवं साहित्य
(जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय)
स्नातकोत्तर- राजनीति विज्ञान
मेल- Vidhan2403@gmail.com
Ph- 8130730527
कई पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
कुमार मुकुल समकालीन कविता का चर्चित नाम हैं और पेशे से पत्रकार हैं। सम्पर्क: kumarmukul07@gmail.com)