समकालीन जनमत
जनमत

एक पहिए की कहानी

रिया


(ध्यान से पढ़ेंगे तो आप चकित होंगे और इस जगह के बारे में जानना चाहेंगे जहां के बच्चों ने इतनी सुंदर भाषा अर्जित की है। पहेली बुझाना बंद करता हूँ, यह एक रपट है बारहवीं की होनहार छात्रा रिया की जो उसने अपने स्कूल में आये दो मेहमानों के साथ हुए सेशंस के बाद लिखी । स्कूल है उत्तराखंड के उधमसिंह नगर जिले के कस्बे में स्थित ‘नानकमत्ता पब्लिक स्कूल’।-सं)

    कोई छोर नहीं है मेरा,
      धरती के मानिंद हूँ मैं।
      चलते रहना आदत है,
      ठहरना मेरी फ़ितरत नहीं।
            अनंत बिंदुओं से बना हूँ,
            कोई नहीं है केंद्र में मेरे।
            हर बिंदु की कहानी है
            हर कहानी में कई बिंदु हैं।
कुछ ऐसी ही कहानी हमारी भी है। हमारी यानी हम सबकी। NPS के सभी लर्नर्स की। हर दिन एक नई उम्मीद जगाता है कि कुछ बेहतर करने के हमारे तसव्वुर की ओर बढ़ते कदम संभालने कई और कदम दस्तक दे चुके हैं। वे कदम उस सहारे के माफिक़ हैं जो एक डंडे की मदद से पहिए को पूरे गाँव में घुमा लाता है। ठीक उस बच्चे की तरह जो हाथ में डंडा लिए पहिए को दिखा रहा होता है रास्ता! ये कदम हमें सिखा रहे हैं। बढ़ते चलना। सीखते फिरना। और, न रुकना।
हमारा पहिया सभी लर्नर्स, टीचर्स, अभिभावक और मैंटर्स से मिलके बना है। कोई केंद्र में नहीं है। सभी एक दूसरे के लिए चलते हैं, अपने वजूद को कायम रखते हुए। हमारे पहिए में 4 कदम और जुड़ गए। चेन रिएक्शन जैसा चल रहा है! जिस क़दर चेन रिएक्शन में रिएक्शन लगातार चलती रहती हैं ठीक वैसे ही हमारे पहिए के कदम भी चल रहे हैं।
अपने भीतर हज़ारों कहानियाँ लिए आए, प्रदीप दास और संजय सिंह जी। हम उन्हें उतना ही जानते थे जितना एक मछली ज़मीन पर चलना जानती है। महज़ इतना मालूम था कि प्रदीप जी थियेटर और संजय जी पत्रकारिता से ताल्लुक रखते हैं। दोनों शख़्स हमारे सामने थे। किसी के भी माथे पर सफ़र तय करने के बाद थकान भरी शिकन न थी। हमें और हमारे काम को जानने की उत्सुकता दोनों के मुख पर देखते ही बनती थी।
बातचीत शुरू हुई। अपने नाम के सिवाय उन्होंने अपने परिचय में कुछ और बताना ज़रूरी नहीं समझा। प्रदीप जी और संजय जी हमारे काम – दीवार पत्रिका, फ़िल्म, सामुदायिक पुस्तकालय – से अनजाने नहीं थे। स्कूली स्तर पर ये सब काम करने के लिए दोनों ने हमें सराहा। वे हमें सुनना चाहते थे। संजय जी ने कुछ सवाल पूछे। “आप लोग इस स्कूल से क्यों जुड़ा रहना चाहते हो? क्या कभी घर में गणित और विज्ञान पढ़ने पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है? आपके स्कूल की सुंदर न दिखने वाली बिल्डिंग को लेकर लोगों की क्या प्रतिक्रिया होती है और आप उसका जवाब कैसे देते हो?”
ये सभी सवाल मुझे ख्यालों की दुनिया में खींच ले गए। शायद इनसे दिली जुड़ाव है। 8 साल हो चले हैं इस स्कूल में आए। हर दिन नई वजह देता है इससे जुड़े रहने की। इन सालों में अपने स्कूल की बेहतरी की चश्मदीद रही हूँ। हमने अपने महदूद दायरे तोड़कर समग्र शिक्षा को गले लगाया। विषयों के बीच की खाई में पुल बनाने की कोशिश की। यही बात अभिभावकों को भी समझा पाना इतना आसान नहीं था। उनकी तरफ़ से गणित विज्ञान पर ज़्यादा ध्यान देने का दबाव तो था लेकिन हमें अपनी परवाज़ पर भरोसा था। कुछ अलग करने के अपने सपने दबाव से बड़े लगने लगे थे।
बात रही स्कूल की बिल्डिंग की तो मैं ये ज़ाहिर कर दूँ कि स्कूल बिल्डिंग का नाम नहीं, लर्नर्स का समूह है। जहाँ शिक्षकों, शिक्षार्थियों और अभिभावकों के बीच आम सहमति हो वहाँ स्कूल होता है। एक तजवीज़ यह भी है कि शिक्षा लेने का एकमात्र ज़रिया स्कूलों को ही न समझा जाए। बच्चे खुद ही खेल-खेल में बहुत कुछ सीख लेते हैं। अमेरिकी मनोविज्ञान शोधकर्ता और विद्वान पीटर ओटिस ग्रे के शब्दों में – “शुरूआत में, सैकड़ों हज़ारों वर्षों तक, बच्चे स्व-निर्देशित खेलों तथा खोज विधियों से ख़ुद को प्रशिक्षित करते रहे।” मुख्तसर तौर पर कहूँ तो स्कूल ढाँचा बनाने के लिए नहीं ढाँचे तोड़ने के लिए होने चाहिए।
बात आगे बढ़ी। प्रदीप जी साथियों की लिखी कविताएँ सुनने को उत्सुक थे। स्नेहा, वंश, बसंत और दीपिका ने अपनी कविताएं साझा की। बतौर थियेटर आर्टिस्ट प्रदीप जी ने इन साथियों से अपनी कविताएँ भाव-भंगिमाओं के साथ बोलने को कहा। उन्होंने हमें भावों के साथ ख़ुद को अभिव्यक्त करना सिखाया। अब समय था रूम में मौजूद हर किसी को सुनने का। समय की कमी के चलते सभी को सुनना संभव न था। इसलिए प्रदीप जी ने सभी को अगले दिन लघु नाटक या कविता पाठ करने का काम दिया। वे इसे ‘काम’ नहीं “खेल” कहते हैं।
धरती अपनी धुरी पर एक और चक्कर पूरा कर चुकी थी। सूरज फ़लक में ऊपर चढ़ने लगा। उस रोज़ स्कूल में काफ़ी हलचल थी। सभी तैयारी में लगे थे। प्रदीप जी और संजय जी के आते ही हम सभी हमारे कॉमन रूम “कबीर संवाद” में बैठ गए। साथी रोहित ने सभी को पिछले दिन की झलकियाँ दी। इसी के साथ हम आगे बढ़े। साथियों ने पर्यावरण संरक्षण, बढ़ते मोबाइल फ़ोन के चलन के बीच किताबों की मनोदशा, बालिका भ्रूण हत्या आदि विषयों पर लघु नाटक पेश किए। मंगलेश डबराल, रमाशंकर यादव, अवतार सिंह ‘पाश’ आदि की कविताओं का पाठ भी साथियों ने किया। स्वरचित कविता-कहानियों का भी मंचन हुआ।
दोनों मैंटर्स ने सभी साथियों की पहली कोशिश की तारीफ़ की। हर पेशकश में प्रदीप जी ने बेहतर करने के सुझाव दिए। उन्होंने सभी से स्वाभाविक रूप से अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए कहा। एक बात जो पूरे सत्र की ताकत रही वो थी हरेक साथी की भागीदारी। सभी के सामने बोलने में हिचक रखने वाले साथी भी सामने आए। मैं सोच रही थी अगर ऐसे ही क्लासरूम में खेल के बहाने साथियों को गतिविधियों में शामिल किया जाए तो वे भागीदारी क्यों नहीं करेंगे? खैर, सभी साथी अपने नाटक और कविताएँ पेश कर चुके थे। आख़िर में सभी ने उत्तराखण्ड के लोकगीत “बेड़ु पाको” गाकर सत्र का समापन किया।
हमारा पहिया एक और दिन आगे बढ़ चुका था। दो नए लोगों को अपने साथ लिए। भले ही उन दोनों ने अपने बारे में हमें बहुत कुछ नहीं बताया, लेकिन उनकी बातों और समझ से उनका अनुभव साफ़ झलक रहा था। प्रदीप जी थियेटर से जुड़े होने के साथ-साथ ‘इंडिया टुडे’ की रिसर्च विंग का भी हिस्सा रहे हैं। वहीं संजय जी दूरदर्शन न्यूज़, दिल्ली के असिस्टैंट डायरैक्टर हैं। इस तरह के लोगों से मिलना हमारे संस्थान के लिए हमेशा ही सीखने वाला रहता है। आप लोग हमें न सिर्फ़ कुछ नया सिखाते हो, बल्कि अपने काम को अलग ढंग से देखने का नज़रिया भी देते हो।
(रिया नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में 12वीं की छात्रा हैं।)

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