कल्पना पंत
‘प्राची से झरने वाली आशा का तो अंत नहीं’
एक पूरा दिन चंद्रकुँवर बर्त्वाल से संबंधित क्षेत्रों के भ्रमण में बीता. वह स्थान उडामण्डा जहाँ उन्होंने प्राथमिक शिक्षा ली, नागनाथ का वह मिडिल स्कूल जो अब इंटरमीडिएट कॉलेज है जिसके छात्रावास में वे रहे, अंग्रेजों का बनाया हुआ डाक बंगला जिसका अब केवल चिह्न बाकी है ,सब तरफ बाँज के पेड़ों का सघन अरण्य और अद्वितीय प्राकृतिक सुषमा जिसके बारे में चंद्रकुँवर बर्त्वाल ’नागनाथ” शीर्षक कविता में लिखते हैं-
ये बाँज पुराने पर्वत से/ये हिम से ठंडा पानी/ये फूल लाल संध्या से/इनकी यह डाल पुरानी.
मन यहीं बस गया है और यहाँ से जाने के उपरांत भी शायद बार-बार स्मृतियों से यह स्थान कभी विलग न होगा. बिहारी अपने एक दोहे में कहते हैं
“सघन कुंज छाया सुखद सीतल मंद समीर।/मनु वै जातु अजौं वहै, उहि जमुना के तीर।”
सो मेरा मन भी बार-बार इस मनोहर भूमि की यात्रा करता रहेगा जिसके सौंदर्य पर चंद्रकुँवर बर्त्वाल ने प्रकृति से संबंधित बेहतरीन कविताएँ लिखीं और जहाँ उन्होंने अन्याय के विरुद्ध अपनी, वाणी को स्वर दिया अचानक जंगल के भीतर से एक हिरन चौकड़ी भरता हुआ तीर की तरह निकल भागा अपरिमित सौंदर्य से भरा हुआ यह स्थान हिमवंत कवि की स्मृति का साक्षी है जिन्हें आलोचक प्रसाद पंत और निराला के समकक्ष रखते है.
चंद्रकुँवर बर्त्वाल की रचनाओं पर लगभग 23 पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं इनमें से केवल एक उनके जीवित रहते सन 1945 में उनके परम प्रिय मित्र शंभू प्रसाद बहुगुणा ने प्रकाशित की जिसका नाम है ’हिमवंत का एक कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल’
वस्तुतः चंद्रकुँवर बर्त्वाल की अल्प आयु में मृत्यु के बाद उनके मित्र शंभू प्रसाद बहुगुणा ने ही उन्हें व्यापक स्तर पर पहचान दिलाई .शेष सभी संग्रह नंदिनी-1946, विराट हॄदय 1950, नाट्य नंदिनी 1953, पयस्विनी 1941 ,साकेत परीक्षण 1950, गीत माधवी 1951, जीतू , प्रणयिनी 1952, कंकड़ पत्थर 1950, सुंदर असुंदर 1949, साकेत परीक्षण 1952, विराट ज्योति, मानस मंदाकिनी 1951, नागिनी, हिरण्यगर्भ कवि, काफल पाक्कू , 1952, उदय के द्वारों पर 1953, चंद्र कुंवर बर्त्वाल की कविताएं –भाग-1 1981, चंद्र कुंवर बर्त्वाल सन 1999, चंद्र कुंवर बर्त्वाल का कविता संसार 2004, चंद्र कुंवर 1999, में{ शंभू प्रसाद बहुगुणा, विश्वंभर प्रसाद डबराल , उमाशंकर सतीश , चंद्रकुंवर बर्त्वाल शोध संस्थान, उत्तराखंड देहरादून, बुद्धि वल्लभ थपलियाल द्वारा } एवं इतने फूल खिले 1997 में पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित हुआ है.
इस लेख को लिखने में योगम्बर सिंह बर्त्वाल द्वारा संकलित व संपादित पुस्तक चंद्रकुँवर बर्त्वाल का जीवन दर्शन एवम स्थानीय लोगों से वार्ताओं का आधार बनाया गया है. प्रधानतया इतने फूल खिले संग्रह में उपलब्ध कविताओं पर एक संक्षिप्त विवेचन उक्त आलेख में किया जा रहा है-
चंद्र कुमार बर्त्वाल की अधिकतर कविताओं में छायावाद की झांकी मिलती है. रचना काल की दृष्टि से उनमें प्रगतिवाद की भाव भूमि विद्यमान हैं. नंदिनी संग्रह की बेहद खूबसूरत कविता है जिसमें कवि प्रेम की अमरपुरी में रहने की कामना करते हुए कहता है-
मुझे प्रथम प्रेम की अमरपुरी में अब रहने दो/ अपना सब कुछ दे कर कुछ आँसू लेने दो.
कवि के मन में पहाड़ का सौंदर्य बसा है उसे समुद्र मैदान किसी की भी दरकार नहीं है_ मुझको पहाड़ ही प्यारे हैं शीर्षक कविता में कवि लिखता है- प्यारे समुद्र मैदान जिन्हें/ नित रहें उन्हें वही प्यारे/ मुझको तो हिम से भरे हुए /अपने पहाड़ ही प्यारे हैं.
नवयुग शीर्षक कविता मॆं कवि दुनिया मॆ भॆदभाव होने को असंगत ठहराता है . वह हर उस व्यक्ति को गर्व से भरने की बात करता है जो स्वयं को पशु सदृश गिनता है, जो सबके सामने नत रहता है. निराला के बादल राग की तरह कवि लिखता है –”आओ बर्बरता के शव पर अपने पग धर/ खिलो हँसी बनकर पीडित उर के अधरों पर/ करो मुक्त लक्ष्मी को धनियों के बंधन से/ खोलो सबके लिये द्वार सुख के नंदन के/ दो भूखों को अन्न और मृतकों को जीवन/ करो निराशों में आशा का बल का वितरण.”
काल नागिनी और यम अपने में विलक्षण कविताएँ हैं, काल नागिनी में एक विरोधाभास प्रतीत होता है ,कवि ज्योति के लिये काल नगिनी विशेषण का प्रयोग करता है- जो मेघ पुंज मॆ खेल रही है, बादलों को डस कर वह काल नागिनी अंधकार को ज्योतित करती है शायद यह पराधीनता का अंधकार है जिसके लिये ज्योति को काल नगिनी के रूप में आना पड़ा है. यम कविता मॆं कवि मृत्यु के चरणों में सहर्ष समर्पित होने को तत्पर है, कवि को 1939 से 1949 तक लखनऊ प्रवास के दौरान निराला का सानिध्य मिला. निराला के प्रति : मृत्युंजय कविता में वे लिखते हैं-
सहो अमर कवि/ अत्याचर सहो जीवन के/ सहो धरा के कंटक/ निष्ठुर वज्र गगन के/ कुपित देवता हैं /तुम पर/ हे कवि गा गाकर/ क्योंकि अमर करते तुम/ दु:ख सुख मर्त्य भुवन के/ कुपित दास हैं तुम पर/ हे कवि/ क्योंकि कभी न तुमनें / अपना शीश झुकाया/ गीत मुक्ति का गया/सहो अमर कवि/ अत्याचार सहो जीवन के.
मनुष्य कविता में मनुष्यता के पक्ष में कवि कहता है -स्वार्थ छोड़ यदि प्रेमभाव वह अपना लेता/जाने इस निराश पृथ्वी को क्या कर देता. मेघ कृपा कविता में कवि प्रकृति के और बारिश के विलक्षण सौंदर्य के चित्र मिलते हैं।
सन 1940 के बाद कवि ने मृत्यु के इस भय पर विजय प्राप्त कर ली नंदिनीके तृतीय खंड में उन्होंने लिखा –दुख ने ही मुझको प्रकाश का देश दिखाया/सुख ने मुझको हल्का सा ही राग सुनाया .
निराला की जूही की कली की तरह मुक्त छंद में उन्होंने नंदिनी में एक कविता लिखी है- उनके अधीर चुंबन जब मुझ पर झड़ते वह उन्मद स्वप्न देख मैं जगती . उनकी कंकड पत्थर कविता प्रगतिवाद की पीठिका मैं है
यह मोती नहीं है सुघर/ये न फूल पल्ल्व सुंदर/ये राहों में पड़ हुए/ धूल भरे कंकड –पत्थर
राजाओं उमरावों के/ पांवों से है घृणा इन्हें/ मजदूरों के पांवों को धरते ये अपने सिर पर
कालनागिनी ,यम, निराला के प्रति: मृत्यंजय, हिमालय, कलिदास के प्रति, हिमप्रात, हिमालय, निद्रित शैल जगेंगे, मेघ गरजा, मैं सूने शिखरों से आया, रजत चोटियां, संतोष इत्यादि इस संग्रह की मह्त्वपूर्ण कविताएँ हैं उन्होंने अमेरिका के प्रति , ब्रिटेन के प्रति , जिन्ना के लिये भी तीखी व्यंग्य कविताएँ भी लिखीं हैं सांप्रदायिकता के भी विरोध में वे कबीर की तरह खरा- खरा लिखते प्रतीत होते हैं गोविंद चातक ने इतने फूल खिले में सकलित अपने लेख मॆं पंडित और मौलवी पर उनक एक व्यंग्य उद्धृत किया है-
पंडित जी बोले: स्वर्ग लोक में संस्कृत बोली जाती है/ मुल्ला जी बोले अल्ला को अरबी जबान ही भाती है/ मुल्ला ने पकड़ी चोटी,पंडित जी की मोटी-मोटी; / और उधर पंडित जी ने दाढ़ी, मुल्ला जी की नोची झाड़ी/ एक पहर तक जोर शोर से लड आखिर मर गये अभागे.
, विश्व कल्याण व विश्व शांति की भावना भी उसके स्वरों में उभर कर आई है.
गोविंद चातक ने उन्हॆ सौंदर्यबोध, पीडा और चेतना के चंद्रकुंवर संबोधित किया है. मंगलेश डबराल इसी संग्रह में चंद्रकुंवर की वसीयत लेख में लिखते हैं- ’अपने उद्गगम को लौट रही अब बहना छोड नदी मेरी/ छोटे से अणु में डूब रही अब जीवन की पृथ्वी मेरी/ आंखॊं में सुख पिघल-पिघल ओंठो में में स्मिति भरता-भरता/ मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुंदर घाटी में मरता –कई वर्ष पहले पढ़ी हुई चंद्रकुँवर बर्त्वाल की ये पंक्तियां आज भी विचलित कर देती हैं. किसी नदी के अपने स्रोत की ओर, अपने जन्म की ओर लौटने का बिंब शायद किसी और कविता मॆं नहीं मिलता. चंद्रकुँवर छायावादी कवि माने जाते हैं. लेकिन यह छायवाद का भी परिचित बिंब नहीं है.”
उन्हें बहुत कम आयु मिली , मात्र अट्ठाईस वर्ष चौबीस दिन की आयु में 14 सितंबर 1947 में पँवालिया में कवि का देहावसान हो गया. इतने ही समय मे कवि ने विशद लेखन किया है , उसका कहना है- मैं मर जाऊंगा पर मेरे जीवन का आनंद नहीं/ झर जायेंगे पत्र कुसुम तरु पर मधु प्राण वसंतन नहीं./ सच है घन तम में खो जासते स्रोत सुनहले दिन के,/ पर प्राची से झरने वाली आशा का तो अंत नहीं.
चंद्रकुँवर बर्त्वाल की कुछ कविताएँ-
1-हे गिरि
हे गिरि,
चाहे कितनी ही सुंदर घाटी हो
कितने ही सुंदर वन हों पुलिनों पर चाहे
कैसी ही छवि हो गुंजन करती फूलों में
पर न रुकी सरिता रहती
अपने कूलों में.
2-नागनाथ
वे बाँज पुराने पर्वत से
यह हिम से ठंडा पानी
ये फूल लाल संध्या से
इनकी यह डाल पुरानी
इस खग का स्नॆह काफलों से
इसकी यह कूक पुरानी
पीले फूलों में काँप रही
पर्वत की जीर्ण जवानी
इस महापुरातन नगरी में
महाचकित है यह परदेसी
अन्मोल कूक, झँपती झुरमुट
गुँजार अनमोल पुरानी.
3–नदी
वह हिमगिरि के देवदारू- वन में है विचरण करती
नीरद कुंज बनाकर वह, शशि- बदनी सी रहती.
नहीं किसी ने पिये अमर झरते वे निर्झर
जिन पर रहते हिलते उसके सुमधुर अधर.
शशि आलिंगत सांध्य जलद –से गिरि पर सुंदर
रहते हिलते उसके अधर सुमधुर.
वह तट पर उल्लास छ्लक छ्लक कर बहती
पत्थर में वह फूल खिला फेनिल हो हँसती.
4–मेघकृपा
जिन पर मेघों के नयन झरे
वे सब अके सब हो गये हरे
पतझड़ का सुनकर करुण रुदन
जिसने उतार दे दिये वसन
उस पर निकले किशोर किसलय
कलियां निकली, निकला यौवन.
जिन पर वसंत की पवन चली
वे सब की सब खिल गयी कली,
सह स्वयं जेष्ठ की तीव्र तपन
जिसने अपने छायाश्रित जन
के लिये बनाई मधुर मही
लख उसे भरे नभ के लोचन.
लख जिभें गगन के नयन भरे
वे सब के सब हो गये हरे.
5–हिमालय
जो पवित्रता चंद्रप्रभा सी
इन शिखरों पर बिखरी
उसको दो मेरे जीवन को
योग्य गम्य के प्रहरी.
6- यम
सुनता हूँ गूँज रही
महिष की किंकिंणी
मेरे उर देश में
हे यम मूर्छित हो
पड़ी श्याम रजनी
इस कराल वेश में
आँखों में धूमकेतु
कठिन पाश कर में
महिष में चढ़े हुए.
हृदय में कठोर शिला
मुख में अंगारे
अलकें फुफकार रहे
काँप रही चरणों में
छिन्न भिन्न धरणी
सिहर रही काया.
भीमनाद प्राणों में
भैरव की छाया
मेरे उर देश में.
छोडं तुझे छिपी आज
पॄथ्वी तम गर्भ में
उठ रे नादान हॄदय.
7—संतोष
मुझे इसी में है संतोष
हिमगिरि में छोटा सा घर हो
धूप सेकने को दिनभर को
एक सुखद आँगन हो जिसमें
बहती रहे हवा निर्दोष!
आँखों के आगे हँसते हों
हिम के स्वच्छ शिखर झरते हों
जिनसे निकल निकल झरने
करते उपलों पर कलघोष!
चाह न हो कुछ भी पाने की
डर न किसी के खो जाने की
कट्ते रहें शन्ति से मेरे
नीरव प्रात .सुरम्य प्रदोष!
चाह न हो कुछ भी पाने की
डर न किसी के खो जाने की
कट्ते रहें शान्ति से मेरे
नीरव प्रात, सुरम्य प्रदोष!
मुझे न जग में कोई जाने
मुझे न परिचित भी पहचाने
रहूँ दूर मैं जहाँ हृदय को
छू न सकें पॄथ्वी के दोष!
वहाँ मधुर फूलों से घिरकर
विहगों की ध्वनियाँ सुन सुन कर
रहूँ खोजता गुन गुन कर में
अमर शांति का शुचि न्मधुकोश
मुझे इसी में है संतोष!
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टिप्पणीकार कवयित्री कल्पना पन्त, अध्ययन- नैनीताल अध्यापन- वनस्थली विद्यापीठ राजस्थान में प्रवक्ता हिन्दी के पद पर एक वर्ष कार्य तदनन्तर लोक सेवा आयोग राजस्थान से चयनित होकर राजकीय महाविद्यालय धौलपुर तथा राजकीय कला महाविद्यालय अलवर में तीन वर्ष और 1999 में लोकसेवा आयोग उ० प्र० द्वारा चयन के उपरान्त बागेश्वर , गोपेश्वर एवं ऋषिकेश के रा०स्ना०मेंअध्यापन, मई 2020 से सितबंर 2021 तक रा० म० थत्यूड़ में प्राचार्य पद पर,वर्तमान में श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय के त्रषिकेश परिसर में आचार्य
लेखन- पुस्तक-कुमाऊँ के ग्राम नाम-आधार सरंचना एवं भौगोलिक वितरण- पहाड प्रकाशन, 2004
कई पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख, समीक्षाएँ एवं कहानियाँ प्रकाशित
यू ट्यूब चैनल-साहित्य यात्रा
ब्लाग- मन बंजारा, दृष्टि
सम्पर्क: 8279798510
ईमेल: kalpanapnt@gmail.com