समकालीन जनमत
कविता

मरहूम कवयित्री शहनाज़ इमरानी की कविताएँ उम्मीद का हाथ थामे रास्ता दिखाएंगी

मेहजबीं


मरहूम कवयित्री शहनाज़ इमरानी की कविताएँ अपने वर्तमान समय की राजनीतिक सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों का दस्तावेज़ हैं। समाज का कोई कोना उनकी सूक्ष्म दृष्टि से अनदेखा नहीं है। आम आदमी की आर्थिक सामाजिक स्थिति हो या स्त्रियों की मनोदशा शहनाज़ इमरानी की क़लम ने सबको समेटा है।

उनके समकालीन कवि और उनके दोस्त उनके बारे में कहते हैं। शहनाज़ इमरानी बहुत सुलझी हुई संवेदनशील, अनौपचारिक, मिलनसार शख़्सियत की मालिक थीं। वो बहुत अपनत्व से मिलतीं, बातचीत करतीं। अपने जानने वालों की फिक्र उनको हमेशा रहती थी! वो सबसे संपर्क बनाएं रहती थीं। आजकल की भागदौड़ वाली ज़िन्दगी में वक़्त निकाल कर लोगों से उनका हालचाल पूछना। उनकी अभिव्यक्ति पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना आसान नहीं है। समय की सबके पास कमी है। शहनाज़ इमरानी बग़ैर मिले भी सबके संपर्क में रहने की कोशिश करती थीं। नये लिखने वाले युवाओं को प्रोत्साहित करतीं। वो जब किसी से बात करतीं तो बिल्कुल सहज सरल सादा लहज़े में। कृत्रिमता औपचारिकता उनके व्यवहार और लहज़े में कहीं भी दिखाई नहीं देती थी।

उनके व्यक्तित्व की छाप उनके साहित्यिक जीवन में भी है। वो जनसरोकार की कवयित्री हैं। उनकी कविताओं की भाषा में भी कहीं कृत्रिमता नहीं है। बिल्कुल आम बोलचाल की सरल भाषाशैली में वो कविता लिखती थीं। ऐसा लगता है कविता में भी सामने बैठी बात कर रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए शब्दकोश देखने की ज़रूरत नहीं। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में इस्तेमाल होने वाले शब्द उनकी कविताओं में हैं। वो किसी राजनैतिक सामाजिक क्रांति की बात नहीं करती। परिस्थितियों को जैसे उन्होंने देखा है उसको वैसे ही काग़ज़ पर उतारा है। मौन स्त्री, भूख,ग़रीबी, शोषण, उपेक्षा, राजनैतिक स्थिति, व्यवस्था,असमानता सब उनकी कविताओं में मौज़ूद हैं। वो अर्श के नहीं फर्श से जुड़े आदमी और उसके अभाव की बात करती हैं।

घर इत्मीनान, नींद और ख़्वाब
सबके हिस्से में नहीं आते
जैसे खाने की अच्छी चीज़ें
सब को नसीब नहीं होती
जीवन के अर्थ खोलने के लिए
ख़ुद पर चढ़ाई परतों को
उतारना होता है….

अपने समय की बदलती परिस्थितियों ने उनको सबसे ज़्यादा विचलित किया है! मगर वो कभी नाउम्मीद नहीं रहती थीं। परिस्थितियों में बदलाव आएगा इसकी आशा उन्हें हमेशा रहती थी।

शहनाज़ इमरानी प्रगतिशील सोच की मालिक थीं। प्रगतिशील सोच उनको अपने पिता से विरासत में मिली है। वो भोपाल के मशहूर शायर मक़सूद इमरानी की बेटी थीं। शहनाज़ इमरानी मध्यप्रदेश के ‘जनवादी लेखक संघ’ और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ से जुड़ी रहीं। संगठन द्वारा आयोजित कार्यक्रम हों या जनांदोलन वो सब जगह उपस्थित रहती थीं। आम आदमी उसकी समस्या और कठिन परिस्थितियों से संघर्ष उनकी कविता के केंद्र में है।

शहनाज़ इमरानी की कविता व्यवस्था पर टिप्पणी करती हैं। उनकी कुछ कविताएँ राजनैतिक व्यवस्था की फाइल हैं।’हाशिये के बाहर’ में कवयित्री ने शासकों की वोटबैंक की राजनीति और उनके असंवेदनशील व्यवहार का सजीव चित्रण किया है। जनता से शासकों को कोई सरोकार नहीं। वो सिर्फ़ चुनाव के दौरान हाशिये पर पड़े लोगों के बीच जाते हैं। उसके बाद अंधे बहरे हो जाते हैं।

शिक्षा भावी युवाओं को आदर्श नागरिक बनाती है। आजतक शिक्षा के लिए पर्याप्त पैसा नहीं दिया गया कभी बजट में। सरकारी और ग़ैरसरकारी स्कूलों के बीच में बहुत बड़ी खाई है। ईमानदारी से शिक्षा व्यवस्था न बनाई जाती है न बनाई गई व्यवस्था पर ईमानदारी से काम होता है। छोटे गाँव कस्बे से क्यों बड़ी संख्या में लोग महानगरों में पलायन करते हैं। उनकी कविता ‘सरकारी पाठशाला’ में कस्बे के स्कूलों का यथार्थ वर्णन है।

वर्तमान समय में राजनीतिक परिस्थितियों ने आम आदमी के जीवन में बहुत उथलपुथल मचा दी है। महंगाई से जूझता हुआ आदमी। अपने भविष्य के बारे में चिंतित नहीं है। उसको अपने भगवान और ख़ुदा की सुरक्षा की ग़ौरो-फिक्र है। शहनाज़ इमरानी की कविता ‘ख़ुदाओं की इस जंग में’ भी ये स्थिति मौजूद है।

इस भयावह स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है ? चुनाव के मुद्दे जनसरोकार से जुड़े हुए नहीं हैं। मन्दिर मस्जिद धर्म चुनाव के केंद्र में है। पत्रकारिता के केंद्र में भी यही है। चारों तरफ जनांदोलन की भयानक स्थिति हैं। डर भय का वातावरण है। शहनाज़ इमरानी अपनी ज़िंदगी के आख़िरी समय में बीमारियों से जूझते हुए भी उन्हें अपने शहर के बदलते परिवेश की चिंता है। भयानक परिस्थितियों का ख़ौफ़ उन्हें अस्पताल के बिस्तर पर भी विचलित करता है।

अख़बार भरे हुये हैं हादसात की ख़बरों से। कब कौन आदमी ब्रेकिंग न्यूज बन जाए, अख़बार की हैडलाइन, कह नहीं सकते। शहर के शहर जल रहे हैं साम्प्रदायिक घटनाओं की आगजनी से। नेताओं की हेटस्पीच से। जो शहर गंगा जमुनी तहजीब के लिए जाने जाते थे उनकी पहचान अब राजनैतिक सामाजिक घटनाएं बन रही हैं। ‘हादसे के बाद’ कविता में कवयित्री ने अपने शहर और देश की इन्हीं भयावह परिस्थितियों को लिखा है।

कवयित्री शहनाज़ इमरानी को आशा थी कि परिस्थितियों में बदलाव ज़रूर आएगा। वो वर्तमान समय की साम्प्रदायिक और राजनैतिक स्थितियों से बहुत चिंतित थी। कोरोनाकाल की त्रासदी ने भी उनको बहुत विचलित किया। महामारी के दौरान वो अपने परिचितों के हालचाल पूछती। परिस्थितियों की भयावह स्थिति उनकी बातचीत का विषय रहती। अपने समाज और शहर की फिक्र करती हुई एक संवेदनशील लेखिका अचानक हम सबके बीच से चली गयी। छोड़ गई अपने पीछे हज़ारों सवाल, हज़ारों निशाना और मौन !

19 जून 2022 को संवेदनशील जनसरोकार की कवयित्री शहनाज़ इमरानी हम सब को छोड़कर संसार से विदा हो गई। अल्पायु शहनाज़ इमरानी जी का बस एक ही कविता संग्रह प्रकाशित हो सका। ‘दृश्यों के बाहर’ इस कविता संग्रह की भूमिका कवि राजेश जोशी जी ने लिखी थी। शहनाज़ इमरानी जी की अनगिनत कविताएँ अभी किताब की शक़्ल में प्रकाशित नहीं हो सकी। पहली कवयित्री कोरोनाकाल में कोरोना महामारी से जूझी। फिर केंसर की बीमारी से। अपनी रचनाओं के माध्यम से वो हमेशा हमारी स्मृति में जीवित रहेंगी। आशा है उनकी अप्रकाशित रचनाएँ उनके मित्र जल्दी ही प्रकाशित कराएँ।

शाम डूब गई
झील की उदास लहरो में
शाख़ से सब पत्तियाँ झड़ गईं
नाव गुजर गई झील पर से
बिना कोई निशान छोड़े
बादलों से घिरे हैं पहाड़
एक परिंदे की उड़ान बस यूँ ही
बे जुस्तजू !

शहनाज़ इमरानी जी के व्यक्तित्व और वैचारिक दृष्टि को उनकी कविताओं से जाना जा सकता है। इसके लिए ज़रूरी है कि उनकी कविताओं को पढ़ा जाए। उनकी कविताओं के द्वारा न सिर्फ़ उनको जानना नहीं है, बल्कि उनकी कविताओं के द्वारा उनके समय की सामाजिक राजनैतिक आर्थिक स्थतियों को भी देखा जा सकता है।प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ।

 

शहनाज़ इमरानी की कविताएँ

1. इस कमरे की अकेली खिड़की

तुमसे मिल कर लगा
तुम तो वही हो ना
मैं अपने ख़यालों में अक्सर
तुम से मिलती रही हूँ

एक ख़याल की तरह तुम हो भी
और नहीं भी

तुमसे बातें यूँ की जैसे
सदियों से जानती हूँ तुम्हे
बिछड़ना न हो जैसे कभी तुमसे

शायद तुम्हें पता न हो
इस कमरे की अकेली
खिड़की तुम हो
मेरी हर साँस लेती है
हवाएँ तुमसे !

 

2. हादसे के बाद

कितने लोग मेरी तरह
सुबह उठ कर इस डर में
अख़बार पढ़ते या समाचार देखते होंगे
कोई बम विस्फोट तो नहीं हुआ
आतंकवादियों ने किसी जगह
हमला तो नहीं कर दिया
हर हादसे के बाद
बन जाती कुछ अदृश्य दीवारें
काले बादलों की तरह फ़ैलती ख़बरें
राष्ट्र्वाद के नाम पर लहराते झंडे
दूसरे देश भेजने के बुलंद होते नारे
गोली मारने की अपील
अनगिनत आवाज़ें हैं, मगर सुनाई बहुत कम देतीं
और समझ उससे भी कम आता
गहरे अँधेरे में दूर तक देखना मुश्किल हुआ
अब इंसानों के ख़ून से क़ौमे सींची जाती
कब किसकी जबान फिसल जाये
कोई नहीं जानता
संकरी सी गली जो खत्म होती अंधे मोड़ पर
घुटन सांस में ही नहीं पूरे वजूद में
दबे पाँव आता ख़ौफ़
अगर किसी दिन हिसाब देना हो मुझे
उन नाकर्दा गुनाहों का
जो मज़हब के नाम पर किसी और से सर्ज़द हुए

 

3. मेरा ख़ौफ़

एक ही सिम्त में चलते दिन रात
उदासी एक गहरी नदी
जिसमे चेहरा भी उचाट नज़र आता
सुबह से शाम और शाम से रात तक
नपे तुले क़दमों की हरकत
बदलती दुनिया की हर चीज़ के बदलते मायने
शाम ढलते हुए काली रात में बदली
चाँद के लम्बे हाथ
दरख़्तों के सर्द कंधो को छूते हुए
बादलों के समन्दर में डूबे
असमंजस की सीढ़ियों पर बैठे हुए
सन्नाटे की आवाज़ें नींद और जागने के बीच
नब्ज़ टटोलने पर साँसे किसी आशंका में उखड़ती
आती हुई बमुश्किल चंद सांसे
जिसमे उलझी एक पूरी दुनिया
उम्मीदों की खुली खिड़कियों से
खुलता आसमान मगर कुछ वक़्त के लिए
एक धूसर दुःख चुप्पी ओढ़ लेता
एक अजीब ख़ौफ़ सर उठाता
बावजूद इसके के मौत एक सामान्य सी बात है अब।

 

4. ख़ुदाओं की इस जंग में
रात ने देखी हैं हजारों निर्दोष लोगों की मौतें
यातना केंद्र की दीवारों ने सुनी हैं चीखें
दिन ने देखें हैं वो पदक और पदोन्नति
मिलते हैं जो मोैत के सौदागरों को
शब्दों और तकरीरों से फ़ैल रही नफ़रतें में
इंसान ने क़त्ल किया और
इंसान ही क़त्ल हुआ

इंसान से जानवर होते जाने के वक़्त में
राजनीति और धर्म के बदल हैं मायने
किये जा रहे हैं छल
एक दूसरे को निगल जाने के षड्यंत्र
उगला जा रहा है ज़हर
निकाले जाने के अपने ही देश से
बुलन्द हो रहे हैं नारे

खाने के लिए साग-सब्जी ठीक है या मांस
जबकी मेरे देश में
रोज़ नहीं जलता चूल्हा हर घर मे
कोई सूखी रोटी खाता है
कोई भूखा ही सो जाता है
कहीं इंसान को इंसान खाता है

वो जो लिखा है एक के धर्म में
वह दूसरे के धर्म से ज्यादा
है पवित्र, महान और सच्चा
पढ़ा ही नहीं कभी
एक दूसरे के धर्म को
बताते रहे अपने धर्मग्रंथों को
दूसरे के धर्मग्रंथों से महान

शर्मिनाद है विरासत
बोला जायगा कैसे सच
सिली हुई ज़बानों के साथ
आज़ादी के इस नये इतिहास में
लहू से लहू का हिसाब कौन रखेगा।

 

5. सरकारी पाठशाला

गाँव में सरकारी पाठशाला खुलने से
गाँव वाले बहुत खुश थे
पाठशाला में बच्चों का नाम दर्ज कराने का
कोई पैसा नहीं लगेगा
किताबें,यूनिफॉर्म, दोपहर का भोजन
सब कुछ मुफ़्त मिलेगा

तीन कमरों की पाठशाला
दो कमरे और एक शौचालय
प्रधान अध्यापिका,अध्यापक और चपरासिन

सरपंच जी ने चौखट पर नारियल फोड़ा
दो अदद लोगों ने मिलकर
राष्ट्रीय गीत को तोड़ा-मरोड़ा

सोमवार से शुरू हुई पाठशाला
पहले हुई सरस्वती वन्दना
भूल गए राष्ट्रीय गान से शुरू करना
अध्यापक जब कक्षा में आये
रजिस्टर में नाम लिखने से पहले
बदबू से बौखलाये
बच्चों से कहा ज़रा दूर जाकर बैठो
मैं जिसको जो काम दे रहा हूँ
उसे ध्यान से है करना
नहीं तो उस दिन भोजन नहीं है करना

रजिस्टर में नाम लिखा और काम बताया
रेखा, सीमा, नज़्मा तुम बड़ी हो
तुम्हे भोजन बनाने में
मदद करना है चम्पा (चपरासिन) की
झाड़ू देना है और बर्तन साफ़ करना है

अहमद, बिरजू गाँव से दूध लाना
कमली, गंगू
पीछे शौचालय है
मल उठाना और दूर खेत में डाल कर आना

तुम बच्चों इधर देखो छोटे हो पर
कल से पूरे कपड़े पहन कर आना

सब पढ़ो छोटे “अ” से अनार बड़े “आ” से आम
भोजन बना और पहले सरपंच जी के घर गया
फिर शिक्षकों का पेट बढ़ाया
जो बचा बच्चों के काम आया

दिन गुजरने लगे
रेखा, नज्मा, का ब्याह हो गया
अब दूसरी लड़कियाँ झाड़ू लगाती हैं
अहमद, बिरजू को अब भी
अनार और आम की जुस्तजू है
कमली, गंगू मल लेकर जाते हैं
खेत से लौट कर भोजन खाते
कभी भूखे ही घर लौट जाते

छोटे बच्चे अब भी नंगे हैं
छुपकर अक्सर बर्तन चाट लेते हैं
कोई देखे तो भाग लेते हैं
चम्पा प्रधान अध्यापिका के यहाँ बेगार करती है
कुछ इस तरह से गाँव की पाठशाला चलती है।

 

6. हाशिए के बाहर

वो जाते है
नाक पर रूमाल रखकर
मुसल्मानों के मोहल्ले में
जब वोट बटोरना होता है
खुली बदबूदार नालियाँ गड्डों में सड़ता पानी
कचरे और गन्दगी का ढ़ेर
मटमैले अँधेरे घर बकरियाँ,मुर्गियाँ, कुत्ते, बिल्लीयें
काटे हुए मवेशियों कि दुर्गन्ध
मुरझाए चहरे पतवारविहीन साँसे
पंखविहीन सपने
पेट की आग कुरेदती है
तो भूख चाहती है
झपटना चील कि तरह
और झपटने में जब गिर गए हों
चारो खाने चित्त
कितनी शर्म आयी होगी उन्हें
अब तकलीफें झेलने कि ताब है
आसना और मुश्किल दिन एकसे हैं
अब वे एक दूसरी दुनियाँ में हैं
खिंच गयी एक लकीर हाशिये की
जिस तरह भूल जाते हैं हम अमूमन
कुछ-न-कुछ किसी बहाने
भूलती गयीं सरकारें भी
बेशक सरकार बनाने में
यह अहम भूमिका निभाते आये है
आज भी याद आ जाते है चुनाव के समय
हाशिए से बारह के लोग।

 

7. त्रासदी

सफर की शुरूआत में
पैरों ने महसूस किया
ज़मीन का सक़्त हो जाना
विपरीत दिशा में हवा का चलना
उस एक पुरानी हवेली के दालान में
कितनी झूठी कहानियां सुनी थीं मैंने
कितने सच्चे अन्देशों को झूठा जाना था
बहुत से सवाल ज़हन को झंझोड़ते रहे
सीखा नाइंसाफी को नाइंसाफी
और ज़ुल्म को ज़ुल्म कहना
पूछती हूँ सवाल मेरे पिता भी पूछे थे
ज़िन्दगी जीना आर्ट नहीं
पतली रस्सी पर चलता नट का खेल हुआ
कोई भी आदमी कभी भी
अलग तरह से उजागर हो कर चौका देता
नहीं है आदमी के आकलन का कोई फार्मूला
हर कोई आइसबर्ग की तरह
दिखाता सिर्फ थोड़ा सा ही हिस्सा
एक मारक चाबुक की तरह
बेआवाज़ घटित होता और छोड़ जाता निशान
व्यक्ति को जानने का दावा खोखला हो चुका अब
खंजर पर क़ातिल के हाथ के निशा नहीं मिलते
धर्म के दस्ताने पहने हुए कुछ भी साबित नहीं होता
बहुत सारे विभ्रमों में से भी फूट पड़ता है सन्देह

 

8. बी पॉज़िटिव

पहचानी हुई सी जगह पर मैं अकेली
मुझे पहचानने वाला कोई नहीं
पहचान तो ख़ुदी से होती है, फिर अँधेरा हो या रौशनी
सामने वाले बिस्तर पर रोती स्त्री के
आँसुओं का गीलापन, ख़ुद की आँखों में महसूस होता
खिड़की से बाहर नज़र जाती
गली के नुक्क्ड़ पर लगा उदास लैम्प पोस्ट
शायद अब रौशनी नहीं देता
लोहे के जंगले पर फुदकती चिड़िया
गमलों के मुरझाते फूल
बैचेनी हर चीज़ का रंग बदल देती
कहीं बादलों के बीच “मैं” और कोई आवाज़ नहीं
एक निर्वात में खो जाती
किताबों के नाम, कहानियों के किरदार
हादसों का बयान, एथनाग्राफिक डिटेल्स
किसी मायावी घटना के घटने की उम्मीद
मुझे छू कर निकल जाती

बिस्तर पर वापस
घुटने पेट की तरफ़ मोड़ते हुए
महसूस होता, ख़ालीपन कुछ कम हुआ
“बी पॉज़िटिव” एक बॉटल ख़ून दौड़ने लगता नसों में।

 

9. क्या होगा

कुछ होने के बारे में
ढेर सारे सवाल सामने खड़े
ग़लत जगह पर रखी सही चीज़ें
ग़लत उपयोग की आदी हो गयीं
सुबह आईने में देखा
रातों की स्याही आँखों के नीचे बैठी थी
मुँह छुपाने पर अपनी ही
हथेलियों के अंदर राहत नहीं मिलती
मैं भी तो इसी मिट्टी की हूँ
पैबस्त है गहरे लफ़्ज़ों में नाम इसका
पुरातत्व के शिलालेख की तरह
मगर कागज़ पर लिखे चंद शब्द सुबूत हुए
हर चेहरे पर मौजूद हैं उनके शुरूआत की जड़ें
आदमी की पूरी कहानी कहती हुई
जड़ों से ही होता दरख़्त हरा
जगह नहीं बदलते दरख़्त
ग़ायब हो जाती उनकी प्रजातियाँ
पहचान विस्मृत हुई और इतिहास भी
साथ छूट सकता है कहीं भी
हवा की तरह
पिता के हाथ की तरह
रात के काले वर्कों पर सर्द सन्नाटा
ठिठुरती हवा रूक रूक कर चलती
यह न्याय और अदालत के सोने का वक़्त
देती हूँ ख़ुद को तसल्ली
बांधती हूँ नए सिरे से मुट्ठियां
अपने ही चेहरे में खुद को ढूंढ़ती हूँ
ख़ुद के होने में ख़ुद ही को
मैं किसको पुरसा देती
मुझे ताज़ियत तो खुद से करना थी।

_________________________

कवयित्री शहनाज़ इमरानी, जन्म: भोपाल में
शिक्षा: पुरातत्व विज्ञान (अर्कोलॉजी ) में स्नातकोत्तर
काव्य संग्रह: दृश्य के बाहर’
व्यवसाय: अध्यापन, पैदाइश और रिहाइश भोपाल
मशहूर शायर मक़सूद इमरानी की बेटी

 

 

टिप्पणीकार मेहजबीं, जन्म 16/12/1981. पैदाइश, परवरिश और रिहाइश दिल्ली में पिता सहारनपुर उत्तरप्रदेश से हैं माँ बिहार के दरभंगा से।

ग्रेजुएट हिन्दी ऑनर्स और
पोस्ट ग्रेजुएट दिल्ली विश्वविद्यालय से,
पत्रकारिता की पढ़ाई जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय

व्यवसाय: सेल्फ टीचिंग हिन्दी उर्दू अर्बी इंग्लिश लेंग्वेज

स्वतंत्र लेखन : नज्म, कविता, संस्मरण, संस्मरणात्मक कहानी,फिल्म समीक्षा, लेख

सम्पर्क: 88020 80227

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