समकालीन जनमत
कविता

प्रतिभा चौहान की कविताएँ प्रकृति और सृष्टि की पक्षधरता का विमर्श हैं

शिरोमणि महतो


सुपरिचित कवयित्री प्रतिभा चौहान की कविताएँ हिन्दी के वैविध्यपूर्ण साहित्यिक संसार में एक अलग स्थान रखती हैं। यूँ तो अनेक विषयों पर कविताएँ लिखी जा रही हैं जिनकी तादात असंख्य है परन्तु प्रकृति और सृष्टि की पक्षधरता में विमर्श के लिए आग्रह करती हुई ये कविताएँ लयात्मकता और गहरी अनुभूतियों को समेटे हुए हैं। प्राकृतिक सौंदर्य व ताजगी से भरी कविताएँ जो कि किसी भी जुल्मों और सपाटपन के संक्रमण से बचती हुई एक नये विमर्श को जन्म देती हैं। भाषाई नवीनता और बिम्बों के माध्यम से प्रतिभा चौहान की कविताएँ निश्चित रूप से एक ऐसा सुन्दर संसार बुनती हैं जो हमें प्रकृति की करीब ले जाकर उसका साक्षात्कार कराता है। निःसंदेह ये कविताएँ प्रकृति को उसके मौलिक रूप में पढते हुई कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं। इन कविताओं में प्रतिभा चौहान ने न केवल पाठक समाज को विमर्श हेतु बाध्य करने की कोशिश की है बल्कि भाषाई सघनता,नवीनता,अनुभूति की अगाध गहराई इत्यादि गुणों की परिपक्वता के माध्यम से कवित्व सौंदर्य और लयात्मकता का पूरा-पूरा ख्याल रखा है। कविताएँ हृदयों के भीतर झाँकेगी,झकझोरेंगी और कुछ सोचने पर विवश करेंगी। विशेष उद्देश्य से लिखी गयीं ये कविताएँ प्रकृतिक जीवन को सहज रूप में अनूठा स्वर प्रदान कर रही हैं और यही इनकी उपलब्धि है। नये सांचे, प्रतिमान,कथ्य, अनुभूति,बिम् ब-रचना और संवेदना से भरी हुई ये कविताएँ निःसंदेह पाठकों का ध्यान आकृष्ट कर मस्तिष्क पर दस्तक देंगी-‘जंगली होने से बेहतर है जंगल के हो जाना!’

 

प्रतिभा चौहान की कविताएँ

1. वर्चस्व

अँधेरा होने को चला है
भीड़ भी नहीं रोक पायी
अस्त होते हुए सूर्य को…

न वे अब किसान हैं
न मज़दूर हैं
अब वे सिर्फ़ मजबूर हैं
स्वप्नों और सवालों से दूर हैं

और वे
जो कहते हैं
उन्होंने बनाए हैं पेड़
आसमानों को दिया आसमानी रंग
चाँद और सूरज उन्हीं की मेहरबानी से उगते और अस्त होते हैं

अब तो
स्वर्ग में भी उन्हीं के बनाए नियमों से विनियमित
ऐसा वे कहते हैं

यही वजह है
कि अब मैं इतिहास, जड़ों और आग में दिलचस्पी छोड़ रहा हूँ ।

 

2. किरदार

मेरे किरदार को देखोगे
तो मैं रागों में मिलूंगा …

इस तिलिस्म की धुन को
धड़कते हुए दिल में सुनना
असंख्य कथाओं के मसविदे कैद हैं तारीख़ों में

जब-जब भी पढ़ता हूँ किसी तूफान की इच्छा शक्ति
और आंधियों का व्याकरण
किसी मिट्टी के दिये सा जल उठता हूँ

मुझे न समझो सिर्फ वृक्ष
मैं तूफानों से लड़ सकता हूँ

मुझे मेरे विस्तार से न समझना

मैं जब एक दरिया था
तब भी छुपाये समुंदर था।

 

3. डरावना परिवर्तन

एक डरावना परिवर्तन
हँसता है मुझपर
वह हरे रंग को धीरे-धीरे काला करता है
और नमी को शुष्कता में बड़ी शिष्टता से बदल देता
हाथों में थमा देता है धीरे से अशांत झुनझुने
मेरे बच्चों को
जिनकी कहानियों की परियाँ डर से दुबकी पड़ीं हैं
बारूद से बनाना सिखाता है खिलौने
इस तरह
वह हमारी सभ्यता और संस्कारों की नसों में
भर देता है बाजार और व्यापार
बड़ी अजीब बात !
कि हम ऑक्सीजन की तरह इसे अपनी साँसों में पी लेते हैं
और हमारी चेतना को
तनिक भी भनक नहीं लगती…

 

4. युद्ध पर कविताएँ

युद्ध(1)
वे सौंप देते हैं
अनजान हाथों में
अपनी अकेली दुधमुंही बच्ची
उसकी लंबी उम्र की कामना करते हुए
तनिक भी नहीं डरते अंजान हाथों से
उस वक्त
शायद उसके अच्छे जीवन की कामना से
कहीं ज्यादा होती है
सिर्फ जीवित बने रहने की कामना

युद्ध (2)
पतझड़ के बाद
पेड़ की उम्मीदें खत्म नहीं होतीं
पर
युद्ध
खत्म कर देता है
उम्मीदों की भी उम्मीद ।

युद्ध (3)
युद्ध में
अपने दोनों हाथ खोने वाले बच्चे को
अब भी फिक्र है
डूबती हुई चीटी को बचाने की
क्योंकि संवेदना रक्त में बहती है
संस्कार की तरह
युद्ध से अप्रभावित, परे व शुद्ध

युद्ध (4)
एक आम इंसान
तुम्हारे बड़े बड़े नापाक युद्धों को
सिरे से खारिज करता है
वही आम इंसान
जिसने राजाओं को राजा बनाया
शूरमाओं को सौंप दिया देश के भविष्य का नक्शा
हुकूमत की दी आजादी
मानता रहा नियम विनियम
राजा रजवाड़े का फरमान
कानूनों की पगडंडियों पर
सबसे ज्यादा दस्तक देने वाला
आम आदमी
नहीं चाहता युद्ध के नाम पर संवेदनाओं का व्यापार

युद्ध (5)
युद्धों के बीच
बचता है सिर्फ सन्नाटा
और अंतहीन कारुणिक रुदन
संवेदनहीनता की हद तक
कोई दीवार ढहती जाती है
प्रेम और विश्वास की देहरी पर
उपजता है चीत्कार
उगता है
भयावह सन्नाटों का जंगल
वे जो
मिलकर लड़ते हैं
मिलाते हैं हाथ
मिलते हैं गले
बचे रह जाते हैं
शेष मारे जाते हैं

युद्ध (6)
ये सीमाओं के दावेदार
करते हैं बड़े-बड़े वायदे
और जनता की सुरक्षा की लेते हैं शपथ
करते हैं वार्ताएं
बड़े-बड़े संवाद
और इसी तरह
कभी-कभी हो जाते हैं हिंसक
जिसका असर युगों तक
बहता रहता है जनता की धमनियों में

युद्ध (7)
क्या समय को
मात देना चाहते हो युद्ध से
पा लेना चाहते हो सब कुछ
समय से पूर्व ही
सुनो
समय से पूर्व सब कुछ पाने की चाहत में
पाने जैसा कुछ नहीं मिलता
बल्कि बढ़ती जाती हैं
अधिक खोने की संभावना
और अंततः
तुम खो देते हो वह सब कुछ
जो भी है तुम्हारे पास।

 

5. सर्वश्रेष्ठ

उन्होंने रास्ते में आयी हर एक चीज़ को
अपने हिसाब से बदलना चाहा
और बदल डाला
वे और आगे बढ़े
उन्होंने अपने समूहों को सर्वश्रेष्ठ कहा
ख़ुद को किया ईश्वर घोषित
नियम विनियम बनाए
जिन्हें तोड़ने की चाबी रखी अपने पास
वे और आगे बढ़े
उन्होंने नदियों को अपने हिसाब से मोड़ा
पर्वतों के सिर उठाये रखने को ग़ुस्ताख़ी माना
और तोड़ दिए कई सिर और शाखाएँ
वे और आगे बढ़े
उन्होंने प्रकृति को दुत्कारा और ललकारा
और जंगलों को कर दिया आग के हवाले
पहाड़ को खाई और खाई को पहाड़ बनाने लगे
वे और आगे बढ़े
वे श्वेत को काला और काले को श्वेत करना
कला का हिस्सा मानने लगे
सुना है
अब वे दिमाग़ बनाने वाले हैं
ऐसे दिमाग़ जो उनके इशारों पर चलें
ऐसे दिमाग़ जो समय से पहले बताएँ किसी आने वाली मुसीबत के बारे में
और जो दूसरे दिमाग़ों को पढ़ने की कला जानते हों

 

6. जंगल पर कविताएँ

जंगल-(1)
जो पढ़े लिखे विकसित थे
पढ़ रहे थे
बर्बरता और अपराधों के कानून की किताबें
कर रहे थे
हथियारों और बारूदों की जांच
तलवारों और चाकुओं को तेज
जो हवाईजहाज और रेलें रखते थे
खत्म हो रहा था वक़्त उनके लिए
वे भाग रहे थे
किसी अनजान रास्ते की ओर
जो जंगल से ठीक उलटी तरफ जाता है
उन्हें वक़्त काट रहा था
बड़ी तेजी से
वे घायलों के माफिक पड़े थे
उपेक्षित
अपनी ही बनाई हुई कटीली सड़कों पर
जबकि
जंगली और अनपढ़ लोग
बिखेर रहे थे प्रेम
एक विकसित दुनिया से दूर
एक छोटी सी दुनिया में
बाँट रहे थे आपसी सुख और दुख
वे समय को काटते नहीं थे
बांटते थे।

जंगल-(2 )
अभी अभी आईं हैं वे
जंगल के सात चक्कर लगाकर
अब वे
अपने बच्चों को देंगी
आकाश में उड़ने के कुछ गहरे सबक
उनके भीगे हुए पर
अभी अभी हुई बारिश का खुशनुमा संदेश दे रहे हैं

वे नहीं डरतीं
किसी आंधी या तूफान से
हर दिन को गुजारती हैं
अपनी इच्छाओं से बुने ख्वाबों की पोटली के भीतर

लंबी कोमल टहनियों पर झूलती हुई
लेती हैं जीवन का आनंद
वे रहती हैं
अपनी जिम्मेदारियों से सराबोर
बिना किसी तनाव के
मनुष्य के जीवन को देती हैं एक संगीत की बानगी

तमाम ऋतुओं में
मुस्कुराती
चहचहाती
संसार की अमूल्य धरोहर हैं
क्या आप सोचते हैं कभी उनके बारे में
जीवन कैसा होगा
एक चिड़िया के बिना
कौन गाएगा बरसात में संगीत
कौन करेगा कलरव
कौन सिखाएगा आकाश की उड़ान
कौन उगाएगा जंगल
बीहड़ और दुर्गम इलाकों में
कौन बुलाएगा बादलों को अपनी आवाज से
कौन बिखेरेगा
जीवन के कण कण में संगीत
क्या मनुष्य रह पाएगा
चिड़िया की आवाज सुने बिना…

जंगल-(3)
प्यास की गठरी लिए
हम चल रहे थे मरुस्थलों की ओर
आँखों में फिर
छलके थे खोई हुई नदियों के निशान
जो रेत में तब्दील हुए समुन्दर थे
ठिठके थे
किसी बादल की आस में
क्या बादलों ने कभी चाहा
लहूलुहान होना
और दम तोड़ देना बीच राह में ही
बह जाना
पृथ्वी के भीतर ही भीतर
किसी तरह शांत होकर
इस तपती हुई रेत में
घुल गया असहनीय दर्द
सूखे बारिश के वायदों ने
अपना दम तोड़ दिया है किसी छोर पर

गौर से सुनो
कहीं से आ रही है टूटते हुए दरख्त की आवाज।

जंगल-(4) वे स्वतंत्र हैं स्वच्छंद नहीं

जंगल उनके हैं
वे घने जंगलों के हैं
इतने घने कि
उनमें पगडंडियाँ नहीं जातीं
परंतु ढलान तक जाते हैं नदियों के रास्ते …
बसती है एक दुनिया
एक पूरी दुनिया
शहर से हज़ारों कोसों दूर
वे स्वतंत्र हैं
स्वच्छंद नहीं
पीते हैं स्वच्छ जल
पाते स्वच्छ हवा
नहीं मिलती किसी चीज़ में मिलावट
मसलन- आदमी में भी नहीं
वे जानते हैं प्रकृति में अपना हिस्सा
जंगलों से लेते हैं
दुलारते हैं
उजाड़ते नहीं ईश्वर की बनाई हुई चीजों को
आधुनिक आदमी की तरह ।

जंगल-(5)
एक रंगीन हरी चादर ओढ़े हुए
गुजरता है पहाड़ों के बीच
किसी रंगीन लिबास सा लुभाता है
इस श्वेत धरा पर एक हसीन फूल सा
उमगता है जंगल

जंगल-(6)
सभ्यताओं के रक्त से
उगती हुई एक पहचान
तुम्हारे होने या ना होने के बीच की
कड़ी है

जंगल ने तुम्हें जब सिखाया
लोहे का पहिया बनाना
तुम तब से दौड़ रहे हो

तेज ,
और बहुत तेज
इतना तेज कि
तुमने छोड़ दिया है बहुत पीछे
नदियों, पर्वतों
जंगलों और झरनों का साथ

और दौड़ते ही जा रहे हो
जैसे
किसी तूफान के पूर्व
दौड़ती हैं चीटियाँ …

जंगल-(7)
इस जंगल को देखकर
मन में बस लिया इसकी हरियाली को
जंगली होने से बेहतर है
जंगलों के हो जाना

 

7. बटवारा

दीवार उठी
पक्के मकान में
दिलों के भीतर की कच्ची कोठरी ढह गई
मुकदमा चला
वकील
दलील
फैसले ने कच्ची कोठरी के मलबे पर मोहर लगाई…

 

8. समर्पण

मैं दरिया हूं
निश्चित है कि समुंदर में मिलूंगी
और तुम मेरे समुंदर हो
निश्चित है कि
मुझे अपने आगोश में लोगे
कुछ इस तरह मुझे अपने वजूद को
तुममें मिटाने की ख्वाहिश है।

 

9. सवाल

वे
आँखों में लिए सपने
करते हैं मंज़िलों का सफ़र
रास्ता जो चुना गया
या
थोपा गया था उनपर
चलने से पूर्व
वे एक रास्ते से गुज़ारे गये…

राह उतनी भी आसान नहीं
जितनी बतायी गयी
मंज़िल वह थी ही नहीं
जो दिखायी गयी
दोहराए गये इतिहास की चौखट पर
बार-बार
क्यों कुचले गए उनकी मुट्ठियों में बंद सपने …

एक सवाल
उफनती नदी सा
उफनता है बार बार।

 

10. एक बटा दो संसार के ख़्वाब

चाँद के चेहरे से
थोड़ी ताज़गी उधार ले लो
उजाला चुटकी में भरकर
बढ़ा दो रौनक़ें इस शहर की

उदास धूप कौन देखेगा अगले दिन
हमें इसी शाम की किरचों से सजाने हैं
अलबत्ता ये नाख़ुश चेहरे

कल्पना में गुम होकर याद करना
की सिरहाने उग आयी है नींद की बेल

हाथों में मल लो रात की गहराई
और एक बटा दो संसार के ख़्वाब

आओ चलो जीते हैं
दुनिया का बटबारा करके
रात डाल दो मेरी झोली में
ख़्वाबों भरी डाली तुम ले लो।

 

11. बुद्ध या बुद्धू

एक धूप के टुकड़े से
मैंने बनाए हैं कई रंग

टाँगा है उदासी को उपेक्षा के हैंगर पर
पोंछ दिया है तनाव चेहरे से
बेवजह हँसने का सलीक़ा सीखा है
अतीत को देखता हूँ दूर से ही बिना ओढ़े हुए
मनचाही जगह रोक देता हूँ ज़िन्दगी की गाड़ी
करता हूँ जी भर के मस्तियाँ

चिंता की चिता बनाकर कबका मार दिया मैंने
बिन बारिश के भीगता हूँ

सब मुझे बुद्धू कहते हैं
और मैं मुस्कुराता हूँ

मैं बुद्ध तो नहीं बन सकता
पर बुद्धू बनना चाहता हूँ
क्योंकि किसी ने कहा था

कि
या तो बुद्ध सुखी है,
या बुद्धू ।


कवयित्री प्रतिभा चौहान, जन्म-10 जुलाई, शिक्षा : रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली, उत्तर प्रदेश से एम० ए०( इतिहास ) एल. एल. बी.। प्रकाशन: प्रतिष्ठित राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

कृतियाँ

1. “जंगलों में पगडंडियाँ”(भारतीय ज्ञानपीठ व वाणी प्रकाशन से प्रकाशित आदिवासियों एवं जंगल को समर्पित कविता संग्रह),
2. “पेड़ों पर हैं मछलियाँ” (कविता संग्रह),
3. “बारहखड़ी से बाहर” (कविता संग्रह)
4. “युद्ध में जीवन” (प्रकाशनाधीन कविता संग्रह )
5. “स्टेट्स को”, (प्रकाशनाधीन कहानी संग्रह)

पुरस्कार/ सम्मान :
1.लक्ष्मीकान्त मिश्र स्मृति सम्मान, 2018 ,
2.राम प्रसाद बिस्मिल सम्मान, 2018,
3.स्वयंसिद्धा सृजन सम्मान, 2019,
4.तिलकामांझी राष्ट्रीय सम्मान, 2020,
5.IECSME वुमन एक्स्लेन्सी अवॉर्ड,2021,
6. निराला स्मृति सम्मान, 2022
7. अंतर्राष्ट्रीय तथागत सम्मान, 2023

संप्रतिः अपर जिला न्यायाधीश, बिहार न्यायिक सेवा

ईमेल: cjpratibha.singh@gmail.com

 

टिप्पणीकार शिरोमणि महतो, जन्मः 29 जुलाई 1973 को नावाडीह (झारखण्ड) में। शिक्षाः एम. ए. हिन्दी (प्रथम वर्ष) सृजनः देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। एक उपन्यास‘उपेक्षिता’ एवं दो काव्य-संग्रह ‘कभी अकेले नहीं’ और ‘भात का भूगोल’ प्रकाशित। पत्रिका ‘महुआ’ का सम्पादन। पुरस्कारः डॉ. रामबली परवाना स्मृति सम्मान, अबुआ कथा-कविता पुरस्कार, नागार्जुन स्मृति पुरस्कार.

संप्रतिः अध्यापन। सम्पर्कः नावाडीह, बोकारो (झारखण्ड) 829 144। मोबाइलः 09931552982

ई-मेलः shiromani_mahto@rediffmail.com

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