समकालीन जनमत
कविता

सच के रास्तों ने दुर्गम ही बनाया है जीवन को : ज्योति चावला की कविताएँ

अनुपम त्रिपाठी


‘यह उनींदी रातों का सफर है’ ज्योति चावला का नया कविता संग्रह है। इस संग्रह में उनकी पचास कविताएँ संकलित हैं जोकि उनके स्त्रीवादी, राजनीतिक और कलात्मक समझ के प्रतिनिधि हैं।

इस संग्रह की कविताओं के केंद्र में एक स्त्री है जोकि दफ्तर जाती है, बच्चों का लालन पोषण करती है, उनके साथ खेल रही है और उनके मासूम परामर्शों को सुन रही है, अपने और अपनी बेटी के भविष्य के बारे में सोच रही है, वक्त वक्त पर अपनी माँ को याद कर रही है, और इस स्मरण के माध्यम से समूची स्त्री जाति के बारे में सोच रही है, वर्तमान समय में हो रही क्रूरताओं से वाकिफ है, खबरें देख रही है और उनके दुष्प्रभावों को समझ रही है, प्रेम में है, सोशल मीडिया पर एक्टिव है आदि आदि… यानी अपनी जीवनचर्या में घटित तमाम गतिविधियों को देखने सुनने वाली स्त्री। इन घटित गतिविधियों पर मनन करती स्त्री। वह जो देख सुन रही है सब लेकिन उसकी चुप्पी कहीं और व्यक्त हो रही है-
इतनी चुप कि ठूंसे ही जा रही हो चूल्हे में ईंधन
न जाने कितने बरसों से और उसकी आवाज़ तक नहीं देती सुनाई

मतलब यह कि ज्योति के इस कविता संग्रह में आपको परोक्ष रूप से एक स्त्री का आभास मिलेगा जोकि विभिन्न प्रकरणों के माध्यम से अपनी चिंताओं-भावनाओं को व्यक्त करती चलती है।

कविताओं में जो ‘मैं’ है वह कई वर्ग की स्त्रियों की पीड़ा को लेकर आती है। ज्योति रंगों का सहारा लेती हैं। रंग उनकी कविताओं के प्रॉप्स हैं। इस संग्रह में रंग कई रास्तों से आते हैं। रंग अभिव्यक्ति बनते हैं और इस तरह कि बेहद सामान्य– परिचित, जाने पहचाने, रोजनामचा में घुले हुए–दिखते हुए भी उनका किसी कविता में आना एक सच को लिए हुए आना है, ऐसा सच जो हमारी दिनचर्या में होते हुए भी ध्यान न दिए जाने योग्य हो। जैसे एक कविता है: उसे क्या पसंद है, इसकी परवाह किसी को नहीं — का एक हिस्सा देखें :
उसे रंगों में सबसे अधिक सफ़ेद रंग पसन्द था
बादलों के फाहों-सा उज्ज्वल, सफ़ेद कबूतरों-सा निष्पाप
आँख की पुतली के नीचे दबा अपनी पहचान तलाशता सफ़ेद रंग

लेकिन सफ़ेद को लेकर उसके भीतर ऐसा डर बसाया गया कि वह ख़्वाब में भी ख़ुद को सफ़ेद कपड़ों में नहीं देख पाती
उसके सपनों में नहीं आते थे सफ़ेद फूल
सफ़ेद अब उसकी ज़िन्दगी में केवल उसकी हँसी में रह गया था निश्छल और धुला – धुला

यह जो सफेद रंग है, जिसे हम देखते हैं, जीते हैं, जो हमारी दिनचर्या का हिस्सा है, जैसे हवा। लिए–छोड़े। जो ध्यान देने से परे है। ऐसा ही रंग है सफेद। जो प्रतीक है शांति का लेकिन शक्ति का भी। सांस्कृतिक उत्सवों का। पुरुष वर्ग उसे सभ्य का वरेण्य समझता है।

आयोजन, उत्सव, यज्ञ, हवन में वह श्वेत धारण करता है। उसे भाषण देना होगा तो श्वेत धारण करेगा। सुसंस्कृत दिखना होगा तो श्वेत धारण करेगा। लेकिन वही श्वेत जब स्त्री की इच्छाओं के इलाके में आए तो कैसे अपशगुन हो जाता है, अशुभ हो जाता है। याने जो तत्त्व जाने अनजाने एक पक्ष के लिए शुभ हो, दूसरे के लिए बाखबर अशुभ सिद्ध है।

यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि जीवनचर्या के बहुत हल्की घटनाओं से भी कैसे शोषण को प्रायोजित कर दिया गया है। इन छोटी छोटी बातों को जब कोई कविता में उतार लाता है तब उनसे बड़ी सचाइयों को उभारा जाता है।
इसी तरह वह एक कविता में कहती हैं कि :
समय जिसमें असहाय होकर रह जाएँ रंग, कलाएँ और भाषाएँ ऐसे समय को लोकतंत्र तो नहीं कहा जा सकता।
–कैसे एक सधे हुए वाक्य में वह हमारे समाज में चल रहे तमाम आंदोलनों को कह जाती हैं। यह इशारा किस ओर है? इसपर सोचने की जरूरत है। यह कैसा समय है जिसे लंबी प्रक्रिया के चलते निर्माण किया गया है जिसमें जो मनुष्य के लिए सबसे जरूरी है, जिनके होने से मनुष्य को मनुष्येतर भिन्न किया जाता है उसे ही असहाय कर दिया गया है। रंगों के अर्थ नहीं बचे। कलाएं वापस दरबार की ओर मुड़ती दिख रही हैं, उनके भीतर का ‘मुक्त’ कैद हो चुका है। और भाषा — जो सबसे अधिक असहाय हो चुकी। ऐसा नहीं कि चुप्पी हो, न — कहने सुनने से ज्यादा चिल्लाना चीखना और डराना धमकाना है। पत्रकारिता में जो आतताइयों की पैठ हो गई है, उससे समस्या को बताया नहीं, बल्कि कुछ अन्य सुनहरा दिखा कर उसे ढांक लिया जा रहा है।

एक कविता है ‘मेरे समय की भाषा’। इन दिनों जब अपराध और हिंसा बहुत ही ट्रेंड तरीके से, बहुत ही प्रायोजिक ढंग से बढ़ चुकी है, तब उसके प्रतिकार में एक अजीब सी सीधी चुप्पी दिखाई पड़ती है। कोई कुछ कहना नहीं चाहता है। घटनाएं देखना सुनना या उसका परिणाम झेलना — इतना तक समाज स्वीकृत कर रहा है लेकिन कह नहीं रहा कुछ। कहना बंद है। बोलने को संदिग्ध बना दिया गया है। यूं बहुत बहुत बोलने वाले बहुत बोल रहे हैं। और उनके श्रोता करालगाले बढ़ चुके हैं। ऐसे में यह चिंता इस कविता में दिखलाई पड़ती है।
इस कविता में एक पंक्ति है –
मेरे समय की भाषा ने ओढ़ ली है मृत देह की सी ठंडक
कैसा पैना वाक्य है। कितना मारक। ऊपर जिस न चुप्पी की बात कर रहा था उसका जैसे निचोड़ हो यह वाक्य। मरी देह की ठंडक– सोचने पर भी ध्यान नहीं आता कि अभिव्यक्ति को लेकर ऐसी वाक्य रचना और किसने की होगी!

तो हमारे समय की ऐसी चिंताओं को तथा इन असहाय स्थितियों को कविता में कहना एक जिम्मेदारी का काम है। कहना न होगा कि ज्योति की कविताएं हमारे समय की विसंगतियों का रिकॉर्ड हैं।

संग्रह की एक कविता है ‘तुम्हें गढ़ रही हूं मैं’। बहुत अच्छी कविता है। बहुत ही वैचारिक कविता भी। यह भी कह सकते हैं कि यह इस संग्रह की प्रतिनिधि कविता है। यह कविता ‘जिन्हें गढ़ा है पुरुषों ने’ से ‘तुम्हें गढ़ रही हूं मैं’ तक की यात्रा करती है। यह ‘रसोई से लेकर किताबों तक’ बढ़ आई स्त्री की कविता है। इस कविता के केंद्र में एक मां और उसका बच्चा है। यह कविता सीधे सीधे पितृसत्ता के सामने एक विकल्प रखती है। वह बच्चा जिसे मां गढ़ रही है वह एक नए समाज का प्रतीक बनता है जहां स्त्री पुरुष बराबरी का भेद मिटता है। वह कहती है —
कि धीरे-धीरे आकार लेते तुम
इस धरती को सुन्दर बनाने की दिशा में उठा हुआ एक कदम हो।
‘स्वप्न-पुरुष’ भी ज्योति की ऐसी ही एक कविता है जिसमें उस पुरुष की इच्छा जाहिर की गई है जो अपने पितृसत्तावादी रवैए को छोड़कर स्त्री के जीवन में प्रवेश करे :

एक ऐसा पुरुष जो नदी के जल-सा ठहरा हो अपने ही तटबंधों में
जिसमें हो तारों-भरे आसमान के बावजूद
झुककर सब कुछ लुटाने की सलाहियत
एक ऐसा पुरुष जो अपने पुरुष होने के एहसास को छोड़ आए
दरवाज़े से बाहर
और फिर प्रवेश करे एक स्त्री में

ज्योति की इन कविताओं की एक खास बात यह है कि यहाँ परिवार की उपस्थिति भी है। समझने की चीज है कि पितृसत्ता का गढ़ है परिवार संस्था और इन कविताओं में आने वाली स्त्री, बेटी, माँ, बेटा और पति पारिवारिक सूत्र में गुंथे हुए भी पितृसत्ता को तोड़ते हैं। उसे बदलने का स्वप्न देखते हैं। लेकिन इससे कहीं भी संबंधों में अनबन नहीं है। बल्कि उनमें परिपक्वता है। और आदर है।
पितृसत्ता को जो चीजें पोषती हैं यानी पारिवारिक ‘संस्कार’ / ट्रेनिंग / अनुशासन — यह कविताएँ उसे बदलती हैं। एक नई संभावनाएं रचती हैं।
बेटा और बेटी का भेद इन कविताओं में ख़त्म होता जाता है। जैसे बेटे को माँ गढ़ रही है वैसे ही अपनी बेटी में वह अपनी कल्पनाओं में बसी स्त्री का रूप देखती है —
तुम सिर्फ मेरी बच्ची नहीं
मेरी कल्पनाओं में बसी स्त्री का वह रूप हो
जिसे मैं हर पल और अधिक खिलते हुए देखना चाहती हूँ
और इस तरह तुम्हें जन्म देकर सृष्टि को बेहतर बनाने के क्रम में
अपनी भूमिका अदा करती हूँ।

क्रूरताओं से भरे हमारे समय में मनुष्यता की परवाह हैं ज्योति की कविताएँ। अपराध विकृतियां शोषण हिंसा का जिस तरह फैलाव है उससे एक भय पैदा होता है असुरक्षा का। असुरक्षित महसूस करना खुद का, अपने बच्चों का, अपने प्रियजनों का। इस संग्रह में कई ऐसी कविताएं हैं जिनमें इस भय को महसूस किया जा सकता है और उससे उपजी परवाह के मर्म को समझा जा सकता है। यह भय एक मां को अपने बच्चों से न मिल पाने की दुश्चिंताओं की हद तक है। —
अँधेरी खोहों और काले सायों से घिरा
यह कैसा समय है
इन दिनों मुझे हर शै डूबती-सी नज़र आती है
जैसे उसके पैरों की ज़मीन सिर्फ़ आभासी हो
मैं सड़क पर चलती हूँ तो लगता है कि
यूँ ही चलते-चलते जब दूर निकल आऊँगी मैं
यह सड़क बदलकर अपना चेहरा समा लेगी मुझे अपने भीतर और
मैं कभी लौट नहीं पाऊँगी इन्तज़ार करते अपने बच्चों तक
— यह चिंता किसी एक निम्न मध्यवर्गीय स्त्री की ही नहीं बल्कि हमारे समाज में घट रहे अपराधों के चलते उन सभी व्यक्तियों की चिंता है जो अपने परिजनों से प्यार करते हैं। ‘ये नन्ही बच्चियां हैं जिन्हें हिज्जे भी नहीं आते बलात्कार के’ ऐसी ही एक मार्मिक कविता है।

इस संग्रह में कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं जो भिन्न भिन्न वर्गों की स्त्रियों की दशाओं की व्यथा कहती हैं। एक कामकाजी स्त्री और एक गृहिणी स्त्री। याने एक स्त्री जो दफ्तर जा रही है, किताब पढ़ रही है और एक स्त्री जो घर के कामों में लगी है बेसुध। ‘वे बेसुध औरतें’ उन स्त्रियों पर केंद्रित है जोकि दिनभर घर के कामों में लगी रहती हैं। वह जिनके होने से घर के बाकी सदस्य सुखी हैं। बच्चे समय से स्कूल जा सकें, पति दफ्तर। वगैरह वगैरह। वह स्त्रियां जिनके हिस्से अनंत काम हैं लेकिन उसकी महत्ता को कभी परिवार में समझा नहीं गया। यह बहुत अच्छी कविता है। इसे पढ़ते ही अपने आस पास की महिलाओं पर ध्यान जाता है कि कैसे वो अपने कामों में डटी हुई हैं निःस्वार्थ भाव से :
बेसुध औरतें न हँसती हैं, न मुस्कुराती हैं
उन्हें तो यह भी वहम नहीं कि
उन्हीं के हाथों पर टिकी है उनकी गृहस्थी

संग्रह में संकलित ‘चांदनी ने नहीं देखी है चांदनी’ और ‘अफसाना नहीं जानती अफसाना होने का मतलब’ कविताएं भी बहुत अच्छी हैं। पहली कविता पहचान के संकट को बड़े ही जीवंत तरीके से पेश करती है। और दूसरी शोषण और यातना :
मैं पूछती हूँ अफ़साना से उसके होने के मानी
और वह खिड़की से बाहर पहरा दे रहे अपने
शौहर को देखती है तिरछी आँखों से
और चुपचाप उठकर चल देती है
मुझे उसकी पीठ पर दिखाई देती है एक कहानी
जिसका कोई सुखांत नहीं है।

ज्योति की कविताओं में जो दृश्य आते हैं वह बहुत ही सधे ढंग से व्यष्टि दुख को समष्टि दुख में तब्दील कर देते हैं। यानी एक सामान्य घटना भी परंपरा से चले आ रहे स्त्रियों के प्रति शोषण को पाठकों के सामने रख देती है।
‘मेट्रो और वह औरत’ ऐसी ही एक कविता है। ‘नौ माह की गर्भवती महिला और आत्महत्या’ इतनी मार्मिक कविता है कि क्या कहें। उसपर कुछ कहना अमानवीय होना है। पाठक उसे जरूर पढ़ें। इसी तरह ‘यह अभिनंदन युग है’ और ‘आजादी’ गहरी राजनीतिक बोध की कविताएँ हैं।
इस संग्रहणीय संग्रह का आवरण चित्र मशहूर फ्रांसीसी चित्रकार हेनरी मातीस का बनाया रेखांकन है।

 

 

1. मेरे समय की भाषा

मेरे समय की भाषा विस्मृति से गुज़र रही है
वह भूल गई है कि हमारे पुरखों ने रखे हैं
अपने समय के सबसे नुकीले सच भाषा के गर्भ में और
जन्मी हैं न जाने कितनी विद्रोही कविताएँ
जिन्होंने रास्ता दिखाया है जब अँधेरा सबसे अधिक घना था
मेरे समय की भाषा ने ओढ़ ली है मृत देह की सी ठंडक
अब नहीं उपजती कोई उष्मा उससे
नहीं तो क्रूरता के इस अट्टहास को देख
दौड़ता गर्म ख़ून उसकी रगों में और हिल जाते वे तख़्त जिन्हें गुरूर है
अपनी अजेयता का

मेरे समय की भाषा में पसरा है
ठंडा गाढ़ा अन्धकार कि
भूले से भी नहीं दिपदिपाता उम्मीद का कोई चिराग वहाँ
कवियों और बुद्धिजीवियों ने साध ली है गहरी चुप्पी
इतिहासकार व्यस्त हैं दिन को रात कहने की जद्दोजहद में
इस बीच मैं लिख रही हूँ एक कविता
किताब के छूटे हाशियों पर और सहमकर
बन्द कर देती हूँ किताब।

 

2. तुम्हें गढ़ रही हूँ मैं

केवल नौ ही बरस के हो तुम
और तुम्हारे चेहरे पर है नौ बरस की मासूमियत
जटिल से जटिल सवाल पूछते भी तुम
ऐसे लगते हो जैसे मैंने अभी ही जन्म दिया है तुम्हें
मेरे रक्त और मज्जा में लिपटे तुम सीने से लगे हो मेरे
तुम्हारी आवाज की नरमाई को पकड़ सकती हूँ बड़ी सरलता से
कौन-से वर्ण, कौन-से स्वर पर लरजती है तुम्हारी जबाँ
किन वर्णों की तह में छिपा है तुम्हारा तोतला बचपन

किताबें पढ़ते हुए चौंक जाते हो तुम आज भी
जादुई किस्सों पर
इन जादुई किस्सों से निकले जादूगर और राक्षस
सताते हैं तुम्हें रातभर
और तुम मेरे सीने में सिर धँसा सोना चाहते हो

पर अपनी नरम जबाँ में ही कह जाते हो तुम कुछ ऐसा
जिसे सुनने की चाहत रखती आई है हर स्त्री
किताबें पढ़ते हुए तुम उँगली रख देते हो
उन सभी दृश्यों, शब्दों, अर्थों और अर्थों के पीछे छिपे अर्थों पर
जिन्हें गढ़ा है पुरुषों ने

तुम पूछते हो सवाल कि रसोई से लेकर किताबों तक
कैसे चली आई वह औरत जो सदियों से चूल्हा जला रही है
कि क्यों भाषा खुद स्त्रीलिंग होते हुए भी
पोसती रही पितृसत्ता को
कि क्यों स्त्रियाँ दोयम ही रहीं हर भाषा में
कि क्यों नहीं आए स्त्रियों के जिम्मे वे सब काम
जिनमें वे स्वतंत्र खड़ी दिखाई दें निर्णय लेतीं
कि क्यों घर, चौखट, समाज से लेकर
किताबों तक में कमतर ही दिखाई देती हैं स्त्रियाँ

तुमने बने-बनाए साँचों और ढाँचों पर सवाल खड़े किए
तुम खड़े हुए हर उस जगह मेरे साथ
जहाँ मेरी व्याख्याओं को सन्देह की निगाह से देखा गया

मैं सोचती हूँ कि इस कच्ची उम्र में ही कहाँ से आई
तुममें वह सब समझने की सलाहियत
जिन्हें उम्रदराजों ने बेमानी कहकर छोड़ दिया
कैसे पढ़ लेते हो तुम वह सब जो लिखा भी नहीं गया
बल्कि जो छिपा है शब्दों और पंक्तियों के बीच की चुप्पियों में

फिर सोचती हूँ कि मेरी ही रक्त-मज्जा से जन्मे
शायद वही पुरुष हो तुम जिसे गढ़ना चाहती है हर स्त्री
कि धीरे-धीरे आकार लेते तुम
इस धरती को सुन्दर बनाने की दिशा में उठा हुआ एक कदम हो।

 

3. स्वप्न- पुरुष

एक स्त्री जो स्त्री होने की अपनी प्रक्रिया में है
एक अदद मुकम्मल स्त्री
तलाशती रही है अपने स्वप्न-पुरुष को सदियों से
वह तलाश रही है अपने लिए एक ऐसा साथी जो
समुद्र के पानी-सा असीम हो

एक ऐसा पुरुष जो नदी के जल-सा ठहरा हो अपने ही तटबंधों में
जिसमें हो तारों-भरे आसमान के बावजूद
झुककर सब कुछ लुटाने की सलाहियत
एक ऐसा पुरुष जो अपने पुरुष होने के एहसास को छोड़ आए
दरवाज़े से बाहर
और फिर प्रवेश करे एक स्त्री में

तुम जो मेरे जन्मों की तलाश हो, मिले मुझे आज कुछेक पलों के लिए
मेरे स्वप्न में ही और मैं नींद को सीने से लगाए सोती रही
मेरे उस स्वप्न में तुम थे मुझे बाँहों में थामे
और अपने होंठों को मेरे कानों से सटाए
और हम दोनों शायद किसी समाधि में थे
एक-दूसरे के होने के एहसास को जीते हुए
तुम बुदबुदा रहे थे क़ुरान की आयतें, या कोई गीत नया
तुम गुनगुना रहे थे कोई धुन, या कोई नज़्म मुलायम, नहीं जानती मैं
लेकिन उस पल तुम मुझे वैसे ही लगे जैसा होना चाहिए एक पुरुष को
सम्पूर्णत्व से परिपूर्ण और लदी शाख- सा झुका
तुम कोई सूफ़ी लगे मुझे उस पल जिसकी बाँहों कोई स्त्री नहीं
बल्कि उसका ख़ुदा हो, जिसकी इबादत में झुका हो उसका सिर
तुम में पुरुषों की तय परिभाषाओं का कुछ भी नहीं था
कुछ भी नहीं

तुम उस वक़्त सचमुच एक ऐसे पुरुष थे
जिसका ख़्वाब देखती है एक सम्पूर्ण स्त्री
और जिससे मिलती है वह केवल अपने स्वप्न में ही।

 

4. बुरी औरतें

बुरी औरतें अक्सर करती हैं बुरे-बुरे काम
काम रह जाते हैं अच्छे कामों की फ़ेहरिस्त से बाहर

वे जाने-अनजाने कर बैठती हैं प्रेम
और उसी में डूबने-उतराने लगती हैं।

बुरी औरतों के बुरे होने का औसत होता रहता है कम-ज्यादा
जिसने प्रेम करके उसे मन में दबा लिया
वह कम बुरी औरत है
जिसका प्रेम दिखता रहा खाने में नमक-तेल की मात्रा के घटने-बढ़ने पर
वे उस श्रेणी में आती हैं थोड़ी ऊपर
जिन औरतों ने दबी ज़बान में स्वीकार लिया अपने प्रेम को
वे औरतें बुरी औरतें कहलाती हैं जमाने भर की जबान से कुछ होती हैं बाग़ी औरतें भी
जो प्रेम में लाँघ जाती हैं सारी सीमाएँ

वे इस परिभाषा की पराकाष्ठा पर ठहराई जाती हैं
और मौक़ा देखते ही कर दिया जाता है उनका परिमार्जन
कि अधिक बुराई वहन नहीं कर सकती पृथ्वी

 

कुछ बुरी औरतें वे भी होती हैं
जो करती हैं सवाल बन्धन पर उसकी जकड़न पर
वे जिरह करती हैं दीवारों से
प्रश्न खड़े करती हैं दरवाजों पर

वे हवाओं को शक की निगाह से देखती हैं
और सवाल उठाती हैं उनके एक ही दिशा में चलने पर
वे ताक में रहती हैं क़िलों को भेदने की और
उड़ जाती हैं सुराख़-भर जगह से फुर्र कर
कुछ बुरी औरतें सपनों में करती हैं सुराख
और भागती रहती हैं हर रात
उनींदी आँखों में

कुछ लौट आती हैं अपने ही किए सुराख़ों के रास्ते वापस
और इस तरह कम और ज़्यादा बुरी औरत के
खाँचे में झूलती रहती हैं उम्र-भर

हो सके तो बचो ऐसी बुरी औरतों से
जो पृथ्वी और सूर्य की गति पर भी खड़े करती रहती हैं सवाल
धरती को अपने अक्स पर टिकाए रखने के लिए
बुरी औरतों से दूर रहना ज़रूरी है।

 

5. फेसबुक पर स्त्री
सुबह-सुबह मन्दिर में जलाती है दीया
दोनों हाथों की ओट से
पुचकारती है बच्चों को, लुटाती है मन-भर प्यार
और देकर माथे पर प्यारा-सा चुम्बन
भेजती है स्कूल उन्हें
घूमती है गृहस्थी के चारों ओर ऐसे
जैसे घूमती है पृथ्वी
उनकी मुट्ठी में रख अपनी आस्था और
विश्वास दिलाकर अपने प्रेम का चुराती है कुछ पल अपने लिए

बादलों में रख मन-भर बारिशें
सूरज में रख ज़रूरत-भर धूप
आँगन में रख नन्ही गौरैया और
हवाओं में रख मीठे झोंके
वह सजती है ख़ुद के लिए पल-भर
निहारती है ख़ुद को आइने में
तलाशती है वे सारी उम्मीदें जो
कर न पाई पूरी वह कभी वक़्त रहते
लेती है अपनी मनमोहक सेल्फ़ी स्मार्टफ़ोन से और
डाल देती है फेसबुक पर

वह रोज रख सिक्कों में खनक
हवाओं में खुशबू
झोली में दुआएँ और रसोई में नमक का सही-सही स्वाद
चुराती है कुछ पल नितान्त अपने लिए और
झाँक लेती है धीरे-से आँगन की देहरी के बाहर
वह फेसबुक पर बनाती है दोस्त
वह साझा करती है उन संग कुछ अनछुए एहसास
वह मुक्त कर देती है नन्हे-नन्हे जुगनुओं को जो
दफ़्न ही रहे उसके भीतर न जाने कब से

वह मुस्कुराती है और फिर खींचती है अपनी तस्वीर
और अपडेट कर देती है प्रोफाइल पिक्चर
वह कुछ देर रख देती है घर, आँगन, रसोई और
यहाँ तक कि मन्दिर के दीये को भी ऊँची टाल पर
और हवा हो जाना चाहती है

कुछ पल आज़ाद कर अपने जुगनुओं को
और भरकर नथुनों में सामर्थ्य-भर ताज़ी हवा
वह लौटा लाती है पुचकारकर उन्हें वापस अपनी मुट्ठी में
और उनमें से ही एक से
जलाती है शाम का दीया आँगन में।

 

6. बॉस्केट बॉल खेलती तुम

हाथ में लेकर बॉस्केट बॉल जब तुम
छलाँग लगाती हो बॉस्केट की तरफ
तो लगता है जैसे मेरे ही किसी अधूरे ख्वाब की
जिन्दा तस्वीर हो तुम

गेंद को लेकर दौड़ते, शूट करते, डिफेंस करते देख
ज्यों मेरे जीवन का कैनवस खिंचकर और बड़ा हो जाता है
इस कैनवस पर भरती हो तुम रंग कई
जो मेरे देखे रंगों की सीमा से बहुत-बहुत ज्यादा हैं

मुझे याद आती है कात्यायनी की कविता हॉकी खेलती लड़कियाँ
और उन्हीं के बीच से एक तुम खेल रही हो अपना खेल
अपने उत्साह और उमंग से
मैं एकबारगी सोचने लगती हूँ कि
तुम कात्यायनी की देखी लड़कियों से अलग हो शायद
या फिर उन्हीं में से एक

तुम खेलती हो और खेलती हैं तुम्हारी साथिनें
हवा में उछलकर ताली बजातीं, गेंद एक-दूसरे को पास करवाती
हर बॉस्केट पर हवा में मुट्ठी तानतीं

और अगली बॉस्केट के लिए और और दृढ़ हो जातीं तुम
जिद ठाने हो अपना सर्वोत्तम खेल जाने की

मेरी बच्ची, तुम्हें कात्यायनी की देखी लड़कियों से जाना है आगे
जिनके खेलकर लौटने पर
इन्तजार करते मिलते हैं उन्हें
देखने आए लड़के वाले
तुम बच्ची हो मेरी कल्पना सी खूबसूरत
तुम लौटोगी खेलकर तो खुश होंगे पिता
तुम्हारी ट्रॉफी हाथ में लेकर झूमेगा तुम्हारा भाई
हर प्रतियोगिता पर संबल बनकर खड़ी रहूँगी मैं

तुम छलाँग लगाओ अपने हिस्से की
और तोड़ लाओ आसमान से तारे और नक्षत्र कई
तुम झूमकर गिरो साथिनों पर
स्वागत करेगी धरती तुम्हारा
तुम्हारी तनी हुई मुट्ठी और मुस्कराती हुई भवें देखकर
फूल बरसा रही हैं सभी दिशाएँ

हॉकी खेलती लड़कियों से बॉस्केट बॉल खेलती तुम तक
हिन्दी कविता की यह यात्रा
दर्ज करे हर उस पहल को
जिससे बच्चियों की मुस्कुराहट का चाँद और और बड़ा होता जाए।

 

7. आज़ादी

यह कैसा विरोधाभास है
कि हमारी दुनिया में मनाया जा रहा है जश्न आज़ादी का
बाँटी जा रही है मिठाई और
इतिहास के पन्नों को धिक्कारा जा रहा है
जहाँ लिख दी गई थी गुलामी किस्मत में
लिखी जा रही है नई इबारत आज़ादी की
और दूसरी ओर
जिन्हें सही मायनों में होना था आज़ाद
वे बन्दूक़ों के साये में नजरबन्द हैं अपने ही घरों में।

 

8. नौ माह की गर्भवती महिला और आत्महत्या

मैं सोचती हूँ जिस समय उस औरत ने रखी होगी
जहर की गोली अपनी फक्क पड़ चुकी जीभ पर
ठीक उसी वक़्त नाभि के ठीक नीचे उसका नौ-माहा गर्भ
क्या कर रहा होगा

सोचती हूँ तो आँखों के सामने उभर आता है भीतर का दृश्य
वह नौ-माहा गर्भ उस वक़्त होगा शिकायत की मुद्रा में
कि देखो न माँ बढ़ गई हैं मेरी टाँगें
हाथ भी हो गए हैं लम्बे
नहीं समा पाता मैं तुम्हारे भीतर की इस छोटी-सी खोह मे
कितनी तो कम जगह है यहाँ
कोई खेल खिलौना भी नहीं बगल में कि बहला सकूँ अपना मन
और मेरे साथी हैं कि दौड़ते फिरते हैं
मैदान के एक छोर से दूसरे छोर तक सरपट

वह गुस्से में मारता होगा भीतर से लातें
कि तुम हो कि समझती ही नहीं
वह गुस्साता होगा, रूठता होगा अपनी माँ से
उस अचीन्ही और नन्ही-सी दुनिया में
पेट पर महसूस कर भीतर का स्पन्दन और हलचल
सहलाया होगा माँ ने और दिखाई होगी अपनी बेबसी

माँ के स्पर्श से भीग गया होगा शिशु भीतर तक
और अपने सद्य जन्मे रक्तिम होंठों से चूम ली होगी
पेट की भीतरी सतह ऐसे जैसे स्पर्श मात्र से ही
मिट गईं सारी शिकायतें उसकी

वह दिन-दिन पल-पल गिन रहा होगा और
होगा उतावला देखने को बाहर की दुनिया
सुना है उसने कि होती है जो रंग-बिरंगी
तितली के कोमल पंखों जैसी

नसों में उतरता, धीमे-धीमे घुलता ज़हर
जिसका कि रंग नीला है, स्याह नीला
जब पहुँचा होगा उस नन्ही जान तक
तो लगा होगा उसे जैसे उसकी बेचैनी देख
माँ ने भीतर ही भेज दिया है नीला आसमान

उसने बढ़ाए होंगे अपने नन्हे हाथ उस एकदम नए रंग की ओर
छुआ होगा उसके ओस-से नाजुक फाहों को अपनी जीभ से
कि नन्हे शिशु नहीं जानते जीभ के अतिरिक्त कोई भी अन्य स्वाद

वह होगा मुग्ध कि देखेगा जल्द ही तिलिस्मी दुनिया का अबूझ जादू
फैलाएगा अपने हाथ और पाँव पूरी अँगड़ाई के साथ
कि धीरे-धीरे बदलने लगा उसका भी रंग नीले फाहों में

और आज जब चौबीस घंटों से सो रही है
नौ-माहा गर्भवती की नीली देह निचाट कमरे में
वह नन्ही जान भी जैसे सो गई है भीतर ही
बाहर की दुनिया देखने के कभी न ख़त्म होनेवाले
इन्तज़ार के साथ।

 

9. सोनार किला और वह बच्चा

सोनार किले के सामने बैठ
गा रहा है वह छोटा बच्चा अपनी माँ बोली में कोई गीत
उसके साथ ताल दे रहे हैं कई गवैये
और लोग हैं कि झूम रहे हैं

रंगों से लबालब यह प्रदेश पुकारता है सदा
अपनी बेरंग दुनिया जब ऊबने लगते हैं हम
तो लौट लौट आते हैं इसकी रंग-बिरंगी और
सुरीली दुनिया में

अपने हाथों पर करताल देता वह बच्चा
गा रहा है पूरी उमंग से वह गीत-
पधारो म्हारे देस
और ऊबे-ऊँघे लोग डूबने लगते हैं सुरों में

जब सब की नजरें टिकी हैं उस बच्चे के सुरों पर
वह बच्चा गीत गाते हुए
देख रहा है आसमान में फड़फड़ाती पतंग को
जो बेसुध सी कटी जा रही है किसी अनजान दिशा में
बच्चे के चेहरे पर उतर आया है सोनार किले का सारा सोना

गीत गाते उस बच्चे का दिल
फलाँगते हुए दीवारें और मीनारें
चला गया है उस पतंग को लूटने और
उसकी देह और ज़ोर-ज़ोर से गा रही है गीत—
केसरिया बालम आवो नी
पधारो म्हारे देस।

 

10. लड़कियों को प्रेम नहीं करना चाहिए

आज जब तुम नहीं हो मेरे सामने
तुम्हारा अतीत मेरी आँखों के सामने खुल रहा है
देखती हूँ मैं कि कितनी चुप-सी हो तुम
इतनी चुप कि ठूंसे ही जा रही हो चूल्हे में ईंधन
न जाने कितने बरसों से और उसकी आवाज तक नहीं देती सुनाई

तुम चुप हो कि तुम्हें चुप्पियाँ ही सबसे अधिक लगीं सुरक्षित
पर आज जब मेरे सामने है तुम्हारा इतिहास
तो इन चुप्पियों के अँधेरे सीलन-भरे कोनों से
सुनाई दे रहे हैं हँसी के निश्छल ठहाके
ठहाके जो कभी तुमने लगाए थे निद्वंद्व होकर

तुमने लगाए ठहाके तो एक साथ न जाने कितनी जवान होती लड़कियाँ
अपनी शुचिता के सबूत जुटाने लगीं
तुमने लगाए ठहाके तो
कितनी ही पाठशालाएँ खुल गईं
जहाँ एक ही धुन में रटवाया जाने लगा पाठ
‘निष्कलंक’ होने का
जब तुम किसी की पीठ पर लिख रही थीं
अपने बेहद टटके प्यार का पहला ककहरा
वेदी पर खड़ी जवान लड़कियों की पूरी क़तार

 

एक-एक कर अग्नि परीक्षा से गुजरते हुए
अपनी शुद्धता के प्रमाण जुटा रही थी
फिर दफ़्न कर दिया गया तुम्हारे अभी-अभी पनपे प्रेम को
और क़समें दिलाई गई अग्नि के इर्द-गिर्द
होठों और इच्छाओं पर ताले जड़ने की
पहरेदार बैठाए गए चारों ओर
और तुम तब्दील कर दी गई एक ऐसी शै में
जिसके पास सिर्फ़ देह होती है
पर देह के भीतर कोई मन नहीं होता
उस पीठ पर जहाँ लिखा था तुमने अपने पहले प्रेम का पहला अक्षर
तब से रिस रहा है ख़ून उससे
और तुम हो कि चुप्पी में तब्दील हो गई हो

अब नहीं सुनाई देते तुम्हारी हँसी के निश्छल ठहाके
लेकिन सच कहूँ
तुम्हारी उदास चुप्पी का शोर रात-भर मेरे कानों में गूँजा करता है।


 

टिप्पणीकार अनुपम त्रिपाठी, साहित्य और संगीत में अभिरुचि। 

सम्पर्क: 8527826509
मेल: anupamtripathi556@gmail.com)

 

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