समकालीन जनमत
कविता

प्रज्ञा गुप्ता की कविताएँ जीवन के हर्ष और विलाप को समझने का उद्यम हैं

विपिन चौधरी


प्रज्ञा गुप्ता की कविताओं के उर्वर-प्रदेश में स्मृतियाँ, सपने, प्रेम, रिश्ते-नाते, स्त्रियों के दैनिक संघर्ष जैसे कई पक्ष आवाजाही करते हैं. उनकी कविताओं में एक ऐसी स्त्री नज़र आती है जो अपने वजूद को अपने परिवेश,अपने सगे-संबंधियों और तमाम सामाजिक हलचलों के बीच तलाश रही है, और उस स्त्री को प्रेम के अहाते में उतरकर स्वयं की एक नई और मौलिक दुनिया रच कर सृष्टिकर्ता बनने का भान है और प्रेम की लौकिकता पर विश्वास भी,

जब लड़की प्रेम करती है
तब वह सिर्फ प्रेम के बारे में ही सोच रही होती है

प्रज्ञा की कविताओं में मौजूद स्त्री यह भी जान रही है कि शुरू में सुखद लगने वाला प्रेम कई मुँह वाला साँप साबित होता है जो बार-बार उसे डसने तो तैयार बैठ रहता है और प्रेम में डूबी स्त्री के लिए जल्द ही वह स्थिति भी आ जाती है जब उसे अपने स्वाभिमान का भान होने लगता है,

पति से प्रेम करती हुई लड़की
बंध जाती है
पति के धर्म, जाति और संस्कार में
और तब वह पिता की जाति, धर्म
और संस्कार भी भूला नहीं पाती
दोनों के मध्य संक्रमण बिन्दु पर
बहुत दिनों से खड़ी है लड़की
तलाश रही है अपनी जाति, धर्म और संस्कृति

इसी मोड़ पर वह एक जागरूक स्त्री की तरह स्वयं की तलाश शुरू करती है और हम सब जानते हैं यह तलाश अनंत काल तक जारी रहने वाली है यह कोई एक स्त्री की तलाश नहीं है यह इस ब्रह्मांड की सभी स्त्रियों की सामूहिक तलाश है. लेकिन अपनी इस तलाश में हर स्त्री शुरू से अंत तक बिल्कुल अकेली ही है. इस तलाश की राह में कई जन्मों तक साथ निभाने की कसमें खाने वाला उसका साथी तो पहले ही उससे दूर छिटक गया है जिसने साथ देना तो दूर अपने तानों से स्त्री के जज़्बे को घायल करने की पुरज़ोर कोशिश की है और पितृसत्ता के स्थिर रहने तक पुरुष की ऐसी अनगिनत कोशिशें कभी मंद नहीं पड़ेंगी इस बात को भी प्रज्ञा की कविता में मौजूद स्त्री बखूबी जानती है.

खीजकर वह कहता है
कितनी बौड़म हो तुम
अखबार भी नहीं पढ़ती
हमेशा रहती अपने समय से पीछे
और आधी नींद में
अपने समय के साथ दौड़ती है स्त्री ( समय के साथ दौड़ती स्त्री)

स्वयं की तलाश के साथ-साथ प्रज्ञा गुप्ता की स्त्री को उस समाज से भी टकराना है जो प्रेम का कभी हितैषी नहीं रहा और जिसने प्रेम करने वाली सभी स्त्रियों के लिए खलनायक की भूमिका अदा की है और यह खलनायक हर मधुर भावना को अपने जूतों तले कुचल देना चाहता है.

उन दोनों के बीच
बस अभी-अभी ही तो
फूटा है प्रेम का कोंपल
और लोग हैं कि
डालियाँ तोड़ने की ताक में हैं ( कविता 4/ताक)

प्रज्ञा की स्त्री का एक बड़ा संसार है जिसमें सारी वे यादें हैं जो सबको करीब ले आती हैं ऐसी ही यादों में रची-बसी एक कविता है ‘उड़द की बड़ियाँ’ जो पाठकों को उनके कच्चे आँगन में ला खड़ा कर देती है और उस महक से जोड़ देती जिसका नाता मिट्टी से है खुशबू से है अपने बचपन से है आँचल से है,

मां की बड़ियों में मिला रहता
बड़की भौजी के हाथों का भी स्वाद
जिसे दो दिन पहले ही माँ हाँका भेजती थी
बड़ियाँ बनाने का
भौजी के साथ-साथ ननकी चाची भी आती
और ननकी चाची अपने साथ बासमती चावल भी लाती
वाह! कैसा तो महमह! गमकता रहता उनका आंचल!
मां, चाची और भौजी सब मिल-बैठ जब बड़ियाँ बनाती
ठक – ठक जूते बजाते हुए पिता
आंगन से गुजरते
तो ननकी चाची पिता से चुहल करतीं- “का हो छोटका …..देख… तो इ बड़ी दुनियां जइसन गोल आहे
कि नई “

स्मृतियों के पायों पर ही टिके कविता के इस संसार में प्रज्ञा गुप्ता कई सुंदर बिंबों के साथ उतरती है तो उसकी काव्य-मर्म की आर्द्रता का पता पाठक को मिल ही जाता है,

स्मृति बची रहती है
जैसे बारिश के बाद
धरती में नमी
या फिर यह बिम्ब देखिए,
स्मृति
दुलारती है
जैसे नवजात बछड़े को
आँगन में गैया

एक युवा कवयित्री के रूप में अभी प्रज्ञा गुप्ता की कविताएँ एक सजग नागरिक सी चौकन्नी हो कर चारों दिशाओं की तरफ देख रही हैं और चीजों को जानने-बूझने के क्रम में हैं. जीवन की विसंगतियों को मुस्तैदी से देखना और उन्हें अपने अंतर में उतार कर उनपर मंथन करने की निरंतर चलने वाली प्रक्रिया ही उनकी कविताओं को अधिक बेहतर बनाने में मदद करेगी. इस क्रम में वे एक सजग कवयित्री के तौर पर समय के घटते-बढ़ते क्रम की महज़ एक साक्षी ही नहीं बनी रहेंगी बल्कि समय की विसंगतियों पर प्रखर हस्तक्षेप कर अपने हिस्से का प्रतिरोध धर्म भी कायदे से निभा सकेंगी और जीवन को उस स्पष्टता से देख सकेंगी जिस साफ़गोई से देखने के लिए हमारा आपका सबका जीवन बना है.

 

प्रज्ञा गुप्ता की कविताएँ

1. स्मृति
स्मृति उतरती है
जैसे बारात के साथ
नई नवेली दुल्हन !

स्मृति
बजती है
जैसे अनाज ओसाते हुए
सूप का संगीत !

स्मृति
दुलराती है
जैसे नवजात बछड़े को
आंगन में गैया !

स्मृति
गमकती है
जैसे वन प्रांतर में
सखुआ के फूल!

स्मृति
लरजती है
जैसे मुख्य द्वार
पर मालती की लता !

स्मृति
भरती है उजास
जैसे किसान की आंखों में
नवान्न का दूध!

स्मृति
गुनगुनाती है
जैसे अल्हड़ किशोरी
कोई प्रेम गीत!

स्मृति बची रहती है
जैसे बारिश के बाद
धरती में नमी!

 

2. लड़की की आंखों में

लड़की की आंखों में सपना,
कि जैसे खिलती हुई कली,
कलाबाजी दिखाती हुई चिड़ियाँ, आकाश की ऊंचाई में
लहलहाती नीम की डाली
कि पेड़ की फुनगी पर डोलती पत्ती ,
लड़की की आंखों में बेबसी,
कि जैसे मुरझाई हुई पंखुड़ी
लड़की की आंखों में
बहुत कुछ!
कि एक जादू पुराना-
आंखों में पानी
पानी में तिनका
तिनके में बसी एक दुनिया!

 

3. मैं होना चाहती हूँ

मैं होना चाहती हूँ
अनंत यात्रा रत पाँव
नीम की ठंडी छाँव
जाड़े की गुनगुनी धूप
अमराई में कोयल की कूक

मैं होना चाहती हूँ
हरे -भरे खेतों में धान की एक बाली
श्रमरत बनिहारिन के चेहरे की लाली
उजाला भरती दीये की लौ और बाती
वृद्ध- दंपति के हाथों बेटे की पाती

मैं होना चाहती हूँ
चांद सलोने मुखड़े पर काजर का टीका
तपती दोपहरी में ठंडी हवा का झोंका
उदास मुखड़े पर आशा भरी मुस्कान
बेईमानी के बीच थोड़ा ईमान

मैं होना चाहती हूँ
गांव की पुरबैया बयार
पहाड़ी नदी की धार
माँ के आँचल ने जहां किया निहोरा
होना चाहती हूँ
तुलसी का वह चौरा

मैं होना चाहती हूँ
जिजीविषा रूपी भूख
अगाध सुख ,थोड़ा दुःख
जहाँ चढ़े पीढ़ियाँ दर पीढियां
होना चाहती हूँ वो सीढ़ियाँ।

 

4. ताक
उन दोनों के बीच
बस अभी-अभी ही तो
फूटा है प्रेम का कोंपल
और लोग हैं कि
डालियाँ तोड़ने की ताक में है

 

5. रोज एक खबर
स्त्री की लाश पर
रोज एक खबर है
भय का कुहासा घना होता जाता है
भय का समंदर
जब दहाड़ें मारता है
कितनी मुश्किल से छिपाता है
एक पिता
ऑटो से कॉलेज भेजते हुए
बेटी को

माँ दूध लेने के लिए जाती है
और एक खबर बन लौटती है
बच्चे भूख ,बेबसी और भय की नदी में
तिनके -सा डूबते उतराते हैं

गाय का चारा लाने गई है एक स्त्री
और खबर बन जाती है
गाय रंभाती रह जाती है आंगन में

एक बच्चा आधी नींद में
चुसकता है तकिए की कोर को ऑफिस से घर लौटती उसकी मां
खबर बन चुकी है अब

कल ही एक पति के झुलस गए हैं
बीते -अन बीते सारे बसंत
खबर की इस अग्नि में!

अभी-अभी लकड़ी चुनने गई है एक स्त्री
ईंधन के लिए
इंतजार में बच्चे
दरवाजे पर बैठे हैं
और करुणा अपना
सिर धुन रही है
एक स्त्री की लाश पर

 

6. समय के साथ दौड़ती स्त्री

सुबह के समय
उसके नसीब में नहीं है अखबार उसके हिस्से है दाल ,रोटी, सब्जी,
लंच का जुगाड़ और समय पर ऑफिस पहुंचने की टेंशन
और वह मुस्कुराते हुए कहता है कि तुम कितना अच्छा बनाती हो चाय
कोई बात नहीं शाम में पढ़ लेना अखबार
और व्यस्त हो जाती है वह अपनी रसोई में

पाक कला में कुशल
बहु रानी की तारीफें
ड्राइंग रूम में
रोज शाम बैठती है
मन मसोसकर मुस्कुरा देती है वह
सोचती है रात में पढ़ लूंगी अखबार

बिना मां के बिट्टू को नींद नहीं आती
सुलाकर जब अखबार ले बैठती है वह
और अनायास पूछ बैठती है पति से
बिट्टू के स्कूल में दाखिले का
कब तक है समय
खीझकर वह कहता है
कितनी बौडम हो तुम
अखबार भी नहीं पढ़ती
हमेशा रहती हो अपने समय से पीछे
और आधी नींद में
अपने समय के साथ दौड़ती है स्त्री।

 

7. प्रेम करती हुई लड़की

पिता से प्रेम करती हुई लड़की
खूब पढ़ना चाहती है
माँ से प्रेम करती हुई लड़की
सीखती है गोल – गोल रोटियां बनाना
भाई से प्रेम करती हुई लड़की
सीखती है साइकिल चलाना
बहन से प्रेम करती हुई लड़की
सीखती है स्वेटर बुनना
अपने गांव से प्रेम करती हुई लड़की
सीखती है शहर जाना।

पिता, माँ, भाई से प्रेम करती हुई लड़की
कभी नहीं चाहती कि उसके ब्याह के लिए
वर ढूंढते- ढूंढते पिता की पीठ झुक जाए
भाई की कलाई पर कर्ज चढ़ जाए
माई के सोने की सिकड़ी बिक जाए
इन सबसे प्रेम करती हुई लड़की
सीखती है आर्थिक रूप से सबल होना।

पिता भाई, माँ, गाँव,नौकरी
सबसे प्रेम करती हुई लड़की
के हृदय में धीरे-धीरे
जगता है जीवन के प्रति अनुराग
और वह सीख जाती है प्रेमी से प्रेम करना ।

प्रेमी से प्रेम करते हुई लड़की
पिता, भाई, माँ से नफरत कि
तो सोच भी नहीं सकती
जब लड़की प्रेम करती है
तब वह सिर्फ प्रेम के
बारे में सोच रही होती है
जाति धर्म संस्कृति
कभी नहीं आते उसके प्रेम के बीच में।
वह यह भी सोचती है
कि जाति- धर्म का क्या करना?
धीरे-धीरे सीख जाती है लड़की
प्रेम में विद्रोह करना।

प्रेम में विद्रोह करती हुई लड़की
प्रेम में धोखे के विषय में तो
सोचना भी नहीं जानती
प्रेमी से प्रेम करती हुई लड़की
धीरे-धीरे बंध जाती है
पति के धर्म ,जाति और संस्कार में
और तब वह पिता की जाति , धर्म
और संस्कार भी भूला नहीं पाती
दोनों के मध्य संक्रमण बिंदु पर
बहुत दिनों से खड़ी है लड़की
तलाश रही है अपनी जाति, धर्म और संस्कृति ।

दोनों के मध्य खड़ी सोचती लड़की
हृदय से अपना – पा रही है मात्र
अपनी माँ के संस्कार, माँ की लोरियां
ता ता थैया, सोन चिरैयाँ
गाती हुई लड़की धीरे-धीरे
सीख रही है जीवन- जीना।

बच्चों से प्रेम करती हुई लड़की
बना रही है अपनी माँ की तरह
सुंदर गोल-गोल रोटियां।

बच्चों के प्रेम में
रोटी बनाती हुई लड़की
रच रही है एक सुंदर कविता
जिसमें जाति , धर्म से परे है
गेहूं का आस्वाद ।
और है जिसमें किसी भी सत्ता से परे
प्रेम के शाश्वत संस्कार
और रोटी बनाती हुई लड़की
रचती ही जाती है एक अलग संसार।

 

8. उड़द की बड़ियाँ

खेत खलिहान का काम
समेट लिया जाता था
अगहन के आखिर तक
मां कहती अगहन की बड़ियो के स्वाद का कोई जोड़ नहीं
सो अगहन के आखिरी पख में
मां बड़ियाँ बनने का करतीं जुगाड़
तब आज की तरह छिले हुए उड़द नहीं मिलते
उड़द को फटक -चुन जांते में दरर कर पानी में भिंजा देती थी मां
रात में दाल धो रगड़ कर छिलके उतारतीं
सूप में रखकर पानी बार लेती
चार बजे भोर से ही पीसने बैठ जाती सिलबट्टे पर
छह पैला (किलो ) से कम तो कभी नहीं होती दाल
सुबह सात बजे तक दाल पीस कर फेंध लिया जाता
हींग और भुने मेथी की गंध से गमक जाता था पूरा घर
जब पीसी हुई उड़द की दाल में मिलाया जाता कद्दूकस किया हुआ रक्सा ( सफेद कोहड़ा )
मां जब बड़ियाँ बनाती
उसके हाथों में आ जाती थी
पृथ्वी की पूरी गोलाई
और जब बड़ियाँ सूख जातीं
तब हमें पता चलता
कि गोलाई लिए पृथ्वी थोड़ी चपटी भी है
छह पैला उड़द पीस कर बड़ी बनाना
कोई हंसी -ठट्ठा का खेल नहीं
उसके लिए चाहिए देह में समांग
जो अब नहीं है मां के पास
मां की बड़ियों को याद करते हुए
मैं भी बनाना चाहती हूं वैसी ही बड़ियाँ बड़ियाँ बना भी लूं तो वो स्वाद कहां से
लाऊं
मां की बड़ियों में मिला रहता
बड़की भौजी के हाथों का भी स्वाद
जिसे दो दिन पहले ही माँ हाँका भेजती थी
बड़ियाँ बनाने का
भौजी के साथ-साथ ननकी चाची भी आती
और ननकी चाची अपने साथ बासमती चावल भी लाती
वाह! कैसा तो महमह! गमकता रहता उनका आंचल!
मां, चाची और भौजी सब मिल- बैठ जब बड़ियाँ बनाती
ठक – ठक जूते बजाते हुए पिता
आंगन से गुजरते
तो ननकी चाची पिता से चुहल करतीं- “का हो छोटका …..देख… तो इ बड़ी दुनियां जइसन गोल आहे
कि नई ”
और उन बड़ियों में भी आ बसता हँसी -ठिठोली का स्वाद
भौजी की घूंघट तनिक और खिंच जाती
और बड़ियो में भी समा जाती थोड़ी तहजीब़ की अदा
बड़ियो की गंध लग जाती पड़ोस वाली बैदाइन काकी को
और माँ उन्हीं के लिए तो खोंसती थी बड़ियों में तीन-तीन लाल मिर्च
बैदाइन काकी की नजर बड़ी तीखी थी
सो बड़ियाँ जब सूख जातीं
उनको भी दिया जाता नज़राना पाव भर बड़ियों का
बड़ियो का स्वाद खरमास – वरमास नहीं देखता
गांव में ही ब्याही थी छोटकी फुआ दौड़ी आती कड़कड़ाती पूस में ही
मन भर शकरकंद की बोरी लेकर आतीं
शेर भर बड़ियाँ लेकर जाती
ये बड़ियो के स्वाद का ही कमाल था कि हमारी सझंली मौसी दिसंबर की छुट्टियों में
सिमडेगा के उस सुदूर गांव में पहुँचती थी हुलसते हुये
साथ मे तिलकूट का बैना लेकर
जिस दिन माँ रांधती बैगन और बड़ी का तियन
एकाध पैला चावल ज़्यादा पकता

चैतू काका धूप चढ़ते ही छोड़ देते बाड़ी का काम
भोजन की आस में
उसी दिन हमें समझ में आता
“घरी घरी बड़ी झोर” मुहावरे का अर्थ
मां की बड़ियों को याद करते हुए
याद आ रही है बड़की भौजी , ननकी चाची और छोटकी फुआ, संझली मौसी
साथ ही याद आ रही है “मगदली की आयो”
जो छह पैला उड़द दे बदले में धान ले जाती थी
पर एक पैला उड़द दे जाती थी यूँ ही लंब- संम
ताकि पाव भर बड़ी उसे भी मिल जाए बतौर लप-सप
और माँ को याद करते हुए बनाना चाह रही हूँ मैं
वैसी ही उड़द की बड़ियाँ।

 


कवयित्री प्रज्ञा गुप्ता का जन्म सिमडेगा जिले के सुदूर गांव ‘केरसई’ में 4 फरवरी 1984 को हुआ। प्रज्ञा गुप्ता की आरंभिक शिक्षा – दीक्षा गांव से ही हुई। उच्च शिक्षा रांची में प्राप्त की । 2000 ई.में इंटर। रांची विमेंस कॉलेज ,रांची से 2003 ई. में हिंदी ‘ प्रतिष्ठा’ में स्नातक। 2005 ई. में रांची विश्वविद्यालय रांची से हिंदी में स्नातकोत्तर की डिग्री। गोल्ड मेडलिस्ट। 2013 ई. में रांची विश्वविद्यालय से पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 2008 में रांची विमेंस कॉलेज के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति ।

संप्रति “ समय ,समाज एवं संस्कृति के संदर्भ में झारखंड का हिंदी कथा- साहित्य” विषय पर लेखन-कार्य।

विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तक- “ नागार्जुन के काव्य में प्रेम और प्रकृति”
संप्रति स्नातकोत्तर हिंदी विभाग रांची विमेंस कॉलेज रांची में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत।
पता- स्नातकोत्तर हिंदी विभाग ,रांची विमेंस कॉलेज ,रांची 834001 झारखंड।
मोबाइल नं-8809405914,ईमेल-prajnagupta2019@gmail.com

 

टिप्पणीकार विपिन चौधरी समकालीन स्त्री कविता का जाना-माना नाम हैं। वह एक कवयित्री होने के साथ-साथ कथाकार, अनुवादक और फ्रीलांस पत्रकार भी हैं.

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